महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-003
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मण्यस्य क्षत्रियादिदौर्लभ्ये दृष्टान्ततया मतङ्गोपाख्यानकथनारम्भः।। 1 ।। तत्रेन्द्रमतङ्गसंवादानुवादारम्भः।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-3-1x |
प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च यथा भवान्। गुणैश्च विविधैः सर्वैर्वयसा च समन्वितः।। | 13-3-1a 13-3-1b |
भवान्विशिष्टो बुद्ध्या च प्रज्ञया तपसा तथा। `सर्वेषामेव जातानां सतामेतन्न संशयः।।' | 13-3-2a 13-3-2b |
तस्माद्भवन्तं पृच्छामि धर्मं धर्मभृतांवर। नान्यस्त्वदन्यो लोकेषु प्रष्टव्योस्ति नराधिप।। | 13-3-3a 13-3-3b |
क्षत्रियो यदि वा वैश्यः शूद्रो वा राजसत्तम। ब्राह्मण्यं प्राप्नुयाद्येन तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-3-4a 13-3-4b |
`ब्राह्मण्यं यदि दुष्प्रापं त्रिभिर्वर्णैर्नराधिप।' तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा। ब्राह्मण्यमथ चेदिच्छेत्कथं शक्यं पितामह।। | 13-3-5a 13-3-5b 13-3-5c |
भीष्म उवाच। | 13-3-6x |
ब्राह्मण्यमतिदुष्प्राप्यं वर्णैः क्षत्रादिभिस्त्रिभिः। परं हि सर्वभूतानां स्थानमेतद्युधिष्ठिर।। | 13-3-6a 13-3-6b |
बह्विस्तु संसरन्योनीर्जायमानः पुनःपनः। पर्याये तात कस्मिंश्चिद्ब्राह्मणो नाम जायते।। | 13-3-7a 13-3-7b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मतङ्गस्य च संवादं गर्दभ्याश्च युधिष्ठिर।। | 13-3-8a 13-3-8b |
द्विजातेः कस्यचित्तात तुल्यवर्णः सुतस्त्वभूत्। मतङ्गो नाम नाम्नाऽऽसीत्सर्वैः समुदितो गुणैः।। | 13-3-9a 13-3-9b |
स यज्ञकारः कौन्तेय पित्रोत्सृष्टः परंतप। प्रायाद्गर्दभयुक्तेन रथेनाप्याशुगामिना।। | 13-3-10a 13-3-10b |
स बालं गर्दभं राजन्वहन्तं मातुरन्तिके। निरविध्यत्प्रतोदेन नासिकायां पुनःपुनः।। | 13-3-11a 13-3-11b |
तं दृश्य नसि निर्भिन्नं गर्दभी पुत्रगृद्धिनी। उवाच मा शुचः पुत्र चण्डालस्त्वाभिविध्यति।। | 13-3-12a 13-3-12b |
ब्राह्मणो दारुणो नास्ति मैत्रो ब्राह्मण उच्यते। आचार्यः सर्वभूतानां शास्ता किं प्रहरिष्यति।। | 13-3-13a 13-3-13b |
अयं तु पापप्रकृतिर्बाले न कुरुते दयाम्। स्वयोनिं मानयत्येष भावो भावं नियच्छति।। | 13-3-14a 13-3-14b |
एतच्छ्रुत्वा मतङ्गस्तु दारुणं रासभीवचः। अवतीर्य रथात्तूर्णं रासभीं प्रत्यभाषत।। | 13-3-15a 13-3-15b |
ब्रूहि रासभि कल्याणि माता मे येन दूषिता। केन मां वेत्सि चण्डालं ब्राह्मण्यं केन मेऽनशत्। तत्त्वेनैतन्महाप्राज्ञे ब्रूहि सर्वमशेषतः।। | 13-3-16a 13-3-16b 13-3-16c |
गर्दभ्युवाच। | 13-3-17x |
ब्राह्मण्यां वृषलेन त्वं मत्तायां नापितेन ह। जातस्त्वमसि चण्डालो ब्राह्मण्यं तेन तेऽनशत्।। | 13-3-17a 13-3-17b |
