महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-026
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गरुढेन गजकच्छपावासमेत्य चरणाभ्यां तयोर्ग्रहणम्।। 1 ।। तथा तयोर्भक्षणाय नैमिषारण्यस्थमहातरुशाखायां वेगान्निपतनम्।। 2 ।। तथा स्वनिपतनमात्रेण भज्यमानशाखाया अधोभागे लम्बमानमुनिगणावलोकनात्तुण्डेन तच्छाखाग्रहणपूर्वकं पुनरुत्पतनम्।। 3 ।। तथा देवदूतवचनात्समुद्रान्ते शाखाविसर्जनेन तन्निवासिनां कुविन्दानां हननम्।। 4 ।।
`गरुड उवाच। | 13-26-1x |
कथं तौ भगवञ्शक्यौ मया वारणकच्छपौ।। युगपद्गृहीतं तं मे त्वमुपायं वक्तुमर्हसि।। | 13-26-1a 13-26-1b |
कश्यय उवाच। | 13-26-2x |
योद्धुकामे गजे तस्मिन्मुहूर्तं स जलेचरः। उत्तिष्ठति जलात्तूर्णं योद्धुकामः पुनःपुनः।। | 13-26-2a 13-26-2b |
जलजं निर्गतं तात प्रमत्तं चैव वारणम्। ग्रहीष्यसि पतङ्गेश नान्यो योगोऽत्र विद्यते।। | 13-26-3a 13-26-3b |
भीष्म उवाच। | 13-26-4x |
इत्येमुक्तो विहगस्तद्गत्वा वनमुत्तमम्। ददर्श वारणेन्द्रं तं मेघाचलसमप्रभम्।। | 13-26-4a 13-26-4b |
तां स नागो गिरेर्वीथिं सम्प्राप्त इव भारतः। स तं दृष्ट्वा महाभागः सम्प्रहृष्टतनूरुहः।। | 13-26-5a 13-26-5b |
बिभक्षयिषतो राजन्दारुणस्य महात्मनः।। मातङ्गं कच्छपं चैव प्रहर्षः सुमहानभूत्।। | 13-26-6a 13-26-6b |
अथ वेगेन महता खेचरः स महाबलः। सङ्कुच्य सर्वगात्राणि कृच्छ्रेणैवान्वपद्यत।। | 13-26-7a 13-26-7b |
तथा गत्वा तमध्वानं वारणप्रवरो बली। निशश्वास महाश्वासः श्रमाद्विश्रमणाय च।। | 13-26-8a 13-26-8b |
तस्य निश्वासवातेन मदगन्धेन चैव ह। उदतिष्ठन्महाकूर्मो वारणप्रतिषेधकः।। | 13-26-9a 13-26-9b |
तयोः सुतुमुलं युद्धं ददर्श पतगेश्वरः। कच्छपेन्द्रद्विरदयोरिन्द्रप्रह्वादयोरिव।। | 13-26-10a 13-26-10b |
स्पृशन्तमग्रहस्तेन तोयं वारणयूथपम्। दन्तैर्नस्तैश्च जलजो वारयामास भारत।। | 13-26-11a 13-26-11b |
जलजं वारणोऽप्येवं चरणैः पुष्करेण च। प्रत्यषेधन्निमज्जन्तमुन्मज्जन्तं तथैव च।। | 13-26-12a 13-26-12b |
मुहूर्तमभवद्युद्धं तयोर्भीमप्रदर्शनम्। अथ तस्माज्जलाद्राजन्कच्छपः स्थलमास्थितः।। | 13-26-13a 13-26-13b |
स तु नागः प्रभग्रोऽपि पिपासुर्न न्यवर्तत। तोयगृध्नुः शनैस्तर्षादपासर्पत पृष्ठतः।। | 13-26-14a 13-26-14b |
तं दृष्ट्वा जलजस्तूर्णमपसर्पन्तमाहवात्। अभिदुद्राव वेगेन वज्रयाणिरिवासुरम्।। | 13-26-15a 13-26-15b |
तं रोषात्स्थलमुत्तीर्णमसम्प्राप्तं गजोत्तमम्। उभावेव समस्तौ तु जग्राह विनतासुतः।। | 13-26-16a 13-26-16b |
चरणेन तु सव्येन जग्राह स गजोत्तमम्। प्रस्पन्दमानं बलवान्दक्षिणेन तु कच्छपम्।। | 13-26-17a 13-26-17b |
उत्पपात ततस्तूर्णं पन्नगेन्द्रनिषूदतः। दिवं खं च समुत्पत्य पक्षाभ्यामपराजितः।। | 13-26-18a 13-26-18b |
