महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-078
दिखावट
← अनुशासनपर्व-077 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-078 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-079 → |
देवशर्मणा स्वशिष्यं विपुलम्प्रति तद्द्वष्टानां मिथुनानां षट्पुरुषाणां च क्रमेणाहोरात्रऋत्वभिमानिदवतात्वकथनम्।। 1 ।। तथा स्वस्मिन्स्वदाररक्षणाय योगेन तच्छरीरप्रवेशानिवेदनस्य दुर्गतिहेतुत्वकथनम्।। 2 ।। तथा तत्कृतस्वदाररक्षमपरितोषेण तद्दुरितदूरीकरणपूर्वकं तेन स्वभार्यया च सह स्वर्गे सुखविहरणम्।। 3 ।।
भीष्म उवाच। | 13-78-1x |
तमागतमभिप्रेक्ष्य शिष्यं वाक्यमथाब्रवीत्। देवशर्मा महातेजा यत्तच्छृणु जनाधिप।। | 13-78-1a 13-78-1b |
देवशर्मोवाच। | 13-78-2x |
किं त्वया मिथुनं दृष्टं तस्मिञ्शिष्य महावने। ते त्वां जानन्ति निपुणा आत्मा च रुचिरेव च।। | 13-78-2a 13-78-2b |
विपुल उवाच। | 13-78-3x |
ब्रह्मर्षे मिथुनं किन्तत्के च षट्पुरुषा विभो। ये मां जानन्ति तत्त्वेन यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 13-78-3a 13-78-3b |
देवशर्मोवाच। | 13-78-4x |
यद्वै तन्मिथुनं ब्रह्मिन्नहोरात्रं हि विद्धि तत्। चक्रवत्परिवर्तेत तत्ते जानाति दुष्कृतम्।। | 13-78-4a 13-78-4b |
ये च ते पुरुषा विप्र अक्षैर्दीव्यन्ति हृष्टवत्। ऋतूंस्तानभिजानीहि ते ते जानन्ति दुष्कृतम्।। | 13-78-5a 13-78-5b |
न मां कश्चिद्विजानीत इति कृत्वा न विश्वसेत्। नरो रहसि पापात्मा पापकं कर्म वै द्विज।। | 13-78-6a 13-78-6b |
कुर्वाणं हि नरं कर्म पापं रहसि सर्वदा। पश्यन्ति ऋतवश्चापि तथा दिननिशेऽप्युत।। | 13-78-7a 13-78-7b |
तथैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा। कृत्वाऽनाचक्षतः कर्म मम तच्च यथा कृतम्।। | 13-78-8a 13-78-8b |
ते त्वां हर्षस्मितं दृष्ट्वा गुरोः कर्मानिवेदकम्। स्मारयन्तस्तथा प्राहुस्ते यथा श्रउतवान्भवान्।। | 13-78-9a 13-78-9b |
अहोरात्रं विजानाति ऋतवश्चापि नित्यशः। पुरुषे पापकं कर्म शुभं वाऽशुभकर्मिणः।। | 13-78-10a 13-78-10b |
तत्त्वया मम यत्कर्म व्यभिचाराद्भयात्मकम्। नाख्यातमिति जानन्तस्ते त्वामाहुस्तथा द्विज।। | 13-78-11a 13-78-11b |
तेनैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा। कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम यच्च त्वया कृतम्।। | 13-78-12a 13-78-12b |
तथाऽशक्याश्च दुर्वृत्ता रक्षितुं प्रमदा द्विज। न च त्वं कृतवान्किंचिदागः प्रीतोस्मि तेन ते।। | 13-78-13a 13-78-13b |
`मनोदोषविहीनानां न दोषः स्यात्तथा तव। अन्यथाऽऽलिङ्ग्यते कान्ता स्नेहेन दुहिताऽन्यथा।। | 13-78-14a 13-78-14b |
