महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-143
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सम्भूय तीर्थयात्रां कुर्वद्भिर्द्विजर्षिभी राजर्षिभिश्च क्रमेण ब्रह्मसरःप्रति गमनम्।। 1 ।। तत्रागस्त्येन ह्रदात्समुद्धृतपद्मस्य धर्मशुश्रूषुणेन्द्रेण गूढमपहारे ऋषिभी राजभिश्च स्वेषु पुष्करस्तेयं शङ्कमानमगस्त्यंप्रति प्रत्येकशो नानाशपथकरणम्।। 2 ।।
पश्चादिन्द्रेण स्वस्वरूपप्रकाशनपूर्वकं स्वेन पुष्करापहारस्य प्रयोजननिवेदनेन तत्प्रसादनम्।। 3
भीष्म उवाच। | 13-143-1x |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। यद्वृत्तं तीर्थयात्रायां शपथं प्रति तच्छृणु।। | 13-143-1a 13-143-1b |
पुष्करार्थं कृतं स्तैन्यं पुरा भरतसत्तम। राजर्षिभिर्महाराज तथैव च द्विजर्षिभिः।। | 13-143-2a 13-143-2b |
पुरा प्रभासे ऋषयः समग्राः समेता वै मन्त्रममन्त्रयन्त। चराम सर्वां पृथिवीं पुण्यतीर्थां तन्नः कामं हन्त गच्छाम सर्वे।। | 13-143-3a 13-143-3b 13-143-3c 13-143-3d |
शुक्रोऽङ्गिराश्चैव कविश्च विद्वां- स्तथा ह्यगस्त्यो नारदपर्वतौ च। भृगुर्वसिष्ठः कश्यपो गौतमश्च विश्वामित्रो जमदग्निश्च राजन्।। | 13-143-4a 13-143-4b 13-143-4c 13-143-4d |
ऋषिस्तथा गालवोऽथाष्टकश्च भरद्वाजोऽरुन्धती वालखिल्याः। शिबिर्दिलीपो नहुषोऽम्बरीषो राजा ययातिर्धुन्धुमारोऽथ पूरुः।। | 13-143-5a 13-143-5b 13-143-5c 13-143-5d |
जग्मुः पुरस्कृत्य महानुभावं शतक्रतुं वृत्रहणं नरेन्द्राः। तीर्थानि सर्वाणि परिभ्रमन्तो माघ्यां ययुः कौशिकीं पुण्यतीर्थाम्।। | 13-143-6a 13-143-6b 13-143-6c 13-143-6d |
सर्वेषु तीर्थेष्ववधूतपापा जग्मुस्ततो ब्रह्मसरः सुपुण्यम्। देवस्य तीर्थे जलमग्निकल्पा विगाह्य ते भुक्तबिसप्रसूनाः।। | 13-143-7a 13-143-7b 13-143-7c 13-143-7d |
केचिद्बिसान्यखनंस्तत्र राजन्न- न्ये मृणालान्यखनंस्तत्र विप्राः। अथापश्यन्पुष्करं ते ह्रियन्तं ह्रदादगस्त्येन समुद्धृतं तत्।। | 13-143-8a 13-143-8b 13-143-8c 13-143-8d |
नानाह सर्वानृषिमुख्यानगस्त्यः केनाहृतं पुष्करं मे सुजातम्। युष्माञ्शङ्के पुष्करं दीयतां मे न वै भवन्तो हर्तुमर्हन्ति पद्मम्।। | 13-143-9a 13-143-9b 13-143-9c 13-143-9d |
शृणोमि कालो हिंसते धर्मवीर्यं सेयं प्राप्ता वर्तते धर्मपीडा। पुराऽधर्मो वर्तते नेह याव- त्तावद्गच्छामः सुरलोकं चिराय।। | 13-143-10a 13-143-10b 13-143-10c 13-143-10d |
पुरा वेदान्ब्राह्मणा ग्राममध्ये घुष्टस्वरा वृषलान्श्रावयन्ति। पुरा राजा व्यवहारानधर्मा- न्पश्यत्यहं परलोकं व्रजामि।। | 13-143-11a 13-143-11b 13-143-11c 13-143-11d |
पुरा राजा प्रत्यवरान्गरीयसो मंस्यत्यथैनमनुयास्यन्ति सर्वे। धर्मोत्तरं यावदिदं न वर्तते तावद्व्रजामि परलोकं चिराय।। | 13-143-12a 13-143-12b 13-143-12c 13-143-12d |
पुरा प्रपश्यामि परेण मर्त्या- न्बलीयसा दुर्बलान्भुज्यमानान्। तस्माद्यास्यामि परलोकं चिराय न ह्युत्सहे द्रष्टुमीदृङ्नृलोके।। | 13-143-13a 13-143-13b 13-143-13c 13-143-13d |
