महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-188
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्राद्धविद्यादिप्रतिपादकपितृदेवदूतादिसंवादानुवादः।। 1 ।।
*युधिष्ठिर उवाच। | 13-188-1x |
जन्म मानुष्यकं प्राप्य कर्मक्षेत्रं सुदुर्लभम्। श्रेयोर्थिना दरिद्रेण किं कर्तव्यं पितामह।। | 13-188-1a 13-188-1b |
दानानामुत्तमं यच्च देयं यच्च यथायथा। मान्यान्पूज्यांश्च गाङ्गेय रहस्यं वक्तुमर्हसि।। | 13-188-2a 13-188-2b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-188-3x |
एवं पृष्टो नरेन्द्रेण पाण्डवेन यशस्विना। धर्माणां परमं गुह्यं भीष्मः प्रोवाच पार्थिवम्।। | 13-188-3a 13-188-3b |
भीष्म उवाच। | 13-188-4x |
शृणुष्वावहितो राजन्धर्मगुह्यानि भारत। यथाहि भगवान्व्यासः पुरा कथितवान्मयि।। | 13-188-4a 13-188-4b |
देवगुह्यमिदं राजन्यमेनाक्लिष्टकर्मणा। नियमस्थेन युक्तेन तपसो महतः फलम्।। | 13-188-5a 13-188-5b |
येन यः प्रीयते देवः प्रीयन्ते पितरस्तथा। ऋषयः प्रमथाः श्रीश्च चित्रगुप्तो दिशां गजाः।। | 13-188-6a 13-188-6b |
ऋषिधर्मः स्मृतो यत्र सरहस्यो महाफलः। महादानफलं चैव सर्वयज्ञफलं तथा।। | 13-188-7a 13-188-7b |
यश्चैतदेवं जानीयाज्ज्ञात्वा वा कुरुतेऽनघ। सदोषोऽदोषवांश्चेह तैर्गुणैः सह युज्यते।। | 13-188-8a 13-188-8b |
दशसूनासमं चक्रं दशचक्रसमो ध्वजः। दशध्वजसमा वेश्या दशवेश्यासमो नृपः | 13-188-9a 13-188-9b |
अर्घेनैतानि सर्वाणि नृपतिः कथ्यतेऽधिकः। त्रिवर्गसहितं शास्त्रं पवित्रं पुण्यलक्षणम्।। | 13-188-10a 13-188-10b |
धर्मिव्याकरणं पुण्यं रहस्यश्रवणं महत्। श्रोतव्यं धर्मसंयुक्तं विहितं त्रिदशैः स्वयम्।। | 13-188-11a 13-188-11b |
पितॄणां यत्र गुह्यानि प्रोच्यन्ते श्राद्धकर्मणि। देवतानां च सर्वेषां रहस्यं कथ्यतेऽखिलम्।। | 13-188-12a 13-188-12b |
ऋषिधर्मः स्मृतो यत्र सरहस्यो महाफलः। महायज्ञफलं चैव सर्वदानफलं तथा।। | 13-188-13a 13-188-13b |
ये पठन्ति सदा मर्त्या येषां चैवोपतिष्ठति। श्रुत्वा च फलमाचष्टे स्वयं नारायणः प्रभुः।। | 13-188-14a 13-188-14b |
गवां फलं तीर्थफलं यज्ञानां चैव यत्फलम्। एतत्फलमवाप्नोति यो नरोऽतिथिपूजकः।। | 13-188-15a 13-188-15b |
श्रोतारः श्रद्धधानाश्च येषां शुद्धं च मानसम्। तेषां व्यक्तं जिता लोकाः श्रद्दधानेन साधुना।। | 13-188-16a 13-188-16b |
मुच्यते किल्बिषाच्चैव न स पापेन लिप्यते। धर्मं च लभते नित्यं प्रेत्य लोकगतो नरः।। | 13-188-17a 13-188-17b |
