महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-227
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ईश्वरेणोमांप्रति प्राणिनामुद्भिदादिभेदेन चातुर्विध्यादिनिरूपणम्।। 1 ।। तथा शास्त्रजन्यज्ञानस्य श्रेयः साधनत्वाद्युक्तिः।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-227-1x |
भगवन्देवदेवेश कर्मणैव शुभाशुभम्। यथायोगं फलं जन्तुः प्राप्नोतीति विनिश्चयः।। | 13-227-1a 13-227-1b |
परेषां विप्रियं कुर्वन्यथा सम्प्राप्नुयाच्छुभम्। यद्येतदस्मिंश्चेद्देहे तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-227-2a 13-227-2b |
महेश्वर उवाच। | 13-227-3x |
तदप्यस्ति महाभागे अभिसन्धिबलान्नृणम्। हितार्थं दुःखमन्येषां कृत्वा सुखमवाप्नुयात्।। | 13-227-3a 13-227-3b |
दण्डयन्भर्त्सयन्राजा जनान्पुण्यमवाप्नुयात्। गुरुः सन्तर्जयञ्शिष्यान्भर्ता भृत्यजनान्स्वकान्। उन्मार्गप्रतिपन्नांश्च शास्ता धर्मफलं लभेत्।। | 13-227-4a 13-227-4b 13-227-4c |
चिकित्सकश्च दुःखानि जनयन्हितमाप्नुयात्। यज्ञार्थं पशुहिंसां च कुर्वन्नपि न लिप्यते। एवमन्ये सुमनसो हिंसकाः स्वर्गमाप्नुयुः।। | 13-227-5a 13-227-5b 13-227-5c |
एकस्मिन्निहते भद्रे बहवः सुखमाप्नुयुः। तस्मिन्हते भवेद्धर्मः कुत एव तु पातकम्।। | 13-227-6a 13-227-6b |
अहिंसतेति हत्वा तु शुद्धे कर्मणि गौरवात्। अभिसन्धेरजिह्मत्वाच्छुद्धे धर्मस्य गौरवात्। एतत्कृत्वा तु पापेभ्यो न दोषं प्राप्नुयुः क्वचित्।। | 13-227-7a 13-227-7b 13-227-7c |
उमोवाच। | 13-227-8x |
चतुर्विधानां जन्तूनां कथं ज्ञानमिह स्मृतम्। कृत्रिमं तत्स्वभावं वा तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-227-8a 13-227-8b |
महेश्वर उवाच। | 13-227-9x |
स्थावरं जङ्गमं चैव जगद्द्विविधमुच्यते। चतस्रो योनयस्तत्र प्रजानां क्रमशो यथा।। | 13-227-9a 13-227-9b |
तेषामुद्भिदजा वृक्षा लतावल्ल्यश्च वीरुधः। दंशयूकादयश्चान्ये स्वेदजाः क्रिमिजातयः।। | 13-227-10a 13-227-10b |
पक्षिणश्छिद्कर्णाश्च प्राणिनस्त्वण्डजा मताः। मृगव्यालमनुष्यांश्च विद्धि तेषां जरायुजान्।। | 13-227-11a 13-227-11b |
एवं चतुर्विधां जातिमात्मा संसृत्य तिष्ठति।। | 13-227-12a |
स्पर्शेनैकेन्द्रियेणात्मा तिष्ठत्युद्भिदजेषु वै। शरीरस्पर्शरूपाभ्यां स्वेदजेष्वपि तिष्ठति।। | 13-227-13a 13-227-13b |
पञ्चभिश्चेन्द्रियद्वारैर्जीवन्त्यण्डजरायुजाः।। | 13-227-14a |
तथा भूम्यम्बुसंयोगाद्भवन्त्युद्भिदजाः प्रिये। शीकतोष्णयोस्तु संयोगाज्जायन्ते स्वेदजाः प्रिये। अण्डजाश्चापि जायन्ते संयोगात्क्लेदबीजयोः।। | 13-227-15a 13-227-15b 13-227-15c |
शुक्लशोणितसंयोगात्सम्भवन्ति जरायुजाः। जरायुजानां सर्वेषां मानुषं पदमुत्तमम्।। | 13-227-16a 13-227-16b |
अतःपरं तमोत्पत्तिं शृणु देवि समाहिता। द्विविधं हि तमो लोके शार्वरं देहजं तथा।। | 13-227-17a 13-227-17b |
जोतिर्भिश्च तमो लोके नाशं गच्छति शार्वरम्। देहजं तु तमो लोके तैः समस्तैर्न शाम्यते।। | 13-227-18a 13-227-18b |
तमसस्तस्य नाशार्थं नोपायमधिजग्मिवान्। तपश्चचार वलिपुलं लोककर्ता पितामहः।। | 13-227-19a 13-227-19b |
चरतस्तु समुद्भूता वेदाः साङ्गाः सहोत्तराः। ताँल्लब्ध्वा मुमुदे ब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया। देहजं तु तमो घोरमभूत्तैरेव नाशितम्।। | 13-227-20a 13-227-20b 13-227-20c |
