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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-048

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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-048
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कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रत्युपमन्युना स्वात्मानं प्रत्युक्तशिवसहस्रनामानुवादः।। 1 ।।

वासुदेव उवाच।
ततः स प्रयतो भूत्वा मम तात युधिष्ठिर।
प्राञ्जलिः प्राह विप्रर्षिर्नामसङ्ग्रहमादितः।। 13-48-1

उपमन्युरुवाच।
ब्रह्मप्रोक्तैर्ऋषिप्रोक्तैर्वेदवेदाङ्गसम्भवै।
सर्वलोकेषु विख्यातं स्तुत्यं स्तोष्यामि नामभिः।। 13-48-2

महद्भिर्विहितैः सत्यैः सिद्धैः सर्वार्थसाधकैः।
ऋषिणा तण्डिना भक्त्या कृतैर्वेदकृतात्मना।। 13-48-3

यथोक्तैः साधुभिः ख्यातैर्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
प्रवरं प्रथमं स्वर्ग्यं सर्वभूतहितं शुभम्।। 13-48-4

श्रुतेः सर्वत्र जगति ब्रह्मलोकावतारितैः।
सत्यैस्तत्परमं ब्रह्मि ब्रह्मप्रोक्तं सनातनम्।
वक्ष्ये यदुकुलश्रेष्ठ शृणुष्वावहितो मम।। 13-48-5

वरयैनं भवं देवं भक्तस्त्वं परमेश्वरम्।
तेन ते श्रावयिष्यामि यत्तद्ब्रह्म सनातनम्।। 13-48-6

न शक्यं विस्तरात्कृत्स्नं वक्तुं सर्वस्य केनचित्।
युक्तेनापि विभूतीनामपि वर्षशतैरपि।। 13-48-7

यस्यादिर्मध्यमन्तं च सुरैरपि न गम्यते।
कस्तस्य शक्नुयाद्वक्तं गुणान्कार्त्स्न्येन माधव।। 13-48-8

किन्तु देवस्य महतः संक्षिप्तार्थपदाक्षरम्।
शक्तितश्चरितं वक्ष्ये प्रसादात्तस्य धीमतः।। 13-48-9

अप्राप्य तु ततोऽनुज्ञां न शक्यः स्तोतुमीश्वरः।
यदा तेनाभ्यनुज्ञातः स्तुतो वै स तदा मया।। 13-48-10

अनादिनिधनस्याहं जगद्योनेर्महात्मनः।
नाम्नां कञ्चित्समुद्देशं वक्ष्याम्यव्यक्तयोनिनः।। 13-48-11

वरदस्य वरेण्यस्य विश्वरूपस्य धीमतः।
शृणु नाम्नां चयं कृष्ण यदुक्तं पद्मयोनिना।। 13-48-12

दश नामसहस्राणि यान्याह प्रपितामहः।
तानि निर्मथ्य मनसा दध्नो घृतमिवोद्धृतम्।। 13-48-13

गिरेः सारं यथा हेम पुष्पसारं यथा मधु।
घृतात्सारं यथा मण्डस्तथैतत्सारमुद्धृतम्। 13-48-14

सर्वपापापहमिदं चतुर्वेदसमन्वितम्।
प्रयत्नेनाधिगन्तव्यं धार्यं च प्रयतात्मना।। 13-48-15

माङ्गल्यं पौष्टिकं चैव रक्षोघ्नं पावनं महत्।। 13-48-16
इदं भक्ताय दातव्यं श्रद्दघानास्तिकाय च।
नाश्रद्दधानरूपाय नास्तिकायाजितात्मने।। 13-48-17

यश्चाभ्यसूयते देवं कारणात्मानमीश्वरम्।
स कृष्ण नरकं याति सहपूर्वैः सहात्मजैः।। 13-48-18

इदं ध्यानमिदं योगमिदं ध्येयमनुत्तममम्।
इदं जप्यमिदं ज्ञानं रहस्यमिदमुत्तम्।। 13-48-19

यं ज्ञात्वा अन्तकालेऽपि गच्छेत परमां गतिम्।
पवित्रं मङ्गलं मेध्यं कल्याणमिदमुत्तमम्।। 13-48-20