कस्यचित्त्वथ कालस्य देवदूतो यदृच्छया। स्थितो ह्यन्तर्हितो भूत्वा पर्यभाषत वासवम्।। | 13-188-18a 13-188-18b |
यो तौ कामगुणोपेतावश्विनौ भिषजां वरौ। आज्ञयाऽहं तयोः प्राप्तः सनरान्पितृदैवतान्।। | 13-188-19a 13-188-19b |
कस्माद्धि मैथुनं श्राद्धे दातुर्भोक्तुश्च वर्जितम्। केमर्थं च त्रयः पिण्डाः प्रविभक्ताः पृथक्पृथक्।। | 13-188-20a 13-188-20b |
प्रथमः कस्य दातव्यो मध्यमः क्व च गच्छति। उत्तरश्च स्मृतः कस्य एतदिच्छामि वेदितुम्।। | 13-188-21a 13-188-21b |
श्रद्दधानेन दूतेन भाषितं धर्मसंहितम्। पूर्वस्थास्त्रिदशाः सर्वे पितरः पूज्य खेचरम्।। | 13-188-22a 13-188-22b |
पितर ऊचुः। | 13-188-23x |
स्वागतं तेऽस्तु भद्रं ते श्रूयतां खेचरोत्तम। गूढार्थः परमः प्रश्नो भवता समुदीरितः।। | 13-188-23a 13-188-23b |
श्राद्धं दत्त्वा च भुक्त्वा च पुरुषो यः स्त्रियं व्रजेत्। पितरस्तस्य तं मासं तस्मिन्रेतसि शेरते।। | 13-188-24a 13-188-24b |
प्रविभागं तु पिण्डानां प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः। पिण्डो ह्यधस्ताद्गच्छंस्तु अप आविश्य भावयेत्।। | 13-188-25a 13-188-25b |
पिण्डं तु मध्यमं तत्र पत्नीत्वेका समश्नुते। पिण्डस्तृतीयो यस्तेषां तं दद्याज्जातवेदसि। एष श्राद्धविधिः प्रोक्तो यथा धर्मो न लुप्यते।। | 13-188-26a 13-188-26b 13-188-26c |
पितरस्तस्य तुष्यन्ति प्रहृष्टमनसः सदा। प्रजा विवर्धते चास्य अक्षयं चोपतिष्ठति।। | 13-188-27a 13-188-27b |
देवदूत उवाच। | 13-188-28x |
आनुपूर्व्येण पिण्डानां प्रविभागः पृथक्पृथक्। पितॄणां त्रिषु सर्वेषां निरुक्तं कथितं त्वया।। | 13-188-28a 13-188-28b |
एकः समुद्धृतः पिण्डो ह्यधस्तात्कस्य गच्छति। कं वा प्रीणयते देवं कथं तारयते पितॄन्।। | 13-188-29a 13-188-29b |
मध्यमं तु तदा पत्नी भुङ्क्तेऽनुज्ञातमेव हि। किमर्थं पितरस्तस्य कव्यमेव च भुञ्जते।। | 13-188-30a 13-188-30b |
अत्र यस्त्वन्तिमः पिण्डो गच्छते जातवेदसम्। भवते का गतिस्तस्य कं वा समनुगच्छति।। | 13-188-31a 13-188-31b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पिण्डेषु त्रिषु या गतिः। फलं वृत्तिं च मार्गं च यश्चैनं प्रतिपद्यते।। | 13-188-32a 13-188-32b |
पितर ऊचुः। | 13-188-33x |
सुमहानेष प्रश्नो वै यस्त्वया समुदीरितः। रहस्यमद्भुतं चापि पृष्टाः स्म गगनेचर।। | 13-188-33a 13-188-33b |
एतदेव प्रशंसन्ति देवाश्च मुनयस्तथा। तेऽप्येवं नाभिजानन्ति पितृकार्यविनिश्चयम्। वर्जयित्वा महात्मानं चिरजीविनमुत्तमम्।। | 13-188-34a 13-188-34b 13-188-34c |
