महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-090
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च्यवनेन कुशिकम्प्रति स्वस्य तद्गृहे निवासादेः कारणकथनम्।। 1 ।। तथा तस्य ब्राह्मण्यप्राप्तीच्छावगमेन तत्पौत्रादेस्तल्लाभवरदानम्।। 2 ।।
च्यवन उवाच। | 13-90-1x |
वरश्च गृह्यतां मत्तो यश्च ते संशयो हृदि। तं प्रब्रूदि नरश्रेष्ठ सर्वं सम्पादयामि ते।। | 13-90-1a 13-90-1b |
कुशिक उवाच। | 13-90-2x |
यदि प्रीतोसि भगवंस्ततो मे वद भार्गव। कारणं श्रोतुसिच्छमि मद्गृहे वासकारितम्।। | 13-90-2a 13-90-2b |
शयनं चैकपार्श्वेन दिवसानेकविंशतिम्। न किञ्चिदुक्त्वा गमनं बहिश्च मुनिपुङ्गवः।। | 13-90-3a 13-90-3b |
अन्तर्धानमकस्माच्च पुनरेव च दर्शनम्। पुनश्च शयनं विप्र दिवसानेकविंशतिम्।। | 13-90-4a 13-90-4b |
तैलाभ्यक्तस्य गमनं भोजनं च गृहे मम। समुपानीय विविधं यद्दग्धं जातवेदसा।। | 13-90-5a 13-90-5b |
निर्याणां च रथेनाशु सहसा यत्कृतं त्वया। धनानां च विसर्गश्च वनस्यापि च दर्शनम्।। | 13-90-6a 13-90-6b |
प्रासादानां बहूनां च काञ्चनानां महामुने। मणिविद्रुमपादानां पर्यङ्काणां च दर्शनम्।। | 13-90-7a 13-90-7b |
पुनश्चादर्शनं तस्य श्रोतुमिच्छामि कारणम्। अतीव ह्यत्र मुह्यामि चिन्तयानो भृगूद्वह।। | 13-90-8a 13-90-8b |
न चैवात्राधिगच्छामि सर्वस्यास्य विनिश्चयम्। एतदिच्छामि कार्त्स्न्येन सत्यं श्रोतुं तपोधन।। | 13-90-9a 13-90-9b |
च्यवन उवाच। | 13-90-10x |
शृणु सर्वमशेषेणि यदिदं येन हेतुना। न हि शक्यमनाख्यातुमेवं पृष्टेन पार्थिव।। | 13-90-10a 13-90-10b |
पितामहस्य वदतः पुरा देवसमागमे। श्रुतवानस्मि यद्राजंस्तन्मे निगदतः शृणु। | 13-90-11a 13-90-11b |
ब्रह्मक्षत्रविरोधेन भविता कुलसङ्करः। पौत्रस्ते भविता राजंस्तेजोवीर्यसमन्वितः।। | 13-90-12a 13-90-12b |
ततः स्वकुलरक्षार्थमहं त्वां समुपागतः। चिकीर्षन्कुशिकोच्छेदं संदिधक्षुः कुलं तव।। | 13-90-13a 13-90-13b |
ततोऽहमागम्य पुरे त्वामवोचं महीपते। नियमं कञ्चिदारप्सये शुश्रूषा क्रियतामिति।। | 13-90-14a 13-90-14b |
न च ते दुष्कृतं किञ्चिदहमासादयं गृहे। तेन जीवसि राजर्षे न भवेथास्त्वमन्यथा।। | 13-90-15a 13-90-15b |
एवं बुद्धिं समास्थाय दिवसानेकविंशतिम्। सुप्तोस्मि यदि मां कश्चिद्बोधयेदिति पार्थिव।। | 13-90-16a 13-90-16b |
यदा त्वया सभार्येण संसुप्तो न प्रबोधितः। अहं तदैव ते प्रीतो मनसा राजसत्तम।। | 13-90-17a 13-90-17b |
उत्थाय चास्मि निष्क्रान्तो यदि मां त्वं महीपते। पृच्छेः क्व यास्यसीत्येवं शपेयं त्वामिति प्रभो।। | 13-90-18a 13-90-18b |