इदं ब्रह्मा पुरा कृत्वा सर्वलोकपितामहः।
सर्वस्तवानां राजत्वे दिव्यानां समकल्पयत्।। 13-48-21

तदाप्रभृति चैवायमीश्वरस्य महात्मनः।
स्तवराज इति ख्यातो जगत्यमरपूजितः।। 13-48-22

ब्रह्मलोकादयं स्वर्गे स्तवराजोऽवतारितः।
यतस्तण्डिः पुरा प्राप तेन तण्डिकृतोऽभवत्।। 13-48-23

स्वर्गाच्चैवात्र भूर्लोकं तण्डिना ह्यवतारितः।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।। 13-48-24

निगदिष्ये महाबाहो स्तवानामुत्तमं स्तवम्।
ब्रह्मणामपि यद्ब्रह्म पराणामपि यत्परम्।। 13-48-25

तेजसामपि यत्तेजस्तपसामपि यत्तपः।
शान्तीनामपि या शान्तिर्द्युतीनामपि या द्युतिः।। 13-48-26

दान्तानामपि यो दान्तो धीमतामपि या च धीः।
देवानामपि यो देव ऋषीणामपि यस्त्वृषिः।। 13-48-27

यज्ञानामपि यो यज्ञः शिवानामपि यः शिवः।
रुद्राणामपि यो रुद्रः प्रभा प्रभवतामपि।। 13-48-28

योगिनामपि यो योगी कारणानां च कारणम्।
यतो लोकाः सम्भवन्ति नभवन्ति यतः पुनः।। 13-48-29

सर्वभूतात्मभूतस्य हरस्यामिततेजसः।
अष्टोत्तरसहस्रं तु नाम्नां शर्वस्य मे शृणु।
यच्छ्रुत्वा मनुजव्याघ्र सर्वान्कामानवाप्स्यसि।। 13-48-30

स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः, प्रवरो वरदो वरः।
सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः।। 13-48-31

जटी चर्मीं शिखी खङ्गी सर्वाङ्गः सर्वभावनः।
हरश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः प्रभुः।। 13-48-32

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः।
श्मशानवासी भगवान्खचरो गोचरोऽर्दनः।। 13-48-33

अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतभावनः।
उन्मत्तवेषप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः।। 13-48-34

महारूपो महाकायो वृषरूपो महायशाः।
महात्मा सर्वभूतात्मा विश्वरूपो महाहनुः।। 13-48-35

लोकपालोऽन्तर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः।
पवित्रं च महांश्चैव नियमो नियमाश्रितः।। 13-48-36

सर्वकर्मा स्वयंभूत आदिरादिकरो निधिः।
सहस्राक्षो विशालाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः।। 13-48-37

चन्द्रः सूर्यः शनिः केतुर्ग्रहो ग्रहपतिर्वरः।
अत्रिरत्र्या नमस्कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः।। 13-48-38

महातपा घोरतपा अदीनो दीनसाधकः।
संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः।। 13-48-39

योगी योज्यो महाबीजो महारेता महाबलः।
सुवर्णरेताः सर्वज्ञः सुबीजो बीजवाहनः।। 13-48-40

दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः।
विश्वरूपः स्वयं श्रेष्ठो बलवीरो बलो गणः।। 13-48-41

गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम एव च।
मन्त्रवित्परमो मन्त्रः सर्वभावकरो हरः।। 13-48-42

कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवान्।
अशनी शतघ्नी खङ्गी पट्टिशी चायुधी महान्।। 13-48-43

स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः।
उष्णीषी च सुवक्त्रश्च उदग्रो विनतस्तथा।। 13-48-44

दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कुष्ण एव च।
शृगालरूपः सिद्धार्थो मुण्डः सर्वशुभंकरः।। 13-48-45

अजश्च बहुरूपश्च गन्धधारी कपर्द्यपि।
ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभःस्थलः।। 13-48-46

त्रिजटी चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः।
अहश्चरो नक्तंचरस्तिग्ममन्युः सुवर्चसः।। 13-48-47

गजहा दैत्यहा कालो लोकधाता गुणाकरः।
सिंहशार्दूलरूपश्चि आर्द्रचर्माम्बरावृतः।। 13-48-48

