महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-064
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति नद्यादितीर्थानां तत्तन्नामविशेषनिर्देशेन तत्सेवनफलप्रतिपादकगौतमाङ्गिरःसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-64-1x |
तीर्थानां दर्शनं श्रेयः स्नानं च भरतर्षभ। श्रवणं च महाप्राज्ञ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। | 13-64-1a 13-64-1b |
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि भरतर्षभ। वक्तुमर्हसि मे तानि श्रोताऽस्मि नियतं प्रभो।। | 13-64-2a 13-64-2b |
भीष्म उवाच। | 13-64-3x |
इममङ्गिरसा प्रोक्तं तीर्थवंशं महाद्युते। श्रोतुमर्हसि भद्रं ते प्राप्स्यसे धर्ममुत्तमम्।। | 13-64-3a 13-64-3b |
तपोवनगतं विप्रमभिगम्य महामुनिम्। पप्रच्छाङ्गिरसं धीरं गौतमः संशितव्रतः। | 13-64-4a 13-64-4b |
अस्ति मे भगवन्कश्चित्तीर्थेभ्यो धर्मसंशयः। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि तन्मे शंस महामुने।। | 13-64-5a 13-64-5b |
उपस्पृश्य फलं किं स्यात्तेषु तीर्थेषु वै मुने। प्रेत्यभावे महाप्राज्ञ तद्यथाऽस्ति तथा वद।। | 13-64-6a 13-64-6b |
अङ्गिरा उवाच। | 13-64-7x |
सप्ताहं चन्द्रभागां वै वितस्तामूर्मिमालिनीम्। विगाह्य वै निराहारो निर्मलो मुनिवद्भवेत्।। | 13-64-7a 13-64-7b |
काश्मीरमण्डले नद्यो याः पतन्ति महास्वनम्। ता नदीः सिन्धुमासाद्य शीलवान्स्वर्गमाप्नुयात्।। | 13-64-8a 13-64-8b |
पुष्करं च प्रभासं च नैमिषं सागरोदकम्। देविकामिन्द्रमार्गं च स्वर्णबिन्दुं विगाह्य च।। | 13-64-9a 13-64-9b |
विबोध्यते विमानस्थः सोऽप्सरोभिरभिष्टुतः। हिरण्यबिन्दुमालक्ष्य प्रयतश्चाभिवाद्य च।। | 13-64-10a 13-64-10b |
कुशेशये च देवत्वं धूयते तस्य किल्बिषम्। इन्द्रतोयां समासाद्य गन्धमादनसन्निधौ।। | 13-64-11a 13-64-11b |
करतोयां कुरुङ्गे च त्रिरात्रोपोषितो नरः। अश्वमेधमवाप्नोति विगाह्य प्रयतः शुचिः।। | 13-64-12a 13-64-12b |
गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नीलपर्वते। तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत्।। | 13-64-13a 13-64-13b |
अपां ह्रद उपस्पृश्य वाजिमेधफलं लभेत्। ब्रह्मचारी जितक्रोधः सत्यसन्धस्त्वहिंसकः।। | 13-64-14a 13-64-14b |
यत्र भागीरथी गङ्गा वहते दिशमुत्तरम्। महेश्वरस्य त्रिस्थाने यो नरस्त्वभिषिच्यते।। | 13-64-15a 13-64-15b |
एकमासं निराहारः स पश्यति हि देवताः। सप्तगङ्गे त्रिगङ्गे च इन्द्रमार्गे च तर्पयन्।। | 13-64-16a 13-64-16b |
अर्थान्वै लभते भोक्तुं यो नरो जायते पुनः। महाश्रम उपस्पृश्य योऽग्निहोत्रपरः शुचिः।। | 13-64-17a 13-64-17b |