अन्तर्हितः पुनश्चास्मि पुनरेव च ते गृहे। योगमास्थाय संसुप्तो दिवसानेकविंशतिम्।। | 13-90-19a 13-90-19b |
क्षुधितौ मामसूयेथां श्रमाद्वेति नराधिप। एतां बुद्धिं समास्थाय कर्शितौ वां क्षुधा मया।। | 13-90-20a 13-90-20b |
न च तेऽभूत्सुसूक्ष्मोपि मन्युर्मनसि पार्थिव। सभार्यस्य नरश्रेष्ठ तेन ते प्रीतिमानहम्।। | 13-90-21a 13-90-21b |
भोजनं च समानाय्य यत्तदादीपितं मया। क्रुध्येथा यदि मात्सर्यादिति तन्मर्षितं च मे।। | 13-90-22a 13-90-22b |
ततोऽहं रथमारुह्य त्वामवोचं नराधिप। सभार्यो मां वहस्वेति तच्च त्वं कृतवांस्तथा।। | 13-90-23a 13-90-23b |
अविशङ्को नरपते प्रीतोऽहं चापि तेन ह। धनोत्सर्गेऽपि च कृते न त्वां क्रोधोप्यधर्षयत्।। | 13-90-24a 13-90-24b |
ततः प्रीतेन ते राजन्पुनरेतत्कृतं तव। सभार्यस्य वनं भूयस्तद्विद्धि मनुजाधिप।। | 13-90-25a 13-90-25b |
प्रीत्यर्थं तव चैतन्मे स्वर्गसंदर्शनं कृतम्। यत्ते वनेऽस्मिन्नृपते दृष्टं दिव्यं सुदर्शनम्।। | 13-90-26a 13-90-26b |
स्वर्गोद्देशस्त्वया राजन्सशरीरेण पार्थिव। मुहूर्तमनुभूतोऽसौ सभार्येण नृपोत्तम।। | 13-90-27a 13-90-27b |
निदर्शनार्थं तपसो धर्मस्य च नराधिप। तत्र नासीत्स्पृहा राजंस्तच्चापि विदितं मया।। | 13-90-28a 13-90-28b |
ब्राह्मण्यं काङ्क्षसे हि त्वं तपश्च पृथिवीपते। अवमत्य नरेन्द्रत्वं देवेन्द्रत्वं च पार्थिव।। | 13-90-29a 13-90-29b |
एवमेतद्यथातत्वं ब्राह्मण्यं तात दुर्लभम्। ब्राह्मण्ये सति चर्षित्वमृषित्वे च तपस्विता।। | 13-90-30a 13-90-30b |
भविष्यत्येष ते कामः कुशिकात्कौशिको द्विजः।। | 13-90-31a |
तृतीयं पुरुषं प्राप्य ब्राह्मणत्वं गमिष्यति। वंशस्ते पार्थिवश्रेष्ठ भृगूणामेव तेजसा।। | 13-90-32a 13-90-32b |
पौत्रस्ते भविता विप्रस्तपस्वी पावकद्युतिः। `जमदग्नौ महाभाग तपसा भावितात्मनि।।' | 13-90-33a 13-90-33b |
यः स देवमनुष्याणआं भयमुत्पादयिष्यति। त्रयाणामेव लोकानां सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 13-90-34a 13-90-34b |
वरं गृहाण राजर्षे यस्ते मनसि वर्तते। तीर्थयात्रां गमिष्यामि पुरा कालोऽतिवर्तते।। | 13-90-35a 13-90-35b |
कुशिक उवाच। | 13-90-36x |
एष एव वरो मेऽद्य यत्त्वं प्रीतो महामुने। भवत्वेतद्यथार्थत्वं भवेत्पौत्रो ममानघ।। | 13-90-36a 13-90-36b |
ब्राह्मण्यं मे कुलस्यास्तु भगवन्नेष मे वरः। पुनश्चाख्यातुमिच्छामि भगवन्विस्तरेण वै।। | 13-90-37a 13-90-37b |
कथमेष्यति विप्रत्वं कुलं मे भृगुनन्दन। कश्चासौ भविता बन्धुर्मम कश्चापि सम्मतः।। | 13-90-38a 13-90-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि नवतितमोऽध्यायः।। 90 ।। |
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