महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-038
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति तत्वसृष्ट्यादिप्रतिपादकनारदसनत्कुमारसंवादानुवादः।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-38-1x |
क्लिश्यमानेषु भूतेषु जातीमरणसागरे। यत्प्राप्य क्लेशं नाप्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-38-1a 13-38-1b |
भीष्म उवाच। | 13-38-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। सनत्कुमारस्य सतः संवादं नारदस्य च।। | 13-38-2a 13-38-2b |
सनत्कुमारो भगवान्ब्रह्मपुत्रो महायशाः। पूर्वजातास्त्रयस्तस्य कथ्यन्ते ब्रह्मवादिनः।। | 13-38-3a 13-38-3b |
सनकः सनन्दनश्चैव तृतीयश्च सनातनः। जातमात्राश्च ते सर्वे प्रतिबुद्धा इति श्रुतिः।। | 13-38-4a 13-38-4b |
चतुर्थश्चैव तेषां स भगवान्योगवित्तमः। सनत्कुमार इति वै कथयन्ति महर्षयः।। | 13-38-5a 13-38-5b |
हैरण्यगर्भः स मुनिर्वसिष्ठः पञ्चमः स्मृतः। षष्ठः स्थाणुः स भगवानमेयात्मा त्रिशूलधृत्।। | 13-38-6a 13-38-6b |
ततोऽपरे समुत्पन्नाः पावकादारुणे क्रतौ। मनसा स्वयंभुवो हीमे मरीचिप्रमुखास्तथा।। | 13-38-7a 13-38-7b |
भुगुर्मरीचेरनुजो भृगोरप्यङ्गिरास्तथा। अनुजोङ्गिरसोऽथात्रिः पुलस्त्योत्रेस्तथाऽनुजः।। | 13-38-8a 13-38-8b |
पुलस्त्यस्यानुजो विद्वान्पुलहो न महाद्युतिः। पठ्यन्ते ब्रह्मजा ह्येते विद्वद्बिरमितौजसः।। | 13-38-9a 13-38-9b |
सर्वमेतन्महाराज कुर्वन्नादिगुरुर्महान्। प्रभुर्विभुरनन्तश्रीर्ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 13-38-10a 13-38-10b |
मूर्तिमन्तोऽमृतीभूतास्तेजसाऽतितपोन्विताः। सनकप्रभृतयस्तत्र ये च प्राप्ताः परं पदम्। कृत्स्नं क्षयमनुप्राप्य विमुक्ता मूर्तिबन्धनात्।। | 13-38-11a 13-38-11b 13-38-11c |
सनत्कुमारस्तु विभुर्योगमास्थाय योगवित्। त्रीँल्लोकानचरच्छश्वदैर्येण परेण हि।। | 13-38-12a 13-38-12b |
रुद्रश्चाप्यष्टगुणितं योगं प्राप्तो महायशाः। सूक्ष्ममष्टगुणं राजन्नितरे नृपसत्तम।। | 13-38-13a 13-38-13b |
मरीचिप्रमुखास्तात सर्वे सृष्ट्यर्थमेव ते। नियुक्ता राजशार्दूल तेषां सृष्टिं शृणुष्व मे।। | 13-38-14a 13-38-14b |
सप्त ब्रह्मण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः। सर्वे वेदेषु चैवोक्ताः खिलेषु च न संशयः।। | 13-38-15a 13-38-15b |
इतिहासपुराणे च श्रुतिरेषा सनातनी। ब्राह्मणा वरदानेतान्प्राहुर्वेदान्तपारगाः।। | 13-38-16a 13-38-16b |
एतेषां पितरस्तात पुत्रा इत्यनुचक्षते। गणाः सप्त महाराज मूर्तयोऽमूर्तयस्तथा।। | 13-38-17a 13-38-17b |
पितृणां चैव राजेन्द्र पुत्रा देवा इति श्रुतिः। देवैर्व्याप्ता इमे लोका इत्येवमनुशुश्रुम।। | 13-38-18a 13-38-18b |
कृष्णद्वैपायनाच्चैव देवस्थानात्तथैव त। देवलाच्च नरश्रेष्ठ काश्यपाच्च मया श्रुतम्।। | 13-38-19a 13-38-19b |
गौतमादपि कौण्डिन्याद्बारद्वाजात्तथैव च। मार्कण्डेयात्तथैवैतदृषेर्देवमतादपि।। | 13-38-20a 13-38-20b |