पितृभक्तस्तु यो विप्रो वलब्धो महायशाः। त्रयाणामपि पिण्डानां श्रुत्वा भगवतो गतिम्।। | 13-188-35a 13-188-35b |
देवदूतेन यः पृष्टः श्राद्धस्य विदिनिश्चयः। गतिं त्रयाणां पिण्डानां शृणुष्वावहितो मम।। | 13-188-36a 13-188-36b |
अपो गच्छति यो ह्यत्र शशिनं ह्येष प्रीणयेत्। शशी प्रीणयते देवान्पितॄंश्चैव महामते।। | 13-188-37a 13-188-37b |
भुङ्क्ते तु पत्नीं यं चैषामनुज्ञाता तु मध्यमम्। पुत्रकामाय पुत्रं तु प्रयच्छन्ति पितामहाः।। | 13-188-38a 13-188-38b |
हव्यवाहे तु यः पिण्डो दीयते तन्निबोध मे। पितरस्तेन तृप्यन्ति प्रीताः कामान्दिशन्ति च। एतत्ते कथितं सर्वं त्रिषु पिण्डेषु या गतिः।। | 13-188-39a 13-188-39b 13-188-39c |
ऋत्विग्यो यजमानस्य पितृत्वमनुगच्छति। तस्मिन्नहनि मन्यन्ते परिहार्यं हि मैथुनम्।। | 13-188-40a 13-188-40b |
शुचिना तु सदा श्राद्धं भोक्तव्यं खेचरोत्तम। ये मया कथिता दोषास्ते तथा स्युर्न चान्यथा।। | 13-188-41a 13-188-41b |
तस्मात्स्नातः शुचिः क्षान्तः श्राद्धं भुञ्जीत वै द्विजः। प्रजा विवर्दते चास्य चश्चैवं सम्प्रयच्छति।। | 13-188-42a 13-188-42b |
ततो विद्युत्प्रभो नाम ऋषिराह महातपाः। आदित्यतेजसा तस्य तुल्यं रूपं प्रकाशते।। | 13-188-43a 13-188-43b |
स च धर्मरहस्यानि श्रुत्वा शक्रमथाब्रवीत्।। | 13-188-44a |
तिर्यग्योनिगतान्सत्वान्मर्त्या हिंसन्ति मोहिताः। कीटान्पिपीलिकान्सर्पान्मेषान्समृगपक्षिणः। किल्बिषं सुबहु प्राप्ताः किंस्विदेषां प्रतिक्रिया।। | 13-188-45a 13-188-45b 13-188-45c |
ततो देवगणाः सर्वे ऋषयश्च तपोधनाः। पितरश्च महाभागाः पूजयन्ति स्म तं मुनिम्।। | 13-188-46a 13-188-46b |
शक्र उवाच। | 13-188-47x |
कुरुक्षेत्रं गयां गङ्गां प्रभासं पुष्कराणि च। एतानि मनसा ध्यात्वा अवगाहेत्ततो जलम्। तथा मुच्यति पापेनि राहुणा चन्द्रमा यथा।। | 13-188-47a 13-188-47b 13-188-47c |
त्र्यहं स्नातः स भवति निराहारश्च वर्तते। स्पृशते यो गवां पृष्ठं वालधिं च नमस्यति।। | 13-188-48a 13-188-48b |
ततो विद्युत्प्रभो वाक्यमभ्यभाषत वासवम्। अयं सूक्ष्मतरो धर्मस्तं निबोध शतक्रतो।। | 13-188-49a 13-188-49b |
घृष्टो वटकषायेणि अनुलिप्तः प्रियङ्गुणा। क्षीरेण षष्टिकान्भुक्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-188-50a 13-188-50b |
श्रूयतां चापरं गुह्यं रहस्यमृषिचिन्तितम्। श्रुतं मे भाषमाणस्य स्थाणोः स्थाने बृहस्पतेः। रुद्रेण सह देवेश तन्निबोध शचीपते।। | 13-188-51a 13-188-51b 13-188-51c |
पर्वतारोहणं कृत्वा एकपादो विभावसुम्। निरीक्षेत निराहार ऊर्ध्वबाहुः कृताञ्जलिः। तपसा महता युक्त उपवासफलं लभेत्।। | 13-188-52a 13-188-52b 13-188-52c |
