महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-274
दिखावट
← अनुशासनपर्व-273 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-274 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व → |
भीष्मेण भगवद्ध्यानपूर्वकं स्वशरीरमूर्धमध्योद्भेदनेन तेजो ज्वालारूपेण सर्वापरोक्षमाकाशप्रवेशनेन क्षणादन्तर्धानम्।। 1 ।। ततो धृतराष्ट्रयुधिष्ठिरादिबी राजवैभवेन चितारोपणेन विधिवदग्निना समुद्दीपनम्।। 2 ।। ततो गङ्गामवगाह्य कृतोदकेषु युधिष्ठिरादिषु मूर्तीभूय जलादुद्गत्य भीष्मंप्रति सकरुणं विलापेन शोचन्तीं गङ्गांप्रति कृष्णादिभिराश्वासनम्।। 3 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-274-1x |
एवमुक्त्वा कुरून्सर्वान्भीष्मः शान्तनवस्तदा। तूष्णीं बभूव कौरव्यः स मुहूर्तमरिंदम।। | 13-274-1a 13-274-1b |
धारयामास चात्मानं धारणासु यथाक्रमम्। तस्योर्ध्वमगमन्प्राणाः सन्निरुद्धा महात्मनः।। | 13-274-2a 13-274-2b |
इदमाश्चर्यमासीच्च मध्ये तेषां महात्मनाम्। सहितैर्ऋषिभिः सर्वैस्तदा व्यासादिभिः प्रभो।। | 13-274-3a 13-274-3b |
यद्यन्मुञ्चति गात्रं हि स शन्तनुसुतस्तदा। तत्तद्विशल्यमभवद्योगयुक्तस्य वै क्रमात्। क्षणेन प्रेक्षतां तेषां विशल्यः सोऽभवत्तदा।। | 13-274-4a 13-274-4b 13-274-4c |
तद्दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे वासुदेवपुरोगमाः। सह तैर्मुनिभिः सर्वैस्तदा व्यासादिभिर्नृप।। | 13-274-5a 13-274-5b |
सन्निरुद्धस्तु तेनात्मा सर्वेष्वायतनेषु च। जगाम भित्त्वा मूर्धानं दिवमभ्युत्पपात ह।। | 13-274-6a 13-274-6b |
देवदुन्दुभिनादश्च पुष्पवर्षैः सहाभवत्। सिद्धा ब्रह्मर्षयश्चैव सादुसाध्विति हर्षिताः।। | 13-274-7a 13-274-7b |
महोल्केव च भीष्मस्य मूर्धदेशाज्जनाधिप। निःसृकत्याकाशमाविश्य क्षणेनान्तरधीयत।। | 13-274-8a 13-274-8b |
एवं स राजशार्दूल नृपः शान्तनवस्तदा। समयुज्यत लोकैः स्वैर्भरतानां कुलोद्वहः।। | 13-274-9a 13-274-9b |
ततस्त्वादाय दारूणि गन्धांश्च विविधान्बहून्। चितां चक्रुर्महात्मानः पाण्डवा विदुरस्तथा। युयुत्सुश्चापि कौरव्यं प्रेक्षकास्त्वितरेऽभवन्।। | 13-274-10a 13-274-10b 13-274-10c |
युधिष्ठिरश्च गाङ्गेयं धृतराष्ट्रश्च दुःखितौ। छादयामासतुरुभौ क्षौमेर्माल्यैश्च कौरवम्।। | 13-274-11a 13-274-11b |
धारयामास तस्याथ युयुत्सुश्छत्रमुत्तमम्। चामरे व्यजने शुभ्रे भीमसेनार्जुनावुभौ। उष्णीषे परिगृह्णीतां माद्रीपुत्रावुभौ तथा।। | 13-274-12a 13-274-12c 13-274-12d |
युधिष्ठिरेण सहितो धृतराष्ट्रश्च पादतः। वृद्धा स्त्रियः कौरवाणां भीष्मं कुरुकुलोद्वहम्। तालवृन्तान्युपादाय पर्यवीजन्त सर्वशः।। | 13-274-13a 13-274-13b 13-274-13c |
ततोस्य विदिवच्चक्रुः पितृमेधं महात्मनः। याजका जुहुवुश्चाग्नौ जगुः सामानि समागाः।। | 13-274-14a 13-274-14b |
ततश्चन्दनकाष्ठैश्च तथा कालीयकैरपि। कालागुरुप्रभृतिभिर्गन्धैश्चोच्चावच्चैस्तथा।। | 13-274-15a 13-274-15b |
समवच्छाद्य गाङ्गेयं सम्प्रज्वाल्य हुताशनम्। अपसव्यमकुर्वन्त धृतराष्ट्रमुखाश्चिताम्।। | 13-274-16a 13-274-16b |
संस्कृत्य च कुरुश्रेष्ठं गाङ्गेयं कुरुसत्तमाः। जग्मुर्भागीरथीं पुण्यामृषिजुष्टां कुरूद्वहाः।। | 13-274-17a 13-274-17b |