पित्रा च मम राजेन्द्र श्राद्धकाले प्रभाषितम्। परं रहस्यं वेदान्तं प्रियं हि परमात्मनः।। | 13-38-21a 13-38-21b |
अतः परं प्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छसि भारतः। तदिहैकमनोबुद्धिः शृणुष्वावहितो नृप। स्वायंभुवस्य संवादं नारदस्य च धीमतः।। | 13-38-22a 13-38-22b 13-38-22c |
सनत्कुमारो भगवान्दिव्यं जज्वाल तेजसा। अङ्गुष्ठमात्रो भूत्वा वै विचचार महाद्युतिः।। | 13-38-23a 13-38-23b |
स कदाचिन्महाभागो मेरुपृष्ठं समागमत्। नारदेन नरश्रेष्ठ मुनिना ब्रह्मवादिना।। | 13-38-24a 13-38-24b |
जिज्ञासमानावन्योन्यं सकाशे ब्रह्मणस्ततः। ब्रह्म भागवतौ तात परमार्थार्थचिन्तकौ।। | 13-38-25a 13-38-25b |
मतिमान्मतिमच्छ्रेष्ठं बुद्धिमान्बुद्धिमत्तरम्। क्षेत्रवित्क्षेत्रविच्छ्रेष्ठं ज्ञानविज्ज्ञानमत्तमम्।। | 13-38-26a 13-38-26b |
सनत्कुमारं तत्वज्ञं भगवन्तमरिंदम। लोकविल्लोकविच्छ्रेष्ठमात्मविच्चात्मवित्तमम्। सर्ववेदार्थकुशलं सर्वशास्त्रविशारदम्।। | 13-38-27a 13-38-27b 13-38-27c |
साङ्ख्ययोगं च यो वेद पाणावामलकं यथा। नारदोऽथ नरश्रेष्ठ तं पप्रच्छ महाद्युतिः।। | 13-38-28a 13-38-28b |
नारद उवाच। | 13-38-29x |
त्रयोविंशतितत्वस्य अव्यक्तस्य महामुने। प्रभवं चाप्ययं चैव श्रोतुमिच्छामि तत्वतः।। | 13-38-29a 13-38-29b |
अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं तथैव च। कालसङ्ख्याश्च सर्गं च स्रष्टारं पुरुषं प्रभुम्। | 13-38-30a 13-38-30b |
यं विस्वमुपजीवन्ति येन सर्वमिदं ततम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 13-38-31a 13-38-31b |
सनत्कुमार उवाच। | 13-38-32x |
यं विश्वमुपजीवन्ति यमाहुः पुरुषं परम्। तं वै शृणु महाबुद्धे नारायणमनामयम्।। | 13-38-32a 13-38-32b |
एष नारायणो नाम यं विश्वमुपजीवति। एष स्रष्टा विधाता च भर्ता पालयिता प्रभुः।। | 13-38-33a 13-38-33b |
प्राप्यैनं न निवर्तन्ते यतयोऽध्यात्मचिन्तकाः। एतावदेव वक्तव्यं मया नारद पृच्छते।। | 13-38-34a 13-38-34b |
परं न वेद्मि तत्सर्गं यावांश्चायं यथाप्यहम्। श्रूयतामानुपूर्व्येण न च सर्गः प्रयत्नतः।। | 13-38-35a 13-38-35b |
यथा कालपरीमाणं तत्वानामृषिसत्तम। अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं तथैव च। कालसंख्यां च सर्गं च सर्वमेव महामुने।। | 13-38-36a 13-38-36b 13-38-36c |
तमसः कुर्वतः सर्गं तामसो ह्यभिधीयते। ब्रह्मविद्भिर्द्विजैर्नित्यं नित्यमध्यात्मचिन्तकैः।। | 13-38-37a 13-38-37b |
पर्यायनामान्येतस्य कथयन्ति मनीषिणः। तानि ते सम्प्रवक्ष्यामि तदिहैकमनाः शृणु।। | 13-38-38a 13-38-38b |
महार्णवोऽर्णवश्चैव सलिलं च गुणास्तथा। वेदास्तपांसि यज्ञाश्च धर्माश्च भगवान्विभुः। प्राणः सांवर्तकोग्निश्च व्योम कालस्तथैव च।। | 13-38-39a 13-38-39b 13-38-39c |
नामान्येतानि ब्रह्मर्षे शरीरस्येश्वरस्य वै। कीर्तितानि द्विजश्रेष्ठ मया शास्त्रानुसारतः।। | 13-38-40a 13-38-40b |
चतुर्युगसहस्राणि चतुर्युगमरिंदम। प्राहुः कल्पसहस्रं वै ब्राह्मणास्तत्वदर्शिनः।। | 13-38-41a 13-38-41b |
