महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-040
दिखावट
← अनुशासनपर्व-039 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-040 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-041 → |
ब्रह्मणा देवान्प्रति नारायणमहिमप्रतिपादकगरुडकश्यपसंवादानुवादः।। 1 ।।
`युधिष्ठर उवाच। | 13-40-1x |
आत्मन्यग्नौ समाध्नाय य एते कुरुनन्दन। द्विजातयो व्रतोपेता जपयज्ञपरायणाः।। | 13-40-1a 13-40-1b |
यजन्त्यारम्भयज्ञैश्च मानसं यज्ञमास्थिताः। अग्निभ्यश्च परं नास्ति येषामेषोऽव्यवस्थितः।। | 13-40-2a 13-40-2b |
तेषां गतिर्महाप्राज्ञ कीदृशी किम्पराश्च ते। एतदिच्छामि तत्वेन त्वत्तः श्रोतुं पितामह।। | 13-40-3a 13-40-3b |
भीष्म उवाच। | 13-40-4x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्। वैकुण्ठस्य च संवादं सुपर्णस्य च भारत।। | 13-40-4a 13-40-4b |
अमृतस्य समुत्पत्तौ देवानामसुरैः सह। षष्टिवर्षसहस्राणि दैवासुरमवर्तत। | 13-40-5a 13-40-5b |
तत्र देवास्तु दैतेयैर्वध्यन्ते भृशदारुणैः। त्रातारं नाधिगच्छन्ति वध्यमाना महासुरैः।। | 13-40-6a 13-40-6b |
आर्तास्ते देवदेवेशं प्रपन्नाः शरणैषिणः। पितामहं महाप्राज्ञं वध्यमानाः सुरेतरैः।। | 13-40-7a 13-40-7b |
ता दृष्ट्वा देवता ब्रह्मा सम्भ्रान्तेन्द्रियमानसः। वैकुण्ठं शरणं देवं प्रतिपेदे च तैः सह।। | 13-40-8a 13-40-8b |
ततः स देवैः सहितः पद्मयोनिर्नरेश्वर। तुष्टाव प्राञ्जलिर्भूत्वा नारायणमनामयम्।। | 13-40-9a 13-40-9b |
त्वद्रूपचिन्तनान्नाम्नां स्मरणादर्चनादपि। तपोयोगादिभिश्चैव श्रेयो यान्ति मनीषिणः।। | 13-40-10a 13-40-10b |
भक्तवत्सल पद्माक्ष परमेश्वर पापहन्। परमात्माऽविकाराद्य नारायण नमोंस्तु ते।। | 13-40-11a 13-40-11b |
नमस्ते सर्वलोकादे सर्वात्मामितविक्रम। सर्वभूतभविष्येश सर्वभूतमहेश्वर | 13-40-12a 13-40-12b |
देवानामपि देवस्त्वं सर्वविद्यापरायणः। जगद्वीजसमाहार जगतः परमो ह्यसि।। | 13-40-13a 13-40-13b |
त्रायस्व देवता वीर दानवाद्यैः सुपीडिताः। लोकांश्च लोकपालांश्च ऋषींश्च जयतांवर।। | 13-40-14a 13-40-14b |
वेदाः साङ्गोपनिषदः सरहस्याः ससङ्ग्रहाः। सोङ्काराः सवषट्काराः प्राहुस्त्वां यज्ञमुत्तमम्।। | 13-40-15a 13-40-15b |
पवित्राणां पवित्रं च मङ्गलानां च मङ्गलम्। तपस्विनां तपश्चैव दैवतं देवतास्वपि।। | 13-40-16a 13-40-16b |
एवमादिपुरस्कारैर्ऋक्सामयजुषां गणैः। वैकुण्ठं तुष्टुवुर्देवाः सर्वे ब्रह्मर्षिभिः सह।। | 13-40-17a 13-40-17b |
ततोऽन्तरिक्षे वागासीन्मेघगम्भीरनिस्वना। जेष्यध्वं दानवान्यूयं मयैव सह सङ्गरे।। | 13-40-18a 13-40-18b |
ततो देवगणानां च दानवानां च युध्यताम्। प्रादुरासीन्महातेजाः शार्ङ्गचक्रगदाधरः।। | 13-40-19a 13-40-19b |
