सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-188

विकिस्रोतः तः
← अनुशासनपर्व-187 महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-188
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-189 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्राद्धविद्यादिप्रतिपादकपितृदेवदूतादिसंवादानुवादः।। 1 ।।

*युधिष्ठिर उवाच। 13-188-1x
जन्म मानुष्यकं प्राप्य कर्मक्षेत्रं सुदुर्लभम्।
श्रेयोर्थिना दरिद्रेण किं कर्तव्यं पितामह।।
13-188-1a
13-188-1b
दानानामुत्तमं यच्च देयं यच्च यथायथा।
मान्यान्पूज्यांश्च गाङ्गेय रहस्यं वक्तुमर्हसि।।
13-188-2a
13-188-2b
वैशम्पायन उवाच। 13-188-3x
एवं पृष्टो नरेन्द्रेण पाण्डवेन यशस्विना।
धर्माणां परमं गुह्यं भीष्मः प्रोवाच पार्थिवम्।।
13-188-3a
13-188-3b
भीष्म उवाच। 13-188-4x
शृणुष्वावहितो राजन्धर्मगुह्यानि भारत।
यथाहि भगवान्व्यासः पुरा कथितवान्मयि।।
13-188-4a
13-188-4b
देवगुह्यमिदं राजन्यमेनाक्लिष्टकर्मणा।
नियमस्थेन युक्तेन तपसो महतः फलम्।।
13-188-5a
13-188-5b
येन यः प्रीयते देवः प्रीयन्ते पितरस्तथा।
ऋषयः प्रमथाः श्रीश्च चित्रगुप्तो दिशां गजाः।।
13-188-6a
13-188-6b
ऋषिधर्मः स्मृतो यत्र सरहस्यो महाफलः।
महादानफलं चैव सर्वयज्ञफलं तथा।।
13-188-7a
13-188-7b
यश्चैतदेवं जानीयाज्ज्ञात्वा वा कुरुतेऽनघ।
सदोषोऽदोषवांश्चेह तैर्गुणैः सह युज्यते।।
13-188-8a
13-188-8b
दशसूनासमं चक्रं दशचक्रसमो ध्वजः।
दशध्वजसमा वेश्या दशवेश्यासमो नृपः
13-188-9a
13-188-9b
अर्घेनैतानि सर्वाणि नृपतिः कथ्यतेऽधिकः।
त्रिवर्गसहितं शास्त्रं पवित्रं पुण्यलक्षणम्।।
13-188-10a
13-188-10b
धर्मिव्याकरणं पुण्यं रहस्यश्रवणं महत्।
श्रोतव्यं धर्मसंयुक्तं विहितं त्रिदशैः स्वयम्।।
13-188-11a
13-188-11b
पितॄणां यत्र गुह्यानि प्रोच्यन्ते श्राद्धकर्मणि।
देवतानां च सर्वेषां रहस्यं कथ्यतेऽखिलम्।।
13-188-12a
13-188-12b
ऋषिधर्मः स्मृतो यत्र सरहस्यो महाफलः।
महायज्ञफलं चैव सर्वदानफलं तथा।।
13-188-13a
13-188-13b
ये पठन्ति सदा मर्त्या येषां चैवोपतिष्ठति।
श्रुत्वा च फलमाचष्टे स्वयं नारायणः प्रभुः।।
13-188-14a
13-188-14b
गवां फलं तीर्थफलं यज्ञानां चैव यत्फलम्।
एतत्फलमवाप्नोति यो नरोऽतिथिपूजकः।।
13-188-15a
13-188-15b
श्रोतारः श्रद्धधानाश्च येषां शुद्धं च मानसम्।
तेषां व्यक्तं जिता लोकाः श्रद्दधानेन साधुना।।
13-188-16a
13-188-16b
मुच्यते किल्बिषाच्चैव न स पापेन लिप्यते।
धर्मं च लभते नित्यं प्रेत्य लोकगतो नरः।।
