महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-230
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-229 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-230 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-231 → |
परमेश्वरेण पार्वतींप्रति रौरवादिनरकविभजनपूर्वकं प्राणिनां दुष्कृततारतम्येन तेषु यातनानुभवप्रकारकथनम्।। 1 ।। तथा यातनानुभवानन्तरं कर्मशेषफलतया नानानीचयोनिप्राप्त्यादिकथनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-230-1x |
भगवंस्ते कथं तत्र दण्ड्यन्ते नरकेषु वै। कति ते नरका घोराः कीदृशास्ते महेश्वर।। | 13-230-1a 13-230-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-230-2x |
शृणु भामिनि तत्सर्वं पञ्चैते नरकाः स्मृताः। भूमेरधस्ताद्विहिता घोरा दुष्कृतकर्मणाम्।। | 13-230-2a 13-230-2b |
प्रथमं रौरवं नाम शतयोजनमायतम्। तावत्प्रमाणविस्तीर्णं तामसं पापपीडितम्।। | 13-230-3a 13-230-3b |
भृशं दुर्गन्धि परुषं क्रिमिभिर्दारुणैर्वृतम्। अतिघोरमनिर्देश्यं प्रतिकूलं ततस्ततः।। | 13-230-4a 13-230-4b |
ते चिरं तत्र तिष्ठन्ति न तत्र शयनासने। क्रिमिभिर्भक्ष्यमाणाश्च विष्ठागन्धसमायुताः।। | 13-230-5a 13-230-5b |
एवंप्रमाणमुद्विग्ना यावत्तिष्ठन्ति तत्र ते। यातनाभ्यो दशगुणं नरके दुःखमिष्यते।। | 13-230-6a 13-230-6b |
तत्र चात्यन्तिकं दुःखमिष्यते च शुभेक्षणे क्रोशन्तश्च रुद्रन्तश्च वेदनास्तत्रि भुञ्जते।। | 13-230-7a 13-230-7b |
भ्रमन्ति दुःखमोक्षार्थं ज्ञाता कश्चिन्न विद्यते। दुःखस्यान्तरमात्रं तु ज्ञानं वा न च लभ्यते।। | 13-230-8a 13-230-8b |
महारौरवसंज्ञं तु द्वितीयं नरकं प्रिये। तस्माद्द्विगुणितं विद्धि माने दुःखे च रौरवात्।। | 13-230-9a 13-230-9b |
तृतीयं नरकं तत्र कण्टिकावनसंज्ञितम्। ततो द्विगुणितं तच्च पूर्वाभ्यां दुःखमानयोः। महापातकसंयुक्ता घोरास्तस्मिन्विशन्ति हि।। | 13-230-10a 13-230-10b 13-230-10c |
अग्निकुण्डमिति ख्यातं चतुर्थं नरकं प्रिये। एतद्द्विगुणितं तस्माद्यथानिष्टसुखं तथा।। | 13-230-11a 13-230-11b |
ततो दुःखं हि सुमहदमानुषमिति स्मृतम्। भुञ्जते तत्रतत्रैव दुःखं दुष्कृतकारिणः।। | 13-230-12a 13-230-12b |
तत्र दुःखमनिर्देश्यं वहद्धोरं यथा तथा। पञ्चेन्द्रियैरसम्बाधात्पञ्चकष्टमिति स्मृतम्। भुञ्जते तत्रतत्रैव दुःखं दुष्कृतकारिणः।। | 13-230-13a 13-230-13b 13-230-13c |
अमानुषार्हजं दुःखं महाभूतैश्च भुञ्जते। अतिघोरं चिरं कृत्वा महाभूतानि यान्ति तम्।। | 13-230-14a 13-230-14b |
पञ्च् कष्टेन हि समं नास्ति दुःखं तथा परम्। दुःखस्थानमिति प्राहुः पञ्चकष्टमिति प्रिये।। | 13-230-15a 13-230-15b |
एवं त्वेतेषु तिष्ठन्ति प्राणिनोः दुःखभागिनः। अन्ये च नरकाः सन्ति अवीचिप्रमुखाः प्रिये।। | 13-230-16a 13-230-16b |
क्रोशन्तश्च रुदन्तश्च वेदनर्ता भृशातुराः। केचिद्भमन्तश्चेष्टन्ते केचिद्धावन्ति चातुराः।। | 13-230-17a 13-230-17b |
आधावन्तो निवार्यन्ते शूलहस्तैर्यतस्ततः। रुजार्दितास्तृषायुक्ताः प्राणिनः पापकारिणः।। | 13-230-18a 13-230-18b |
यावत्पूर्वकृतं तावन्न मुच्यन्ते कथञ्चन। क्रिमिभिर्भक्ष्यमाणाश्च वेदनार्तास्तृषान्विताः।। | 13-230-19a 13-230-19b |