रश्मिभिस्तापितोऽर्कस्य सर्वपापमपोहति। ग्रीष्मकालेऽथवा शीते एवं पापमपोहति।। | 13-188-53a 13-188-53b |
ततः पापात्प्रमुक्तस्य द्युतिर्भवति शाश्वती। तेजसा सूर्यवद्दीप्तो भ्राजते सोमवत्पनः।। | 13-188-54a 13-188-54b |
मध्ये त्रिदशवर्गस्य देवराजः शतक्रतुः। उवाच मधुरं वाक्यं बृहस्पतिमनुत्तमम्।। | 13-188-54a 13-188-55b |
धर्मगुह्यं तु भगवन्मानुषाणां सुखावहम्। सरहस्याश्च ये दोषास्तान्यथावदुदीरथ।। | 13-188-56a 13-188-56b |
बृहस्पतिरुवाच। | 13-188-57x |
प्रतिमेहन्ति ये सूर्यमनिलं द्विषते च ये। हव्यवाहे प्रदीप्ते च समिधं ये न जुह्वति।। | 13-188-57a 13-188-57b |
बालवत्सां च ये धेनुं दुहन्ति क्षीरकारणात्। तेषां दोषान्प्रवक्ष्यामि तान्निबोध शचीपते।। | 13-188-58a 13-188-58b |
भानुमाननिलश्चैव हव्यवाहश्च वासव। लोकानां मातरश्चैव गावः सृष्टाः स्वयंभुवा।। | 13-188-59a 13-188-59b |
लोकांस्तारयितुं शक्ता मर्त्येष्वेतेषु देवताः। सर्वे भवन्तः शृणिवन्तु एकैकं धर्मनिश्चयम्।। | 13-188-60a 13-188-60b |
वर्षाणि षडशीतिं तु दुर्वृत्ताः कुलपांसनाः। स्त्रियः सर्वाश्च दुर्वृत्ताः प्रतिमेहन्ति या रविम्।। | 13-188-61a 13-188-61b |
अनिलद्वेषिणः शक्र गर्भस्था च्यवते प्रजा। हव्यवाहस्य दीप्तस्य समिधं ये न जुह्वति। अग्निकार्येषु वै तेषां हव्यं नाश्नाति पावकः।। | 13-188-62a 13-188-62b 13-188-62c |
क्षीरं तु बालवत्सानां ये पिबन्तीह मानवाः। न तेषां क्षीरपाः केचिज्जायन्ते कुलवर्धनाः।। | 13-188-63a 13-188-63b |
प्रजाक्षयेण युज्यन्ते कुलवंशक्षयेण च। एवमेतत्पुरा दृष्टं कुलवृद्धैर्द्विजातिभिः।। | 13-188-64a 13-188-64b |
तस्माद्वर्ज्यानि वर्ज्यानि कार्यं कार्यं च नित्यशः। भूतिकामेनि मर्त्येन सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 13-188-65a 13-188-65b |
ततः सर्वा महाभाग देवताः समरुद्गणाः। ऋषयश्च महाभागाः पृच्छन्ति स्म पितॄंस्ततः।। | 13-188-66a 13-188-66b |
पितरः केन तुष्यन्ति मर्त्यानामल्पचेतसाम्। अक्षयं च कथं दानं भवेच्चैवौर्ध्वदेहिकम्।। | 13-188-67a 13-188-67b |
आनृण्यं वा कथं मर्त्या गच्छेयुः केन कर्मणा। एतदिच्छामहे श्रोतुं परं कौतूहलं हि नः।। | 13-188-68a 13-188-68b |
पितर ऊचुः। | 13-188-69x |
न्यायतो वै महाभागाः संशयः समुदाहृतः। श्रूयतां येन तुष्यामो मर्त्यानां साधुकर्मणाम्।। | 13-188-69a 13-188-69b |
नीलषण्डप्रमोक्षेण अणावास्यां तिलोदकैः। वर्षासु दीपकैश्चैव पितॄणामनृणो भवेत्।। | 13-188-70a 13-188-70b |
