महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-208
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति वर्णाश्रमधर्मकथनम्।। 1 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-208-1x |
हन्त ते कथयिष्यामि यत्ते देवि मनःप्रियम्। शृणु तत्सर्वमखिलं धर्मं वर्णाश्रमाश्रितम्।। | 13-208-1a 13-208-1b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शुद्राश्चेति चतुर्विधम्। ब्राह्मणा विहिताः पूर्वं लोकतन्त्रमभीप्सता। कर्माणि च तदर्हाणि शास्त्रेषु विहितानि वै।। | 13-208-2a 13-208-2b 13-208-2c |
यदीदमेकवर्णं स्याज्जगत्सर्वं विनश्यति। सहैव देवि वर्णानि चत्वारि विहितान्यतः।। | 13-208-3a 13-208-3b |
मुखतो ब्राह्मणाः सृष्टस्तस्मात्ते वाग्विशारदाः। बाहुभ्यां क्षत्रियाः सृष्टास्तस्मात्ते बाहुगर्विताः।। | 13-208-4a 13-208-4b |
ऊरुभ्यामुद्गता वैश्यास्तस्माद्वार्तोपजीविनः। शूद्राश्च पादतः सृष्टास्तस्मात्ते परिचाकाः।। | 13-208-5a 13-208-5b |
तेषां धर्मांश्च कर्माणि शृणु देवि समाहिता। विप्राः कृता भूमिदेवा लोकानां धारणे कृताः। ते कैश्चिन्नावमन्तव्या ब्राह्मणा हितमिच्छुभिः।। | 13-208-6a 13-208-6b 13-208-6c |
यदि ते ब्राह्मणा न स्युर्दानयोगवहाः सदा। उभयोर्लोकयोर्देवि स्थितिर्न स्यात्समासतः।। | 13-208-7a 13-208-7b |
लोकेषु दुर्लभं किंतु ब्राह्मणत्वमिति स्मृतम्। अबुधो वा दरिद्रो वा पूजनीयः सदैव सः।। | 13-208-8a 13-208-8b |
ब्राह्मणान्योऽवमन्येत निन्देच्च क्रोधयेच्च वा। प्रहरेत हरेद्वाऽपि धनं तेषां नराधमः।। | 13-208-9a 13-208-9b |
कारयेद्धीनकर्मणि कामलोभविमोहनात्। स च मामवमन्येत मां क्रोधयति निन्दति।। | 13-208-10a 13-208-10b |
मामेव प्रहरेन्मूढो मद्धनस्यापहारकः। मामेव प्रेषणं कृत्वा निदन्ते मूढचेतनः।। | 13-208-11a 13-208-11b |
स्वाध्यायो यजनं दानं तस्य धर्म इति स्थितिः। कर्मण्यध्यापनं चैव याजनं च प्रतिग्रहः। सत्यं शान्तिस्तपः शौचं तस्य धर्मः सनातनः।। | 13-208-12a 13-208-12b 13-208-12c |
विक्रयो रसधान्यानां ब्राह्मणस्य विगर्हितः। अनापदि च शूद्रान्नं वृषलीसङ्ग्रहस्तथा।। | 13-208-13a 13-208-13b |
तप एव सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः। स तु धर्मार्थमुत्पन्नः पूर्वं धात्रा तपोबलात्।। | 13-208-14a 13-208-14b |
तस्योपनयनं धर्मो नित्यं चोदकधारणम्। शास्त्रस्य श्रवणं धर्मो देवव्रतनिषेवणम्।। | 13-208-15a 13-208-15b |
अग्निकार्यं परो धर्मो नित्ययज्ञोपवीतिता। शूद्रान्नवर्जनं धर्मो धर्मः सत्पथसेवनम्। धर्मो नित्योपवासित्वं ब्रह्मचर्यं परं तथा।। | 13-208-16a 13-208-16b 13-208-16c |
गृहस्थस्य परो धर्मो गृहस्थाश्रमिणस्तथा। गृहसम्मार्जनं धर्म आलेपनविधिस्तथा।। | 13-208-17a 13-208-17b |
अतिथिप्रियता धर्मो धर्मस्त्रेताग्निधारणम्। इष्टिर्वा पशुबन्धाश्च विधिपूर्वं परंतप।। | 13-208-18a 13-208-18b |
