महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-085
दिखावट
← अनुशासनपर्व-084 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-085 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-086 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति महद्दर्शनसहवासयोर्गवां च प्रभावबोधनाय च्यवनोपाख्यानकथनारम्भः।। 1 ।। गङ्गायमुना सङ्गमेऽन्तर्जले निमज्य तपस्यतश्च्यवनस्य दाशैर्जालेन जलचरैः सह कूलप्रापणम्।। 2 ।। दाशैः प्रार्थितेन तेन तान्प्रति मत्स्यै सह स्वस्य प्राणजालान्यतरस्मान्मोचनचोदना।। 3।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-85-1x |
दर्शने कीदृशः स्नेहः संवासे च पितामह। महाभाग्यं गवां चैव तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-85-1a 13-85-1b |
भीष्म उवाच। | 13-85-2x |
हन्त ते कथयिष्यामि पुरावृत्तं महाद्युते। नहुषस्य च संवादं महर्षेश्च्यवनस्य च।। | 13-85-2a 13-85-2b |
पुरा महर्षिश्च्यवनो भार्गवो भरतर्षभ। उदवासकृतारम्भो बभूव स महाव्रतः।। | 13-85-3a 13-85-3b |
निहत्य मानं क्रोधं च प्रहर्षं शोकमेव च। वर्षाणि द्वादश मुनिर्जलवासे धृतव्रतः।। | 13-85-4a 13-85-4b |
आदधत्सर्वभूतेषु विस्रम्यं परमं शुभम्। जलेचरेषु सर्वेषु शीतरश्मिरिव प्रभुः।। | 13-85-5a 13-85-5b |
स्थाणुभूतः शुचिर्भूत्वा दैवतेभ्यः प्रणम्य च। गङ्गायमुनयोर्मध्ये जलं सम्प्रविवेश ह।। | 13-85-6a 13-85-6b |
गङ्गायमुनयोर्वेगं सुभीमं भीमनिःस्वनम्। प्रतिजग्राह शिरसा वातवेगसमं जवे।। | 13-85-7a 13-85-7b |
गङ्गा च यमुना चैव सरितश्च सरांसि च। प्रदक्षिणमृषिं चक्रुर्न चैनं पर्यपीडयन्।। | 13-85-8a 13-85-8b |
अन्तर्जलेषु सुष्वाप काष्ठभूतो महामुनिः। ततश्चोर्ध्वस्थितो धीमानभवद्भरतर्षभ।। | 13-85-9a 13-85-9b |
जलौकसां ससत्वानां बभूव प्रियदर्शनः। उपाजिघ्नन्त च तदा मत्स्यास्तं हृष्टमानसाः। तत्र तस्यासतः कालः समतीतोऽभवन्महान्।। | 13-85-10a 13-85-10b 13-85-10c |
ततः कदाचित्समये कस्मिंश्चिन्मत्स्यजीविनः। तं देशं समुपाजग्मुर्जालहस्ता महाद्युते।। | 13-85-11a 13-85-11b |
निषादा बहवस्तत्र मत्स्योद्धरणनिश्चयाः। व्यायता बलिनः शूराः सलिलेष्वनुवर्तिनः। अभ्याययुश्च तं देशं निश्चिता जालकर्म्णि।। | 13-85-12a 13-85-12b 13-85-12c |
जालं ते योजयामासुर्नवसूत्रकृतं दृढम्। मत्स्योद्धरणमाकर्षस्तदा भरतसत्तम।। | 13-85-13a 13-85-13b |
ततस्ते बहुभिर्योगैः कैवर्ता मत्स्यकाङ्क्षिणः। गङ्गायमुनयोर्वारि जालेनावकिरन्ति ते।। | 13-85-14a 13-85-14b |
जालं सुविततं तेषां नवसूत्रकृतं तथा। विस्तारायामसम्पन्नं यत्तत्र सलिले क्षमम्।। | 13-85-15a 13-85-15b |
ततस्ते सुमहच्चैव बलवच्च सुवर्तितम्। अवतीर्य ततः सर्वे जालं चकृषिरे तदा।। | 13-85-16a 13-85-16b |
अभीतरूपाः संहृष्टा अन्योन्यवशवर्तिनः। बबन्धुस्तत्र मत्स्यांश्च तथाऽन्याञ्जलचारिणः।। | 13-85-17a 13-85-17b |
तथा मत्स्यैः परिवृतं च्यवनं भृगुनन्दनम्। आकर्षयन्महाराज जालेनाथ यदृच्छया।। | 13-85-18a 13-85-18b |
नदीशैवलदिग्धाङ्गं हरिश्मश्रुजटाधरम्। लग्नैः शङ्खनखैर्गात्रे क्रोडैश्चित्रैरिवार्पितम्। | 13-85-19a 13-85-19b |
तं जालेनोद्धृतं दृष्ट्वा ते तदा वेदपारगम्। सर्वे प्राञ्जलयो दाशाः शिरोभिः प्रापतन्भुवि।। | 13-85-20a 13-85-20b |
परिखेदपरित्रासाज्जालस्याकर्षणेन च। मत्स्या बभूवुर्व्यापन्नाः स्थलसंस्पर्शनेन च।। | 13-85-21a 13-85-21b |
स मुनिस्तत्तदा दृष्ट्वा मत्स्यानां कदनं कृतम्। बभूव कृपयाविष्टो निःश्वसंश्च पुनःपनः।। | 13-85-22a 13-85-22b |
निषादा ऊचुः। | 13-85-23x |
अज्ञानाद्यत्कृतं पापं प्रसादं तत्र नः कुरु। करवाम प्रिय किं ते तन्नो ब्रूहि महामुने।। | 13-85-23a 13-85-23b |
इत्युक्तो मत्स्यमध्यस्थश्च्यवनो वाक्यमब्रवीत्। यो मेऽद्य परमः कामस्तं शृणुध्वं मसाहिताः।। | 13-85-24a 13-85-24b |
प्राणोत्सर्गं विसर्गं वा मत्स्यैर्यास्याम्यहं सह। संवासान्नोत्सहे त्यक्तुं सलिलेऽध्युपितानहम्।। | 13-85-25a 13-85-25b |
इत्युक्तास्ते निषादास्तु सुभृशं भयकम्पिताः। सर्वे विवर्णवदना नहुषाय न्यवेदयन्।। | 13-85-26a 13-85-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पश्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85 ।। |
13-85-1 परपीडादर्शने परैः सह संवासे च कीदृशः स्नेह आतृशंस्यं च कर्तव्यम्। गवां माहात्म्यं च ब्रूहीति प्रश्नदूयम्।। 13-85-8 सरितश्च तथानुगा इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-85-9 ऊर्ध्वस्थितः उपविष्टः।। 13-85-10 आसतः आसीनस्य।। 13-85-19 शङ्खानां जलजन्तुविशेषाणां नखानि तैः।।
अनुशासनपर्व-084 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-086 |