महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-232
दिखावट
← अनुशासनपर्व-231 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-232 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-233 → |
परमेश्वरेणि पार्वतींप्रति सुकृतस्य त्रेधा विभजनेन तल्लक्षणादिकथनम्।। 1 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-232-1x |
विधानं सुकृतस्यापि भूयः शृणु शुचिस्मिते। प्रोच्यते तत्त्रिधा देवि सुकृतं च समासतः।। | 13-232-1a 13-232-1b |
यदौपरमिकं चैव सुकृतं निरुपद्रवम्। तथैव सोपकरणं तावता सुकृतं विदुः।। | 13-232-2a 13-232-2b |
निवृत्तिः पापकर्मभ्यस्तदौपरमिकं प्रिये। मनोवाक्कायजा दोषाः शृणु मे वर्जनाच्छुभम्।। | 13-232-3a 13-232-3b |
त्रैविध्यदोषोपरमे यस्तु दोषव्यपेक्षया। स हि प्राप्नोति सकलं सर्वदुष्कृतवर्जनात्।। | 13-232-4a 13-232-4b |
प्रथमं वर्जयेद्दोषान्युगपत्पृथगेव वा। तथा धर्ममवाप्नोति दोषत्यागो हि दुष्करः। दोषसाकल्यसंत्यागान्मुनिर्भवति मानवः।। | 13-232-5a 13-232-5b 13-232-5c |
सौकर्यं पस्य धर्मस्य कार्यारम्भादृतेऽपि च। आत्मा च लब्धोपरमो लभन्ते सुकृतं परम्।। | 13-232-6a 13-232-6b |
अहो नृशंसाः पच्यन्ते मानुषाः स्वल्पबुद्धयः। एतादृशं न बुध्यन्ते आत्माधीनं न निर्व्यथाः।। | 13-232-7a 13-232-7b |
दुष्कृतत्यागमात्रेण पदमूर्ध्वं हि लभ्यते।। | 13-232-8a |
पापभीरुत्वमात्रेण दोषाणां परिवर्जनात्। सुशोभनो भवेद्देवि क्रजुर्धर्मव्यपेक्षया। इत्यौपरमिकं देवि कथितं सुकृतं तव।। | 13-232-9a 13-232-9b 13-232-9c |
श्रुत्वा च वृद्धसंयोगादिन्द्रियाणां च निग्रहात्। सन्तोषाच्च धृतेश्चैव शक्यते दोषवर्जनम्।। | 13-232-10a 13-232-10b |
तदेव धर्ममित्याहुर्दोषसंयमनं प्रिये। यमधर्मेण धर्मोस्ति नान्यः शुभतरः प्रिये। यमधर्मेण यतयः प्राप्नुवन्त्युत्तमां गतिम्।। | 13-232-11a 13-232-11b 13-232-11c |
ईश्वराणां प्रभवतां दरिद्राणां च वै नृणाम्। सफलो दोषसंत्यागो दानादपि शुभादपि।। | 13-232-12a 13-232-12b |
तपो दानं महादेवि दोषमल्पं हि निर्भरेत्। सुकृतं यामिकं चोक्तं वक्ष्ये निरुपसाधनम्।। | 13-232-13a 13-232-13b |
सुखाभिसन्धिर्लोकानां सत्यं शौचमथार्जवम्। व्रतोपवासः प्रीतिश्च ब्रह्मचर्यं दमः शमः।। | 13-232-14a 13-232-14b |
एवमादि शुभं कर्म सुकृतं नियमाश्रितम्। शृणु तेषां विशेषांश्च कीर्तयिष्यामि भामिनि।। | 13-232-15a 13-232-15b |
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव। नास्ति सत्यात्परं दानं नास्ति सत्यात्परं तपः।। | 13-232-16a 13-232-16b |
यथा श्रुतं यथा दृष्टमात्मना यद्यथा कृतम्। तथा तस्याविकारेण वचनं सत्यलक्षणम्।। | 13-232-17a 13-232-17b |
यच्छलेनाभिसंयुक्तं सत्यरूपं मृषैव तत्। सत्यमेव प्रवक्तव्यं पारावर्यं विजानता।। | 13-232-18a 13-232-18b |
दीर्घायुश्च भवेत्सत्यात्कुलसन्तानपालकः। लोकसंस्थितिपालश्च भवेत्सत्येन मानवः।। | 13-232-19a 13-232-19b |
उमोवाच। | 13-232-20x |
कथं सन्धारयन्मर्त्यो व्रतं शुभमवाप्नुयात्।। | 13-232-20a |
महेश्वर उवाच। | 13-232-21x |
पूर्वमुक्तं तु यत्पापं मनोवाक्कायकर्मभिः। व्रतवत्तस्य संत्यागस्तपोव्रतमिति स्मृतम्।। | 13-232-21a 13-232-21b |
