महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-206
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति स्वस्य चतुर्मुखत्वस्य नीलकण्ठतायाः पिनाककार्मुकताया वृषभवाहनत्वस्य च कारणाभिधानम्।। 1 ।।
नारद उवाच। | 13-206-1x |
क्षणज्ञा देवदेवस्य श्रोतुकामा प्रियं हितम्। उमादेवी महादेवमपृच्छत्पुनरेव तु।। | 13-206-1a 13-206-1b |
भगवन्देवदेवेश सर्वदेवनमस्कृत। चतुर्मुखो वै भगवानभवत्केन हेतुना।। | 13-206-2a 13-206-2b |
भगवन्केन ते वक्त्रमैन्द्रमद्भुतदर्शनम्। उत्तरं चापि भगवन्पश्चिमं शुभदर्शनम्। दक्षिणं च मुखं रौद्रं केनोर्ध्वं जटिलावृतम्।। | 13-206-3a 13-206-3b 13-206-3c |
यथादृशं महाभाग श्रोतुमिच्छामि कारणम्। एष मे संशयो देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-206-4a 13-206-4b |
महादेव उवाच। | 13-206-5x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि यत्त्वमिच्छसि भामिनि। पुराऽसुरो महाघोरौ लोकोद्वेगकरौ भृशम्।। | 13-206-5a 13-206-5b |
सुन्दोपसुन्दनामानावासतुर्बलगर्वितौ। अशस्त्रवध्यौ बलिनौ परस्परहितैषिणौ।। | 13-206-6a 13-206-6b |
तयोरेव विनाशाय निर्मिता विश्वकर्मणा। सर्वतः सारमुद्धृत्य तिलशो लोकपूजिता। तिलोत्तमेति विख्याता अप्सराः सा बभूव ह।। | 13-206-7a 13-206-7b 13-206-7c |
देवकार्यं करिष्यन्ती हासभावसमन्विता। सा तपस्यन्तमागम्य रूपेणाप्रतिमा भुवि।। | 13-206-8a 13-206-8b |
मया बहुमता चेयं देवकार्यं करिष्यति। इति मत्वा तदा चाहं कुर्वन्तीं मां प्रदक्षिणम्। तथैव तां दिदृक्षुश्च चतुर्वक्त्रोऽभवं प्रिये।। | 13-206-9a 13-206-9b 13-206-9c |
ऐन्द्रं मुखमिदं पूर्वं तपश्चर्यापरं सदा। दक्षिणं मे मुखं दिव्यं रौद्रं संहरति प्रजाः।। | 13-206-10a 13-206-10b |
लोककार्यपरं नित्यं पश्चिमं मे मुखं प्रिये। वेदानधीते सततमद्भुतं चोत्तरं मुखम्। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-206-11a 13-206-11b 13-206-11c |
उमोवाच। | 13-206-12x |
भगवञ्श्रोतुमिच्छामि शूलपाणे वरप्रद। किमर्थं नीलता कण्ठे भाति बर्हिनिभा तव।। | 13-206-12a 13-206-12b |
महेश्वर उवात। | 13-206-13x |
एतत्ते कथयिष्यामि शृणु देवि समाहिता।। | 13-206-13a |
पुरा युगान्तरे यत्नादमृतार्थं सुरासुरैः। बलवद्भिर्विमथितश्चिरकालं महोदधिः।। | 13-206-14a 13-206-14b |
रज्जुना नागराजेन मथ्यमाने महोदधौ। विषं तत्र समुद्भूतं सर्वलोकविनाशनम्।। | 13-206-15a 13-206-15b |
तद्दृष्ट्वा विबुधाः सर्वे तदा विमनसोऽभवन्। ग्रस्तं हि तन्मया देवि लोकानां हितकारणात्।। | 13-206-16a 13-206-16b |
तत्कृता नीलता चासीत्कण्ठे बर्हिनिभा शुभे। तदाप्रभृति चैवाहं नीलकण्ठ इति स्मृतः। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-206-17a 13-206-17b 13-206-17c |
उमोवाच। | 13-206-18x |