सुपर्णपृष्ठमास्थाय तेजसा प्रदहन्निव। व्यधमद्दानवान्सर्वान्बाहुद्रविणतेजसा।। | 13-40-20a 13-40-20b |
तं समासाद्य समरे दैत्यदानवपुङ्गवाः। व्यनश्यन्त महाराज पतङ्गा इव पावकम्।। | 13-40-21a 13-40-21b |
स विजित्यासुरान्सर्वान्दानवांश्च महामतिः। पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-40-22a 13-40-22b |
तं दृष्ट्वान्तर्हितं देवा विष्णुं देवामितद्युतिम्। विस्मयोत्फुल्लनयना ब्रह्माणमिदमब्रुवन्।। | 13-40-23a 13-40-23b |
भगवन्सर्वलोकेश सर्वलोकपितामह। इदमत्यद्भुतं वृत्तं तन्नः शंसितुमर्हसि।। | 13-40-24a 13-40-24b |
दैवासुरेऽस्मिन्सङ्ग्रामे त्राता येन वयं विभो। एतद्विज्ञातुमिच्छामः कुतोसौ कश्च तत्वतः।। | 13-40-25a 13-40-25b |
कोऽयमस्मान्परित्राय तूष्णीमेव यथागतम्। प्रतिप्रयातो दिव्यात्मा तं नः शंसितुमर्हसि।। | 13-40-26a 13-40-26b |
एवमुक्तः सुरैः सर्वैर्वचनं वचनार्थवित्। उवाच पद्मनाभस्य पूर्वरूपं प्रति प्रभो।। | 13-40-27a 13-40-27b |
ब्रह्मोवाच। | 13-40-28x |
न ह्येनं वेद तत्वेन भुवनं भुवनेश्वरम्। सङ्ख्यातुं नैव चात्मानं निर्गुणं गुणिनां वरम्।। | 13-40-28a 13-40-28b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्। सुपर्णस्य च संवादमृषीणां चापि देवताः।। | 13-40-29a 13-40-29b |
पुरा ब्रह्मर्षयश्चैव सिद्दाश्च भुवनेश्वरम्। आश्रित्य हिमवत्पृष्ठे चक्रिरे विविधाः कथाः।। | 13-40-30a 13-40-30b |
तेषां कथयतां तत्र कथान्ते पततां वरः। प्रादुरासीन्महातेजा वाहश्चक्रगदाभृतः।। | 13-40-31a 13-40-31b |
स तानृषीन्समासाद्य विनयावनताननः। अवतीर्य महावीर्यस्तानृषीनभिजग्मिवान्।। | 13-40-32a 13-40-32b |
अभ्यर्चितः स ऋषिभिः स्वागतेन महाबलः। उपाविशत तेजस्वी भूमौ वेगवतां वरः।। | 13-40-33a 13-40-33b |
तमासीनं महात्मानं वैनतेयं महाद्युतिम्। ऋषयः परिपप्रच्छुर्महात्मानस्तपस्विनः।। | 13-40-34a 13-40-34b |
कौतूहलं वैनतेय परं नो हृदि वर्तते। तस्य नान्योस्ति वक्तेह त्वामृते पन्नगाशन।। | 13-40-35a 13-40-35b |
तदाख्यातमिहेच्छामो भवता प्रश्नमुत्तमम्। एवमुक्तः प्रत्युवाच प्राञ्जलिर्विनतासुतः।। | 13-40-36a 13-40-36b |
धन्योस्म्यनुगृहीतोस्मि यन्मां ब्रह्मर्षिसत्तमाः। प्रष्टव्यं प्रष्टुमिच्छन्ति प्रीतिमन्तोऽनसूयकाः।। | 13-40-37a 13-40-37b |
किं मया ब्रूत वक्तव्यं कार्यं च वदतां वराः। यूयं हि मां यथायुक्तं सर्वं वै प्रष्टुमर्हथ।। | 13-40-38a 13-40-38b |
नमस्कृत्वा ह्यनन्ताय ततस्त ऋषिसत्तमाः। प्रष्टुं प्रचक्रमुस्तत्र वैनतेयं महाबलम्।। | 13-40-39a 13-40-39b |
देवदेवं महात्मानं नारायणमनामयम्। भवानुपास्ते वरदं कुतोऽसौ कश्च तत्वतः।। | 13-40-40a 13-40-40b |
