महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-167
दिखावट
← अनुशासनपर्व-166 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-167 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-168 → |
सनत्कुमारेण रुद्रंप्रति देहिदेहावयवाश्रितदेवताकथनपूर्वकं योगनिरूपणम्।। 1 ।।
`सनत्कुमार उवाच। | 13-167-1x |
प्रभवश्चाप्ययस्तात वर्णितस्तेऽनुपूर्वशः। तथाऽध्यात्माधेभूतं च तथैवात्राधिदैवतम्।। | 13-167-1a 13-167-1b |
निखिलेन तु वक्ष्यामि दैवतानि ह देहिनाम्। यान्याश्रितेषु देहेषु यानि पृच्छसि शङ्कर।। | 13-167-2a 13-167-2b |
वाच्यग्निस्त्वथ जिह्वायां सोमः प्राणे तु मारुतः। रूपे चाप्यथ नक्षत्रं जिह्वायां चाप एव तु।। | 13-167-3a 13-167-3b |
नाभ्यां समुद्रश्च विभुर्नखरोम तथैव च। वनस्पतिवनौषध्यस्त्वङ्गेषु मरुतस्तथा।। | 13-167-4a 13-167-4b |
संवत्सराः पर्वसु च आकाशे दैवमानुषे। उदाने विद्युदभवद्व्याने पर्जन्य एव च।। | 13-167-5a 13-167-5b |
स्तनयोरेव चाकाशं बले चेन्द्रस्तथैव च। मनसोऽप्यथ चेशानस्त्वपाने रुद्र एव च।। | 13-167-6a 13-167-6b |
गन्धर्वाप्सरसो व्याने सत्ये मित्रश्च शङ्कर। प्रज्ञायां वरुणश्चैव चक्षुष्यादित्य एव च।। | 13-167-7a 13-167-7b |
शरीरे पृथिवी चैव पादयोर्विष्णुरेव च। पायौ मित्रस्तथोपस्थे प्रजापतिररिंदम।। | 13-167-8a 13-167-8b |
मूर्ध्नि चैव दिशः प्राहुर्बुद्धौ ब्रह्मा प्रतिष्ठितः। बुध्यमानोऽऽत्मनिष्ठः स्यादधिष्ठाता तु शङ्करः।। | 13-167-9a 13-167-9b |
अबुद्धश्चाभवत्तस्माद्बुध्यमानान्न संशयः। आभ्यामन्यः परो बुद्धो वेदवादेषु शङ्कर।। | 13-167-10a 13-167-10b |
यदाश्रितानि देहेषु दैवतानि पृथक्पृथक्। योऽग्नये जायते नित्यमात्मयाजी समाहितः।। | 13-167-11a 13-167-11b |
य एवमनुपश्येत दैवतानि समाहितः। सोत्र योगी भवत्येव य एवमनुपश्यति। स सर्वज्ञयाजिभ्यो ह्यात्मयाजी विशिष्यते।। | 13-167-12a 13-167-12b 13-167-12c |
मुखे जुहोति यो नित्यं कृत्स्नं विश्वमिदं जगत्। सोत्मवित्प्रोच्यते तज्ज्ञैर्महादेव महात्मभिः।। | 13-167-13a 13-167-13b |
सर्वेभ्यः परमेभ्यो वै दैवतेभ्यो ह्यात्मयाजिना। गन्तव्यं परमाकाङ्क्षन्परमेव च चिन्तयन्।। | 13-167-14a 13-167-14b |
यथा संक्रमते देहाद्देही त्रिपुरसूदन। तथास्य स्थानमाख्यास्ये पृथक्त्वेनेह शङ्कर।। | 13-167-15a 13-167-15b |
पादाभ्यां वैष्णवं स्थानमाप्नोति विनियोजनात्। पायुना मित्रमाप्नोति उपस्थेन प्रजापतिम्।। | 13-167-16a 13-167-16b |