एकमासं निराहारः सिद्धिं मासेन स व्रजेत्। महाह्रद उपस्पृश्य भृगुतुङ्गे त्वलोलुपः।। | 13-64-18a 13-64-18b |
त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया। कन्याकूप उपस्पृश्य बलाकायां कृतोदकः।। | 13-64-19a 13-64-19b |
देवेषु लभते कीर्तिं यशसा च विराजते।। | 13-64-20a |
देविकायामुपस्पृश्य तथा सुन्दरिकाह्रदे। अश्विन्यां रूपवर्चस्कं प्रेत्य वै लभते नरः।। | 13-64-21a 13-64-21b |
महागङ्गामुपस्पृश्य कृत्तिकाङ्गारके तथा। पक्षमेकं निराहारः स्वर्गमाप्नोति निर्मलः।। | 13-64-22a 13-64-22b |
वैमानिक उपस्पृश्य किङ्किणीकाश्रमे तथा। निवासेऽप्सरसां दिव्ये कामचारी महीयते।। | 13-64-23a 13-64-23b |
कालिकाश्रममासाद्य विपाशायां कृतोदकः। ब्रह्मचारी जितक्रोधस्त्रिरात्रं मुच्यते भवात्।। | 13-64-24a 13-64-24b |
आश्रमे कृत्तिकानां तु स्नात्वा यस्तर्पयेत्पितॄन्। तोषयित्वा महादेवं निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्।। | 13-64-25a 13-64-25b |
महाकूपमुपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितः शुचिः। त्रसानां स्थावराणां च द्विपदानां भयं त्यजेत्।। | 13-64-26a 13-64-26b |
देवदारुवने स्नात्वा धूतपाप्मा कृतोदकः। देवशब्दमवाप्नोति सप्तरात्रोषितः शुचिः।। | 13-64-27a 13-64-27b |
शरस्तम्बे कुशस्तम्बे द्रोणशर्मपदे तथा। अपांप्रपतनासेवी सेव्यते सोप्सरोगणैः।। | 13-64-28a 13-64-28b |
चित्रकूटे जनस्थाने तथा मन्दाकिनीजले। विगाह्य वै निराहारो राजलक्ष्म्या निषेव्यते।। | 13-64-29a 13-64-29b |
श्यामायास्त्वाश्रमं गत्वा उषित्वा चाभिषिच्य च। एकपक्षं निराहारस्त्वन्तर्धानफलं लभेत्।। | 13-64-30a 13-64-30b |
कौशिकीं तु समासाद्य वायुभक्षस्त्वलोलुपः। एकविंशतिरात्रेण स्वर्गमारोहते नरः।। | 13-64-31a 13-64-31b |
मतङ्गवाप्यां यः स्नायादेकरात्रेण सिध्यति। विगाहति ह्यनालम्बमन्धकं वै सनातनम्।। | 13-64-32a 13-64-32b |
नैमिषे स्वर्गतीर्थे च उपस्पृश्य जितेन्द्रियः। फलं पुरुषमेधस्य लभेन्मासं कृतोदकः।। | 13-64-33a 13-64-33b |
गङ्गाह्रद उपस्पृस्य तथा चैवोत्पलावने। अश्वमेघमवाप्नोति तत्र मासं कृतोदकः।। | 13-64-34a 13-64-34b |
गङ्गायमुनयोस्तीर्थे तथा कालञ्जरे गिरौ। दशाश्वमेधानाप्नोति तत्र मासं कृतोदकः।। | 13-64-35a 13-64-35b |
यष्टिह्रद उपस्पृश्य चान्नदानाद्विशिष्यते।। | 13-64-36a |
दशतीर्थसहस्राणि तिस्रः कोट्यस्तथाऽपराः। समागच्छन्ति माघ्यां तु प्रयागे भरतर्षभ।। | 13-64-37a 13-64-37b |
माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः। स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्।। | 13-64-38a 13-64-38b |
मरुद्गण उपस्पृश्य पितॄणामाश्रमे शुचिः। वैवस्वतस्य तीर्थे च तीर्थभूतो भवेन्नरः।। | 13-64-39a 13-64-39b |