दम्पत्योः समशीलत्वं धर्मो वै गृहमेधिनाम्। एवं द्विजन्मनो धर्मो गार्हस्थ्ये धर्मधारणम्।। | 13-208-19a 13-208-19b |
यस्तु क्षत्रगतो धर्मस्त्वया देवि प्रयोदितः। तमहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु देवि समाहिता।। | 13-208-20a 13-208-20b |
क्षत्रियास्तु ततो देवि द्विजानां पालने स्मृताः। यदि निःक्षत्रियो लोको जगत्स्यादधरोत्तरम्।। | 13-208-21a 13-208-21b |
रक्षणात्क्षत्रियैरेव जगद्भवति शाश्वतम्। तस्याप्यध्ययनं दानं यजनं धर्मतः स्मृतम्।। | 13-208-22a 13-208-22b |
दीनानां रक्षणं चैव पापनामनुशासनम्। सतां सम्पोषणं चैव कर्मषण्मार्गजीवनम्।। | 13-208-23a 13-208-23b |
उत्साहः शस्त्रजीवित्वं तस्य धर्मः सनातनः। भृत्यानां भरणं धर्मः कृते कर्मण्यमोघता।। | 13-208-24a 13-208-24b |
सम्यग्गुणयुतो धर्मो धर्मः पौरहितक्रिया। व्यवहारस्थितिर्नित्यं गुणयुक्तो महीपतिः।। | 13-208-25a 13-208-25b |
आर्तवित्तप्रदो राजा धर्मं प्राप्नोत्यनुत्तमम्। एवं तैर्विहितः पूर्वैर्धर्मः कर्मविधानतः।। | 13-208-26a 13-208-26b |
तथैव देवि वैश्याश्च लोकयात्राहिताः स्मृताः। अन्ये तानुपजीवन्ति प्रत्यक्षफलदा हि ते।। | 13-208-27a 13-208-27b |
यदि न स्युस्तथा वैश्या न भवेयुस्तथा परे। तेषामध्ययनं दानं गजनं धर्म उच्यते।। | 13-208-28a 13-208-28b |
वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा। अग्निहोत्रपरिस्पन्दास्त्रयो वर्णा द्विजातयः।। | 13-208-29a 13-208-29b |
वाणिज्यं सत्पथे स्थानमातिथेयत्वमेव च। विप्राणां स्वागतन्यायो वैश्यधर्मः सनातनः।। | 13-208-30a 13-208-30b |
तिलगन्धरसाश्चैव न विक्रेयाः कथञ्चन। वणिक्पथमुपासद्भिर्वैश्यैर्वैश्यपथि स्थितैः।। | 13-208-31a 13-208-31b |
सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति दिवानिशम्। एवं ते विहिता देवि लोकयात्रा स्वयंभुवा।। | 13-208-32a 13-208-32b |
तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः। शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते।। | 13-208-33a 13-208-33b |
त्रयः पूर्वे शूद्रमूलाः सर्वे कर्मकराः स्मृताः। ब्राह्मणादिषु शुश्रूषा दासधर्म इति स्मृतः।। | 13-208-34a 13-208-34b |
वार्ता च कारुकर्माणि शिल्यं नाट्यं तथैव च। अहिंसकः शुभाचारो देवतद्विजवन्दकः।। | 13-208-35a 13-208-35b |
शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मेणोपपद्यते। एवमादि तथाऽन्यच्च शूद्रधर्म इति स्मृतः।। | 13-208-36a 13-208-36b |
तेऽप्येवं विहिता लोके कर्मयोग्याः शुभानने।। | 13-208-37a |
एवं चतुर्णां वर्णानां वर्णलोकाः परत्र च। विहिताश्च तथा दृष्टा यथावद्धर्मचारिणि।। | 13-208-38a 13-208-38b |
एष वर्णाश्रयो धर्मः कर्म चैव तदर्पणम्। कथितं श्रोतुकामायाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-208-39a 13-208-39b |