कार्याकार्यमिदं चेति वाच्यावाच्यमिदं त्विति। यदि चेन्न भवेल्लोके श्रुतं चारित्रदैशिकम्। पसुभिर्निर्विशेषं तु चेष्टन्ते मानुषा अपि।। | 13-227-21a 13-227-21b 13-227-21c |
यज्ञादीनां समारम्भः श्रुतेनैव विधीयते। यज्ञस्य फलयोगेन देवलोकः समृद्ध्यते।। | 13-227-22a 13-227-22b |
प्रीतियुक्ताः पुनर्देवा मानुषाणां भवन्त्युत। एवं नित्यं प्रवर्धेते रोदसी च परस्परम्।। | 13-227-23a 13-227-23b |
लोकसन्धारणं तस्माच्छ्रुतमित्यवधारय। ज्ञानाद्विशिष्टं जन्तूनां नास्ति लोकत्रयेऽपि च।। | 13-227-24a 13-227-24b |
सहजं तत्प्रधानं स्यादपरं कृत्रिमं स्मृतम्। उभयं यत्र सम्पन्नं भवेत्तत्र तु शोभनम्।। | 13-227-25a 13-227-25b |
सम्प्रगृह्य श्रुतं सर्वं कृतकृत्यो भवत्युत। उपर्युपरि मर्त्यानां देववत्सम्प्रकाशते।। | 13-227-26a 13-227-26b |
कामं क्रोधं भयं दर्पमज्ञानं चैव बुद्धिजम्। तच्छ्रुतं नुदति क्षिप्रं यथा वायुर्बलाहकान्।। | 13-227-27a 13-227-27b |
अल्पमात्रं कृतो धर्मो भवेज्झानवतां महान्। महानपि कृतो धर्मो ह्यज्ञानान्निष्फलो भवेत्।। | 13-227-28a 13-227-28b |
परावरझो भूतानां ज्ञानवांस्तत्वविद्भवेत्। एवं श्रुतफलं सर्वं कथितं ते शुभक्षणे।। | 13-227-29a 13-227-29b |
उमोवाच। | 13-227-30x |
भगवन्मानुषाः केचिज्जातिस्मरणसंयुताः। किमर्थमभिजायन्ते जानन्तः पौर्वदैहिकम्। एतन्मे तत्वतो देव मानुषेषु वदस्व भो।। | 13-227-30a 13-227-30b 13-227-30c |
महेश्वर उवाच। | 13-227-31x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु तत्वं समाहिता।। | 13-227-31a |
ये मृताः सहसा मर्त्या जायन्ते सहसा पुनः। तेषां पौराणिको बोधः कञ्चित्कालं हि तिष्ठति।। | 13-227-32a 13-227-32b |
तस्माज्जातिस्मरा लोके जायन्ते बोधसंयुताः। तेषां विवर्धतां संज्ञा स्वप्नवत्सा प्रणश्यति। परलोकस्य चास्तित्वे मूढानां कारणं च तत्।। | 13-227-33a 13-227-33b 13-227-33c |
उमोवाच। | 13-227-34x |
भगवन्मानुषाः केचिन्मृता भूत्वाऽपि सम्प्रति। निवर्तमाना दृश्यन्ते देहेष्वेव पुनर्नराः।। | 13-227-34a 13-227-34b |
महेश्वर उवाच। | 13-227-35x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि कारणं शृणु शोभने।। | 13-227-35a |
प्राणैर्वियुज्यमानानां बहुत्वात्प्राणिनां वधे। तथैव नामसामान्याद्यमदूता नृणां प्रति।। | 13-227-36a 13-227-36b |
वहन्ति ते क्वचिन्मोहादन्यं मर्त्यं तु यामिकाः। निर्विकारं हि तत्सर्वं यमो वेद कृताकृतम्।। | 13-227-37a 13-227-37b |
तस्मात्संयमनीं प्राप्य यमेनैकेन मोक्षिताः। पुनरेव निवर्तन्ते शेषं भोक्तुं स्वकर्मणः। स्वकर्मण्यसमाप्ते तु निवर्तन्ते हि मानवाः।। | 13-227-38a 13-227-38b 13-227-38c |
उमोवाच। | 13-227-39x |
भगवन्सुप्तमात्रेण प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्। किं तत्स्वभावमन्यद्वा तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-227-39a 13-227-39b |
महेश्वर उवाच। | 13-227-40x |
सुप्तानां तु मनश्चेष्टा स्वप्न इत्यभिधीयते। अनागतमतिक्रान्तं पश्यते सञ्चरन्मनः।। | 13-227-40a 13-227-40b |
निमित्तं च भवेत्तस्मात्प्राणिनां स्वप्नदर्शनम्। एतत्ते कथितं देवि भूयः श्रोतु किमिच्छसि।। | 13-227-41a 13-227-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 227 ।। |
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