तथा ब्रह्मसरो गत्वा भागीरथ्यां कृतोदकः। एकमासं निराहारः सोमलोकमवाप्नुयात्।। | 13-64-40a 13-64-40b |
उत्पातके नरः स्नात्वा अष्टावक्रे कृतोदकः। द्वादशाहं निराहारो नरमेधफलं लभेत्।। | 13-64-41a 13-64-41b |
अश्मपृष्ठे गयायां च निरविन्दे च पर्वते। तृतीयां क्रौञ्चपद्यां च ब्रह्महत्यां विशुध्यते | 13-64-42a 13-64-42b |
कलविङ्क उपस्पृश्य विद्याच्च बहुशो जलम्। अग्नेः पुरे नरः स्नात्वा अग्निकन्यापुरे वसेत्।। | 13-64-43a 13-64-43b |
करवीरपुरे स्नात्वा विशालायां कृतोदकः। देवह्रद उपस्पृश्य ब्रह्मभूतो विराजते।। | 13-64-44a 13-64-44b |
पुनरावर्तनन्दां च महानन्दां च सेव्य वै। नन्दने सेव्यते दान्तस्त्वप्सरोभिरहिंसकः।। | 13-64-45a 13-64-45b |
उर्वशीं कृत्तिकायोगे गत्वा चैव समाहितः। लौहित्ये विधिवत्स्नात्वा पुण्डरीकफलं लभेत्।। | 13-64-46a 13-64-46b |
रामह्रद उपस्पृश्य विपाशायां कृतोदकः। द्वादशाहं निराहारः कल्मषाद्विप्रमुच्यते।। | 13-64-47a 13-64-47b |
महाह्रद उपस्पृश्य शुद्धेन मनसा नरः। एकमासं निराहारो जमदग्निगतिं लभेत्।। | 13-64-48a 13-64-48b |
विन्ध्ये संताप्य चात्मानं सत्यसन्धस्त्वहिंसकः। विनयात्तप आस्थाय मासेनैकेन सिध्यति।। | 13-64-49a 13-64-49b |
`मुण्डे ब्रह्मगवा चैव निरिचिं देवपर्वतम्। देवह्रदमुपस्पृश्य ब्रह्मभूतो विराजते। कुमारपदमास्थाय मासेनैकेन शुध्यति।।' | 13-64-50a 13-64-50b 13-64-50c |
नर्मदायामुपस्पृश्य तता शूर्पारकोदके। एकपक्षं निराहारो राजपुत्रो विधीयते।। | 13-64-51a 13-64-51b |
जम्बूमार्गे त्रिभिर्मासैः संयतः सुसमाहितः। अहोरात्रेण चैकेन सिद्धिं समधिगच्छति।। | 13-64-52a 13-64-52b |
कोकामुखे विगाह्याथ गत्वा चाञ्जलिकाश्रमम्। शाकभक्षश्चीरवासाः कुमारीर्विन्दते दश।। | 13-64-53a 13-64-53b |
वैवस्वतस्य सदनं न स गच्छेत्कदाचन। यस्य कन्याह्रद वासो देवलोकं स गच्छति।। | 13-64-54a 13-64-54b |
प्रभासे त्वेकरात्रेण अमावास्यां ममाहितः। सिद्ध्यते तु महाबाहो यो नरो जायतेऽमरः।। | 13-64-55a 13-64-55b |
उज्जानक उपस्पृस्य आर्ष्टिषेणस्य चाश्रमे। पिङ्गायाश्चाश्रमे स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-64-56a 13-64-56b |
कुल्यायां समुपस्पृश्य जप्त्वा चैवाघमर्षणम्। अश्वमेधमवाप्नोति त्रिरात्रोपोषितो नरः।। | 13-64-57a 13-64-57b |
पिण्डारक उपस्पृश्य एकरात्रोषितो नरः। अग्निष्टोममवाप्नोति प्रभातां शर्वरीं शुचिः।। | 13-64-58a 13-64-58b |
तथा ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम्। पुण्डरीकमवाप्नोति उपस्पृश्य नरः शुचिः।। | 13-64-59a 13-64-59b |
मैनाके पर्वते स्नात्वा तथा सन्ध्यामुपास्य च। कामं जित्वा च वै मासं सर्वयज्ञफलं लभेत्।। | 13-64-60a 13-64-60b |