अक्षयं निर्व्यलीकं च दानमेतन्महाफलम्। अस्माकं परितोषश्च अक्षयः परिकीर्त्यते।। | 13-188-71a 13-188-71b |
श्रद्धधानाश्च ये मर्त्या आहरिष्यन्ति सन्ततिम्। दुर्गात्ते तारयिष्यन्ति नरकात्प्रपितामहान्।। | 13-188-72a 13-188-72b |
पितॄणां भाषितं श्रुत्वा हृष्टरोमा तपोधनः। वृद्धगार्ग्यो महातेजास्तानेवं वाक्यमब्रवीत्।। | 13-188-73a 13-188-73b |
के गुणा नीलषण्डस्य प्रमुक्तस्य तपोधनाः। वर्षासु दीपदानेन तथैव च तिलोदकैः।। | 13-188-74a 13-188-74b |
पितर ऊचुः। | 13-188-75x |
नीलषण्डस्य लाङ्गूलं तोयमभ्युद्दरेद्यदि। षष्टिं वर्षसहस्राणि पितरस्तेन तर्पिताः।। | 13-188-75a 13-188-75b |
यस्तु शृङ्गगतं पङ्क्तं कूलादुद्धृत्य तिष्ठति। पितरस्तेन गच्छन्ति सोमलोकमसंशयम्।। | 13-188-76a 13-188-76b |
वर्षासु दीपदानेन शशीवच्छोभते नरः। तमोरूपं न तस्यास्ति दीपकं यः प्रयच्छति।। | 13-188-77a 13-188-77b |
अमावास्यां तु ये मर्त्याः प्रयच्छन्ति तिलोदकम्। पात्रमौदुम्बरं गृह्य मधुमिश्रं तपोधन। कृतं भवति तैः श्राद्धं सरहस्यं यथार्थवत्।। | 13-188-78a 13-188-78b 13-188-78c |
हृष्टपुष्टमनास्तेषां प्रजा भवति नित्यदा। कुलवंशस्य वृद्धिस्तु पिण्डदस्य फलं भवेत्। श्रद्दधानस्तु यः कुर्यात्पितॄणामनृणो भवेत्।। | 13-188-79a 13-188-79b 13-188-79c |
एवमेव समुद्दिष्टः श्राद्धकालक्रमस्तथा। विधिः पात्रं फलं चैव यथावदनुकीर्तितम्।।] | 13-188-80a 13-188-80b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 188 ।। |
13-188-5 यमेनप्राप्तमिति शेषः।। 13-188-9 दशानां पशूनां सूना वधो यत्र सा पशुघ्नजातिर्दशसूना। चक्रं चक्रवान् तैलिकः। ध्वजः सुरापायी। नृपः क्षुद्रो राजा।। 13-188-10 एवं दुष्प्रतिग्रहपराङ्मुखेन त्रिवर्गशास्त्रं धर्मार्थकामशास्त्राणि ज्ञेयानि।। 13-188-14 पठन्ति शास्त्रम्। उपतिष्ठति सम्यक् स्फुरत्याचष्टे च यः स स्वयं नारायण एवेति ज्ञातव्यः।। 13-188-19 सनरान् सहर्षीन्प्राप्तः प्रष्टुमिति शेषः।। 13-188-22 पूज्य सम्पूज्य।। 13-188-34 चिरजीविनं मार्कण्डेयम्।। 13-188-40 यतः ऋत्विक् श्राद्धभोक्ता यजमानस्य पितृत्वं गच्छति तस्मादन्यात्मतां गतः स्वस्त्रियं न गच्छेत्। पारदार्यदोषतुल्यं ह्येतदित्यर्थः।। 13-188-41 एतच्च वरणमारभ्य द्रष्टव्यमित्याशयेनाह शुचिनेति।। 13-188-50 वटकषायेण वटजटाकषायेण। प्रियङ्गुः राजसर्षपः षष्टिकान् षष्टिरात्रेण पक्वधान्यम्।। 13-188-52 विभावसुं सूर्यम्।।
अनुशासनपर्व-187 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-189 |