महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-168
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सनत्कुमारेण रुद्रंप्रति अव्यक्तादितत्वानां तारतम्यकथनपूर्वकं तत्सृष्टिलयादिकथनम्।। 1 ।। तथा एतज्ज्ञानस्य संसारतारकत्वोक्तिः।। 2 ।।
`सनत्कुमार उवाच। | 13-168-1x |
इन्द्रियेभ्यो मनः पूर्वमहङ्कारस्ततः परम्। अहङ्कारात्परा बुद्धिर्बुद्धेः परतरं महत्।। | 13-168-1a 13-168-1b |
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। एतावदेतत्सांख्यानां दर्शनं देवसत्तम।। | 13-168-2a 13-168-2b |
अव्यक्तं बुद्ध्यहङ्कारौ महाभूतानि पञ्च च। मनस्तथा विशेषाश्च दश चैवेन्द्रियाणि च। एतास्तत्वचतुर्विंशन्महापुरुषसम्मिताः।। | 13-168-3a 13-168-3b 13-168-3c |
बुद्ध्यामानेन देवेश चेतनेन महात्मना। संयोगमेतयोर्नित्यमाहुरव्यक्तपुंसयोः।। | 13-168-4a 13-168-4b |
एकत्वं च बहुत्वं च सर्गप्रलयकोटिशः। तमःसंज्ञितमेतद्धि प्रवदन्ति त्रिशूलधृक्।। | 13-168-5a 13-168-5b |
समुत्पाट्य यथाव्यक्ताज्जीवा यान्ति पुनःपुनः। आदिरेष महानात्मा गुणानामिति नः प्रभो।। | 13-168-6a 13-168-6b |
गुणस्थत्वाद्गुणं चैनमाहुरव्यक्तलक्षणम्। एतेनाध्युषितो व्यक्तस्त्रिगुणं चेतयत्युत।। | 13-168-7a 13-168-7b |
अचेतनः प्रकृत्येषु न चान्यमनुबुध्यते। बुध्यमानो ह्यहंकारो नित्यं मानाप्रबोधनात्।। | 13-168-8a 13-168-8b |
विमलस्व विशुद्धस्य नीरुजस्य महात्मनः। विमलोदरशीलः स्याद्बुध्यमानाप्रबुद्धयोः।। | 13-168-9a 13-168-9b |
द्रष्टा भवत्यभोक्ता च सत्वमूर्तिश्च निर्गुणः। बुध्यमानाप्रबुद्धाभ्यामन्य एव तु निर्गुणः।। | 13-168-10a 13-168-10b |
उपेक्षकः शुचिस्ताभ्यामुभाभ्यामयुतस्तथा। बुध्यमानो न बुध्येत बुद्धमेवं सनातनम्।। | 13-168-11a 13-168-11b |
स एव बुद्धेरव्यक्तस्वभावत्वादचेतनः। सोहमेव न मेऽन्योस्ति य एवमभिमन्यते।। | 13-168-12a 13-168-12b |
न मन्यते ममान्योस्ति येन चेतोस्म्यचेतनः। एवमेवाभिमन्येत बुध्यमानोप्यनात्मवान्।। | 13-168-13a 13-168-13b |
अहमेव न मेऽन्योस्ति न प्रबुद्धवशानुगः। अव्यक्तस्थो गुणानेष नित्यमेवाभिमन्यते।। | 13-168-14a 13-168-14b |
तेनाधिष्ठिततत्वज्ञैर्महद्भिरभिधीयते। अहङ्कारेण संयुक्तस्ततस्ददभिमन्यते।। | 13-168-15a 13-168-15b |
क्षेत्रं प्रविश्य दुर्बुद्धिर्बुद्ध्यमानो ह्यनात्मवान्। अहमेव सृजत्यन्यद्द्वितीयं लोकसारथिः।। | 13-168-16a 13-168-16b |
सर्वाभावैरहङ्कारैस्तृतीयं सर्गसंज्ञितम्। ततो भूतान्यहङ्कारमहङ्कारो मनोऽसृजत्।। | 13-168-17a 13-168-17b |
सर्वस्नोतस्यभिमुखं सम्प्रावर्तत बुद्धिमान्। तथैव यज्ञे भूतेषु विषयार्थी पुनःपुनः। इन्द्रियैः सह शूलाङ्क पञ्च पञ्चभिरेव च।। | 13-168-18a 13-168-18b 13-168-18c |
मनो वेद न चात्मानमङ्कारं प्रजापतिः। न वेद वाप्यहङ्कारो बुद्धिं बुद्धिमतांवर।। | 13-168-19a 13-168-19b |
एवमेते महाभाग नेतरे नयवादिनः। अहङ्कारेण संयुक्तः स्रोतस्यभिमुखः सदा।। | 13-168-20a 13-168-20b |
एवमेष विकारात्मा महापुरुषसञ्ज्ञकः। प्रतनोति जगत्कृत्स्नं पुनराददते सकृत्।। | 13-168-21a 13-168-21b |
ससंज्ञत्वाज्जगत्कृत्स्नमव्यक्तस्य हृदि स्थितम्। संविशद्रजनीं कृत्स्नां निशान्ते दिवसागमे।। | 13-168-22a 13-168-22b |
पुनरात्मा विजयते बहवो निर्गुणास्तथा। अज्ञानेन समायुक्तः सोव्यक्तेन तमोत्मना।। | 13-168-23a 13-168-23b |