13-188-17a
13-188-17b
कस्यचित्त्वथ कालस्य देवदूतो यदृच्छया।
स्थितो ह्यन्तर्हितो भूत्वा पर्यभाषत वासवम्।।
13-188-18a
13-188-18b
यो तौ कामगुणोपेतावश्विनौ भिषजां वरौ।
आज्ञयाऽहं तयोः प्राप्तः सनरान्पितृदैवतान्।।
13-188-19a
13-188-19b
कस्माद्धि मैथुनं श्राद्धे दातुर्भोक्तुश्च वर्जितम्।
केमर्थं च त्रयः पिण्डाः प्रविभक्ताः पृथक्पृथक्।।
13-188-20a
13-188-20b
प्रथमः कस्य दातव्यो मध्यमः क्व च गच्छति।
उत्तरश्च स्मृतः कस्य एतदिच्छामि वेदितुम्।।
13-188-21a
13-188-21b
श्रद्दधानेन दूतेन भाषितं धर्मसंहितम्।
पूर्वस्थास्त्रिदशाः सर्वे पितरः पूज्य खेचरम्।।
13-188-22a
13-188-22b
पितर ऊचुः। 13-188-23x
स्वागतं तेऽस्तु भद्रं ते श्रूयतां खेचरोत्तम।
गूढार्थः परमः प्रश्नो भवता समुदीरितः।।
13-188-23a
13-188-23b
श्राद्धं दत्त्वा च भुक्त्वा च पुरुषो यः स्त्रियं व्रजेत्।
पितरस्तस्य तं मासं तस्मिन्रेतसि शेरते।।
13-188-24a
13-188-24b
प्रविभागं तु पिण्डानां प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।
पिण्डो ह्यधस्ताद्गच्छंस्तु अप आविश्य भावयेत्।।
13-188-25a
13-188-25b
पिण्डं तु मध्यमं तत्र पत्नीत्वेका समश्नुते।
पिण्डस्तृतीयो यस्तेषां तं दद्याज्जातवेदसि।
एष श्राद्धविधिः प्रोक्तो यथा धर्मो न लुप्यते।।
13-188-26a
13-188-26b
13-188-26c
पितरस्तस्य तुष्यन्ति प्रहृष्टमनसः सदा।
प्रजा विवर्धते चास्य अक्षयं चोपतिष्ठति।।
13-188-27a
13-188-27b
देवदूत उवाच। 13-188-28x
आनुपूर्व्येण पिण्डानां प्रविभागः पृथक्पृथक्।
पितॄणां त्रिषु सर्वेषां निरुक्तं कथितं त्वया।।
13-188-28a
13-188-28b
एकः समुद्धृतः पिण्डो ह्यधस्तात्कस्य गच्छति।
कं वा प्रीणयते देवं कथं तारयते पितॄन्।।
13-188-29a
13-188-29b
मध्यमं तु तदा पत्नी भुङ्क्तेऽनुज्ञातमेव हि।
किमर्थं पितरस्तस्य कव्यमेव च भुञ्जते।।
13-188-30a
13-188-30b
अत्र यस्त्वन्तिमः पिण्डो गच्छते जातवेदसम्।
भवते का गतिस्तस्य कं वा समनुगच्छति।।
13-188-31a
13-188-31b
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पिण्डेषु त्रिषु या गतिः।
फलं वृत्तिं च मार्गं च यश्चैनं प्रतिपद्यते।।
13-188-32a
13-188-32b
पितर ऊचुः। 13-188-33x
सुमहानेष प्रश्नो वै यस्त्वया समुदीरितः।
रहस्यमद्भुतं चापि पृष्टाः स्म गगनेचर।।
13-188-33a
13-188-33b
एतदेव प्रशंसन्ति देवाश्च मुनयस्तथा।
तेऽप्येवं नाभिजानन्ति पितृकार्यविनिश्चयम्।
वर्जयित्वा महात्मानं चिरजीविनमुत्तमम्।।
13-188-34a
13-188-34b
