महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-006
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युधिष्ठिरेण भीष्मंप्रत सविस्तरं विश्वामित्रचरित्रानुवादपूर्वकं तस्य ब्राह्मण्यप्राप्तिहेतुप्रश्नः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-6-1x |
ब्राह्मण्यं यदि दुष्प्राप्यं त्रिभिर्वर्णैर्नराधिप। कथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना।। | 13-6-1a 13-6-1b |
विश्वामित्रेण धर्मात्मन्ब्राह्मणत्वं नरर्षभ। श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-6-2a 13-6-2b |
तेन ह्यमितवीर्येण वसिष्ठस्य महात्मनः। हतं पुत्रशतं सद्यस्तपसाऽपि पितामह।। | 13-6-3a 13-6-3b |
यातुधानाश्च बहवो राक्षसास्तिग्मतेजसः। मन्युनाऽऽविष्टदेहेन सृष्टाः कालान्तकोपमाः।। | 13-6-4a 13-6-4b |
महान्कुशिकवंशश्च ब्रह्मर्षिशतसंकुलः। स्थापितो नरलोकेऽस्मिन्विद्वद्ब्राह्मणसंकुलः।। | 13-6-5a 13-6-5b |
ऋतीकस्यात्मजश्चैव शुनःशेपो महातपाः। विमोक्षितो महासत्रात्पशुतामप्युपागतः।। | 13-6-6a 13-6-6b |
हरिश्चन्द्रक्रतौ देवांस्तोषयित्वाऽऽत्मतेजसा। पुत्रतामनुसंप्राप्तो विश्वामित्रस्य धीमतः।। | 13-6-7a 13-6-7b |
नाभिवादयते ज्येष्ठं देवरातं नराधिप। पुत्राः पञ्चशतं चापि शप्ताः श्वपचतां गताः।। | 13-6-8a 13-6-8b |
त्रिशङ्कुर्बन्धुभिर्मुक्त ऐक्ष्वाकः प्रीतिपूर्वकम्। अवाक्शिरादिवं नीतो दक्षिणामाश्रितोदिशम्।। | 13-6-9a 13-6-9b |
विश्वामित्रस्य भगिनी नदी देवर्षिसेविता। कौशिकीति कृता पुण्या ब्रह्मर्षिसुरसेविता।। | 13-6-10a 13-6-10b |
तपोविघ्नकरी चैव पञ्चचूडा सुसंमता। रम्भा नामाप्सराः शापाद्यस्य शैलत्वमागता।। | 13-6-11a 13-6-11b |
तथैवास्य भयाद्बद्ध्वा वसिष्ठः सलिले पुरा। आत्मानं मञ्जयञ्श्रीमान्विपाशः पुनरुत्थितः।। | 13-6-12a 13-6-12b |
तदाप्रभृति पुण्या हि विपाशाऽभून्महानदी। विख्याता कर्मणा तेन वसिष्ठस्य महात्मनः।। | 13-6-13a 13-6-13b |
वश्यश्च भगवान्येन देवसेनाग्रगः प्रभुः। स्तुतः प्रीतमनाश्चासीच्छापाच्चैनममुञ्चत।। | 13-6-14a 13-6-14b |
ध्रुवस्यौत्तानपादस्य ब्रह्मर्षीणां तथैव च। मध्ये ज्वलति यो नित्यमुदीचीमाश्रितो दिशम्।। | 13-6-15a 13-6-15b |
तस्यैतानि च कर्माणि तथाऽन्यानि च कौरव। क्षत्रियस्येत्यतो जातमिदं कौहतूलं मम।। | 13-6-16a 13-6-16b |
किमेतदिति तत्त्वेन प्रब्रूहि भरतर्षभ। देहान्तरमनासाद्य कथं स ब्राह्मणोऽभवत्।। | 13-6-17a 13-6-17b |
एतत्तत्वेन मे तात सर्वमाख्यातुमर्हसि। मतङ्गस्य यथातत्त्वं तथैवैतद्वदस्व मे।। | 13-6-18a 13-6-18b |
स्थाने मतङ्गो ब्राह्मण्यं नालभद्भरतर्षभ। चण्डालयोनौजातो हि कथं ब्राह्मण्यमाप्तवान्।। | 13-6-19a 13-6-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानदर्मपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।। |
13-6-1 शुनःशेषो देवांस्तोषयित्वा तैर्मोक्षितः सन्पुत्रतां विश्वामित्रस्यानुसम्प्राप्त इत्युत्तरेण सम्बन्धः।। 13-6-8 नाभिवादयते न नमस्कुर्वन्ति। अनुस्वारलोष आर्षः। देवरातं देवैर्विश्वामित्राय दत्तं तेन च ज्येष्ठं कृतं सन्तम्। शप्ता येनेति शेषः।। 13-6-9 बन्धुभिर्मुक्तः। वसिष्ठशापेन चण्डालतां गतत्वात्। दिवं येन नीतः।। 13-6-11 पञ्च चूडाः वलयभेदा यस्याः सा।। 13-6-14 त्रिशङ्कुं याजयन्विश्वामित्रो वसिष्टपुत्रैः शप्तः श्वपचस्य याजकस्त्वं श्वपचो भविष्यसीति। तं शापमृतं कर्तुं विश्वामित्रः कस्यांचिदापदि श्वजाघनीं चौर्येणार्जयित्वा पक्तुमारेभे। तामिन्द्रः श्येनरूपेण हृतवान्। तावतैवायं शापान्मुक्तो ववर्ष चेन्द्र इति। देवसेनानामग्रगः श्रेष्ठ इन्द्रः।। 13-6-15 ज्वलति तारारूपेण।।
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