नाभ्या च वारुणं स्थानं स्तनाभ्यां तु भवो लभेत् बाहुभ्यां वासवं स्थानं श्रोत्राभ्यामाप्नुयाद्दिशः। आदित्यं चक्षुषा स्थानं मूर्ध्ना ब्रह्मण एव च।। | 13-167-17a 13-167-17b 13-167-17c |
अथ मूर्धसु यः प्राणान्धारयेत समाहितः। बुद्ध्या मानमवाप्नोति द्रव्यावस्थं च संशयः।। | 13-167-18a 13-167-18b |
अव्यक्तात्परमं शुद्धमप्रमेयमनामयम्। तमाहुः परमं नित्यं यद्यदाप्नोति बुद्धिमान्।। | 13-167-19a 13-167-19b |
बुध्यमानाप्रबुद्धाभ्यां स बुद्ध इति पठ्यते। बुध्यमानमबुद्धश्च नित्यमेवानुपश्यति।। | 13-167-20a 13-167-20b |
विकारपुरुषस्त्वेष बुध्यमान इति स्मृतः। पञ्चविंशतितत्वं तत्प्रोच्यते तत्र संशयः।। | 13-167-21a 13-167-21b |
स एष प्रकृतिस्थत्वात्तस्थुरित्युपदिश्यते। महानात्मा महादेव महानत्राधितिष्ठति।। | 13-167-22a 13-167-22b |
अधिष्ठानादधिष्ठाता प्रोच्यते शास्त्रदर्शनात्। एष चेतयते देव मोहजालमबुद्धिमान्।। | 13-167-23a 13-167-23b |
अव्यक्तस्यैव साधर्म्यमेतदाहुर्मनीषिणः। सोहं सोहमतो नित्यादज्ञानादिति मन्यते।। | 13-167-24a 13-167-24b |
यदि बुध्यति चैवायं मन्येयमिति भास्वरः। न प्रबुद्धो न वर्तेत पानीयं मत्स्यको यथा।। | 13-167-25a 13-167-25b |
देवता निखिलेनैताः प्रोक्तास्त्रिभुवनेश्वर। योगकृत्यं तु तावन्मे त्वं निबोधानुपूर्वशः।। | 13-167-26a 13-167-26b |
शून्यागारेष्वरण्येषु सागरे वा गुहासु वा। विष्टम्भयित्वा त्रीन्दण्डानवाप्तो ह्यद्वयो भवेत्।। | 13-167-27a 13-167-27b |
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वापि तथा पश्चान्मुखोपि वा। दक्षिणावदनो वापि बद्ध्वा विधिवदासनम्।। | 13-167-28a 13-167-28b |
स्वस्तिकेनोपसंविष्टः कायमुन्नाम्य भास्वरम्। यथोपदिष्टं गुरुणा तथा तद्ब्रह्म धारयेत्।। | 13-167-29a 13-167-29b |
लघ्वाहारो यतो दान्तस्त्रिकालपरिवर्जकः। मूत्रोत्सर्गपुरीषाभ्यामाहारे च समाहितः।। | 13-167-30a 13-167-30b |
शेषकालं तु युञ्जीत मनसा सुसमाहितः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसा विनिवर्तयेत्।। | 13-167-31a 13-167-31b |
मनस्तथैव सङ्गृह्य बुद्ध्या बुद्धिमतां वर। विधावमानं धैर्येण विस्फुरन्तमितस्ततः।। | 13-167-32a 13-167-32b |
निरुध्य सर्वसङ्कल्पांस्ततो वै स्थिरतां व्रजेत्। एकाग्रस्तद्विजानीयात्सर्वं गुह्यतमं परम्।। | 13-167-33a 13-167-33b |
निवातस्थ इवालोलो यथा दीपोऽतिदीप्यते। ऊर्ध्वमेव न तिर्यक्च तथैवाभ्रान्ति ते मनः।। | 13-167-34a 13-167-34b |
हृदिस्थस्तिष्ठते योसौ तस्यैवाभिमुखो यदा। मनो भवति देवेश पाषाणमिव निश्चलम्।। | 13-167-35a 13-167-35b |