13-188-34c
पितृभक्तस्तु यो विप्रो वलब्धो महायशाः।
त्रयाणामपि पिण्डानां श्रुत्वा भगवतो गतिम्।।
13-188-35a
13-188-35b
देवदूतेन यः पृष्टः श्राद्धस्य विदिनिश्चयः।
गतिं त्रयाणां पिण्डानां शृणुष्वावहितो मम।।
13-188-36a
13-188-36b
अपो गच्छति यो ह्यत्र शशिनं ह्येष प्रीणयेत्।
शशी प्रीणयते देवान्पितॄंश्चैव महामते।।
13-188-37a
13-188-37b
भुङ्क्ते तु पत्नीं यं चैषामनुज्ञाता तु मध्यमम्।
पुत्रकामाय पुत्रं तु प्रयच्छन्ति पितामहाः।।
13-188-38a
13-188-38b
हव्यवाहे तु यः पिण्डो दीयते तन्निबोध मे।
पितरस्तेन तृप्यन्ति प्रीताः कामान्दिशन्ति च।
एतत्ते कथितं सर्वं त्रिषु पिण्डेषु या गतिः।।
13-188-39a
13-188-39b
13-188-39c
ऋत्विग्यो यजमानस्य पितृत्वमनुगच्छति।
तस्मिन्नहनि मन्यन्ते परिहार्यं हि मैथुनम्।।
13-188-40a
13-188-40b
शुचिना तु सदा श्राद्धं भोक्तव्यं खेचरोत्तम।
ये मया कथिता दोषास्ते तथा स्युर्न चान्यथा।।
13-188-41a
13-188-41b
तस्मात्स्नातः शुचिः क्षान्तः श्राद्धं भुञ्जीत वै द्विजः।
प्रजा विवर्दते चास्य चश्चैवं सम्प्रयच्छति।।
13-188-42a
13-188-42b
ततो विद्युत्प्रभो नाम ऋषिराह महातपाः।
आदित्यतेजसा तस्य तुल्यं रूपं प्रकाशते।।
13-188-43a
13-188-43b
स च धर्मरहस्यानि श्रुत्वा शक्रमथाब्रवीत्।। 13-188-44a
तिर्यग्योनिगतान्सत्वान्मर्त्या हिंसन्ति मोहिताः।
कीटान्पिपीलिकान्सर्पान्मेषान्समृगपक्षिणः।
किल्बिषं सुबहु प्राप्ताः किंस्विदेषां प्रतिक्रिया।।
13-188-45a
13-188-45b
13-188-45c
ततो देवगणाः सर्वे ऋषयश्च तपोधनाः।
पितरश्च महाभागाः पूजयन्ति स्म तं मुनिम्।।
13-188-46a
13-188-46b
शक्र उवाच। 13-188-47x
कुरुक्षेत्रं गयां गङ्गां प्रभासं पुष्कराणि च।
एतानि मनसा ध्यात्वा अवगाहेत्ततो जलम्।
तथा मुच्यति पापेनि राहुणा चन्द्रमा यथा।।
13-188-47a
13-188-47b
13-188-47c
त्र्यहं स्नातः स भवति निराहारश्च वर्तते।
स्पृशते यो गवां पृष्ठं वालधिं च नमस्यति।।
13-188-48a
13-188-48b
ततो विद्युत्प्रभो वाक्यमभ्यभाषत वासवम्।
अयं सूक्ष्मतरो धर्मस्तं निबोध शतक्रतो।।
13-188-49a
13-188-49b
घृष्टो वटकषायेणि अनुलिप्तः प्रियङ्गुणा।
क्षीरेण षष्टिकान्भुक्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
13-188-50a
13-188-50b
श्रूयतां चापरं गुह्यं रहस्यमृषिचिन्तितम्।
श्रुतं मे भाषमाणस्य स्थाणोः स्थाने बृहस्पतेः।
रुद्रेण सह देवेश तन्निबोध शचीपते।।
13-188-51a
13-188-51b
13-188-51c
पर्वतारोहणं कृत्वा एकपादो विभावसुम्।