प्रकृतिर्विकृतिर्वाऽस्य कीदृशी क्वनु संस्थितिः। एतद्भवन्तं पृच्छामो देवोऽयं क्व कृतालयः।। | 13-40-41a 13-40-41b |
एथ भक्तप्रियो देवः प्रियभक्तस्तथैव च। त्वं प्रियश्चास्य भक्तश्च नान्यः काश्यप विद्यते।। | 13-40-42a 13-40-42b |
मुष्णन्निव मनश्चक्षूंष्यविभाव्यतनुर्विभुः। अनादिमध्यनिधनो न विद्मैनं कुतो ह्यसौ।। | 13-40-43a 13-40-43b |
वेदेष्वपि च विश्वात्मा गीयते न च विद्महे। तत्वतस्तत्वभूतात्मा विभुर्नित्यः सनातनः।। | 13-40-44a 13-40-44b |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। गुणाश्चैषां यथासङ्ख्यं भावाभावौ तथैव च।। | 13-40-45a 13-40-45b |
तमः सत्वं रजश्चैव भावाश्चैव तदात्मकाः। मनो बुद्धिश्च तेजश्च बुद्धिगम्यानि तत्वतः। जायन्ते तात तस्माद्धि तिष्ठते तेष्वसौ विभुः।। | 13-40-46a 13-40-46b 13-40-46c |
सञ्चिन्त्य बहुधा बुद्ध्या नाध्यवस्यामहे परम्। तस्य देवस्य तत्वेन तन्नः शंस यथातथम्।। | 13-40-47a 13-40-47b |
एतमेव परं प्रश्नं कौतूहलसमन्विताः। एवं भवन्तं पृच्छामस्तन्नः शंसितुमर्हसि।। | 13-40-48a 13-40-48b |
सुपर्ण उवाच। | 13-40-49x |
स्थूलतो यस्तु भगवांस्तेनैव स्वेन हेतुना। त्रैलोक्यस्य तु रक्षार्थं दृश्यते रूपमास्थितः।। | 13-40-49a 13-40-49b |
मया तु महदाश्चर्यं पुरा दृष्टं सनातने। देवे श्रीवत्सनिलये तच्छृणुध्वमशेषतः।। | 13-40-50a 13-40-50b |
न स्म शक्यो मया वेत्तुं न भवद्भिः कथञ्चन। यथा मां प्राह भगवांस्तथा तच्छ्रुयतां मम।। | 13-40-51a 13-40-51b |
मयाऽमृतं देवतानां मिषतामृषिसत्तमाः। हृतं विपाट्य तं यन्त्रं विद्राव्यामृतरक्षिणः।। | 13-40-52a 13-40-52b |
देवता विमुखीकृत्य सेन्द्राः समरुतो मृधे। उन्मथ्याशु गिरींश्चैव विक्षोभ्य च महोदधिं।। | 13-40-53a 13-40-53b |
तं दृष्ट्वा मम विक्रान्तं वागुवाचाशरीरिणी। प्रीतोस्मि ते वैनतेय कर्मणाऽनेन सुव्रत। अवृथा तेऽस्तु मद्वाक्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 13-40-54a 13-40-54b 13-40-54c |
तामेवंवादिनीं वाचमहं प्रत्युक्तवांस्तदा। ज्ञातुमिच्छामि कस्त्वं हि ततो मे दास्यसे वरम्। प्रकृतिर्विकृतिर्वा त्वं देवो वा दानवोपि वा।। | 13-40-55a 13-40-55b 13-40-55c |
ततो जलदगम्भीरं प्रहस्य वदतांवरः। उंवाच वरदः प्रीतः काले त्वं माऽभिवेत्स्यसि।। | 13-40-56a 13-40-56b |
वाहनं भव मे साधो वरं दद्मि तवोत्तमम्। न ते वीर्येण सदृशः कश्चिल्लोके भविष्यति।। | 13-40-57a 13-40-57b |
पतङ्ग पततांश्रेष्ठ न देवो नापि दानवः। मत्सखित्वमनुप्राप्तो दुर्धर्षश्च भविष्यसि।। | 13-40-58a 13-40-58b |
तमब्रवं देवदेवं मामेवंवादिनं परम्। प्रयतः प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रणम्य शिरसा विभुम्।। | 13-40-59a 13-40-59b |
