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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-246

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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-246
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति योगनिरूपणपूर्वकं तत्फलप्रतिपादनम्।। 1 ।।

महेश्वर उवाच। 13-246-1x
साङ्ख्यज्ञाने नियुक्तानां यथावत्कीर्तितं मया।
योगधर्मं पुनः कृत्स्नं कीर्तयिष्यामि ते शृणु।।
13-246-1a
13-246-1b
स च योगो द्विधा भिन्नो ब्रह्मिदेवर्षिसम्मतः।
समानमुभयत्रापि वृत्तं शास्त्रप्रचोदितम्।।
13-246-2a
13-246-2b
च चाष्टगुणमैश्वर्यमधिकृत्य विधीयते।
सायुज्यं सर्वदेवानां योगधर्मं परं श्रिताः।।
13-246-3a
13-246-3b
ज्ञानं सर्वस्य योगस्य मूलमित्यवधारय।
व्रतोपवासनियमैस्तत्सर्वं चापि बृंहयेत्।।
13-246-4a
13-246-4b
ऐकात्म्यं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणां च सर्वशः।
आत्मनो वेदितं प्राज्ञे ज्ञानमेतत्तु योगिनाम्।।
13-246-5a
13-246-5b
अर्चयेद्ब्राह्मणानग्निं देवतायतनानि च।
वर्जयेदशिवं भावं सर्वसत्त्वमुपाश्रितः।।
13-246-6a
13-246-6b
दानमध्ययनं श्रुद्धा व्रतानि नियमास्तथा।
सत्यमाहारशुद्धिश्च शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
एतैश्च वर्धते तेजः पापं चाप्यवधूयते।।
13-246-7a
13-246-7b
13-246-7c
निर्धूतपापस्तेजस्वी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः।
अमोधो निर्मलो दान्तः पश्चाद्योगं समाचरेत्।।
13-246-8a
13-246-8b
अवरुध्यात्मनः पूर्वं मत्स्यघात इवामिषम्।
एकान्ते विजने देशे सर्वतः संवृते शुचौ।
कल्पयेदासनं तत्र स्वास्तीर्णं मृदुभिः कुशैः।।
13-246-9a
13-246-9b
13-246-9c
उपविश्यासने तस्मिन्नृजुकायशिरोधरः।
अव्यग्रः सुखमासीनः स्वाङ्गानि न विकम्पयेत्।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।
13-246-10a
13-246-10b
13-246-10c
मनोऽवस्थापनं देवि योगस्योपनिषद्भवेत्।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मनोऽवस्थापयेत्सदा।।
13-246-11a
13-246-11b
त्वक्छ्रोत्रं च ततो जिह्वा घ्राणं चक्षुश्च संहरेत्।
पञ्चेन्द्रियाणि सन्धाय मनसि स्थापयेद्बुधः।।
13-246-12a
13-246-12b
सर्वं चापोह्य सङ्कल्पमात्मनि स्थापयेन्मनः।
यदैतान्यवतिष्ठन्ते मनःषष्ठानि चात्मनि।।
13-246-13a
13-246-13b
प्राणापानौ तदा तस्य युगपत्तिष्ठतो वशे।
प्राणे हि वशमापन्ने योगसिद्धिर्ध्रुवा भवेत्।।
13-246-14a
13-246-14b
शरीरं चिन्तयेत्सर्वं विपाट्य च समीपतः।
अन्तर्देहगतिं चापि प्राणानां परिचिन्तयेत्।।
13-246-15a
13-246-15b
ततो मूर्धानमग्निं च शरीरं परिपालयेत्।
प्राणो मूर्धनि च श्वासो वर्तमाने विचेष्टते।।
13-246-16a
13-246-16b
सज्जस्तु सर्वभूतात्मा पुरुषः स सनातनः।
मनो बुद्धिरहङ्कारो भूतानि विषयांश्च सः।।
13-246-17a
13-246-17b
बस्तिर्मूलं गुदं चैव पावकं च समाश्रितः।
वहन्मूत्रं पुरीषं च सदाऽपानः प्रवर्तते।।
13-246-18a
13-246-18b
अतः प्रवृत्तिर्देहषु कर्म चापानसंयुतम्।
उदीरयन्सर्वधातूनन्त ऊर्ध्वं प्रवर्तते।
उदान इति तं विद्युरध्यात्मकुशला जनाः।।
13-246-19a
13-246-19b
13-246-19c
सन्धौसन्धौ स निर्विष्टः सर्वचेष्टाप्रवर्तकः।
शरीरेषु मनुष्याणां व्यान इत्युपदिश्यते।।
13-246-20a
13-246-20b
धातुष्वग्नौ च विततः समानोऽग्निः समीरणः।
स एव सर्वचेष्टानामन्तकाले निवर्तकः।।
13-246-21a
13-246-21b
प्राणानां सन्निपातेषु संसर्गाद्यः प्रजायते।
ऊष्मा सोग्निरिति ज्ञेयः सोन्नं पचति देहिनाम्।।