कालयोगी महानादः सर्वकामश्चतुष्पथः।
निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः।। 13-48-49

बहुभूतो बहुधरः स्वर्भिनुरमितो गतिः।
नृत्यप्रियो नित्यनर्तो नर्तकः सर्वलालसः।। 13-48-50

घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरिरुहो नभः।
सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यतन्द्रितः।। 13-48-51

अधर्षणो धर्षणात्मा यज्ञहा कामनाशकः।
दक्षयागापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा।। 13-48-52

तेजोपहारी बलहा मुदितोऽर्थोऽजितो वरः।
गम्भीरघोषो गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः।। 13-48-53

न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्षकर्णस्थितिर्विभुः।
सुतीक्ष्णदशनश्चैव महाकायो महाननः।। 13-48-54

विष्वक्सेनो हरिर्यज्ञः संयुगापीडवाहनः।
तीक्ष्णतापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवित्।। 13-48-55

विष्णुप्रसादितो यज्ञः समुद्रो वडवामुखः।
हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः।। 13-48-56

उग्रतेजा महातेजा जन्यो विजयकालवित्।
ज्योतिषामयनं सिद्धिः सर्वविग्रह एव च।। 13-48-57

शिंखी मुण्डी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली।
वेणवी पणवी ताली खली कालकटंकटः।। 13-48-58

नक्षत्रविग्रहमतिर्गुणबुद्धिर्लयो गमः।
प्रजापतिर्विश्वबाहुर्विभागः सर्वगोमुखः।। 13-48-59

विमोचनः सुसरणो हिरण्यकवचोद्भवः।।
मेढ्रजो बलचारी च महीचारी स्रुतस्तथा।। 13-48-60

सर्वतूर्यनिनादी च सर्वातोद्यपरिग्रहः।
व्यालरूपो गुहावासी गुहो माली तरङ्गवित्।। 13-48-61

त्रिदशस्त्रिकालधृक्कर्मसर्वबन्धविमोचनः।
बन्धनस्त्वसुरेन्द्राणां युधि शत्रुविनाशनः।। 13-48-62

साङ्ख्यप्रसादो दुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः।
प्रस्कन्दनो विभागज्ञो अतुल्यो यज्ञभागवित्।। 13-48-63

सर्ववासः सर्वचारी दुर्वासा वासवोऽमरः।
हैमो हेमकरो यज्ञः सर्वंधारी धरोत्तमः।। 13-48-64

लोहिताक्षो महाक्षश्च विजयाक्षो विशारदः।
सङ्ग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः।। 13-48-65

मुख्योऽमुख्यश्च देहश्च काहलिः सर्वकामदः।
सर्वकासप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृत्।। 13-48-66

सर्वकामवरश्चैव सर्वदः सर्वतोमुखः।
आकाशनिर्विरूपश्च निपाती ह्यवशः खगः।। 13-48-67

रौद्ररूपोंऽशुरादित्यो बहुरश्मिः सुवर्चसी।
वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः।। 13-48-68

सर्ववासी श्रियावासी उपदेशकरोऽकरः।
मुनिरात्मनिरालोकः सम्भग्नश्च सहस्रदः।। 13-48-69

पक्षी च पक्षरूपश्च अतिदीप्तो विशाम्पतिः।
उन्मादो मदनः कामो ह्यश्वत्थोऽर्थकरो यशः।। 13-48-70

वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्षिणश्च वामनः।
सिद्धयोगी महर्षिश्च सिद्धार्थः सिद्धसाधकः।। 13-48-71

भिक्षुश्च भिक्षुरूपश्च विपणो मृदुरव्ययः।
महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवांपतिः।। 13-48-72

वज्रहस्तश्च विष्कम्भी चमूस्तम्भन एव च।
वृत्तावृत्तकरस्तालो मधुर्मधुकलोचनः।। 13-48-73

वाचस्पत्यो वाजसनो नित्यमाश्रमपूजितः।
ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी विचारवित्।। 13-48-74

ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकवान्।
निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरिः।। 13-48-75

नन्दीश्वरश्च नन्दी च नन्दनो नन्दिवर्धनः।
भगहारी निहन्ता च कालो ब्रह्मा पितामहः।। 13-48-76

चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च।
लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो योगाध्यक्षो युगावहः।। 13-48-77