तमाहुरार्ता ऋषयो महर्षिं न ते वयं पुष्करं चोरयामः। मिथ्याभिशंसा भवता न कार्या शपाम तीक्ष्णैः शपथैर्महर्षे।। | 13-143-14a 13-143-14b 13-143-14c 13-143-14d |
ते निश्चितास्तत्र महर्षयस्तु सम्पश्यन्तो धर्ममेतं नरेन्द्राः। ततोऽशपन्त शपथान्पर्ययेण सहैव ते पार्थिव पुत्रपौत्रैः।। | 13-143-15a 13-143-15b 13-143-15c 13-143-15d |
भृगुरुवाच। | 13-143-16x |
प्रत्याक्रोशेदिहाक्रुष्टस्ताडितः प्रतिताडयेत्। खादेच्च पृष्ठमांसानि यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-16a 13-143-16b |
वसिष्ठ उवाच। | 13-143-17x |
अस्वाध्यायपरो लोके श्वानं च परिकर्षतु। पुरे च भिक्षुर्भवतु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-17a 13-143-17b |
कश्यप उवाच। | 13-143-18x |
सर्वत्र सर्वं पणतु न्यासे लोभं करोतु च। कूटसाक्षित्वमभ्येतु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-18a 13-143-18b |
गौतम उवाच। | 13-143-19x |
जीवत्वहङ्कृतो बुद्ध्या विषमेणासमेन सः। कर्षको मत्सरी चास्तु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-19a 13-143-19b |
अङ्गिरा उवाच। | 13-143-20x |
अशुचिर्ब्रह्मकूटोस्तु श्वानं च परिकर्षतु। ब्रह्महाऽनिकृतिश्चास्तु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-20a 13-143-20b |
धुन्धुमार उवाच। | 13-143-21x |
अकृतज्ञस्तु मित्राणां शूद्रायां च प्रजायतु। एकः सम्पन्नमश्नातु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-21a 13-143-21b |
पुरूरवा उवाच। | 13-132-22x |
चिकित्सायां प्रचरतु भार्यया चैव पुष्यतु। श्वशुरात्तस्य वृत्तिः स्याद्यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-22a 13-143-22b |
दिलीप उवाच। | 13-143-23x |
उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः। तस्य लोकान्स व्रजतु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-23a 13-143-23b |
शुक्र उवाच। | 13-143-24x |
वृथा मांसं समश्नातु दिवा गच्छतु मैथुनम्। प्रेष्यो भवतु राज्ञश्च यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-24a 13-143-24b |
जमदग्निरुवाच। | 13-143-25x |
अनध्यायेष्वधीयीत मित्रं श्राद्धे च भोजयेत्। श्राद्धे शूद्रस्य चाश्नीयाद्यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-25a 13-143-25b |
शिबिरुवाच। | 13-143-26x |
अनाहिताग्निर्मियतां यज्ञे विघ्नं करोतु च। तपस्विभिर्विरुध्येच्च यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-26a 13-143-26b |
ययातिरुवाच। | 13-143-27x |
अनृतौ व्रतनियतायां भार्यायां स प्रजायतु। निराकरोतु वेदांश्च यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-27a 13-143-27b |
नहुष उवाच। | 13-143-28x |
अतिथिर्गृहसंस्थोऽस्तु कामवृत्तस्तु दीक्षितः। विद्यां प्रयच्छतु भृतो यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-28a 13-143-28b |
अम्बरीष उवाच। | 13-143-29x |
नृशंसस्त्यक्तधर्मोऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च। निहन्तु ब्राह्मणं चापि यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-29a 13-143-29b |