13-246-22a
13-246-22b
अपानप्राणयोर्मध्ये व्यानोदानावुपाश्रितौ।
समन्वितः समानेन सम्यक्पचति पावकः।।
13-246-23a
13-246-23b
शरीरमध्ये नाभिः स्यान्नाभ्यामग्निः प्रतिष्ठितः।
अग्नौ प्राणाश्च संयुक्ताः प्राणेष्वात्मा व्यवस्थितः।।
13-246-24a
13-246-24b
पक्वाशयस्त्वधो नाभेरूर्ध्वमामाशयस्तथा।
नाभिर्मध्ये शरीरस्य सर्वप्राणाश्च संश्रिताः।।
13-246-25a
13-246-25b
स्थिताः प्राणादयः सर्वे तिर्यगूर्ध्वमधश्वराः।
वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दशप्राणाग्निचोदिताः।।
13-246-26a
13-246-26b
योगिनामेष मार्गस्तु पञ्चस्वेतेषु तिष्ठति।
जितश्रमः समासीनो मूर्धन्यात्मानमादधेत्।।
13-246-27a
13-246-27b
मूर्धन्यात्मानमाधाय भ्रुवोर्मध्ये मनस्तथा।
सन्निरुध्य ततः प्राणानात्मानं चिन्तयेत्परम्।।
13-246-28a
13-246-28b
प्राणे त्वपानं युञ्जीत प्राणांश्चापानकर्मणि।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरो भवेत्।।
13-246-29a
13-246-29b
एवमन्तः प्रयुञ्जीत पञ्च प्राणान्परस्परम्।
विजने सम्मिताहारो मुनस्तूष्णीं निरुच्छ्वसन्।।
13-246-30a
13-246-30b
अश्रान्तश्चिन्तयेद्योगी उत्थाय च पुनःपुनः।
तिष्ठन्गच्छन्स्वपंस्चापि युञ्जीतैवमतन्द्रितः।।
13-246-31a
13-246-31b
एवं नियुञ्जतस्तस्य योगिनो युक्तचेतसः।
प्रसीदति मनः क्षिप्रं प्रसन्ने दृश्यते परम्।।
13-246-32a
13-246-32b
विधूम इव दीप्तोऽग्निरादित्य इव रश्मिवान्।
वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे पुरुषो दृश्यतेऽव्ययः।।
13-246-33a
13-246-33b
दृष्ट्वा तदात्मनो ज्योतिरैश्वर्याष्टगुणैर्युतः।
प्राप्नोति परमं स्थानं स्पृहणीयं सुरैरपि।।
13-246-34a
13-246-34b
इमान्योगस्य दोषांश्च दशैव परिचक्षते।
दोषैर्विघ्ने वरारोहे योगिनां कविभिः स्मृताः।।
13-246-35a
13-246-35b
कामः क्रोधो भयं स्वप्नः स्नेहमत्यशनं तथा।
वैचित्यं व्याधिरालस्यं लोभं च दशमं स्मृतम्।।
13-246-36a
13-246-36b
एतैस्तेषां भवेद्विघ्नो दशभिर्देवकारितैः।
तस्मादेतानपास्यादौ युञ्जीत च परं मनः।।
13-246-37a
13-246-37b
इमानपि गुणानष्टौ योगस्य परिचक्षते।
गुणैस्तैरष्टभिर्द्रव्यमैश्वर्यमधिगम्यते।।
13-246-38a
13-246-38b
अणिमा महिमा चैव प्राप्तिः प्राकाम्यमेव हि।
ईशित्वं च वशित्वं च यत्र कामावसायिता।।
13-246-39a
13-246-39b
एतानष्टौ गुणान्प्राप्य कथञ्चिद्योगिनां वराः।
ईशाः सर्वस्य लोकस्य देवानप्यतिशेरते।।
13-246-40a
13-246-40b
योगोस्ति नैवात्यशिनो न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य नातिजागतरस्तथा।।
13-246-41a
13-246-41b
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
13-246-42a
13-246-42b
अनेनैव विधानेन सायुज्यं तत्प्रकल्प्यते।
सायुज्यं देवसात्कृत्वा प्रयुञ्जीतात्मभक्तितः।।
13-246-43a
13-246-43b
अनन्यमनसा देवि नित्यं तद्गतचेतसा।
सायुज्यं प्राप्यते देवैर्यत्नेन महता चिरात्।।
13-246-44a
13-246-44b
हविर्भिरर्चनैर्होमैः प्रणामैर्नित्यचिन्तया।
अर्चयित्वा यथाशक्ति स्वकं देशं विशन्ति ते।।
13-246-45a
13-246-45b
सायुज्यानां विशिष्टं च मामकं वैष्णवं तथा।
मां प्राप्य न निवर्तन्ते विष्णु वा शुभलोचने।।
13-246-46a
13-246-46b
इति ते कथितो देवि योगधर्मः सनातनः।
न शक्यः प्रष्टुमन्येन योगधर्मस्त्वया विना।।
13-246-47a
13-246-47b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 246 ।।

13-246-15 निपात्य चेति ङ.पाठः।।

अनुशासनपर्व-245 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-247