अनुगम्यमाना व्यासेन नारदेनासितेन च। कृष्णेन भरतस्त्रीभिर्ये च पौराः समागताः।। | 13-274-18a 13-274-18b |
उदकं चक्रिरे सर्वे गाङ्गेयस्य महात्मनः। विधिवत्क्षत्रियश्रेष्ठाः स च सर्वो जनस्तदा।। | 13-274-19a 13-274-19b |
ततो भागीरथी देवी तनयस्योदके कृते। उत्थाय सलिलात्तस्माद्रुदती शोकविह्वला। परिदेवयती तत्र कौरकवानभ्यभाषत।। | 13-274-20a 13-274-20b 13-274-20c |
निबोधत यथावृत्तमुच्यमानं मया नृपाः। राजवृत्तेन सम्पन्नः प्रज्ञयाभिजनेन च। सत्कर्ता कुरुवृद्धानां पितृभक्तो दृढव्रतः।। | 13-274-21a 13-274-21b 13-274-21c |
जामदग्न्येन रामेण यः पुरा न पराजितः। दिव्यैरस्त्रैर्महावीर्यः स हतोऽद्य शिखण्डिना।। | 13-274-22a 13-274-22b |
अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम पार्थिवाः। अपश्यन्त्याः प्रियं पुत्रं यन्न दीर्यति मेऽद्य वै।। | 13-274-23a 13-274-23b |
समेतं पार्थिवं क्षत्रं काशिपुर्यां स्वयंपरे। विजित्यैकरथेनाजौ कन्याश्चायं जहारह।। | 13-274-24a 13-274-24b |
यस्य नास्ति बले तुल्यः पृथिव्यामपि कश्चन। हतं शिखण्डिना श्रुत्वा यन्न दीर्यति मे मनः।। | 13-274-25a 13-274-25b |
जामदग्न्यः कुरुक्षेत्रे युधि येन महात्मना। पीडितो नातियत्नेन स हतोऽद्य शिखण्डिना।। | 13-274-26a 13-274-26b |
एवंविधं बहु तदा विलन्पतीं नहानदीम्। आश्वासयामास तदा साम्ना दामोदरो विभुः।। | 13-274-27a 13-274-27b |
समाश्वसिहि भद्रे त्वं मा शुचः शुभदर्शने। गतः स परमं लोकं तव पुत्रो न संशयः।। | 13-274-28a 13-274-28b |
वसुरेष महातेजाः शापदोषेण शोभने। मानुषत्वमनुप्राप्तो नैनं शोचितुमर्हसि।। | 13-274-29a 13-274-29b |
स एष क्षत्रधर्मेण युध्यमानो रणाजिरे। धनंजयेन निहतो नैष देवि शिखण्डिना।। | 13-274-30a 13-274-30b |
भीष्मं हि कुरुशार्दूलमुद्यतेषु महारणे। न शक्तः संयुगे हन्तुं साक्षादपि शतक्रतुः।। | 13-274-31a 13-274-31b |
स्वच्छन्दतस्तव सुतो गतः स्वर्गं शुभानने। न शक्ता विनिहन्तुं हि रणे तं सर्वदेवताः।। | 13-274-32a 13-274-32b |
तस्मान्मा त्वं सरिच्छ्रेष्ठे शोचस्य कुरुनन्दनम्। वसूनेष गतो देवि पुत्रस्ते विज्वरा भव।। | 13-274-33a 13-274-33b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-274-34x |
इत्युक्ता सा तु कृष्णेन व्यासेन तु सरिद्वरा। त्यक्त्वा शोकं महाराज स्वं वार्यवततार ह।। | 13-274-34a 13-274-34b |
सत्कृत्य ते तां सरितं ततः कृष्णमुखा नृप। अनुज्ञातास्तया सर्वे न्यवर्तन्त जनाधिपाः।। | 13-274-35a 13-274-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां अनुशासनपर्वणि भीष्मस्वर्गारोहणपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 274 ।। |
13-274-2 समादधत्स्वमात्मानं धारणानुक्रमस्थितः। इति क.ध.पाठः।। 13-274-12 उष्णीषे किरीटशिरोवेष्टे।। 13-274-21 समर्थः कुरुवृद्धानामिति ट.थ.पाठः।। 13-274-23 दृष्टाप्येवंविधं पुत्रं न दीर्यति सहस्रधेति क.ट.थ.पाठः।। 13-274-35 अनुज्ञाप्य च ते सर्वे इति ट.थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-273 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व |