महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-084
दिखावट
← अनुशासनपर्व-083 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-084 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-085 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रत्यौरसादिपुत्रनिरूपणम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-1x |
ब्रूहि तात कुरुश्रेष्ठ वर्णानां त्वं पृथक् पृथक्। कीदृश्यां कीदृशाश्चापि पुत्राः कस्य च के च ते।। | 13-84-1a 13-84-1b |
विप्रवादाः सुबहवः श्रूयन्ते पुत्रकारिणाम्। अत्र नो मुह्यतां राजन्संशयं छेत्तुमर्हसि।। | 13-84-2a 13-84-2b |
भीष्म उवाच। | 13-84-3x |
`आत्मा पुत्रस्तु विज्ञेयः प्रथमो बहुधा परे।। | 13-84-3a |
स्वे क्षेत्रे संस्कृते यस्तु पुत्रमुत्पादयेत्स्वयम्। तमौरसं विजानीयात्पुत्रं प्रथमकल्पितम्।। | 13-84-4a 13-84-4b |
अग्निं प्रजापतिं चेष्ट्वा वराय प्रतिपादिता। पुत्रिका स्याद्दुहितरि सङ्कल्पे वाऽपि वा सुतः।। | 13-84-5a 13-84-5b |
तल्पे जातः प्रमीतस्य क्लीबस्य पतितस्य वा। स्वधर्मेण नियुक्तो यः स पुत्रः क्षेत्रजः स्मृतः।। | 13-84-6a 13-84-6b |
माता पिता च दद्यातां यमद्भिः पुत्रमापदि। सदृशप्रीतिसंयुक्तो विज्ञेयो दत्रिमः सुतः।। | 13-84-7a 13-84-7b |
सदृशं तु प्रकुर्याद्यं गुणदोषविचक्षणम्। पुत्रं पुत्रगुणैर्युक्तं विज्ञेयः स तु कृत्रिमः।। | 13-84-8a 13-84-8b |
उत्पद्यते यस्य गूढं न च ज्ञायेत कस्यचित्। स भवेद्गूढजो नाम तस्य स्याद्यस्य तल्पतः।। | 13-84-9a 13-84-9b |
मातापितृभ्यामुत्सृष्टस्तयोरन्यतरेण वा। यं पुत्रं प्रतिगृह्णीयादपविद्धः स उच्यते।। | 13-84-10a 13-84-10b |
पितृवेश्मनि कन्या तु यं पुत्रं जनयेद्रहः। तं कानीनं वदन्नाम्ना वोढुः कन्यासमुद्भवे।। | 13-84-11a 13-84-11b |
या गर्भिणी संस्क्रियते ज्ञाताऽज्ञातापि वा सती। वोढुः स गर्भो भवति सहोढ इति उच्यते।। | 13-84-12a 13-84-12b |
क्रीणीयाद्यस्त्वपर्यार्थं मातापित्रोर्यमन्तिकात्। स क्रीतकः सुतस्तस्य सदृशोऽसदृशोपि वा।। | 13-84-13a 13-84-13b |
या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा स्वकेच्छया। उत्पादयति पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते।। | 13-84-14a 13-84-14b |
सा चेदक्षतयोनिः स्याद्गतप्रत्याङ्गताऽपि वा। पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनसंस्कारमर्हति।। | 13-84-15a 13-84-15b |
मातापितृहनो यः स्यात्त्यक्तो वा स्यादकारणम्। आत्मानं स्पर्शयेद्यस्तु स्वयंदत्तस्तु स स्मृतः।। | 13-84-16a 13-84-16b |
यं ब्राह्मणस्तु शूद्रायां कामादुत्पादयेत्सुतम्। स पावयन्नेव शवस्तस्मात्पारशवः स्मृतः।। | 13-84-17a 13-84-17b |
दास्यां वा दासदास्यां वा यः शूद्रस्य सुतो भवेत्। सोऽनुज्ञातो हरेदंशमिति धर्मो व्यवस्थितः।। | 13-84-18a 13-84-18b |