कालोदकं नन्दिकुण्डं तथा चोत्तरमानसम्। अभ्येत्य योजनशताद्भूणहा विप्रमुच्यते।। | 13-64-61a 13-64-61b |
नन्दीश्वरस्य मूर्ति तु दृष्ट्वा मुच्येत किल्बिषैः। स्वर्गमार्गे नरः स्नात्वा ब्रह्मलोकं स गच्छति।। | 13-64-62a 13-64-62b |
विख्यातो हिमवान्पुण्यः शंकरश्वशुरो गिरिः। आकरः सर्वरत्नानां सिद्धचारणसेवितः।। | 13-64-63a 13-64-63b |
`दर्शनाद्गमनात्पूतो भवेदनशनादपि।' शरीरमुत्सृजेत्तत्र विधिपूर्वमनाशके।। | 13-64-64a 13-64-64b |
अध्रुवं जीवितं ज्ञात्वा यो वै वेदान्तगो द्विजः। अभ्यर्च्य देवतास्तत्र नमस्कृत्य मुनींस्तथा। | 13-64-65a 13-64-65b |
ततः क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमावसेत्। न तेन किञ्चिन्न प्राप्तं तीर्थाभिगमनाद्भवेत्।। | 13-64-66a 13-64-66b |
यान्यगम्यानि तीर्थानि दुर्गाणि विषमाणि च। मनसा तानि गम्यानि सर्वतीर्थसमीक्षया।। | 13-64-67a 13-64-67b |
इदं मेध्यमिदं पुण्यमिदं स्वर्ग्यमनुत्तमम्। इदं रहस्यं वेदानामाप्लाव्यं पावनं तथा।। | 13-64-68a 13-64-68b |
इदं दद्याद्द्विजातीनां साधोरात्महितस्य च। सुहृदां च जपेत्कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य च। | 13-64-69a 13-64-69b |
दत्तवान्गौतमस्यैतदङ्गिरा वै महातपाः। अङ्गिराः समनुज्ञातः काश्यपेन च धीमता।। | 13-64-70a 13-64-70b |
महर्षीणामिदं जप्यं पावनानां तथोत्तमम्। जपंश्चाभ्युत्थितः शश्वन्निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात्।। | 13-64-71a 13-64-71b |
इदं यश्चापि शृणुयाद्रहस्यं त्वङ्गिरोमतम्। उत्तमे च कुले जन्म लभेञ्जातीश्च संस्मरेत्।। | 13-64-72a 13-64-72b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुसासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। 64 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
13-64-3 तीर्थवंशं तीर्थसंघम्।। 13-64-5 तीर्थेभ्यः तीर्थान्युद्दिश्य।। 13-64-6 प्रेत्यभावे जन्मान्तरे।। 13-64-7 मुनिवद्भवेत् मुनीनां गतिं लभेतेत्यर्थः।। 13-64-8 सिंधुं समुद्रं पतन्तीत्यन्वयः।। 13-64-9 स्वर्गबिन्दुं विगाह्येति थ.ध. पाठः।। 13-64-21 रूपवर्चसोः समाहारः रूपवर्चस्कम्। वर्चस्तेजः।। 13-64-26 त्रसानां जङ्गमानाम्।। 13-64-30 अन्तर्धानफलं गन्धर्वादिभोगम्।। 13-64-35 कालाञ्जने गिराविति थ.ध.पाठः।। 13-64-37 समागच्छन्त्यगावास्यामिति थ.पाठ।। 13-64-43 उर्वशीं उर्वशीतीर्थम्। कृत्तिकायोगे कार्तिक्यां पौर्णमास्याम्।। 13-64-68 इदं तीर्थसेवनम्। मेध्यं यज्ञफलप्रदम्। पुण्यं पापघ्नम्।। 13-64-70 समनुज्ञातः प्रार्थितः। काश्यपेन एतद्विज्ञातुकामेनेति शेषः।।
अनुशासनपर्व-063 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-065 |