बीजाध्यक्षो बीजकर्ता अव्यात्माऽनुगतो बलः।
इतिहासः सकल्पश्च गौतमोऽथ निशाकरः।। 13-48-78

दम्भो ह्यदम्भो वैदम्भो वश्यो वशकरः कलिः।
लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता ह्यनौषधः।। 13-48-79

अक्षरं परमं ब्रह्मि बलवच्छक्र एव च।
नीतिर्ह्यनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो गतागतः।। 13-48-80

बहुप्रसादः सुस्वप्नो दर्पणोऽथ त्वभित्रजित्।
वेदकारो मन्त्रकारो विद्वान्समरमर्दनः।। 13-48-81

महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः।
अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हिवः।। 13-48-82

वृषणः शंकरो नित्यं वर्चस्वी धूमकेतनः।
नीलस्तथाङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः।। 13-48-83

स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः।
उत्सङ्गश्च महाङ्गश्चि महागर्भपरायणः।। 13-48-84

कृष्णवर्णः सुवर्णश्च इन्द्रियं सर्वदेहिनाम्।
महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः।। 13-48-85

महामूर्धा महाभात्रो महानेत्रो निशालयः।
महान्तको महाकर्णो महोष्ठश्चि महाहनुः।। 13-48-86

महानासो महाकम्बुर्महाग्रीवः श्मशानभाक्।
महावक्षा महोरस्को ह्यन्तरात्मा मृगालयः।। 13-48-87

लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः।
महादन्तो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः।। 13-48-88

महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः।
प्रसन्नश्च प्रसादश्च प्रत्ययो गिरिसाधनः।। 13-48-89

स्नेहनोऽस्नेहनश्चैव अजितश्च महामुनिः।
वृक्षाकारो वृक्षकेतुरनलो वायुवाहनः।। 13-48-90

गण्डली मेरुधामा च देवाधिपतिरेव च।
अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः।। 13-48-91

यजुःपादभुजो गुह्यः प्रकाशो जङ्गमस्तथा।
अमोघार्थः प्रसादश्च अभिगम्यः सुदर्शनः।। 13-48-92

उपकारः प्रियः सर्वः कनकः काञ्चनच्छविः।
नाभिर्नन्दिकरो भावः पुष्करस्थपतिः स्थिरः।। 13-48-93

द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यज्ञो यज्ञसमाहितः।
नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः।। 13-48-94

सगणो गणकारश्च भूतवाहनसारथिः।
भस्मशयो भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तरुर्गणः।। 13-48-95

लोकपालस्तथा लोको महात्मा सर्वपूजितः।
शुक्लस्त्रिशुक्लः सम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः।। 13-48-96

आश्रमस्थः क्रियादस्थो विश्वकर्ममतिर्वरः।
विशालशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजालः सुनिश्चलः।। 13-48-97

कपिलः कपिशः शुक्ल आयुश्चैवि परोऽपरः।
गन्धर्वो ह्यदितिस्तार्क्ष्यः सुविज्ञेयः सुशारदः।। 13-48-98

परश्वधायुधो देव अनुकारी सुबान्धवः।
तुम्बवीणो महाक्रोध ऊर्ध्वरेता जलेशयः।। 13-48-99

उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिन्दितः।
सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः।। 13-48-100

बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः।
स यज्ञारिः स कामारिर्महादंष्ट्रो महायुधः।। 13-48-101

बहुधा निन्दितः शर्वः शङ्करः शङ्करोऽधनः।

अहिर्बुध्न्योऽनिलाभश्च चेकितानो हविस्तथा।
अजैकपाच्च कापाली त्रिशङ्कुरजितः शिवः।। 13-48-103

धन्वन्तरिर्धूमकेतुः स्कन्दो वैश्रवणस्तथा।
धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः।। 13-48-104

प्रभावः सर्वगो वायुरर्यमा सविता रविः।
उषङ्गुश्च विधाता च मांधाता भूतभावनः।। 13-48-105

विभुर्वर्णविभावी च सर्वकामगुणावहः।
पद्मनाभो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रोऽनिलोऽनलः।। 13-48-106

बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यचञ्चुरी।
कुरुकर्ता कुरुवासी कुरुभूतो गुणौषधः।। 13-48-107

सर्वाशयो दर्भचारी सर्वेषां प्राणिनां पतिः।
देवदेवः सुखासक्तः सदसत्सर्वरत्नवित्।। 13-48-108

कैलासगिरिवासी च हिमवद्भिरिसंश्रयः।
कूलहारी कूलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः।। 13-48-109

वणिजो वर्धकी वृक्षो बकुलश्चन्दनश्छदः।
सारग्रीवो महाजत्रुरलोलश्च महौषधः।। 13-48-110

सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्छदो व्याकरणोत्तरः।
सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः।। 13-48-111

प्रभावात्मा जगत्कालस्थालो लोकहितस्तरुः।
सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः।। 13-48-112

भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिन्दितः।। 13-48-113
वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः।
अमोघः संयतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः।। 13-48-114

धृतिमान्मतिमान्दक्षः सत्कृतश्च युगाधिपः।
गोपालिर्गोपतिर्ग्रामो गोचर्मवसनो हरिः। 13-48-115

हिरण्यबाहुश्च तता गुहापालः प्रवेशिनाम्।
प्रकृष्टारिर्महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः।। 13-48-116

गान्धारश्च सुवासस्च तपःसक्तो रतिर्नरः।
महागीतो महानृत्यो ह्यप्सरोगणसेवितः।। 13-48-117

महाकेतुर्महाधातुर्नैकसानुचरश्चलः।
आवेदनीय आदेशः सर्वगन्धसुखावहः।। 13-48-118

तोरणस्तारणो वातः वरिधी पतिखेचरः।
संयोगो वर्धनो वृद्धो अतिवृद्धो गुणाधिकः।। 13-48-119

नित्य आत्मसहायश्च देवासुरपतिः पतिः।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च देवो दिवि सुपर्वणः।। 13-48-120

आषाढश्च सुषांढश्च ध्रुवोऽथ हरिणो हरः।
वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः।। 13-48-121

शिरोहारी विमर्शश्च सर्वलक्षणलक्षितः।
अक्षश्च रथयोगी च सर्वयोगी महाबलः।। 13-48-122

समाम्नायोऽसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः।
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः शुभाक्षो बहुकर्कशः।। 13-48-123

रत्नप्रभूतो रत्नाङ्गो महार्णवनिपानवित्।
मूलं विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः।। 13-48-124

आरोहणोऽधिरोहश्च शीलधारी महायशाः।
सेनाकल्पो महाकल्पो योगो युगकरो हरिः।। 13-48-125

युगरूपो महारूपो महानागहनो वधः।
न्यायनिर्वपणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः।। 13-48-126

बहुमालो महामालः शशी हरसुलोचनः।
विस्तारो लवणः कूपस्त्रियुगः सफलोदयः।। 13-48-127

त्रिलोचनो विषष्णाङ्गो मणिविद्धो जटाधरः।
बिन्दुर्विसर्गः सुमुखः शरः सर्वायुधः सहः।। 13-48-128

निवेदनः सुखाजातः सुगन्धारो महाधनुः।
गन्धपाली च भगवानुत्थानः सर्वकर्मणाम्।। 13-48-129

मन्थानो बहुलो वायुः सकलः सर्वलोचनः।
तलस्तालः करस्थाली ऊर्ध्वसंहननो महान्।। 13-48-130

धत्रं सुच्छत्रो विख्यातो लोकः सर्वाश्रयः क्रमः।
मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी कुण्डी विकुर्वणः। 13-48-131

हर्यक्षः ककुभो वज्रो शतजिह्वः सहस्रपात्।
सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः।। 13-48-132

सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत्।
पवित्रं त्रिककुन्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः। 13-48-133

ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नीपाशशक्तिमान्।
पद्मगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः।। 13-48-134

गभस्तिर्ब्रह्मकृद्ब्रह्मी ब्रह्मविद्ब्राह्मणो गतिः।
अनन्तरुपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयंभुवः।। 13-48-135

ऊर्ध्वगात्मा पशुपतिर्वातरंहा मनोजवः।
चन्दनी पद्मनालाग्रः सुरभ्युत्तरणो नरः।। 13-48-136