क्षेत्रजादीन्सुतानेतानेकादश यथोदितान्। पुत्रप्रतिनिधीनाहुः क्रियालोपान्मनीषिणः।। | 13-84-19a 13-84-19b |
प्रातॄणामेकजातानामेकश्चेत्पुत्रवान्भवेत्। सर्वांस्तांस्तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत्।। | 13-84-20a 13-84-20b |
सर्वासामेकपत्नीनामेका चेत्पुत्रिणी भवेत्। सर्वास्तास्तेन पुत्रेण प्राह पुत्रवतीर्मनुः।। | 13-84-21a 13-84-21b |
आत्मा पुत्रश्च विज्ञेयस्तस्यानन्तरजश्च यः। निरुक्तजश्च विज्ञेयः सुतः प्रसृतजस्तथा।। | 13-84-22a 13-84-22b |
पतितस्य तु भार्याया भर्त्रा सुसमवेतया। तथा दत्तकृतौ पुत्रावध्यूढश्च तथाऽपरः।। | 13-84-23a 13-84-23b |
षडपध्वंसजाश्चापि कानीनापसदास्तथा। इत्येते वै समाख्यातास्तान्विजानीहि भारत।। | 13-84-24a 13-84-24b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-25x |
षडपध्वंसजाः के स्युः के वाऽप्यपसदास्तथा। एतत्सर्वं यथातत्त्वं व्याख्यातुं मे त्वमर्हसि।। | 13-84-25a 13-84-25b |
भीष्म उवाच। | 13-84-26x |
त्रिषु वर्णेषु ये पुत्रा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर। वर्णयोश्च द्वयोः स्यातां यौ राजन्यस्य भारत।। | 13-84-26a 13-84-26b |
एको द्विवर्ण एवाथ तथाऽत्रैवोपलक्षितः। षडपध्वंसजास्ते हि तथैवापसदाञ्शृणु।। | 13-84-27a 13-84-27b |
चाण्डालो व्रात्यवर्णौ तु ब्राह्मण्यां क्षत्रियासु च। वैश्यायां चैव शूद्रस्य लक्ष्यास्तेऽपसदास्त्रयः।। | 13-84-28a 13-84-28b |
मागधो वामकश्चैव द्वौ वैश्यस्योपलक्षितौ। ब्राह्मण्यां क्षत्रियायां च क्षत्रियस्यैक एव तु।। | 13-84-29a 13-84-29b |
ब्राह्मण्यां लक्ष्यते सूत इत्येतेऽपसदाः स्मृताः। पुत्रा ह्येते न शक्यन्ते मिथ्या कर्तुं नराधिप।। | 13-84-30a 13-84-30b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-31x |
क्षेत्रजं केचिदेवाहुः सुतं केचित्तु शुक्रजम्। तुल्यावेतौ सुतौ कस्य तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-84-31a 13-84-31b |
भीष्म उवाच। | 13-84-32x |
रेतजो वा भवेत्पुत्रः पुत्रो वा क्षत्रेजो भवेत्। अध्यूढः समयं भित्त्वेत्येतदेव निबोध मे।। | 13-84-32a 13-84-32b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-33x |
रेतजं विद्म वै पुत्रं क्षत्रेजस्यागमः कथम्। अध्यूढं विद्म वै पुत्रं भित्त्वा तु समयं कथम्।। | 13-84-33a 13-84-33b |
भीष्म उवाच। | 13-84-34x |
आत्मजं पुत्रमुत्पाद्य यस्त्यजेत्कारणान्तरे। न तत्र कारणं रेतः स क्षेत्रस्वामिनो भवेत्।। | 13-84-34a 13-84-34b |
पुत्रकामो हि पुत्रार्थे यां वृणीते विशाम्पते। तत्र क्षेत्रं प्रमाणं स्यान्न वै तत्रात्मजः सुतः।। | 13-84-35a 13-84-35b |
अन्यत्र क्षेत्रजः पुत्रो लक्ष्यते भरतर्षभ। न ह्यात्मा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ।। | 13-84-36a 13-84-36b |