त्याज्यं वा यदि वा जोष्यमव्रतेनि वृथा चरन्। तथा फलं न लभते तस्माद्धर्मं वृथा चरेत्।। | 13-232-22a 13-232-22b |
शुद्धकायो नरो भूत्वा स्नात्वा तीर्थ यथाविधि। पञ्चभूतानि चन्द्रार्कौ संध्ये धर्मयमौ पितॄन्।। | 13-232-23a 13-232-23b |
आत्मनैव तथाऽऽत्मानं निवेद्य व्रतवच्चरेत्। व्रतमामरणाद्वाऽपि कालच्छेदेन वा हरेत्।। | 13-232-24a 13-232-24b |
शाकादिषु व्रतं कुर्यात्तथा पुष्पफलादिषु। ब्रह्मचर्यव्रतं कुर्यादुपवासव्रतं तथा।। | 13-232-25a 13-232-25b |
एवमन्येषु बहुषु व्रतं कार्यं हितैषिणा। व्रतभङ्गो यथा न स्याद्रक्षितव्यं तथा बुधैः। व्रतभङ्गे महत्पापमिति विद्धि शुभेक्षणे।। | 13-232-26a 13-232-26b 13-232-26c |
औषधार्थं यदज्ञानाद्गुरूणां वचनादपि। अनुग्रहार्थं बन्धूनां व्रतभङ्गो न दुष्यते।। | 13-232-27a 13-232-27b |
व्रतापवर्गकाले तु दैवब्राह्मणपूजनम्। नरेण तु यथा विद्धि कार्यसिद्धिं यथाऽऽप्तुयात्।। | 13-232-28a 13-232-28b |
उमोवाच। | 13-232-29x |
कथं शौचविधिस्तत्र तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-232-29a |
महेश्वर उवाच। | 13-232-30x |
बाह्ममाभ्यन्तरं चेति द्विविधं शौचमिष्यते। मानसं सुकृतं यत्तच्छौचमाभ्यन्तरं स्मृतम्।। | 13-232-30a 13-232-30b |
सदाऽऽहारविशुद्धिश्च कायप्रक्षालनं च यत्। बाह्यशौचं भवेदेतत्तथैवाचमनादिना।। | 13-232-31a 13-232-31b |
मृच्चैव शुद्धदेशस्था गोशकृन्मूत्रमेव च। द्रव्याणि गन्धयुक्तानि यानि पुष्टिकराणि च। एतैः सम्मार्जयेत्कायमम्भसा च पुनः पुनः।। | 13-232-32a 13-232-32b 13-232-32c |
अक्षोभ्यं यत्प्रकीर्णं च नित्यस्रोतं च यज्जलम्। प्रायशस्तादृशे मज्जेदन्यथा च विवर्जयेत्।। | 13-232-33a 13-232-33b |
त्रिस्त्रिराचमनं श्रेष्ठं निष्फेनैर्निर्मलैर्जलैः। तथा विण्मूत्रयोः शुद्धिरद्भिर्बहुमृदा भवेत्। तथैव जलसंशुद्धिर्यत्संशुद्धं तु संस्पृशेत्।। | 13-232-34a 13-232-34b 13-232-34c |
शकृता भूमिशुद्धिः स्याल्लौहानां भस्मना स्मृतम्। तक्षणं घर्षणं चैव दारवाणां विशोधनम्।। | 13-232-35a 13-232-35b |
दहनं मृण्मयानां च मर्त्यानां कृच्छ्रधारणम्। शेषाणां देवि सर्वेषामातपेन जलेन च। ब्राह्मणानां च वाक्येन सदा संशोधनं भवेत्।। | 13-232-36a 13-232-36b 13-232-36c |
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते। एवमापदि संशुद्धिरेवं शौचं विधीयते। | 13-232-37a 13-232-37b |
उमोवाच। | 13-232-38x |
आहारशुद्धिस्तु कथं देवदेव महेश्वर।। | 13-232-38a |
महेश्वर उवाच। | 13-232-39x |
अमांसमद्यमक्लेद्यमपर्युषितमेव च। अतिकट्वम्ललवणहनं च शुभगन्धि च।। | 13-232-39a 13-232-39b |
क्रिमिकेशमलैर्हीनं संवृतं शुद्धदर्शम्। एवंविधं सदाहार्यं देवब्राह्मणसात्कृतम्।। | 13-232-40a 13-232-40b |
श्रुतमित्येव तज्ज्ञेयमन्यथा मन्यसेऽशुभम्। ग्राम्यादारण्यकैः सिद्धं श्रेष्ठमित्यवधारय।। | 13-232-41a 13-232-41b |
अतिमात्रगृहीतात्तु अल्पदत्तं भवेच्छुचि। यज्ञशेषं हविःशेषं पितृशेषं च निर्मलम्। इति ते कथितं देवि भूयः किं श्रोतुमिच्छसि।। | 13-232-42a 13-232-42b 13-232-42c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 232 ।। |
अनुशासनपर्व-231 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-233 |