निरीक्षेत निराहार ऊर्ध्वबाहुः कृताञ्जलिः।
तपसा महता युक्त उपवासफलं लभेत्।।
13-188-52a
13-188-52b
13-188-52c
रश्मिभिस्तापितोऽर्कस्य सर्वपापमपोहति।
ग्रीष्मकालेऽथवा शीते एवं पापमपोहति।।
13-188-53a
13-188-53b
ततः पापात्प्रमुक्तस्य द्युतिर्भवति शाश्वती।
तेजसा सूर्यवद्दीप्तो भ्राजते सोमवत्पनः।।
13-188-54a
13-188-54b
मध्ये त्रिदशवर्गस्य देवराजः शतक्रतुः।
उवाच मधुरं वाक्यं बृहस्पतिमनुत्तमम्।।
13-188-54a
13-188-55b
धर्मगुह्यं तु भगवन्मानुषाणां सुखावहम्।
सरहस्याश्च ये दोषास्तान्यथावदुदीरथ।।
13-188-56a
13-188-56b
बृहस्पतिरुवाच। 13-188-57x
प्रतिमेहन्ति ये सूर्यमनिलं द्विषते च ये।
हव्यवाहे प्रदीप्ते च समिधं ये न जुह्वति।।
13-188-57a
13-188-57b
बालवत्सां च ये धेनुं दुहन्ति क्षीरकारणात्।
तेषां दोषान्प्रवक्ष्यामि तान्निबोध शचीपते।।
13-188-58a
13-188-58b
भानुमाननिलश्चैव हव्यवाहश्च वासव।
लोकानां मातरश्चैव गावः सृष्टाः स्वयंभुवा।।
13-188-59a
13-188-59b
लोकांस्तारयितुं शक्ता मर्त्येष्वेतेषु देवताः।
सर्वे भवन्तः शृणिवन्तु एकैकं धर्मनिश्चयम्।।
13-188-60a
13-188-60b
वर्षाणि षडशीतिं तु दुर्वृत्ताः कुलपांसनाः।
स्त्रियः सर्वाश्च दुर्वृत्ताः प्रतिमेहन्ति या रविम्।।
13-188-61a
13-188-61b
अनिलद्वेषिणः शक्र गर्भस्था च्यवते प्रजा।
हव्यवाहस्य दीप्तस्य समिधं ये न जुह्वति।
अग्निकार्येषु वै तेषां हव्यं नाश्नाति पावकः।।
13-188-62a
13-188-62b
13-188-62c
क्षीरं तु बालवत्सानां ये पिबन्तीह मानवाः।
न तेषां क्षीरपाः केचिज्जायन्ते कुलवर्धनाः।।
13-188-63a
13-188-63b
प्रजाक्षयेण युज्यन्ते कुलवंशक्षयेण च।
एवमेतत्पुरा दृष्टं कुलवृद्धैर्द्विजातिभिः।।
13-188-64a
13-188-64b
तस्माद्वर्ज्यानि वर्ज्यानि कार्यं कार्यं च नित्यशः।
भूतिकामेनि मर्त्येन सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।।
13-188-65a
13-188-65b
ततः सर्वा महाभाग देवताः समरुद्गणाः।
ऋषयश्च महाभागाः पृच्छन्ति स्म पितॄंस्ततः।।
13-188-66a
13-188-66b
पितरः केन तुष्यन्ति मर्त्यानामल्पचेतसाम्।
अक्षयं च कथं दानं भवेच्चैवौर्ध्वदेहिकम्।।
13-188-67a
13-188-67b
आनृण्यं वा कथं मर्त्या गच्छेयुः केन कर्मणा।
एतदिच्छामहे श्रोतुं परं कौतूहलं हि नः।।
13-188-68a
13-188-68b
पितर ऊचुः। 13-188-69x
न्यायतो वै महाभागाः संशयः समुदाहृतः।
श्रूयतां येन तुष्यामो मर्त्यानां साधुकर्मणाम्।।
13-188-69a
13-188-69b
नीलषण्डप्रमोक्षेण अणावास्यां तिलोदकैः।
वर्षासु दीपकैश्चैव पितॄणामनृणो भवेत्।।
