महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-033
दिखावट
← अनुशासनपर्व-032 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-033 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-034 → |
भीष्मेण युधिष्टिरम्प्रति कृतघ्नस्य प्रायश्चित्तविषये दृष्टान्ततया वत्सनाभमुनिचरित्रकथनम्।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-33-1x |
प्रायश्चित्तं कृतघ्नानां प्रतिब्रूहि पितामह। मातॄः पितॄन्गुरुंश्चैव येऽवमन्यन्ति मोहिताः।। | 13-33-1a 13-33-1b |
ये चाप्यन्ते परे तात कृतघ्ना निरपत्रपाः। तेषां गतिं महाबाहो श्रोतुमिच्छामि तत्वतः।। | 13-33-2a 13-33-2b |
भीष्म उवाच। | 13-33-3x |
कृतघ्नानां गतिस्तात नरके शाश्वतीः समाः। मातापितृगुरूणां च ये न तिष्ठन्ति शासने। क्रिमिकीटपिपीलेषु जायन्ते स्थावरेषु च।। | 13-33-3a 13-33-3b 13-33-3c |
दुर्लभो हि पुनस्तेषां मानुष्ये पुनरुद्भवः। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।। | 13-33-4a 13-33-4b |
वत्सनाभो महाप्राज्ञो महर्षिः संशितव्रतः। वल्मीकभूतो ब्रह्मर्षिस्तप्यते सुमहत्तपः।। | 13-33-5a 13-33-5b |
तस्मिंश्च तप्यति तपो वासवो भरतर्षभ। ववर्ष समुहद्वर्षं सविद्युत्स्तनयित्नुमान्।। | 13-33-6a 13-33-6b |
तत्र सप्ताहवर्षं तु मुमुचे पाकशासनः। निमीलिताक्षस्तद्वर्षं प्रत्यगृह्यत वै द्विजः।। | 13-33-7a 13-33-7b |
तस्मिन्पतति वर्षे तु शीतवातसमन्विते। विशीर्णध्वस्तशिखरो वल्मीकोऽशनिताडितः।। | 13-33-8a 13-33-8b |
ताड्यमाने ततस्तस्मिन्वत्सनाभे महात्मनि। कारुण्यात्तस्य धर्मः स्वमानृशंस्यमथाकरोत्।। | 13-33-9a 13-33-9b |
चिन्तयानस्य ब्रह्मर्षि तपन्तमतिधार्मिकम्। अनुरूपा मतिः क्षिप्रमुपजाता स्वभावजा।। | 13-33-10a 13-33-10b |
स्वं रूपं माहिषं कृत्वा ********* मनोहरम्। रक्षार्थं वत्सनामस्य चतुष्पादुपरिस्थितः।। | 13-33-11a 13-33-11b |
यदा त्वपगतं वर्षं वृष्टिवातसमन्वितम्। ततो महिषरुपेण धर्मो धर्मभृतांवर। शनैर्वल्मीकमुत्सृज्य प्राद्रवद्भरतर्षभ।। | 13-33-12a 13-33-12b 13-33-12c |
स्थितेऽस्मिन्वृष्टिसम्पाते वीक्षते स्म महातपाः। दिशश्च विपुलास्तत्र गिरीणां शिखराणि च।। | 13-33-13a 13-33-13b |
दृष्ट्वा च पृथिवीं सर्वां सलिलेन परिप्लुताम्। जलाशयान्स तान्दृष्ट्वा विप्रः प्रमुदितोऽभवत्।। | 13-33-14a 13-33-14b |
अचिन्तयद्विस्मितश्चि विप्रः प्रमुदितोऽभवत्।। अचिन्तयद्विस्तितश्च वर्षात्केनाभिरक्षितः। ततोऽपश्यत्स महिषमवस्थितमदूरतः।। | 13-33-15a 13-33-15b 13-33-15c |
तिर्यग्योनावपि कथं दृश्यते धर्मवत्सलः।। | 13-33-16a |
अतो नु भद्रमहिषः शिलापट्टमवस्थितः। पीवरश्चैव बल्यश्च बहुमांसो भवेदयम्।। | 13-33-17a 13-33-17b |
तस्य बुद्धिरियं जाता धर्मसंसक्तजा मुनेः। कृतघ्ना नरकं यान्ति ये च विश्वस्तघातिनः।। | 13-33-18a 13-33-18b |
निष्कृतिं नैव पश्यामि कृतघ्नानां कथञ्चन। क्रते प्राणिपरित्यागाद्धर्मज्ञानां वचो यथा।। | 13-33-19a 13-33-19b |
अकृत्वा भरणं पित्रोरदत्त्वा गुरुदक्षिणाम्। कृतघ्नतां च सम्प्राप्य मरणान्ता च निष्कृतिः।। | 13-33-20a 13-33-20b |
आकाङ्क्षायामुपेक्षायां चोपपातकमुत्तमम्। तस्मात्प्राणान्परित्यक्ष्ये प्रायश्चित्तार्थमित्युत।। | 13-33-21a 13-33-21b |
स मेरुशिखरं गत्वा निस्यङ्केनान्तरात्मना। प्रायश्चित्तं कर्तुकामः शरीरं त्यक्तुमुद्यतः। निगृहीतश्च धर्मात्मा हस्ते धर्मेण धर्मवित्।। | 13-33-22a 13-33-22b 13-33-22c |
धर्मि उवाच। | 13-33-23x |
वत्सनाभ महाप्राज्ञ बहुवर्षशतायुष। परितुष्टोस्मि त्यागेन निस्सङ्गेन तथाऽऽत्मनः।। | 13-33-23a 13-33-23b |
एवं धर्मभृतः सर्वे विमृशन्ति कृताकृतम्। न कश्चिद्वत्सनाभस्य यस्य नोपहतं मनः।। | 13-33-24a 13-33-24b |
यश्चानवद्यश्चरति शक्तो धर्मं च सर्वशः। निवर्तस्व महाप्राज्ञ् पूतात्मा ह्यसि शाश्वतः'।। | 13-33-25a 13-33-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।। |
13-33-17 बल्यः बलिकर्मार्हः। पीवरश्चैव वध्यश्वेति पाठान्तरम्।।
अनुशासनपर्व-032 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-034 |