कर्णिकारमहास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृत्।
उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवीधृगुमाधवः।। 13-48-137

वरो वराहो वरदो वरेण्यः सुमाहास्वनः।
महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः।। 13-48-138

पीतात्मा परमात्मा च प्रयतात्मा प्रधानधृत्।
सर्वपार्श्वमुखस्त्र्यक्षो धर्मसाधारणो वरः।। 13-48-139

चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा अमृतो गोवृषेश्वरः।
साध्यर्षिर्वसुरादित्यो विवस्वान्सविताऽमृतः
व्यासः सर्गः सुसंक्षेपो विस्तरः पर्ययो नरः।
ऋतु संवत्सरो मासः पक्षः सङ्ख्यासमापनः।। 13-48-140

कला काष्ठा लवा मात्रा मुहूर्ताहःक्षपाः क्षणाः।
विश्वक्षेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्तु निर्गमः।। 13-48-142

सदसद्व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः।
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्।। 13-48-143

निर्वाणं ह्लादनश्चैव ब्रह्मलोक परा गतिः।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः।। 13-48-144

देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः।
देवासुरमहामात्रो देवासुगणाश्रयः।। 13-48-145

देवासुरगणाध्यक्षो देवासुरगणाग्रणीः।
देवातिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः।। 13-48-146

देवासुरेश्वरो विश्वो देवासुरमहेश्वरः।
सर्वदेवमयोचिन्त्यो देवतात्माऽत्मसम्भवः।। 13-48-147

उद्भित्त्रिविक्रमो वैद्यो विरजो नीरजोऽमरः।।
ईड्यो हस्तीश्वरो व्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः।। 13-48-148

विबुधोऽग्रवरः सूक्ष्मः सर्वदेवस्तपोमयः।
सुयुक्तः शोभनो वज्री प्रासानां प्रभवोऽव्ययः।। 13-48-149

गुहः कान्तो निजः सर्गः पवित्रं सर्वपावनः।
शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः।। 13-48-150

अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधः।
ललाटाक्षो विश्वदेवो हरिणो ब्रह्मवर्चसः।। 13-48-151

स्थावराणां पतिश्चैव नियमन्द्रियवर्धनः।
सिद्धार्थः सिद्धभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः।। 13-48-152

व्रताधिपः परं ब्रह्म भक्तानां परमा गतिः।
विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमाञ्श्रीवर्धनो जगत्।। 13-48-153

यथा प्रधानं भगवानिति भक्त्या स्तुतो मया।
यन्न ब्रह्मादयो देवा विदुस्तत्त्वेन नर्षयः।
स्तोतव्यमर्च्यं वन्द्यं च कः स्तोष्यति जगत्पतिम्।। 13-48-154

भक्तिं त्वेवं पुरस्कृत्य मया यज्ञपतिर्विभुः।
ततोऽभ्यनुज्ञां सम्प्राप्य स्तुतो मतिमतां वरः।। 13-48-155

शिवमेभिः स्तुवन्देवं नामभिः पुष्टिवर्धनैः।
नित्ययुक्तः शुचिर्भक्तः प्राप्नोत्यात्मानमात्मना।। 13-48-156

एतद्धि परमं ब्रह्म परं ब्रह्माधिगच्छति।। 13-48-157
ऋषयश्चैव देवाश्च स्तुवन्त्येतेन तत्परम्।। 13-48-158
स्तूयमानो महादेवस्तष्यते नियतात्मभिः।
भक्तानुकम्पी भगवानात्मसंस्थाकरो विभुः।। 13-48-159

तथैव च मनुष्येषु ये मनुष्याः प्रधानतः।
आस्तिकाः श्रद्धधानाश्च बहुभिर्जन्मभिः स्तवैः।। 13-48-160

भक्त्या ह्यनन्यमीशानं परं देवं सनातनम्।
कर्मणा मनसा वाचा भावेनामिततेजसः।। 13-48-161

शयाना जाग्रमाणाश्च व्रजन्नुपविशंस्तथा।
उन्मिषन्निमिषंश्चैव चिन्तयन्तः पुनःपनः।। 13-48-162