यदि ह्येषो नु मन्येत ममास्ति परतो वरः। स पुनः पुनरात्मानं न कुर्यादाक्षिपेत च।। | 13-168-24a 13-168-24b |
एतमव्यक्तविषयं सूक्ष्मं मन्येत बुद्धिमान्। पञ्चविंशं महादेव महापुरुषवैकृतम्।। | 13-168-25a 13-168-25b |
प्रबुद्धौ बुद्धवानेतत्सृजमानमबुद्धवान्। गुणान्पुनश्च तानेव सोत्मनात्मनि निक्षिपेत्।। | 13-168-26a 13-168-26b |
अव्यक्तस्य वशीभूतो योऽज्ञानस्य तमोत्मनः। बुध्यमानो ह्यबुद्धस्य बुद्धस्तदनुभुज्यते।। | 13-168-27a 13-168-27b |
उपेक्षकः शुचिर्व्यग्रः सोलिङ्गः सोव्रणोऽमलः। षड्विंशो भगवानास्ते बुद्धः शुद्धो निरामयः।। | 13-168-28a 13-168-28b |
अव्यक्तादिविशेषान्तमेतद्वैद्या वदन्त्युत। एतैरेव विहीनं तु केचिदाहुर्मनीषिणः।। | 13-168-29a 13-168-29b |
निस्तत्वं बुध्यमानास्तु केचिदाहुर्महामते। केचिदाहुर्महात्मानस्तत्वसंज्ञितमेव तु।। | 13-168-30a 13-168-30b |
तत्वस्य श्रवणादेनं तत्वमेवं वदन्ति वै। सत्वसंश्रयणाच्चैव सत्ववन्तं महेश्वर।। | 13-168-31a 13-168-31b |
एवमेष विकारात्मा बुध्यमानो महाभुज। अव्यक्तो भवते व्यक्तौ सत्वंसत्वं तथा गुणौ। विद्या च भवते विद्या भवेत्तु ग्रहसंज्ञितम्।। | 13-168-32a 13-168-32b 13-168-32c |
य एवमनुबुद्ध्यन्ते योगसाङ्ख्याश्च तत्वतः। तेऽव्यक्तं शङ्करागाढं मुञ्चन्ते शास्त्रबुद्धयः।। | 13-168-33a 13-168-33b |
तेषामेतत्तु वदतां शास्त्रार्थं सूक्ष्मदर्शिनाम्। बुद्धिर्विस्तीर्यते सर्वं तैलबिन्दुरिवाम्भसि।। | 13-168-34a 13-168-34b |
विद्या तु सर्वविद्यानामवबोध इति स्मृतः। येन विद्यामविद्यां च विन्दन्ति यतिसत्तमाः।। | 13-168-35a 13-168-35b |
सैषा त्रयी परा विद्या चतुर्थ्यान्वीक्षिकी स्मृता। यां बुद्ध्यमानो बुद्ध्येत बुद्ध्यात्मनि समं गतः।। | 13-168-36a 13-168-36b |
अप्रबुद्धमथाव्यक्तमविद्यासंज्ञिकं स्मृतम्। विमोहितं तु शोकेन केवलेन समन्वितम्। एतद्बुद्ध्या भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धिलक्षणम्।। | 13-168-37a 13-168-37b 13-168-37c |
ये त्वेतन्नावबुद्ध्यन्ते ते प्रबुद्धवशानुगाः। ते पुनःपुनरव्यक्ताज्जनिष्यन्त्यबुधांत्मनः।। | 13-168-38a 13-168-38b |
तमेव तुलयिष्यन्ति अबुद्धिवशवर्तिनः। ये चाप्यन्ये तन्मनसस्तेप्येतत्फलभागिनः।। | 13-168-39a 13-168-39b |
विदित्वैनं न शोचन्ति योगोपेतार्थदर्शिनः। स्वातन्त्र्यं प्रतिलप्स्यन्ते केवलत्वं च भास्वरम्।। | 13-168-40a 13-168-40b |
अज्ञानबन्धनान्मुक्तास्तीर्णाः संसारबन्धनात्। अज्ञानसागरं घोरमगाधं तमसंज्ञकम्। यत्र मज्जन्ति भूतानि पुनःपुनररिंदम्।। | 13-168-41a 13-168-41b 13-168-41c |
एषा विद्या तथाऽविद्या कथिता ते मयाऽर्थतः। यस्मिन्देयं च नो ग्राह्यं सांख्याः सांख्यं तथैव च।। | 13-168-42a 13-168-42b |
तथा चैकत्वनानात्वमक्षरं क्षरमेव च। निगदिष्यामि देवेश विमोक्षं त्रिविधं च ते।। | 13-168-43a 13-168-43b |
बुद्ध्यमानाप्रबुद्धाभ्यामबुद्धस्य प्रपञ्चनम्। भूय एव निबोध त्वं देवानां देवसत्तम।। | 13-168-44a 13-168-44b |
यच्च किञ्च श्रुतं न स्याद्दृष्टं चैव न किञ्चन। तच्च ते सम्प्रवक्ष्यामि एकाग्रः शृणु तत्परः।।' | 13-168-45a 13-168-45b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 168 ।। |
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