स निर्जने विनिर्घोषे सघोषे चाऽऽवसञ्जने। युक्तो यो न विकम्पेत योगी योगविधिः श्रुतः।। | 13-167-36a 13-167-36b |
ततः पश्यति तद्ब्रह्म ज्वलदात्मनि संस्थितम्। विद्युदम्बुधरे यद्वत्तद्वदेकमनाश्रयम्।। | 13-167-37a 13-167-37b |
तमस्यगाधे तिष्ठन्तं निस्तमस्कमचेतनम्। चेतयानमचेतं च दीप्यमानं स्वतेजसा।। | 13-167-38a 13-167-38b |
अङ्गष्ठपर्वमात्रं तन्नैश्रेयसमनिन्दितम्। महद्भूतमनन्तं च स्वतन्त्रं विगतज्वरम्।। | 13-167-39a 13-167-39b |
ज्योतिषां ज्योतिषं देवं विष्णुमत्यन्तनिर्मलम्। नारायणमणीयांसमीश्वराणामधीश्वरम्।। | 13-167-40a 13-167-40b |
विश्वतः परमं नित्यं विश्वं नारायणं प्रभुम्। अविज्ञाय निमज्जन्ति लोकाः संसारसागरे।। | 13-167-41a 13-167-41b |
यं दृष्ट्वा यतयस्तात न शोचन्ति गतज्वराः। जन्ममृत्युभयान्मुक्तास्तीर्णाः संसारसागरम्।। | 13-167-42a 13-167-42b |
अणिमा लघिमा भूमा प्राप्तिः प्राकम्यमेव च। ईशित्वं च वशित्वं च यत्र कामावसायिता। एतदष्टुगुणं योगं योगानाममितं स्मृतम्।। | 13-167-43a 13-167-43b 13-167-43c |
दृष्ट्वात्मानं निरात्मानमप्रमेयं सनातनम्। ते विशन्ति शरीराणि योगेनानेन भास्वरम्। दैत्यदेवमनुष्याणां बलेन बलवत्तमाः।। | 13-167-44a 13-167-44b 13-167-44c |
एतत्तत्वमनाद्यन्तं यद्भवाननुपृच्छति। नित्यं वयमुपास्यामो योगधर्मं सनातनम्।। | 13-167-45a 13-167-45b |
योगधर्मान्न धर्मोस्ति गरीयान्सुरसत्तम। एतद्धर्म हि धर्माणामपुनर्भवसंस्कृतम्।। | 13-167-46a 13-167-46b |
तत्वतः परमस्तीस्ति केचिदाहुर्मनीषिणः। केचिदाहुः परं नास्ति ये ज्ञानफलमाश्रिताः।। | 13-167-47a 13-167-47b |
ज्ञानस्थः पुरुषस्त्वेष विकृतः स्वेन वर्णितः। ये ध्यानेनानुपश्यन्ति नित्यं योगपरायणाः।। | 13-167-48a 13-167-48b |
तमेव पुरुषं देवं केचिदेव महेश्वर। नित्यमन्यतमाः प्राहुर्ज्ञानं परमकं स्मृतम्।। | 13-167-49a 13-167-49b |
ज्ञानमेव विनिर्मुक्ताः सांख्या गच्छन्ति केवलम्। चिन्ताध्यात्मनि चान्यत्र योगाः परमबुद्धयः।। | 13-167-50a 13-167-50b |
उक्तमेतावदेतत्ते योगदर्शनमुत्तमम्। साङ्ख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्याविदर्शनम्।।' | 13-167-51a 13-167-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 167 ।। |
13-167-11 योऽग्निं याजयते नित्यमिति थ.पाठः।। 13-167-21 पञ्चविंशतिकं तत्वमिति थ.पाठः।। 13-167-27 त्रीन्दण्डानवाप्नोति च योगविदिति ट.पाठः।।
अनुशासनपर्व-166 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-168 |