महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-250
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पार्वत्या महेश्वरंप्रति स्त्रीधर्मकथनम्।। 1 ।। नारदेन कृष्णंप्रति उमामहेश्वरसंवादानुवादोपसम्हारः।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-250-1x |
पतिमत्या दिवारात्रं वृत्तान्तं श्रूयतां शुभम्। पत्युः पूर्वं समुत्थाय प्रातःक्रम समाचरेत्।। | 13-250-1a 13-250-1b |
पत्युर्भावं विदित्वा तु पश्चात्सम्बोधयेत्तु तम्। नित्यं पौर्वाह्णिकं कार्यं स्वयं कुर्याद्यथाविधि।। | 13-250-2a 13-250-2b |
निवेद्य च तथाऽऽहारं यथा सम्पद्यतामिति। तथैव कुर्यात्तत्सर्वं यथा पत्युः प्रियं भवेत्।। | 13-250-3a 13-250-3b |
यथा भर्ता तथा नारी गुरूणां प्रतिपद्यते।। | 13-250-4a |
शुश्रूषापोषणविधौ पतिप्रियचिकीर्षया। भर्तुर्निष्क्रमणे कार्यं संस्मरेदप्रमादतः।। | 13-250-5a 13-250-5b |
आगतं तु पतिं दृष्ट्वा सहसा परिचारणम्। स्वयं कुर्वीत सम्प्रीत्या कायश्रमहरं परम्।। | 13-250-6a 13-250-6b |
पाद्यसनाभ्यां शयनैर्वाक्यैश्च हृदयप्रियैः। अतिथीनामागमेन प्रीतियुक्ता सदा भवेत्।। | 13-250-7a 13-250-7b |
कर्मणा वचनेनापि तोषयेदतिथीन्सदा। मङ्गलं गृहशौचं च सर्वोपकरणानि च।। | 13-250-8a 13-250-8b |
सर्वकालमवेक्षेत कारयन्ती च कुर्वती। धर्मकार्ये तु सम्प्राप्ते तद्वद्धर्मपरा भवेत्।। | 13-250-9a 13-250-9b |
अर्थकार्ये पुनर्भर्तुः प्रमादालस्यवर्जिता। सा यत्नं परमं कुर्यात्तस्यि साहाय्यकारणात्।। | 13-250-10a 13-250-10b |
धुरन्धरा भवेद्भर्तुः साध्वी धर्मार्थयोः सदा। विहारकाले वै भर्तुर्ज्ञात्वा भावं हृदि स्थितम्।। | 13-250-11a 13-250-11b |
अलङ्कृत्य यथायोगं मन्दहाससमन्वितम्। वाक्यैर्मधुरसंयुक्तैः स्मयन्ती तोषयेत्पतिम्।। | 13-250-12a 13-250-12b |
कठोराणि न वाच्यानि अन्यथा प्रमदान्तरे। यस्यां कामी भवेद्भर्ता तस्याः प्रीतिकरी भवेत्।। | 13-250-13a 13-250-13b |
अप्रमादं पुरस्कृत्य मनसा तोषयेत्पतिम्। अनन्तरमथान्येषां भोजनावेक्षणं चरेत्।। | 13-250-14a 13-250-14b |
दासीदासबलीवर्दांश्चण्डालं च शुनस्तथा। अनाथान्कृपणांश्चैव भिक्षुकांश्च तथैव च। पूजयेद्बलिभैक्षेण पत्युर्धर्मं विवर्धयेत्।। | 13-250-15a 13-250-15b 13-250-15c |
कुपितं वाऽर्थहीनं वा श्रान्तं वोपचरेत्पतिम्। यता स तुष्टः स्वस्थश्च तथा सन्तोषयेत्पतिम्।। | 13-250-16a 13-250-16b |
यथा कुटुम्बचिन्तायां विवादे वाऽर्थसञ्चये। आहूता तत्सहायार्थं तथा प्रियहितं वदेत्।। | 13-250-17a 13-250-17b |