दशकल्पसहस्राणि अव्ययस्य महानिशा। तथैव दिवसं प्राहुर्योगाः सांख्याश्च तत्वतः।। | 13-38-42a 13-38-42b |
निशासुप्तोथ भगवान्क्षपान्ते प्रत्यबुध्यत। पश्चाद्बुद्ध्वा ससर्जापस्तासु वीर्यमवासृजत्।। | 13-38-43a 13-38-43b |
तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम्। अहंकृत्वा ततस्तस्मिन्ससर्ज प्रभुरीश्वरः।। | 13-38-44a 13-38-44b |
हिरण्यगर्भं विस्वात्मा ब्रह्माणां जलवन्मुनिम्। भूतभव्यभविष्यस्य कर्तारमनघं विभुम्। मूर्तिमन्तं महात्मानं विश्वशभुं स्वयंभुवम्।। | 13-38-45a 13-38-45b 13-38-45c |
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिषां नरम्। चक्रे तिरोधां भगवानेत्कृत्वा महायशाः।। | 13-38-46a 13-38-46b |
एतस्यापि निशामाहुर्वेदवेदाङ्गपारगाः। पञ्चकल्पसहस्राणि अहरेतावदेव च।। | 13-38-47a 13-38-47b |
स सर्गं कुरुत ब्रह्मा तामसश्चानुपूर्व्यशः। सृजतेऽहं त्वहंकारं परमेष्ठिनमव्ययम्।। | 13-38-48a 13-38-48b |
अहङ्कारेणैव लोका व्याप्ताः साहंकृतेन वै। येनाविष्टानि भूतानि मज्जन्त्यव्यक्तसागरे।। | 13-38-49a 13-38-49b |
देवर्षिदानवनरा यक्षगन्धर्वकिन्नराः। उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति ऊर्ध्वाधस्तिर्यगेव च।। | 13-38-50a 13-38-50b |
एतस्यापि निशामाहुस्तृतीयामथ कुर्वतः। त्रीणि कल्पसहस्राणि अहरेतावदेव तु।। | 13-38-51a 13-38-51b |
अहङ्कारस्तु सृजति महाभूतानि पञ्च वै। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।। | 13-38-52a 13-38-52b |
एतेषां गुणतत्वानि पञ्च प्राहुर्द्विजातयः। शब्दे स्पर्शे च रूपे च रसे गन्धे तथैव च।। | 13-38-53a 13-38-53b |
गुणेष्वेतेष्वभिरताः पङ्कलग्ना इव द्विपाः। नोत्तिष्ठन्त्यवशीभूताः सक्ता अव्यक्तसागरे।। | 13-38-54a 13-38-54b |
एतेषामिह वै सर्वं चतुर्थमिह कुर्वतः। चतुर्युगसहस्रे वै अहोरात्रास्तथैव च।। | 13-38-55a 13-38-55b |
अनन्त इति विख्यातः पञ्चमः सर्ग उच्यते। इन्द्रियाणि दशैकं च यथाश्रुतिनिदर्शनात्।। | 13-38-56a 13-38-56b |
मनः सर्वमिदं तात विश्वं सर्वमिदं जगत्। न तथान्यानि भूतानि बलवन्ति यथा मनः।। | 13-38-57a 13-38-57b |
एतस्यापि ह वै सर्गं षष्ठमाहुर्द्विजातयः। अहः कल्पसहस्रं वै रात्रिरेतावती तथा।। | 13-38-58a 13-38-58b |
ऊर्ध्वस्रोतस्तु वै सर्गं सप्तमं ब्रह्मणो विदुः। अष्टमं चाप्यधःस्रोतस्तिर्यक्तु नवमः स्मृतः।। | 13-38-59a 13-38-59b |
एतानि नव सर्गाणि तत्वानि च महामुने। चतुर्विंशतितत्वानि तत्वसंख्यानि तेऽनघ।। | 13-38-60a 13-38-60b |
सर्वस्य प्रभवः पूर्वमुक्तो नारायणः प्रभुः। अव्ययः प्रभवश्चैव अव्यक्तस्य महामुने। प्रवक्ष्याम्यपरं तत्वं यस्य यस्येश्वरश्च यः।। | 13-38-61a 13-38-61b 13-38-61c |
अध्यात्ममधिभूतं च अधिदैवं तथैव च। यथाश्रुतं यथादृष्टं तत्वतो वै निबोध मे।।' | 13-38-62a 13-38-62b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः।। 38 ।। |
अनुशासनपर्व-037 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-039 |