शृण्वन्तः श्रावयन्तश्च कथयन्तश्च ते भवम्।
स्तुवन्तः स्तूयामानाश्च तुष्यन्ति च रमन्ति च।। 13-48-163

जन्मकोटिसहस्रेषु नानासंसारयोनिषु।
जन्तोर्विगतपापस्य भवे भक्तिः प्रजायते।। 13-48-164

उत्पन्ना च भवे भक्तिरनत्या सर्वभावतः।
भाविनः कारणे चास्य सर्वयुक्तस्य सर्वथा।। 13-48-165

एतद्देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्तते।
निर्विघ्रा निश्चला रुद्रे भक्तिरव्यभिचारिणी।। 13-48-166

तस्यैव च प्रसादेन भक्तिरुत्पद्यते नृणाम्।
येन यान्ति परां सिद्धिं तद्भागवतचेतसः।। 13-48-167

ये सर्वभावानुगताः प्रपद्यन्ते महेश्वरम्।
प्रपन्नवत्सलो देवः संसारात्तान्समुद्धरेत्।। 13-48-168

एवमन्ये विकुर्वन्ति देवाः संसारमोचनम्।
मनुष्याणामृते देवं नान्या शक्तिस्तपोबलम्।।
इति तेनेन्द्रकल्पेन भगवान्सदसत्पतिः।
कृत्तिवासाः स्तुतः कृष्ण तण्डिना शुभबुद्धिना।। 13-48-169

स्तवमेतं भगवतो ब्रह्मा स्वयमधारयत्।
गीयते च स बुद्ध्येत ब्रह्म शंकरसन्निधौ।। 13-48-171

इदं पुण्यं पवित्रं च सर्वदा पापनाशनम्।
योगदं मोक्षदं चैव स्वर्गदं तोषदं तथा।। 13-48-172

एवमेतत्पठन्ते य एकभक्त्या तु शङ्करम्।
या गतिः साङ्ख्ययोगानां व्रजन्त्येतां गतिं तदा।। 13-48-173

स्तवमेतं प्रयत्नेन सदा रुद्रस्य सन्निधौ।
अब्धमेकं चरेद्भक्तः प्राप्नुयादीप्सितं फलम्।। 13-48-174

एतद्रहस्यं परमं ब्रह्मणो हृदि संस्थितम्।
ब्रह्मा प्रोवाच शक्राय शक्रः प्रोवाच मृत्यवे।। 13-48-175

मृत्युः प्रोवाच रुद्रेभ्यो रुद्रेभ्यस्तण्डिमागमत्।
महता तपसा प्राप्तस्तण्डिना ब्रह्मसद्मानि।। 13-48-176

तण्डिः प्रोवाच शुक्राय गौतमाय च भार्गवः।
वैवस्वताय मनवे गौतमः प्राह माधव।। 13-48-177

नारायणाय साध्याय समाधिष्ठाय धीमते।
यमाय प्राह भगवान्साध्यो नारायणोच्युतः।। 13-48-178

नाचिकेताय भगवानाह वैवस्वतो यमः।
मार्कण्डेयाय वार्ष्णेय नाचिकेतोऽभ्यभाषत।। 13-48-179

मार्कण्डेयान्मय प्राप्तो नियमेन जनार्दन।
तवाप्यहममित्रघ्न स्तवं दद्यां ह्यविश्रुतम्। 13-48-180

स्वर्ग्यमारोग्यमायुष्यं धन्यं वेदेनि संमितम्।
नास्य विघ्रं विकुर्वन्ति दानवा यक्षराक्षसाः।। 13-48-181

पिशाचा यातुधाना वा गुह्यका भुजगा अपि।
यः पठेत शुचिः पार्थ ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः।
अभग्रयोगो वर्षं तु सोऽश्वमेधफलं लभेत्।। 13-48-182

।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।।


13-48-3 सत्यैरन्वर्यैः वेदे कृतात्मना दत्तचित्तेन कृतैः वेदात्पृथक्कृतै।। 13-48-6 वरय प्रार्थत।। 13-48-20 पवित्रं पापनाशकम्। मेध्यं यज्ञादिफलप्रदम्। मङ्गलमभ्युदयकरम्। उत्तमं कल्याणं परमानन्दरूपम्।।

अनुशासनपर्व-047 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-049