महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-059
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति स्त्रीणामपरित्यागपरित्यागप्रयोजकगुणदोषादिप्रतिपादकनारदमार्कण्डेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
`मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-1x |
श्रुतं बलं प्रभावश्च योषितां मुनिसत्तम। एकस्य बहुभार्यस्य धर्ममिच्छामि वेदितुम्।। | 13-59-1a 13-59-1b |
नारद उवाच। | 13-59-2x |
बहुभार्यासु सक्तस्य नारीभोगेषु गेहिनः। ऋतौ विमुञ्चमानस्य सांनिध्ये भ्रूणहा स्मृतः।। | 13-59-2a 13-59-2b |
वृद्धां वन्ध्यां सुव्रता च मृतापत्यामपुष्पिणीम्। कन्यां च बहुपुत्रां च वर्जयन्मुच्यते भयात्।। | 13-59-3a 13-59-3b |
व्याधितो बन्धनस्थो वा प्रवासेष्वथ पर्वसु। ऋतुकाले तु नारीणां भ्रूणहत्यां प्रमुञ्चति।। | 13-59-4a 13-59-4b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-5x |
वैश्यनारीषु वै जाताः परप्रेष्यासु वा सुताः। कस्य ते बन्धुदायादा भवन्ति हि महामुने।। | 13-59-5a 13-59-5b |
नारद उवाच। | 13-59-6x |
पण्यस्त्रीषु प्रसूता ये यस्य स्त्री तस्य ते सुताः। क्रयाच्च कृत्रिमाः पुत्रा प्रदानाच्चैव दत्रिमाः।। | 13-59-6a 13-59-6b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-7x |
पण्यनारीष्वनियतः पुंसोऽर्थो वर्तते ध्रुवम्। अत्र चाहितगर्भायाः कस्य पुत्रं वदन्ति तम्।। | 13-59-7a 13-59-7b |
नारद उवाच। | 13-59-8x |
तीर्थभूतासु नारीषु ज्ञायते योऽभिगच्छति। ऋतौ तस्य भवेद्गर्भो यं वा नारी न शङ्कते।। | 13-59-8a 13-59-8b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-9x |
नराणां त्यजतां भार्यां कामक्रोधाद्गुणान्विताम्। अप्रसूतां प्रसूतां वा तेषां पृच्छामि निष्कृतिम्।। | 13-59-9a 13-59-9b |
नारद उवाच। | 13-59-10x |
अपापां त्यजमानस्य साध्वीं मत्वा यमादितः। आत्मवंशस्वधर्मो वा त्यजतो निष्कृतिर्न तु।। | 13-59-10a 13-59-10b |
यो नरस्त्यजते भार्या पुष्पिणीमप्रसूतिकाम्। स नष्टवंशः पितृभिर्युक्तस्त्यज्येत दैवतैः।। | 13-59-11a 13-59-11b |
भार्यामपत्यसञ्जातां प्रसूतां पुत्रपौत्रिणीम्। पुत्रदारपरित्यागी न स प्राप्नोति निष्कृतिम्।। | 13-59-12a 13-59-12b |
एवं हि भार्यां त्यजतां नराणां नास्ति निष्कृतिः। नार्हन्ति प्रमदास्त्यक्तुं पुत्रपौत्रप्रतिष्ठिताः।। | 13-59-13a 13-59-13b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-14x |
कीदृशीं संत्यजन्भार्यां नरो दोषैर्न लिप्यते। एतदिच्छामि तत्वेन विज्ञातुमृषिसत्तम।। | 13-59-14a 13-59-14b |
नारद उवाच। | 13-59-15x |
मोक्षधर्मस्थितानां तु अन्योन्यमनुजानताम्। भार्यापतीनां मुक्तानामधर्मो न विधीयते।। | 13-59-15a 13-59-15b |
अन्यसङ्गां गतापत्यां शूद्रगां परगामिनीम्। परीक्ष्य त्यजमानानां नराणां नास्ति पातकम्।। | 13-59-16a 13-59-16b |