नीलकण्ठ नमस्तेऽस्तु सर्वलोकसुखावह। बहूनामायुधानां त्वं पिनाकं धर्मुमिच्छसि। किमर्थं देवदेवेश तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-206-18a 13-206-18b 13-206-18c |
महेश्वर उवाच। | 13-206-19x |
शस्त्रागमं ते वक्ष्यामि शृणु धर्म्यं शुचिस्मिते। युगान्तरे महादेवि कण्वो नाम महामुनिः।। | 13-206-19a 13-206-19b |
स हि दिव्यां तपश्चर्यां कर्तुमेवोपचक्रमे। तथा तस्य तपो घोरं चरतः कालपर्ययात्। वल्मीकं पुनरुद्भूतं तस्यैव शिरसि प्रिये।। | 13-206-20a 13-206-20b 13-206-20c |
वेणुर्वल्मीकसंयोगान्मूर्ध्नि तस्य बभूव ह। धरमाणश्च तत्सर्वं तपश्चर्यां तथाऽकरोत्।। | 13-206-21a 13-206-21b |
तस्मै ब्रह्मा वरं दातुं जगाम तपसार्चितः। दत्त्वा तस्मै वरं देवो वेणुं दृष्ट्वा त्वचिन्तयत्।। | 13-206-22a 13-206-22b |
लोककार्यं समुद्दिश्य वेणुनाऽनेन भामिनि। चिन्तयित्वा तमादाय कार्मुकार्थे न्ययोजयत्।। | 13-206-23a 13-206-23b |
विष्णोर्मम च सामर्थ्यं ज्ञात्वा लोकपितामहः। धनुषी द्वे तदा प्रादाद्विष्णवे च ममैव च।। | 13-206-24a 13-206-24b |
पिनाकं नाम मे चापं शार्ङ्गं नाम हरेर्धनुः। तृतीयमवशेषेण गाण्डीवमभवद्धनुः।। | 13-206-25a 13-206-25b |
तच्च सोमाय निर्दिश्य ब्रह्मा लोकं गतः पुनः। एतत्ते सर्वमाख्यातं शस्त्रागममनिन्दिते।। | 13-206-26a 13-206-26b |
उमोवाच। | 13-206-27x |
भगवन्देवदेवेश पिनाकपरमप्रिय। वाहनेषु तथाऽन्येषु सत्सु भूतपते तव।। | 13-206-27a 13-206-27b |
अयं तु वृषभः कस्माद्वाहनं स यथाऽभवत्। एष मे सशयो देव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-206-28a 13-206-28b |
महादेव उवाच। | 13-206-29x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि वाहनं स यथाऽभवत्।। | 13-206-29a |
आदिसर्गे पुरा गावः श्वेतवर्णाः शुचिस्मिते। बलसंहनना गावो दर्पयुक्ताश्चरन्ति ताः।। | 13-206-30a 13-206-30b |
अहं तु तप आतिष्ठं तस्मिन्काले शुभानने। एकपादश्चोर्ध्वबाहुर्लोकार्थं हिमवद्गिरौ।। | 13-206-31a 13-206-31b |
गावो मे पार्श्वमागम्य दर्पोत्सिक्ताः समन्ततः। स्थानभ्रंशं तदा देवि चक्रिरे बहुशस्तदा।। | 13-206-32a 13-206-32b |
अपचारेण वै तासां मनःक्षोभोऽभवन्मम। तस्माद्दग्धा यदा गावो रोषाविष्टेन चेतसा।। | 13-206-33a 13-206-33b |
तस्मिंस्तु व्यसने घोरे वर्तमाने पशून्प्रति। अनेन वृषभेणाहं शमितः सम्प्रसादनैः।। | 13-206-34a 13-206-34b |
तदाप्रभृति शान्ताश्च वर्णभेदत्वमागताः। श्वेतोऽयं वृषभो देवि पूर्वसंस्कारसंयुतः। वाहनत्वे ध्वजत्वे मे तदाप्रभृति योजितः।। | 13-206-35a 13-206-35b 13-206-35c |
तस्मान्मे गोपतित्वं च देवैर्गोभिश्च कल्पितम्। प्रसन्नश्चाभवं देवि तदा गोपतितां गतः।। | 13-206-36a 13-206-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षडधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 206 ।। |
अनुशासनपर्व-205 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-207 |