महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-217
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पार्वत्या ब्राह्मण्यादिकं किं स्वाभाविकं उत कर्माधीनमिति प्रश्ने ईश्वरेण तस्य कर्माधीनत्वप्रतिपादनम्।। 1 ।। तथा प्राणिनां भोगाभोगादेः स्वस्वकर्मायत्तत्वप्रतिपादनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-217-1x |
भगवन्भगनेत्रघ्न कालसूदन शङ्कर। इमे वर्णाश्च चत्वारो विहिताः स्वस्वभावतः। उताहो क्रियया वर्णाः सम्भवन्ति महेश्वर।। | 13-217-1a 13-217-1b 13-217-1c |
एवं मे संशयप्रश्नस्तं मे छेत्तुं त्वमर्हसि।। | 13-217-2a |
महेश्वर उवाच। | 13-217-3x |
स्वभावादेव विद्यन्ते चत्वारो ब्राह्मणादयः। एकजात्या सुदुष्प्रापमन्यवर्णत्वमागतम्।। | 13-217-3a 13-217-3b |
तच्च कर्मविशेषेण पुनर्जन्मनि जायते। तस्मात्तेषां प्रवक्ष्यामि तत्सर्वं कर्मपाकजम् | 13-217-4a 13-217-4b |
ब्राह्मणस्तु नरो भूत्वा स्वजातिमनुपालयन्। दृढं ब्राह्मणकर्माणि वेदोक्तानि समाचरेत्।। | 13-217-5a 13-217-5b |
सत्यार्जवपरो भूत्वा दानयज्ञपरस्तथा। सत्यां जात्यां समुदितो जातिधर्मान्न हापयेत्।। | 13-217-6a 13-217-6b |
एवं संवर्तमानस्तु कालधर्मं गतः पुनः। स्वर्गलोके हि जायेत स्वर्गभोगाय भामिनि।। | 13-217-7a 13-217-7b |
तत्क्षये ब्राह्मणो भूत्वा तथैव नृषु जायते। एवंस्वकर्मणा मर्त्यः स्वजातिं लभते पुनः।। | 13-217-8a 13-217-8b |
अपरस्तु तथा कश्चिद्ब्रह्मयोनिसमुद्भवः। अवमत्यैव तां जातिमज्ञानतमसा वृतः।। | 13-217-9a 13-217-9b |
अन्यथा वर्तमानस्तु जातिकर्माणि वर्जयेत्। शूद्रवद्विचरेल्लोके शूद्रकर्माभिलाषवान्। शूद्रैः सह चरन्नित्यं शौचमङ्गलवर्जितः। | 13-217-10a 13-217-10b 13-217-10c |
स चापि कालधर्मस्थो यमलोके सुदण्डितः। यदि जायेत मर्त्येषु शूद्र एवाभिजायते।। | 13-217-11a 13-217-11b |
शूद्र एव भवेद्देवि ब्राह्मणोऽपि स्वकर्मणा।। | 13-217-12a |
तथैव शूद्रस्त्वपरः शूद्रकर्माणि वर्जयेत्। सत्यार्जवपरो भूत्वा दानधर्मपरस्तथा। मन्त्रब्राह्मणसत्कर्ता मनसा ब्राह्मणप्रियः।। | 13-217-13a 13-217-13b 13-217-13c |
एवं युक्तसमाचारः शूद्रोपि मरणं गतः। स्वर्गलोके हि जायेत तत्क्षये नृषु जायते। ब्राह्मणानां कुले मुख्ये वेदस्वाध्यायसंयुते।। | 13-217-14a 13-217-14b 13-217-14c |
एवमेव सदा लोके शूद्रो ब्राह्मण्यमाप्नुयात्।। | 13-217-15a |
एवं क्षत्रियवैश्याश्च जातिधर्मेण संयुताः। स्वकर्मणैव जायन्ते विशिष्टेष्वधमेषु च।। | 13-217-16a 13-217-16b |
एवं जातिविपर्यासः प्रेत्यभावे भवेन्नृणाम्। अन्यथा तु न शक्यं तल्लोकसंस्थितिकारणात्।। | 13-217-17a 13-217-17b |
तस्माज्जातिं विशिष्टां तु कथंचित्प्राप्य पण्डितः। सर्वथा तां तथा रक्षेन्न पुनर्भ्रश्यते यथा। इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-217-18a 13-217-18b 13-217-18c |
उमोवाच। | 13-217-19x |
जन्मप्रभृति कः शुद्धो लभेज्जन्मफलं नरः। शोभनाशोभनं सर्वमधइकारवशात्स्वकम्।। | 13-217-19a 13-217-19b |
महेश्वर उवाच। | 13-217-20x |
कर्म कुर्वन्न लिप्येत आर्जवेन समाचरेत्। आत्मैव तच्छुभं कुर्यादशुभे योजयेत्परान्।। | 13-217-20a 13-217-20b |
शठेषु शठवत्कुर्योदार्यष्वार्यवदाचरेत्। आपत्सु नावसीदेच्च घोरान्सङ्ग्रामयेत्परात्। साम्नैव सर्वकार्याणि कर्तुं पूर्वं समारभेत्।। | 13-217-21a 13-217-21b 13-217-21c |
अनर्थाधर्मशोकानां यथा न प्राप्नुयात्स्वयम्। प्रीयते तत्तथा कर्तुमेतद्वृत्तं समासतः।। | 13-217-22a 13-217-22b |
एवं वृत्तं समासाद्य गृहमाश्रित्य मानवाः। निराहारा निरुद्वेगाः प्राप्नुवन्त्युत्तमां गतिम्।। | 13-217-23a 13-217-23b |
एतज्जन्मफलं नित्यं सर्वेषां गृहवासिनाम्। एवं गृहस्थितैर्नित्यं वर्तितव्यमिति स्थितिः। एतत्सर्वं मया प्रोक्तं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-217-24a 13-217-24b 13-217-24c |