पातकेऽपि तु भर्तव्यौ द्वौ तु माता पिता तथा।। | 13-59-17a |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-18x |
भार्यायां व्यभिचारिण्यां नरस्य त्यजतो रुषा। कथं धर्मोऽप्यधर्मो वा भवतीह महामते।। | 13-59-18a 13-59-18b |
नारद उवाच। | 13-59-19x |
अनृतेऽपि हि सत्ये वा यो नारीं दूषितां त्यजेत्। अरक्षमाणः स्वां भार्यां नरो भवति भ्रूणहा।। | 13-59-19a 13-59-19b |
अपत्यहेतोर्या नारी भर्तारमतिलङ्घयेत्। लोलेन्द्रियेति सा रक्ष्या न सन्त्याज्या कथञ्चन।। | 13-59-20a 13-59-20b |
नद्यश्च नार्यश्च समस्वभावा नैताः प्रमुञ्चन्ति नरावगाढाः। स्रोतांसि नद्यो वहते निपातं नारी रजोभिः पुनरेति शौचम्।। | 13-59-21a 13-59-21b 13-59-21c 13-59-21d |
एवं नार्यो न दुष्यन्ति व्यभिचारेऽपि भर्तृणाम्। मासिमासि भवेद्रागस्ततः शुद्धा भवन्त्युत।। | 13-59-22a 13-59-22b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-23x |
कानि तीर्थानि भगवन्नृणां देहाश्रितानि वै। तानि वै शंस भगवन्याथातथ्येन पृच्छतः।। | 13-59-23a 13-59-23b |
सर्वतीर्थेषु सर्वज्ञ किं तीर्थं परमं नृणाम्। यत्रोपस्पृश्य पूतो यो नरो भवति नित्यशः।। | 13-59-24a 13-59-24b |
नारद उवाच। | 13-59-25x |
देवर्षिपितृतीर्थानि ब्राह्मं मध्येऽथं वैष्णवम्। नृणां तीर्थानि पञ्चाहुः पाणौ सन्निहितानि वै।। | 13-59-25a 13-59-25b |
आद्यतीर्थं तु तीर्थानां वैष्णवो भाग उच्यते। यत्रोपस्पृश्य वर्णानां चतुर्णां वर्धते कुलम्। पितृदैवतकार्याणि वर्धन्ते प्रेत्य चेह च।। | 13-59-26a 13-59-26b 13-59-26c |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-27x |
नराणां कामवृत्तानां या नार्यो निरवग्रहाः। यासामभिग्रहो नास्ति ता मे कथय नारद।। | 13-59-27a 13-59-27b |
नारद उवाच। | 13-59-28x |
पाशुर्वैश्या नटी गोपी तान्तुकी तुन्नवायिकी। नारी किराती शबरी नर्तकी चानवग्रहा।। | 13-59-28a 13-59-28b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-29x |
एतासु जाता नारीषु सर्ववर्णेषु ये सुताः। केषु के बन्धुदायादा भवन्ति ऋषिसत्तम।। | 13-59-29a 13-59-29b |
नारद उवाच। | 13-59-30x |
य एताः परिगृह्णन्ति तेषामेव हि ते सुताः। सर्वत्र तु प्रवृत्तासु बीजं नश्यति देहिनाम्।। | 13-59-30a 13-59-30b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-31x |
सर्वस्त्रीषु प्रवृत्ताश्च साधुवेदविवर्जिताः। मानवाः काण्डपृष्ठाश्च वेदमन्त्रबहिष्कृताः। नियुक्ता हव्यकव्येषु तेषां दत्तं कथं भवेत्।। | 13-59-31a 13-59-31b 13-59-31c |
नारद उवाच। | 13-59-32x |
नार्हन्ति हव्यकव्यानि सावित्रीवर्जिता द्विजाः। व्रात्येष्वन्नप्रदानं तद्यथा शूद्रेषु वै तथा।। | 13-59-32a 13-59-32b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-33x |
धर्मेष्वधिकृतानां तु नराणां मुह्यते मनः। कथं न विघ्नो भवति एतदिच्छामि वेदितुम्।। | 13-59-33a 13-59-33b |
नारद उवाच। | 13-59-34x |