तेन चोत्पतता तूर्णं सङ्गृहीतौ नखैर्भृशम्। वज्रगर्भैः सुनिशितैः प्राणांस्तूर्णं मुमोचतुः।। | 13-26-19a 13-26-19b |
तौ गृह्य बलवांस्तूर्णं स्रस्तपादशिरोधरौ। विवल्गन्निव खे क्रीडन्खेचरोऽभिजगाम ह।। | 13-26-20a 13-26-20b |
अत्तुकामस्ततो वीरः पृथिव्यां पृथिवीपते। निरैक्षत न चापश्यद्द्रुमं पर्याप्तमासितुम्।। | 13-26-21a 13-26-21b |
नैमिषं त्वथ सम्प्राप्य देवारण्यं महाद्युतिः। अपश्यत द्रुमं कञ्चिच्छाखास्कन्धसमावृतम्।। | 13-26-22a 13-26-22b |
हिमवच्छिखरप्रख्यं योजनद्वयमुच्छ्रितम्। परिणाहेन राजेन्द्र नल्वमात्रं समन्ततः।। | 13-26-23a 13-26-23b |
तस्य शाखाऽभवत्काचिदायता पञ्चयोजनम्। दृढमूला दृढस्कन्धा वज्रपत्रसमाचिता।। | 13-26-24a 13-26-24b |
तत्रोपविष्टः सहसा वैनतेयो निगृह्य तौ। अत्तुकामस्ततः शाखा तस्य वेगादवापतत्।। | 13-26-25a 13-26-25b |
तां पतन्तीमभिप्रेक्ष्य प्रेक्ष्य चर्षिगणानधः। आसीनान्वसुभिः सार्धं सत्रेण जगतीपते।। | 13-26-26a 13-26-26b |
वैखानसान्नाम यतीन्वालखिल्यगणानपि। तत्र भीराविशत्तस्य पतगेन्द्रस्य भारत।। | 13-26-27a 13-26-27b |
तान्दृष्ट्वा स यतींस्तत्र समासीनान्सुरैः सह। तुण्डेन गृह्य तां शाखामुत्पपात खगेश्वरः। तौच पक्षी भुजङ्गाशो व्योम्नि क्रीडन्निवाव्रजत्।। | 13-26-28a 13-26-28b 13-26-28c |
तं दृष्ट्वा गुरुसम्भारं प्रगृह्योत्पतितं खगम्। ऋषयस्तेऽब्रुवन्सर्वे गरुडोऽयमिति स्म ह। न त्वन्यः क्षमते कश्चिद्यथाऽयं वीर्यवान्खगः।। | 13-26-29a 13-26-29b 13-26-29c |
असौ यच्छति धर्मात्मा गुरुभारसमन्वितः। अयं क्रीडन्निवाकाशे तस्माद्गरुड एव सः।। | 13-26-30a 13-26-30b |
एवं ते समयं सर्वे वसवश्च दिवौकसः। अकार्षुः पक्षिराजस्य गरुडेत्येव नाम ह।। | 13-26-31a 13-26-31b |
स पक्षी पृथिवीं सर्वां परिधावंस्ततस्ततः। मुमुक्षः शाखिनः शाखां न स्म देशमपश्यत।। | 13-26-32a 13-26-32b |
स वाचमशृणोद्दिव्यामुपर्युपरि जल्पतः। देवदूतस्य विस्पष्टमाभाष्य गरुडेति च।। | 13-26-33a 13-26-33b |
वैनतेय कुविन्देषु समुद्रान्ते महाबल। पात्यतां शाखिनः शाखा न हि ते धर्मनिश्चयाः।। | 13-26-34a 13-26-34b |
तच्छ्रुत्वा गरुडस्तूर्णं जगाम लवणाम्भसः। उद्देशं यत्र ते मन्दाः कुविन्दाः पापकर्मिणः।। | 13-26-35a 13-26-35b |
ततो गत्वा ततः शाखां मुमोच पततांवरः। तया हता ********* दास्तदा षड्विंशतो नृप।। | 13-26-36a 13-26-36b |
स देशो राजशार्दूल ख्यातः परमदारुणः। शाखापतग इत्येव कुविन्दानां महात्मनाम्।।' | 13-26-37a 13-26-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः।। 26 ।। |
13-26-36 तुण्डेन शाखां गृहीत्वा कश्यपसमीपं गते गरुडे शाखाया अधोभागलम्बिनामृषीणां कस्यपप्रार्थनया शाखाविसर्जनेन हिमवद्गिरिगमनमादिपर्वोक्तमत्रानुसन्धेयम्।।
अनुशासनपर्व-025 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-027 |