अप्रियं च हितं ब्रूयात्तस्य धर्मार्थकाङ्क्षया। एकान्तचर्याकथनं कलहं वर्जयेत्परैः।। | 13-250-18a 13-250-18b |
बहिरालोकनं चैव मोहं व्रीडां च पैशुनम्। बह्वाशित्वं दिवास्वप्नमेवमादि विवर्जयेत्।। | 13-250-19a 13-250-19b |
रहस्येकासनं साध्वी न कुर्यादात्मजैरपि। यद्यद्दद्यान्नियत्स्वेति न्यासवत्परिपालयेत्।। | 13-250-20a 13-250-20b |
विस्मृतं वाऽपि यद्द्रव्यं प्रतिपद्यात्स्वशौचतः। यत्किञ्चित्पतिना दत्तं लब्ध्वा तत्सा सुकी भवेत्।। | 13-250-21a 13-250-21b |
अतीवाज्ञामतीर्ष्यां च दूरतः परिवर्जयेत्। बालवद्वृद्धवद्भार्या सदैवानुचरेत्पतिम्।। | 13-250-22a 13-250-22b |
भार्याया व्रतमित्येव कर्तव्यं सततं विभो। एतत्पतिव्रतावृत्तमुक्तं देव समासतः।। | 13-250-23a 13-250-23b |
न च भोगे न चैश्वर्ये न सुखे न धने तथा। स्पृहा यस्यास्तथा भर्तुः सा नारीणां पतिव्रता।। | 13-250-24a 13-250-24b |
पतिर्हि दैवतं स्त्रीणां पतिर्बन्धुः पतिर्गतिः। नान्यं गतिमहं पश्ये प्रमदाया यथा पतिः।। | 13-250-25a 13-250-25b |
जातिष्वपि च वै स्त्रीत्वं विशिष्टं मे मतिः प्रभो। कायक्लेशेन महता पुरुषः प्राप्नुयात्फलम्। तत्सर्वं लभते नारी सुखेन पतिपूजया।। | 13-250-26a 13-250-26b 13-250-26c |
यथासुखं पतिमती सर्वं पत्यनुकूलतः। ईदृशं धर्मसाकल्यं पश्य त्वं प्रमदां प्रति। एतद्विसृज्य पच्यन्ते कुस्त्रियः पापमोहिताः।। | 13-250-27a 13-250-27b 13-250-27c |
तपश्चर्या च दानं च पतौ तस्याः समर्पितम्। रूपं कुलं यशस्तेजः सर्वं तस्मिन्प्रतिष्ठितम्।। | 13-250-28a 13-250-28b |
एवं व्रतसमाचाराः स्ववृत्तेनैव शोभनाः। स्वभर्त्रा च सम गच्छेत्पुण्यलोकान्सुकर्मणा।। | 13-250-29a 13-250-29b |
वृद्धो विरुपो बीभत्सो धनवान्निर्धनोऽपि वा। एवंभूतोपि वै भर्ता स्त्रीणां भूषणमुत्तमम्।। | 13-250-30a 13-250-30b |
आढ्यं वा रूपयुक्तं वा विरूपं धनवर्जितम्। या पतिं तोषयेत्साध्वी सा पत्नीनां विशिष्यते।। | 13-250-31a 13-250-31b |
दरिद्रांश्च विरूपाश्च प्रमूढान्कुष्टसंयुतान्। पतीनुपचरेल्लोकानक्षयान्प्रतिपद्यते।। | 13-250-32a 13-250-32b |
एवं प्रवर्तमानायाः पतिः पूर्वं म्रियेत चेत्। तदाऽनुमरणं गच्छेत्पुनर्धर्मं चरेत वा।। | 13-250-33a 13-250-33b |
एतदेवं मया प्रोक्तं स्त्रियस्तु बहुधा स्मृताः। देवदानवगन्धर्वा मनुष्या इति नैकधा।। | 13-250-34a 13-250-34b |
सौम्यशीलाः शुभाचाराः सर्वास्ताः सम्भवन्ति च। यथा शुभं प्रवक्ष्यामि स्त्रीणां धर्मं महेश्वर।। | 13-250-35a 13-250-35b |
आसुर्यश्चैव पैशाच्यो राक्षस्यश्च भन्ति हि। तासां वृत्तमशेषेण श्रूयतां लोककारणात्।। | 13-250-36a 13-250-36b |