क्वचिच्च कुतकः पुत्रः सङ्ग्रहादेव लक्ष्यते। न तत्र रेतः क्षेत्रं वा प्रमाणं स्याद्युधिष्ठिर।। | 13-84-37a 13-84-37b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-38x |
कीदृशः कृतकः पुत्रः सङ्ग्रहादेव लक्ष्यते। शुक्रं क्षेत्रं प्रमाणं वा यत्र लक्ष्यं न भारत।। | 13-84-38a 13-84-38b |
भीष्म उवाच। | 13-84-39x |
मातापितृभ्यां यस्त्यक्तः पथि यस्तं प्रकल्पयेत्। न चास्य मातापितरौ ज्ञायेतां स हि कृत्रिमः।। | 13-84-39a 13-84-39b |
अस्वामिकस्य स्वामित्वं यस्मिन्सम्प्रतिलक्ष्यते। यो वर्णः पोषयेत्तं च तद्वर्णस्तस्य जायते।। | 13-84-40a 13-84-40b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-84-41x |
कथमस्य प्रयोक्तव्यः संस्कारः कस्य वा कथम्। देया कन्या कथं चेति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-84-41a 13-84-41b |
भीष्म उवाच। | 13-84-42x |
आत्मवत्तस्य कुर्वीत संस्कारं स्वामिवत्तथा। त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सवर्णं प्रतिपद्यते।। | 13-84-42a 13-84-42b |
तद्गोत्रबन्धुजं तस्य कुर्यात्संस्कारमच्युत। अथ देया तु कन्या स्यात्तद्वर्णस्य युधिष्ठिर।। | 13-84-43a 13-84-43b |
संस्कर्तुं वर्णगोत्रं च मातृवर्णविनिश्चये। कानीनाध्यूढजौ वाऽपि विज्ञेयौ पुत्रकिल्बिषौ।। | 13-84-44a 13-84-44b |
कानीनाध्यूढजौ वाऽपि विज्ञेयौ पुत्रकिल्बिषौ।। तावपि स्वाविव सुतौ संस्कार्याविति निश्चयः। | 13-84-45a 13-84-45b |
क्षेत्रजो वाऽप्यपसदो येऽध्यूढास्तेषु चाप्युत।। आत्मवद्वै प्रयुञ्जीरन्संस्कारान्ब्राह्मणादयः। | 13-84-46a 13-84-46b |
`स्वं जन्मे मातृगोत्रेण संस्कारं ब्राह्मणादयः।।' धर्मशास्त्रेषु वर्णानां निश्चयोऽयं पदृश्यते। | 13-84-47a 13-84-47b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-84-48a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः।। 84 ।। |
13-84-2 विप्रवादाः विविधाः प्रवादः पूर्वोक्ता एव।। 13-84-6 तल्पे कलत्रे।। 13-84-22 अनन्तरजः औरसः निरुक्तजः स्वक्षेत्रेऽन्यो रेतःसेकार्थमुक्तस्तज्जः। प्रसृतोऽनिरुक्तोऽपि यो लौल्यात्परक्षेत्रे रेतः सिञ्चति तज्जः प्रसृतजः।। 13-84-23 तथा पतितात्स्वभार्यायामेव जातः। भार्यायाः तृतीयार्थे षष्ठी। दत्तः पञ्चमः। कृतः क्रीतः स्वयमुपायगम्यो वा षष्ठः। अध्यूढः यस्य माता गर्भवत्येव ऊढा तादृशः सप्तमः।। 13-84-24 षडपध्वंसजा वक्ष्यमाणाः। कानीनः कन्यायां विवाहात् प्रागुत्पन्नश्चतुर्दशः। अपसदा वक्ष्यमाणाः षट्। एते विंशतिः। तान्सर्वान् पुत्रानिति विजानीहि।। 13-84-34 कारणान्तरे लोकापवादादिभये सति।। 13-84-35 यां गर्भवती कन्यां वृणीते तत्र स पुत्रो वोदुरेव क्षेत्रजो नतु सेक्तुरात्मज।।
अनुशासनपर्व-083 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-085 |