उमोवाच। | 13-208-40x |
भगवन्देवदेवेश नमस्ते वृषभध्वज। श्रोतुमिच्छाम्यहं देव धर्ममाश्रमिणां विभो।। | 13-208-40a 13-208-40b |
महेश्वर उवाच। | 13-208-41x |
तथाऽऽश्रमगतं धर्मं शृणु देवि समाहिता। आश्रमाणां तु यो धर्मः क्रियते ब्रह्मवादिभिः।। | 13-208-41a 13-208-41b |
गृहस्थः प्रवरस्तेषां गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रितः। पञ्चयज्ञक्रियाशौचं दारतुष्टिरतन्द्रिता।। | 13-208-42a 13-208-42b |
ऋतुकालाभिगमनं दानयज्ञतपांसि च। अविप्रवासस्तस्येष्टः स्वाध्यायश्वाग्निपूर्वकम्।। | 13-208-43a 13-208-43b |
अतिथीनामाभिमुख्यं शक्त्या चेष्टनिमन्त्रणम्। अनुग्रहश्च सर्वेषां मनोवाक्कायकर्मभिः।। | 13-208-44a 13-208-44b |
एवमादि शुभं चान्यत्कुर्यात्तद्वृत्तिमान्गृही। एवं सञ्चरतस्तस्य पुण्यलोका न संशयः। | 13-208-45a 13-208-45b |
तथैव वानप्रस्थस्य धर्माः प्रोक्ताः सनातनाः।। | 13-208-46a |
गृहवासं समुत्सृकज्य निश्चित्यैकमनाः शुभैः। वन्यैरेव तदाहारैः वर्तयेदिति च स्थितिः।। | 13-208-47a 13-208-47b |
भूमिशय्या जटाश्मश्रुचर्मवल्कलधारणम्। देवतातिथिसत्कारो महाकृच्छ्राभिपूजनम्।। | 13-208-48a 13-208-48b |
अग्निहोत्रं त्रिषवणं नित्यं तस्य विधीयते। ब्रह्मचर्यं क्षमा शौचं तस्य धर्मः सनातनः। एवं स विगते प्राणे देवलोके महीयते।। | 13-208-49a 13-208-49b 13-208-49c |
यतिधर्मास्तथा देवि गृहांस्त्यक्त्वा यतस्ततः। आकिञ्चन्यमनारम्भः सर्वतः शौचमार्जवम्।। | 13-208-50a 13-208-50b |
सर्वत्र भैक्षचर्या च सर्वत्रैव विवासनम्। सदा ध्यानपरत्वं च देहशुद्धिः क्षमा दया। तत्वानुगतबुद्धित्वं तस्य धर्मविधिर्भवेत्।। | 13-208-51a 13-208-51b 13-208-51c |
ब्रह्मचारी च यो देवि जन्मप्रभृति भिक्षितः। ब्रह्मचर्यपरो भूत्वा साधयेद्गुरुमात्मनः। सर्वकालेषु सर्वत्र गुरुपूजां समाचरेत्।। | 13-208-52a 13-208-52b 13-208-52c |
भैक्षचर्याग्निकार्यं च सदा जलनिषेवणम्। स्वाध्यायः सततं तस्य एष धर्मः सनातनः।। | 13-208-53a 13-208-53b |
तस्य चेष्टा तु गुर्वर्थमाप्राणान्तमिति स्थितिः। गुरोरभावे तत्पुत्रे गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्।। | 13-208-54a 13-208-54b |
एवं सोप्यमलाँल्लोकान्ब्राह्मणः प्रतिपद्यते। एष ते कथितो देवि धर्मश्चाश्रमवासिनाम्।। | 13-208-55a 13-208-55b |
चतुर्णामाश्रमो युक्तो लोक इत्येव विद्यते। कथितं ते समासेन किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-208-56a 13-208-56b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टोत्तरद्विशततमोऽध्यायः।। 208 ।। |
13-208-9 ब्राह्मणोऽभिहिता शुचिः इति क.पाठः।। 13-208-55 आयुष्कामो द्विजो देवि धारयेद्भस्य नित्पशः। मोक्षकामी च यो विप्रो भूतिकामोथवा पुनः। पुनरावृत्तिरहितं लोकं सम्प्रतिपद्यते। इति थ.पाठः।।
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