महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-190
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सूर्यगार्ग्यादिभिः पृथक्पृथग्धर्मरहस्यकथनम्।। 1 ।।
[विभावसुरुवाच। | 13-190-1x |
सलिलस्याञ्जलिं पूर्णमक्षताश्च धृतोत्तराः। सोमस्योत्तिष्ठमानस्य तज्जलं चाक्षतांश्च तान्।। | 13-190-1a 13-190-1b |
स्थितो ह्यभिमुखो मर्त्यः पौर्णमास्यां बलिं हरेत्। अग्निकार्यं कृतं तेन हुताश्चास्याग्नयस्त्रयः।। | 13-190-2a 13-190-2b |
वनस्पतिं च यो हन्यादमावास्यामबुद्धिमान्। अपि ह्येकेन पत्रेण लिप्यते ब्रह्महत्यया।। | 13-190-3a 13-190-3b |
दन्तकाष्ठं तु यः खादेदमावास्यामबुद्धिमान्। हिंसितश्चन्द्रमा**** पितरश्चोद्विजन्ति च।। | 13-190-4a 13-190-4b |
हव्यं न तस्य देवाश्च प्रतिगृह्णन्ति पर्वसु। कुप्यन्ते पितरश्चास्य कुले वंशोऽस्य हीयते।। | 13-190-5a 13-190-5b |
श्रीरुवाच। | 13-190-6x |
प्रकीर्णं भाजनं यत्र भिन्नभाण्डमथासनम्। योषितश्चैव हन्यन्ते कश्मलोपहते गृहे।। | 13-190-6a 13-190-6b |
देवताः पितरश्चैव उत्सवे पर्वणीषु वा। निराशाः प्रतिगच्छन्ति कश्मलोपहताद्गृहात्।। | 13-190-7a 13-190-7b |
अङ्गिरा उवाच। | 13-190-8x |
यस्तु संवत्सरं पूर्णं दद्याद्दीपं करञ्जके। सुवर्चलामूलहस्तः प्रजा तस्य विवर्धते।। | 13-190-8a 13-190-8b |
गार्ग्य उवाच। | 13-190-9x |
आतीथ्यं सततं कुर्याद्दीपं दद्यात्प्रतिश्रये। वर्जयानो दिवास्वापं न च मांसानि भक्षयेत्।। | 13-190-9a 13-190-9b |
गोब्राह्मणं न हिंस्याच्च पुष्कराणि च कीर्तयेत्। एत श्रेष्ठतमो धर्मः सरहस्यो महाफलः।। | 13-190-10a 13-190-10b |
अपि क्रतुशतैरिष्ट्वा क्षयं गच्छति तद्धविः। न तु क्षीयन्ति ते धर्माः श्रद्दधानैः प्रयोजिताः।। | 13-190-11a 13-190-11b |
इदं च परमं गुह्यं सरहस्यं निबोधत। श्राद्धकल्पे च दैवे च तैर्थिके पर्वणीषु च।। | 13-190-12a 13-190-12b |
रजस्वला च या नारी श्वित्रिकाऽपुत्रिका च या। एताभिश्चक्षुषा दृष्टं हविर्नाश्नन्ति देवताः। पितरश्च न तुष्यन्ति वर्षाण्यपि त्रयोदश।। | 13-190-13a 13-190-13b 13-190-13c |
शुक्लवासाः शुचिर्भूत्वा ब्राह्मणान्स्वस्ति वाचयेत्। कीर्तयेद्भारतं चैव तथा स्यादक्षयं हविः।। | 13-190-14a 13-190-14b |
धौम्य उवाच। | 13-190-15x |
भिन्नभाण्डं च खट्वां च कुक्कुटं शुनकं तथा। अप्रशस्तानि सर्वाणि यश्च वृक्षो गृहेरुहः।। | 13-190-15a 13-190-15b |
भिन्नभाण्डे कलिं प्राहुः खट्वायां तु धनक्षयः। कुक्कुटे शुनके चैव हविर्नाश्नन्ति देवताः। वृक्षमूले ध्रुवं सत्वं तस्माद्वृक्षं न रोपयेत्।। | 13-190-16a 13-190-16b 13-190-16c |
जमदग्निरुवाच। | 13-190-17x |
यो यजेदश्वमेधेन वाजपेयशतेन ह। अवाक्शिरा वा लम्बेत सत्रं वा स्फीतमाहरेत्।। | 13-190-17a 13-190-17b |
न यस्य हृदयं शुद्धं नरकं स ध्रुवं व्रजेत्। तुल्यं यज्ञश्च सत्यं च हृदयस्य च शुद्धता।। | 13-190-18a 13-190-18b |
शुद्धेन मनसा दत्त्वा सक्तुप्रस्थं द्विजातये। ब्रह्मलोकमनुप्राप्तः पर्याप्तं तन्निदर्शनम्।।] | 13-190-19a 13-190-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि नवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 190 ।। |
13-190-8 करञ्जसुवर्चले वृक्षवल्लिविशेषौ।। 13-190-16 सत्वं वृश्चिकसर्पादि। न रोपयेत् गृहे इति शेषः।।
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