यतेश्च कामुकानां च योषिद्रूपेऽन्यथा मतिः। अशिक्षयैव मनसः प्रायो लोकस्तु वञ्च्यते।। | 13-78-15a 13-78-15b |
लालेत्युद्विजते लोको वक्त्रासव इति स्पहा। अबन्धायोग्यमनसामिति मन्त्रात्मदैवकम्।। | 13-78-16a 13-78-16b |
न रागस्नेहलोभान्धं कर्मिणां तन्महाफलम्। निष्कषायो विशुद्धस्त्वं रुच्यावेशान्न दूषितः।। | 13-78-17a 13-78-17b |
यदि त्वहं त्वां दुर्वृत्तमद्राक्षं द्विजसत्तम। शपेयं त्वामहं क्रोधान्न मेऽत्रास्ति विचारणा।। | 13-78-18a 13-78-18b |
सञ्जन्ति पुरुषे नार्यः पुंसां सोऽर्थश्च पुष्कलः। अन्यथा रक्षतः शापोऽभविष्यत्ते मतिश्च मे।। | 13-78-19a 13-78-19b |
रक्षिता च त्वया पुत्र मम चापि निवेदिता। अहं ते प्रीतिमांस्तात स्वस्थः स्वर्गं गमिष्यसि।। | 13-78-20a 13-78-20b |
इत्युक्त्वा विपुलं प्रीतो देवशर्मा महानृषिः। मुमोद स्वर्गमास्थाय सहभार्यः सशिष्यकः।। | 13-78-21a 13-78-21b |
इदमाख्यातवांश्चापि ममाख्यानं महामुनिः। मार्कण्डेयः पुरा राजन्गङ्गाकूले कथान्तरे।। | 13-78-22a 13-78-22b |
तस्माद्ब्रवीमि पार्थ त्वां स्त्रियो रक्ष्याः सदैव च। उभयं दृश्यते तासु सततं साध्वसाधु च।। | 13-78-23a 13-78-23b |
स्त्रियः साध्व्यो महाभागाः सम्मता लोकमातरः। धारयन्ति महीं राजन्निमां सवनकाननाम्।। | 13-78-24a 13-78-24b |
असाध्व्यश्चापि दुर्वृत्ताः कुलघ्नाः पापनिश्चयाः। विज्ञेया लक्षणैर्दुष्टैः स्वगात्रसहजैर्नृप।। | 13-78-25a 13-78-25b |
एवमेतासु रक्षा वै शक्या कर्तुं महात्मभिः। अन्यथा राजशार्दूल न शक्या रक्षितुं स्त्रियः।। | 13-78-26a 13-78-26b |
एता हि मनुजव्याघ्र तीक्ष्णास्तीक्ष्णपराक्रमाः। नासामस्ति प्रियो नाम मैथुने सङ्गमेति यः।। | 13-78-27a 13-78-27b |
एताः कृत्याश्च कष्टाश्च कृतघ्ना भरतर्षभ। न चैकस्मिन्नमन्त्येताः पुरुषे पाण्डुनन्दन।। | 13-78-28a 13-78-28b |
नासु स्नेहो नरैः कार्यस्तथैवेर्ष्या जनेश्वर। खेदमास्थाय भुञ्जीत धर्ममास्थाय चैव ह। `अनृताविह पर्वादिदोषवर्जं नराधिप।।' | 13-78-29a 13-78-29b 13-78-29c |
विहन्येतान्यथा कुर्वन्नरः कौरवनन्दन। सर्वथा राजशार्दूल युक्तः सर्वत्र युज्यते।। | 13-78-30a 13-78-30b |
तेनैकेन तु रक्षा वै विपुलेन कृता स्त्रियाः। नान्यः शक्तस्त्रिलोकेऽस्मिन्रक्षितुं नृप योषितः।। | 13-78-31a 13-78-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।। 78 ।। |
13-78-9 हर्षस्मितं हर्षेण गर्वितम्।। 13-78-12 तेनैव अनाख्यानेनैव।। 13-78-16 लाला वदनात्स्वतो गलज्जलधारा।। 13-78-25 सहजैः पीणिपादरेखादिभिः।। 13-78-28 कृत्याः प्राणग्राहिदेवतारूपाः।। 13-78-29 खेदमास्तायाऽप्रीत्या विष्टिगृहीतवत् भुञ्जीत नतु प्रीत्या। धर्मं ऋतुकालानुरोधम्।।
अनुशासनपर्व-077 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-079 |