एवमेतन्महाबाहो सर्वमेतद्भविष्यति। वाहनं ते भविष्यामि यथा वदति मां भवान्।। | 13-40-60a 13-40-60b |
मम चापि महाबुद्धे निश्चयं श्रूयतामिति। ध्वजस्तेऽहं भविष्यामि रथस्थस्य न संशयः।। | 13-40-61a 13-40-61b |
तथास्त्विति स मामुक्त्वा भूयः प्राह महामनाः। न ते गतिविघातोऽद्य भविष्यत्यमृतं विना।। | 13-40-62a 13-40-62b |
एवं कृत्वा तु समयं देवदेवः सनातनः। मामुक्त्वा साधयस्वेति यथाऽभिप्रायतो गतः।। | 13-40-63a 13-40-63b |
ततोऽहं कृतसंवादो येन केनापि सत्तमाः। कौतूहलसमाविष्टः पितरं कश्यपं गतः।। | 13-40-64a 13-40-64b |
सोहं पितरमासाद्य प्रणिपत्याभिवाद्य च। सर्वमेतद्यथातथ्यमुक्तवान्पितुरन्तिके।। | 13-40-65a 13-40-65b |
श्रुत्वा तु भगवान्मह्यं ध्यानमेवान्वपद्यत। स मुहूर्तमिव ध्यात्वा मामाह वदतां वरः।। | 13-40-66a 13-40-66b |
धन्योस्यनुगृहीतश्च यत्त्वं तेन महात्मना। संवादं कृतवांस्तात गुह्येन परमात्मना।। | 13-40-67a 13-40-67b |
स्थूलदृश्यः स भगवांस्तेन तेनैव हेतुना। दृश्यतेऽव्यक्तरूपस्थः प्रधानप्रभवाप्ययः।। | 13-40-68a 13-40-68b |
मया हि स महातेजा नान्ययोगसमाधिना। तपसोग्रेण तेजस्वी तोषितस्तपसांनिधिः।। | 13-40-69a 13-40-69b |
ततो मे दर्शयामास तोषयन्निव पुत्रक। श्वेतपीतारुणनिभः कद्रूकपिलपिङ्गलः।। | 13-40-70a 13-40-70b |
रक्तनीलासितनिभः सहस्रोदरपाणिमान्। द्विसाहस्रमहावक्त्र एकाक्षः शतलोचनः।। | 13-40-71a 13-40-71b |
अनिष्पन्दा निराहाराः समानाः सूर्यतेजसा। तमुपासन्ति परमं गुह्यमक्षरमव्ययम्।। | 13-40-72a 13-40-72b |
समासाद्य तु तं विश्वमहं मूर्ध्ना प्रणम्य च। ऋग्यजुःसामभिः स्तुत्वा शरण्यं शरणं गतः।। | 13-40-73a 13-40-73b |
महामेघौघधीरेण स्वरेण जयतांवरः। आभाष्य पुत्रपुत्रेति इदमाह धृतं वचः।। | 13-40-74a 13-40-74b |
त्वयाऽभ्युदयकामेन तपश्चीर्णं महामुने। अमुक्तस्त्वं समासङ्गैरविमुक्तोऽद्य पश्यसि।। | 13-40-75a 13-40-75b |
यदा सङ्गैर्विमुक्तश्च गतमोहो गतस्पृहः। भविष्यसि सदा ब्रह्म मामनुध्यास्यसे द्विज।। | 13-40-76a 13-40-76b |
ऐकान्तिकीं मतिं कृत्वा मद्भक्तो मत्परायणः। ज्ञास्यसे मां ततो ब्रह्मन्वीतमोहश्च तत्वतः।। | 13-40-77a 13-40-77b |
तेन त्वं कृतसंवादः स्वतः सर्वहितैषिणा। विश्वरूपेण देवेन पुरुषेण महात्मना। तमेवाराधय क्षिप्रं तमाराध्य न सीदसि।। | 13-40-78a 13-40-78b 13-40-78c |
सोहमेवं भगवता पित्रा ब्रह्मर्षिसत्तमाः। अनुनीतो यथान्यायं स्वमेव भवनं गतः।।' | 13-40-79a 13-40-79b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः।। 40 ।। |
अनुशासनपर्व-039 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-041 |