एवमुक्तो मतङ्गस्तु प्रतिप्रायाद्गृहं पुनः। तमागतमभिप्रेक्ष्य पिता वाक्यमथाब्रवीत्।। | 13-3-18a 13-3-18b |
यस्त्वं यज्ञार्थसंसिद्धौ नियुक्तो गुरुकर्मणि। कस्मात्प्रतिनिवृत्तोसि कच्चिन्न कुशलं तव।। | 13-3-19a 13-3-19b |
मतङ्ग उवाच। | 13-3-20x |
अन्त्ययोनिरयोनिर्वा कथं स कुशली भवेत्। कुशलं तु कुतस्तस्य यस्येयं जननी पितः।। | 13-3-20a 13-3-20b |
ब्राह्मण्यां वृषलाञ्जातं पितर्वेदयते हि माम्। अमानुषी गर्दभीयं तस्मात्तप्स्ये तपो महत्।। | 13-3-21a 13-3-21b |
एवमुक्त्वा स पितरं प्रतस्थे कृतनिश्चयः। ततो गत्वा महारण्यमतपत्सुमहत्तपः।। | 13-3-22a 13-3-22b |
ततः स तापयामास विबुधांस्तपसाऽन्वितः। मतङ्गः सुसुखं प्रेप्सुः स्थानं सुचरितादपि।। | 13-3-23a 13-3-23b |
तं तथा तपसा युक्तमुवाच हरिवाहनः। मतङ्ग तप्स्यसे किं त्वं भोगानुत्सृज्य मानुषान्।। | 13-3-24a 13-3-24b |
वरं ददामि ते हन्त वृणीष्व त्वं यदिच्छसि। यच्चाप्यवाप्यं हृदि ते सर्वं तद्ब्रूहि मा चिरम्।। | 13-3-25a 13-3-25b |
मतङ्ग उवाच। | 13-3-26x |
ब्राह्मण्यं कामयानोऽहमिदमारब्धवांस्तपः। गच्छेयं तदवाप्येह वर एष वृतो मया।। | 13-3-26a 13-3-26b |
भीष्म उवाच। | 13-3-27x |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं तमुवाच पुरदरः। मतङ्ग दुर्लभमिदं विप्रत्वं प्रार्थ्यते त्वया।। | 13-3-27a 13-3-27b |
ब्राह्मण्यं प्रार्थयानस्त्वमप्राप्यमकृतात्मभिः। विनशिष्यसि दुर्बुद्धे तदुपारम मा चिरम्।। | 13-3-28a 13-3-28b |
श्रेष्ठं यत्सर्वभूतेषु तपो यदतिवर्तते। तदग्र्यं प्रार्थयानस्त्वमचिराद्विनशिष्यसि।। | 13-3-29a 13-3-29b |
देवतासुरमर्त्येषु यत्पवित्रं परं स्मृतम्। चण्डालयोनौ जातेन न तत्प्राप्यं कथञ्चन।। | 13-3-30a 13-3-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
13-3-1 वृत्तमाचारः। शीलं विनयः।। 13-3-4 ब्राह्मण्यं चेदिच्छेत्तर्हि केन प्राप्तुयात्तदिति अनुषज्य व्याख्येयम्।। 13-3-7 पर्याये आवृत्तौ जन्मनाम्।। 13-3-9 तुल्यवर्णः अन्यवर्णजोऽपि जातकर्मादिसंस्कारयोगात्तुल्यवर्णत्वं गतः। नाम प्रसिद्धम्।। 13-3-10 यज्ञकारः यज्ञं कारयन् आर्त्विज्यं कुर्वन्नित्यर्थः। प्रायात् अग्निचयनार्थमिष्टका आनेतुमित्यर्थाद्गम्यते।। 13-3-11 बालं अशिक्षितम्।। 13-3-14 बाले त्वयि। भावः जातिस्वभावः। भावं वुद्धिं नियच्छति मार्गान्तरादपकर्षति। भावं भावोऽधिगच्छतीति थ.ध.पाठः।। 13-3-15 करुणं रासभीवच इति ध.पाठः।। 13-3-19 संसिद्धौ संसिद्ध्यर्थम्।। 13-3-20 अन्त्ययोनिश्चण्डालजातिः। अयोनिस्तदन्यः कुत्सितयोनिः। तयोर्हीनकर्मतया कुशलित्वं नास्तीत्यर्थः।। 13-3-23 सुचरितात्तपसश्च हेतोः स्थानं ब्राह्मण्यं सुखेन प्रेप्सुर्विबुधांस्तापयामासेति सम्बन्धः।। 13-3-24 हरिवाहन इन्द्रः।।
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