13-188-70a
13-188-70b
अक्षयं निर्व्यलीकं च दानमेतन्महाफलम्।
अस्माकं परितोषश्च अक्षयः परिकीर्त्यते।।
13-188-71a
13-188-71b
श्रद्धधानाश्च ये मर्त्या आहरिष्यन्ति सन्ततिम्।
दुर्गात्ते तारयिष्यन्ति नरकात्प्रपितामहान्।।
13-188-72a
13-188-72b
पितॄणां भाषितं श्रुत्वा हृष्टरोमा तपोधनः।
वृद्धगार्ग्यो महातेजास्तानेवं वाक्यमब्रवीत्।।
13-188-73a
13-188-73b
के गुणा नीलषण्डस्य प्रमुक्तस्य तपोधनाः।
वर्षासु दीपदानेन तथैव च तिलोदकैः।।
13-188-74a
13-188-74b
पितर ऊचुः। 13-188-75x
नीलषण्डस्य लाङ्गूलं तोयमभ्युद्दरेद्यदि।
षष्टिं वर्षसहस्राणि पितरस्तेन तर्पिताः।।
13-188-75a
13-188-75b
यस्तु शृङ्गगतं पङ्क्तं कूलादुद्धृत्य तिष्ठति।
पितरस्तेन गच्छन्ति सोमलोकमसंशयम्।।
13-188-76a
13-188-76b
वर्षासु दीपदानेन शशीवच्छोभते नरः।
तमोरूपं न तस्यास्ति दीपकं यः प्रयच्छति।।
13-188-77a
13-188-77b
अमावास्यां तु ये मर्त्याः प्रयच्छन्ति तिलोदकम्।
पात्रमौदुम्बरं गृह्य मधुमिश्रं तपोधन।
कृतं भवति तैः श्राद्धं सरहस्यं यथार्थवत्।।
13-188-78a
13-188-78b
13-188-78c
हृष्टपुष्टमनास्तेषां प्रजा भवति नित्यदा।
कुलवंशस्य वृद्धिस्तु पिण्डदस्य फलं भवेत्।
श्रद्दधानस्तु यः कुर्यात्पितॄणामनृणो भवेत्।।
13-188-79a
13-188-79b
13-188-79c
एवमेव समुद्दिष्टः श्राद्धकालक्रमस्तथा।
विधिः पात्रं फलं चैव यथावदनुकीर्तितम्।।]
13-188-80a
13-188-80b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 188 ।।

13-188-5 यमेनप्राप्तमिति शेषः।। 13-188-9 दशानां पशूनां सूना वधो यत्र सा पशुघ्नजातिर्दशसूना। चक्रं चक्रवान् तैलिकः। ध्वजः सुरापायी। नृपः क्षुद्रो राजा।। 13-188-10 एवं दुष्प्रतिग्रहपराङ्मुखेन त्रिवर्गशास्त्रं धर्मार्थकामशास्त्राणि ज्ञेयानि।। 13-188-14 पठन्ति शास्त्रम्। उपतिष्ठति सम्यक् स्फुरत्याचष्टे च यः स स्वयं नारायण एवेति ज्ञातव्यः।। 13-188-19 सनरान् सहर्षीन्प्राप्तः प्रष्टुमिति शेषः।। 13-188-22 पूज्य सम्पूज्य।। 13-188-34 चिरजीविनं मार्कण्डेयम्।। 13-188-40 यतः ऋत्विक् श्राद्धभोक्ता यजमानस्य पितृत्वं गच्छति तस्मादन्यात्मतां गतः स्वस्त्रियं न गच्छेत्। पारदार्यदोषतुल्यं ह्येतदित्यर्थः।। 13-188-41 एतच्च वरणमारभ्य द्रष्टव्यमित्याशयेनाह शुचिनेति।। 13-188-50 वटकषायेण वटजटाकषायेण। प्रियङ्गुः राजसर्षपः षष्टिकान् षष्टिरात्रेण पक्वधान्यम्।। 13-188-52 विभावसुं सूर्यम्।।

अनुशासनपर्व-187 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-189