संस्मरन्तः स्वकं पापं कृतमात्मापराधजम्। शोचन्तस्तत्र तिष्ठन्ति यावत्पापक्षयं प्रिये। एवं भुक्त्वा तु नरकं मुच्यन्ते पापसंक्षयात्।। | 13-230-20a 13-230-20b 13-230-20c |
उमोवाच। | 13-230-21x |
भगवन्कतिकालं ते तिष्ठन्ति नरकेषु वै।। | 13-230-21a |
महेश्वर उवाच। | 13-230-22x |
शतवर्षसहस्राणामादिं कृत्वा हि जन्तवः। | 13-230-22a |
तिष्ठन्ति नरकावासाः प्रलयान्तमिति स्थितिः।। | 13-230-22a |
उमोवाच। | 13-230-23x |
भगवंस्तेषु के तत्र तिष्ठन्तीति वद प्रभो।। | 13-230-23a |
महेश्वर उवाच। | 13-230-24x |
रौरवे शतसाहस्रं वर्षाणामिति संस्थितिः। | 13-230-24a |
मानुषघ्नाः कृतघ्नाश्च तथैवानृतवादिनः।। | 13-230-24a |
द्वितीये द्विगुणं कालं पच्यन्ते तादृशा नराः। महापातकयुक्तास्तु तृतीये दुःखमाप्नुयुः।। | 13-230-25a 13-230-25b |
एतावन्मानुषसहं परमन्येषु लक्ष्यते।। | 13-230-26a |
यक्षा विद्याधराश्चैव काद्रवेयाश्च किंनराः। गन्धर्वभूतसङ्घाश्च तेषां पापयुता भृशम्। चतुर्थे परिपच्यन्ते तादृशा नरकाः स्मृताः।। चतुर्थे परितप्यन्ते यावद्युगविपर्ययः। | 13-230-27a 13-230-27b 13-230-27c 13-230-27b |
सहन्तस्तादृशं घोरं पञ्चकष्टे तु यादृशम्। तत्रास्य चिरदुःखस्य ह्यधोन्यान्विद्धि मानुषान्।। | 13-230-28a 13-230-28b |
एवं ते नरकान्भुक्त्वा तत्र क्षपितकल्मषाः। नरकेभ्यो विमुक्ताश्च जायन्ते कृमिजातिषु।। | 13-230-29a 13-230-29b |
उद्भेदजेषु वा केचिदत्रापि क्षीणकल्मषाः। पुनरेव प्रजायन्ते मृगपक्षिषु शोभने। मृगपक्षिषु तद्भुक्त्वा लभन्ते मानुषं पदम्।। | 13-230-30a 13-230-30b 13-230-30c |
उमोवाच। | 13-230-31x |
नानाजातिषु केनैव जायन्ते पापकारिणः।। | 13-230-31a |
महेश्वर उवाच। | 13-230-32x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि यत्त्वमिच्छसि शोभने। सर्वदाऽऽत्मा कर्मवशो नानाजातिषु जायते।। | 13-230-32a 13-230-32b |
यश्च मांसप्रियो नित्यं काकगृध्नान्स संस्पृशेत्। सुरापः सततं मर्त्यः सूकरत्वं व्रजेद्भुवम्।। | 13-230-33a 13-230-33b |
अभक्ष्यभक्षणो मर्त्यः काकजातिषु जायते। आत्मघ्नो यो नरः कोपात्प्रेतजातिसु तिष्ठति।। | 13-230-34a 13-230-34b |
पैशुन्यात्परिवादाच्च कुक्कुटत्वमवाप्नुयात्। नास्तिकश्चैव यो मूर्खो मृगजातिं स गच्छति।। | 13-230-35a 13-230-35b |
हिंसाविहारस्तु नरः क्रिमिकीटेषु जायते। अतिमानयुतो नित्यं प्रेत्य गर्दभतां व्रजेत्।। | 13-230-36a 13-230-36b |
अगम्यागमनाच्चैव परदारनिषेवणात्। मूषिकत्वं व्रजेन्मर्त्यो नास्ति तत्र विचारणा।। | 13-230-37a 13-230-37b |
कृतघ्नो मित्रघाती च सृगालवृकजातिषु। कृतघ्नः पुत्रघाती च स्थावरेष्वथ तिष्ठति।। | 13-230-38a 13-230-38b |
एवमाद्यशुभं कृत्वा नरा निरयगामिनः। तांस्तान्भावान्प्रपद्यन्ते स्वकृतस्यैव कारणात्।। | 13-230-39a 13-230-39b |
एवंजातिषु निर्देश्याः प्राणिनः पापकारिणः। कथंचित्पुनरुत्पद्यि लभन्ते मानुषं पदम्।। | 13-230-40a 13-230-40b |
बहुशश्चाग्निसङ्क्रान्तं लोहं शुचिमयं तथा। बहुदुःखाभिसन्तप्तस्तथाऽऽत्मा शोध्यते बलात्। तस्मात्सुदुर्लभं चेति विद्धि जन्मसु मानुषम्।। | 13-230-41a 13-230-41b 13-230-41c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 230 ।। |
अनुशासनपर्व-229 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-231 |