नारद उवाच। | 13-143-30x |
गृहज्ञानी बहिःशास्त्रं पठतां विस्वरं पदम्। गरीयसोऽवजानातु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-30a 13-143-30b |
नाभाग उवाच। | 13-143-31x |
अनृतं भाषतु सदा सद्भिश्चैव विरुध्यतु। शुल्केन ददतु कन्यां यस्ते हरपि पुष्करम्।। | 13-143-31a 13-143-31b |
कविरुवाच। | 13-143-32x |
पदा च गां संस्पृशतु सूर्यं च प्रति मेहतु। शरणागतं संत्यजतु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-32a 13-143-32b |
विश्वामिइत्र उवाच। | 13-143-33x |
करोतु भृतकोऽवर्षां राज्ञश्चास्तु पुरोहितः। ऋत्विगस्तु ह्ययाज्यस्य यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-33a 13-143-33b |
पर्वत उवाच। | 13-143-34x |
ग्रामे चाधिकृतः सोऽस्तु खरयानेन गच्छतु। शुनः कर्षतु वृत्त्यर्थे यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-34a 13-143-34b |
भरद्वाज उवाच। | 13-143-35x |
सर्वपापसमादानं नृशंसे चानृते च यत्। तत्तस्यास्तु सदा पापं यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-35a 13-143-35b |
अष्टक उवाच। | 13-143-36x |
स राजास्त्वकृतप्रज्ञः कामवृत्तश्च पापकृत्। अधर्मेणाभिशास्तूर्वीं यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-36a 13-143-36b |
गालव उवाच। | 13-143-37x |
पापिष्ठेभ्यो ह्यनर्घार्हः स नरोऽस्तु स्वपापकृत्। दत्त्वा दानं कीर्तयतु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-37a 13-143-37b |
अरुन्धत्युवाच। | 13-143-38x |
श्वश्र्वाऽपवादं वदतु भर्तुर्भवतु दुर्मनाः। एका स्वादु समश्नातु या ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-38a 13-143-38b |
वालखिल्या ऊचुः। | 13-143-39x |
एकपादेन वृत्त्यर्थं ग्रामद्वारे स तिष्ठतु। धर्मज्ञस्त्यक्तधर्मास्तु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-39a 13-143-39b |
पशुसख उवाच। | 13-143-40x |
अग्निहोत्रमनादृत्य स सुखं स्वपतु द्विजः। परिव्राट् कामवृत्तोस्तु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-40a 13-143-40b |
सुरभ्युवाच। | 13-143-41x |
वालजेन निदानेन कांस्यं भवतु दोहनम्। दुह्येत परवत्सेन या ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-41a 13-143-41b |
भीष्म उवाच। | 13-143-42x |
ततस्तु तैः शपथैः शप्यमानै- र्नानाविधैर्बहुभिः कौरवेन्द्र। सहस्राक्षो देवराट् सम्प्रहृष्टः समीक्ष्य तं कोपनं विप्रमुख्यम्।। | 13-143-42a 13-143-42b 13-143-42c 13-143-42d |
यथाब्रवीन्मघवा प्रत्ययं स्वं स्वयं समागत्य तमृषिं जातरोषम्। ब्रह्मर्षिदेवर्षिनृपर्षिमध्ये यं तं निबोधेह ममाद्य राजन्।। | 13-143-43a 13-143-43b 13-143-43c 13-143-43d |
शक्र उवाच। | 13-143-44x |
अध्वर्यवे दुहितरं ददातु छन्दोगे वाऽऽचरितब्रह्मचर्ये। अथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः स्नायीत यः पुष्करमाददाति।। | 13-143-44a 13-143-44b 13-143-44c 13-143-44d |