न्यायतो वाऽन्यथा प्रोक्ता भावदोषसमन्विताः। भर्तॄनुपचरन्त्येव रागद्वेषबलात्कृताः।। | 13-250-37a 13-250-37b |
स्वधर्मविमुखा भूत्वा प्रदूष्यन्ति यतस्ततः। प्रवृद्दविषया नित्यं प्रतिकूलं वदन्ति च।। | 13-250-38a 13-250-38b |
अर्थान्विनाशयन्त्येवं न गृह्णन्ति हितं क्वचित्। स्वबुद्धिनिरता भूत्वा जीवन्ति च यथा तथा।। | 13-250-39a 13-250-39b |
गुणवत्यः क्वचिद्भूत्वा पतिधर्मपरा इव। पुनर्भवन्ति पापिष्ठा विषमं वृत्तमास्थिताः।। | 13-250-40a 13-250-40b |
अनवस्थितमर्यादा बहुवेषा व्यवस्थिताः। असन्तुष्टाश्च लुब्धाश्च ईर्ष्याक्रोधयुता भृशम्।। | 13-250-41a 13-250-41b |
भोगप्रिया हितद्वेष्याः कामभोगपरायणाः। प्रायशोऽनृतभूयिष्ठा गुरूणां प्रतिलोमकाः।। | 13-250-42a 13-250-42b |
एवंवृत्तसमाचारा आसुरं भावमाश्रिताः। अपकारपरा नित्यं सततं कलहप्रिया।। | 13-250-43a 13-250-43b |
परुषा रुक्षवचना निर्घृणा निरपत्रपाः। निःस्नेहाः क्रोधनाश्चैव भर्तृपुत्रस्वबन्धुषु।। | 13-250-44a 13-250-44b |
घोरा मांसप्रिया नित्यं हसन्ति च रुदन्ति च। पतीन्व्यभिचरन्त्येव दुर्मार्गेण यथा तथा। बन्धुभिर्भर्त्सिता भूत्वा गृहकार्याणि कुर्वते।। | 13-250-45a 13-250-45b 13-250-45c |
अथवा भर्त्सिता देव निवृत्ताः स्वेषु कर्मसु। तथैवात्मवधं घोरं व्यवस्येयुर्न संशयः।। | 13-250-46a 13-250-46b |
निर्दया निरनुक्रोशाः कुटुम्बार्थविलोपकाः। धर्मर्थरहिता घोराः सततं कुर्वते क्रियाः।। | 13-250-47a 13-250-47b |
अनर्थे निपुणाः पापाः परप्राणेषु निर्दयाः। एवंयुक्तसमाचाराः स्त्रियः पैशाचमाश्रिताः।। | 13-250-48a 13-250-48b |
अपरा मोहसंयुक्ता निर्लज्जा रोदनप्रियाः। अशुद्धा मलदिग्धाङ्ग्य पानमांसरता भृशम्। वदन्त्यनृतवाक्यानि हसन्ति विलपन्ति च। | 13-250-49a 13-250-49b 13-250-49c |
दुष्पसादा महाक्रोधाः स्वप्नशीला निरन्तरम्। तामस्यो नष्टतत्वार्था मन्दशीला महोदराः। भुञ्जते विविधं सिद्धं भोजनं तीव्रसम्भ्रमाः।। | 13-250-50a 13-250-50b 13-250-50c |
गुणरूपवयोयुक्तं पतिं कामिनमुत्तमम्। हित्वाऽन्येनैव गच्छन्ति सर्वधा भृशतापिताः।। | 13-250-51a 13-250-51b |
निर्लज्जा धर्मसन्दिग्धाः प्रतिकूलाः समन्ततः। एवंरूपसमाचाराः स्त्रियो राक्षसमाश्रिताः।। | 13-250-52a 13-250-52b |
एवंविधानां सर्वासां न परत्र महासुखम्। नरकाद्विप्रमुक्तानां मानुष्यं दुर्लभं भवेत्।। | 13-250-53a 13-250-53b |
कष्टं तत्रापि भुञ्जन्ते स्वकृतं दुःखजं बहु। दरिद्राः क्लेशभूयिष्ठा विरूपाः कुत्सिताः परैः। विधवा दुर्भगा वाऽपि लभन्ते दुःखमीदृशम्।। | 13-250-54a 13-250-54b 13-250-54c |