अर्थाश्च नार्यश्च समानमेन- च्छ्रेयांसि पुंसामिह मोहयन्ति। रतिप्रमोदात्प्रमदा हरन्ति भोगैर्धनं चाप्युपहन्ति धर्मान्।। | 13-59-34a 13-59-34b 13-59-34c 13-59-34d |
हव्यं कव्यं च धर्मात्मा सर्वं तच्छ्रोत्रियोऽर्हति। दत्तं हि श्रोत्रिये साधौ ज्वलिताग्नाविवाहुतिः।। | 13-59-35a 13-59-35b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-36x |
श्रोत्रियाणां कुले जाता वेदार्थविदितात्मनाम्। हित्वा कस्मात्त्रयीं विद्यां वार्तां वृत्तिमुपाश्रिताः।। | 13-59-36a 13-59-36b |
नारद उवाच। | 13-59-37x |
चातुर्वर्ण्यं पुरा न्यस्तं सुविद्वत्सु द्विजातिषु। तस्माद्वर्णौः संविभज्या वृत्तिः सङ्करवर्जिता।। | 13-59-37a 13-59-37b |
ये चान्ये श्रोत्रिया जाताः संस्कृताः पुत्रगृध्नुभिः। पूर्वनिर्वाणनिर्वृत्तां जातां वृत्तिमुपाश्रिताः।। | 13-59-38a 13-59-38b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-39x |
असंस्कृताः श्रोत्रियजाः संस्कृता ज्ञानिजाः कथम्। | 13-59-39a |
नारद उवाच। | 13-59-40x |
असंस्कारो वैदिकश्च स मान्यः श्रोत्रियात्मजः। शुद्धान्वयः श्रोत्रियस्तु सुविद्वद्भिः समोऽन्यथा।। | 13-59-40a 13-59-40b |
अनधीयानपुत्राश्च वेदसंस्कारवर्जिताः। तस्मात्ते वेदविज्ञाऽपि विप्राः श्रुतिनिकारिणः।। | 13-59-41a 13-59-41b |
ब्रह्मराशौ पुरा सृष्टा वेदसंस्कारसंस्कृताः। तस्मात्तेष्वेव ते जाताः साधवः कुलधारिणः।। | 13-59-42a 13-59-42b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-43x |
स्वयं क्रीतासु प्रेष्यासु प्रसूयन्ते तु ये नराः। कस्य नार्यः सुताश्चैव भवन्ति ऋषिसत्तम।। | 13-59-43a 13-59-43b |
नारद उवाच। | 13-59-44x |
स्वदास्यां यो नरो मोहात्प्रसूयेत स पापकृत्। इहाभिनिन्दितः प्रेत्य अपत्यं प्रेष्यतां नयेत्।। | 13-59-44a 13-59-44b |
सा तस्य भार्या पुत्रा ये हव्यकव्यप्रदास्तु ते। तस्या ये बान्धवाः केचिद्विषक्ताः प्रेष्यतां गताः। सर्वे तस्यास्तु सम्बन्धा मुच्यन्ते प्रेष्यकर्मसु।। | 13-59-45a 13-59-45b 13-59-45c |
एतत्ते कथितं सर्वं यदभिव्याहृतं त्वया। अथवा संशयः कश्चिद्भूयः सम्प्रष्टुमर्हसि।। | 13-59-46a 13-59-46b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-59-47x |
अमिथ्यादर्शनालोके नारदः सर्वकोविदः। प्रत्यक्षदर्शी लोकानां स्वयंभुरिव सत्तमः।। | 13-59-47a 13-59-47b |
भीष्म उवाच। | 13-59-48x |
इति सम्भाष्य ऋषिभिर्मार्कण्डेयो महातपाः। नारदं चापि सत्कृत्य तेन चैवाभिसत्कृतः। आमन्त्रयित्वा ऋषिभिः प्रययावाश्रमं मुनिः।। | 13-59-48a 13-59-48b 13-59-48c |
ऋषयश्चापि तीर्थानां परिचर्यां प्रचक्रमुः।। | 13-59-49a |
सुक्षेत्रबीजसंस्कारविशुद्धो ब्रह्मिचर्यया। नित्यनैमित्तिकात्स्नातो मनश्शुद्ध्या च शुद्ध्यति।।' | 13-59-50a 13-59-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनषष्टितमोऽध्यायः।। 59 ।। |
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