सर्वान्वेदानधीयीत पुण्यशीलोऽस्तु धार्मिकः। ब्रह्मणः सदनं यातु यस्ते हरति पुष्करम्।। | 13-143-45a 13-143-45b |
अगस्त्य उवाच। | 13-143-46x |
आशीर्वादस्त्वया प्रोक्तः शपथो बलसूदन। दीयतां पुष्करं मह्यमेष धर्मः सनातनः।। | 13-143-46a 13-143-46b |
इन्द्र उवाच। | 13-143-47x |
न मया भगवँल्लोभाद्धृतं पुष्करमद्य वै। धर्मांस्तु श्रोतुकामेन हृतं न क्रोद्धुमर्हसि।। | 13-143-47a 13-143-47b |
धर्मश्रुतिसमुत्कर्षो धर्मसेतुरनामयः। आर्षो वै शाश्वतो नित्यमव्ययोऽयं मया श्रुतः।। | 13-143-48a 13-143-48b |
तदिदं गृह्यतां विद्वन्पुष्करं द्विजसत्तम। अतिक्रमं मे भगवन्क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित।। | 13-143-49a 13-143-49b |
इत्युक्तः स महेन्द्रेण तपस्वी कोपनो भृशम्। जग्राह पुष्करं धीमान्प्रसन्नश्चाभवन्मुनिः।। | 13-143-50a 13-143-50b |
प्रययुस्ते ततो भूयस्तीर्थानि वनगोचराः। पुण्येषु तीर्थेषु तथा गात्राण्याप्लावयन्त ते।। | 13-143-51a 13-143-51b |
आख्यानं य इदं युक्तः पठेत्वर्वणिपर्वणि। न मूर्खं जनयेत्पुत्रं न भवेच्च निराकृतिः।। | 13-143-52a 13-143-52b |
न तमापत्स्पृशेत्काचिद्विज्वरो न जरावहः। विरजाः श्रेयसा युक्तः प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयात्।। | 13-143-53a 13-143-53b |
यश्च शास्त्रमधीयीत ऋषिभिः परिपालितम्। स गच्छेद्ब्रह्मणो लोकमव्ययं च नरोत्तम।। | 13-143-54a 13-143-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
13-143-1 अत्र शपथेनैव निषिद्धार्थप्रकाशने।। 13-143-2 पुष्करार्थं इन्द्रेण स्तैन्यं कृतम्। मुनिभिः शपथाः कृता इत्यर्थः।। 13-143-8 बिसमृणालयोः कमलकुमुदवदवान्तरभेदो ज्ञेयः। ह्रियन्तं ह्रियमाणम्।। 13-143-12 प्रत्यवरान्मध्यमान्। तमोत्तरं यावदिदं न वर्तत इति झ.पाठः।। 13-143-16 पृष्ठमांसानि पृष्ठवाहानां हयवृषभोष्ट्रादीनां मांसानि। खादेच्च ब्रह्ममांसानीति ड.पाठः।। 13-143-17 भिक्षुः संम्यासी।। 13-143-18 पणतु क्रयविक्रयं करोतु। सर्वं अपण्यमपि।। 13-143-19 विगतः समभावो यस्मात्तेनासमेन कामक्रोधादिना। कृपणत्वं समेतु स इति ट.ध.पाठः।। 13-143-20 अनिकृतिः अकृतप्रायाश्चेतः।। मानं च परिकर्षत्विति ट.ध.पाठः।। 13-143-22 चोरकार्यं प्रचरतु इति ट.ध.पाठः। भार्यां स्वां चैव दूष्यतु इति थ.पाठः। भार्या वाचैव तुष्यत्विति ध. पाठः।। 13-143-23 उदपाने प्लव आप्लवः स्नानं यस्मिन्।। 13-143-24 यतिर्गच्छतु मैथुनमिति ट.ध.पाठः।। 13-143-28 अतिथिर्यतिः। गृहसंस्थो गृहवासी। अतिथिं गृहस्थस्त्यजत्विति थ.पाठः। भृतो वित्तेन क्रीतः।। 13-143-30 गूढो ज्ञातुं बहिश्शास्त्रमिति थ. ध.पाठः।। 13-143-33 भृतकौ धान्यविक्रीतः सन् अवर्षां वृष्टिनिर्बन्धं करोतु।। 13-143-37 पापिष्ठा एव अनर्घार्हाः अपूज्याः। अयं तु ततोप्यपूज्योस्तु। स्वपापकृत् स्वेषु ज्ञातिषु पापकृत्।। 13-143-41 निदानं दोहनकाले गवां पादबन्धनी रज्जुस्तेन।। 13-143-43 प्रत्ययमभिप्रायम्।। 13-143-48 धर्मश्रुतीनां सम्यगुत्कर्षः। धर्म एव सेतुस्तरणोपायः।।
अनुशासनपर्व-142 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-144 |