शतवर्षसहस्राणि निरयं व्यभिचारिणी। व्रजेत्पतिं च पापेन संयोज्य स्वकुलं तथा।। | 13-250-55a 13-250-55b |
एतद्विज्ञाय पतितं पुनश्चेद्धितमात्मनः। कुर्याद्भर्तारमाश्रित्य तथा धर्मवमाप्नुयात्।। | 13-250-56a 13-250-56b |
अतिसंयान्ति ताँल्लोकान्पुण्यान्परमशोभनान्। अवमत्य च याः पूर्वं पतिं दुष्टेन चेतसा।। | 13-250-57a 13-250-57b |
वर्तमानास्च सततं भर्तॄणां प्रतिकूलतः। भर्त्रानुमरणं काले याः कुर्वन्ति तथाविधाः।। | 13-250-58a 13-250-58b |
कामात्क्रोधाद्भयाल्लोभादपहास्या भवन्ति ताः। आदिप्रभृति कुस्त्रीणां तथाऽनुमरणं वृथा।। | 13-250-59a 13-250-59b |
आदिप्रभृति या साध्वी पत्युः प्रियपरायणा। ऊर्ध्वं गच्छति सा पूता भर्त्राऽनुमरणं गता।। | 13-250-60a 13-250-60b |
एवं मृताया वै लोकानहं पश्यामि चक्षुषा। स्पृहणीयान्सुरगणैर्यान्गच्छन्ति पतिव्रताः।। | 13-250-61a 13-250-61b |
अथवा भर्तरि मृते वैधव्यं धर्ममाश्रिताः। तूष्णीं भौमं जले नित्यमञ्जलिस्नानमुत्तमम्। व्रतं च पतिमुद्दिश्य कुर्यश्चैव विधिं ततः।। | 13-250-62a 13-250-62b 13-250-62c |
एवं गच्छति सा नारी पतिलोकमनुत्तमम्। रमणीयमनिर्देश्यं दुष्प्रापं देवमानुषैः।। | 13-250-63a 13-250-63b |
प्राप्नुयात्तादृशं लोकं केवलं या पतिव्रता। इति ते कथितं देव स्त्रीणां धर्मिमनुत्तमम्।। | 13-250-64a 13-250-64b |
भवतः प्रियकामिन्या यन्मयोक्तं तवाग्रतः। चापल्यान्मम देवेश तद्भवान्क्षन्तुमर्हति।। | 13-250-65a 13-250-65b |
नारद उवाच। | 13-250-66x |
एवं वदन्तीं रुद्राणीं लज्जाभावसमन्विताम्। प्रशशंस च देवेशो वाचा सञ्जनयन्प्रियम्।। | 13-250-66a 13-250-66b |
ऋषयो देवगन्धर्वाः प्रमदाश्च सहस्रशः। प्रणम्य शिरसा देवीं स्तुतिभिश्चाभितुष्टुवुः।। | 13-250-67a 13-250-67b |
पूजयामासुरपरे देवदेव मुदा युताः। संवादं चिन्तयन्त्यन्ते श्रद्दधानाः सुचेतसः।। | 13-250-68a 13-250-68b |
ततस्तु देवदेवेशो देवीं वचनमब्रवीत्। शृणु कल्याणि मद्वाक्यं संवादोऽयं मया तव। पुण्यं पवित्रं ख्यातं च भविता नात्र संशयः।। | 13-250-69a 13-250-69b 13-250-69c |
य इमं श्रावयेद्विद्वान्संवादं चावयोः प्रिये। शुचिर्भूत्वा नरान्युक्तान्स तैः स्वर्गं व्रजेत्सुखम्।। | 13-250-70a 13-250-70b |
यस्त्वेनं शृणुयान्नित्यं संवादं चावयोः शुभम्। कीर्तिमायुष्यमारोग्यं लभते स गतिं पराम्।। | 13-250-71a 13-250-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 250 ।। |
अनुशासनपर्व-249 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-251 |