उमोवाच। | 13-217-25x |
सुरासुरपते देव वरद प्रीतिवर्धन। मानुषेष्वेव ये के चिदाढ्याः क्लेशविवर्जिताः। भुञ्जाना विविधान्भोगान्दृश्यन्ते निरुपद्रवाः।। | 13-217-25a 13-217-25b 13-217-25c |
अपरे क्लेशसंयुक्ता दरिद्रा भोगवर्जिताः।। | 13-217-26a |
किमर्थं मानुषे लोके न समत्वेन कल्पिताः। एतच्छ्रोतुं महादेव कौतूहलमतीव मे।। | 13-217-27a 13-217-27b |
महेश्वर उवाच। | 13-217-28x |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामासि भामिनि। शृणु तत्सर्वमखिलं मानुषाणां हितं वचः।। | 13-217-28a 13-217-28b |
आदिसर्गे पुरा ब्रह्मा समत्वेनासृजत्प्रजाः। नित्यं न भवतो ह्यस्य रागद्वेषौ प्रजापतेः। तदा तस्मात्सुराः सर्वे बभूवुः समतो नराः।। | 13-217-29a 13-217-29b 13-217-29c |
एवं संवर्तमाने तु युगे कालविपर्ययात्। केचित्प्रपेदिरे तत्र विषमं बुद्धिमोहिताः।। | 13-217-30a 13-217-30b |
तेषां हानिं ततो दृष्ट्वा तुल्यानामेव भामिनि। ब्राह्मणास्ते समाजग्मुस्तत्तत्कारणवेदकाः।। | 13-217-31a 13-217-31b |
कर्तुं नार्हसि देवेश पक्षपातं त्वमीदृशम्। पुत्रभावे समे देव किमर्थं नो भवेत्कलिः।। | 13-217-32a 13-217-32b |
एवमेतैरुपालब्धो ब्रह्मा वचनमब्रवीत्। यूयं मा ब्रूत मे दोषं स्वकृतं स्मरथ प्रजाः।। | 13-217-33a 13-217-33b |
युष्माभिरेव युष्माकं ग्रथितं हि शुभाशुभम्। यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते। स्वकृतस्य फलं भुङ्क्ते नान्यस्तद्बोक्तुमर्हति।। | 13-217-34a 13-217-34b 13-217-34c |
एवं संबोधितास्तेन कालकर्त्रा स्वयंभुवा। पुनर्विवृत्य कर्माणि शुभान्येव प्रपेदिरे।। | 13-217-35a 13-217-35b |
एवं विज्ञाततत्वास्ते दानधर्मपरायणाः। शुभानि विधिवत्कृत्वा कालधर्मगताः पुनः। तानि दानफलान्येव भुञ्जते सुखभोगिनः।। | 13-217-36a 13-217-36b 13-217-36c |
स्वकृतं तु नरस्तस्मात्स्वयमेव प्रपद्यते।। | 13-217-37a |
अपरे धर्मकामेभ्यो निवृत्ताश्च शुभेक्षणे। कदर्या निरनुक्रोशाः प्रायेणात्मपरायणाः।। | 13-217-38a 13-217-38b |
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने। दरिद्राः क्लेशभूयिष्ठा भवन्त्येव न संशयः।। | 13-217-39a 13-217-39b |
उमोवाच। | 13-217-40x |
मानुषेष्वथ ये केचिद्धनधान्यसमन्विताः। भोगहीनाः प्रदृश्यन्ते सर्वभोगेषु सत्स्वपि। न भुञ्जते किमर्थं ते तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-217-40a 13-217-40b 13-217-40c |
महेश्वर उवाच। | 13-217-41x |
परैः संचोदिता धर्मं कुर्वते न स्वकामतः। स्वयं श्रद्धां बहिष्कृत्य कुर्वन्ति च रुदन्ति च।। | 13-217-41a 13-217-41b |
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने। फलानि तानि सम्प्राप्य भुञ्जते न कदाचन। रक्षन्तो वर्धयन्तश्च आसते निधिपालवत्।। | 13-217-42a 13-217-42b 13-217-42c |
उमोवाच। | 13-217-43x |
केचिद्धनवियुक्ताश्च भोगयुक्ता महेश्वर। मानुषाः सम्प्रदृश्यन्ते तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-217-43a 13-217-43b |
महेश्वर उवाच। | 13-217-44x |
आनृशंस्यपरा ये तु धर्मकामाश्चि दुर्गताः। परोपकारं कुर्वन्ति दीनानुग्रहकारणात्।। | 13-217-44a 13-217-44b |
प्रतिपद्युः परधनं नष्टं वाऽन्यैर्नरैर्हृतम्। नित्यं ये दातुमनसो नरा वित्तेष्वसत्स्वपि।। | 13-217-45a 13-217-45b |
कालधर्मवशं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि ते नराः। एते धनविहीनाश्च भोगयुक्ता भवन्त्युत।। | 13-217-46a 13-217-46b |
धर्मदानोपदेशं वा कर्तव्यमिति निश्चयः। इति ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-217-47a 13-217-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 217 ।। |
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