महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-001
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युधिष्ठिरेण भीष्मंप्रति पुनः शमादिकथनप्रार्थना।। 1।। भीष्मादिनिधने स्वस्यैव हेतुत्वबुद्ध्या स्वोपालम्भनपूर्वकं शोचन्तं युधिष्ठिरंप्रति भीष्मेण जीवस्य कर्मण्यस्वातन्त्रयमभिधाय तन्निदर्शनतया गौतमीलुब्धकादिसंवादानुवादः।। 2 ।।
।। श्रीवेदव्यासाय नमः।। | 13-1-1x |
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं चैव(व्यासं)ततो जयमुदीरयेत्।। | 13-1-1a 13-1-1b |
वैशंपायन उवाच। | 13-1-1x |
`शरतल्पे महात्मानं शयानमपराजितम्। युधिष्ठिर उपागम्य प्रणिपत्येदमब्रवीत्।।' | 13-1-1c 13-1-1d |
शमो बहुविधाकारः सूक्ष्म उक्तः पितामह। न च मे हृदये शान्तिरस्ति श्रुत्वेदमीदृशम्।। | 13-1-2a 13-1-2b |
अस्मिन्नर्थे बहुविधा शान्तिरुक्ता पितामह। स्वकृतात्का नु शान्ति स्याच्छमाद्बहुविधादपि।। | 13-1-3a 13-1-3b |
शराचितं शरीरं हि तीव्रव्रणमुदीक्ष्य ते। शमं नोपलभे वीर दुष्कृतान्येव चिन्तयन्।। | 13-1-4a 13-1-4b |
रुधिरेणावसिक्ताङ्गं प्रस्रवन्तं यथाचलम्। त्वां दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्र सीदे वर्षास्विवाम्बुजम्।। | 13-1-5a 13-1-5b |
अतः कष्टतरं किन्नु मत्कृते यत्पितामहः। इमामवस्थां `गमितः प्रत्यमित्रै रणाजिरे।। | 13-1-6a 13-1-6b |
तथा चान्ये नृपतयः सहपुत्राः सबान्धवाः। मत्कृते निधनं प्राप्ताः किन्नु कष्टतरं ततः।। | 13-1-7a 13-1-7b |
वयं हि धार्तराष्ट्राश्च काममन्युवशं गताः। कृत्वेदं निन्दितं कर्म प्राप्स्यामः कां गतिं नृप।। | 13-1-8a 13-1-8b |
इदं तु धार्तराष्ट्रास्य श्रेयो मन्ये जनाधिप। इमामवस्थां संप्राप्तं यदसौ त्वां न पश्यति।। | 13-1-9a 13-1-9b |
सोऽहमार्तिकरो राजन्सुहृद्वधकरस्तथा। न शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं क्षितौ।। | 13-1-10a 13-1-10b |
दुर्योधनो हि समरे सहसैन्यः सहानुजः। निहतः क्षत्रधर्मेऽस्मिन्दुसत्मा कुलपांसनः।। | 13-1-11a 13-1-11b |
न स पश्यति दुष्टात्मा त्वामद्य पतितं क्षितौ। अतः श्रेयो मृतं मन्ये नेह जीवितमात्मनः।। | 13-1-12a 13-1-12b |
अहं हि समरे वीर गमितः शत्रुभिः क्षयम्। अभविष्यं यदि पुरा सह भ्रातृभिरच्युत। न त्वामेवं सुदुःखार्तमद्राक्षं सायकार्दितम्।। | 13-1-13a 13-1-13b 13-1-13c |
नूनं हि पापकर्माणो धात्रा सृष्टाः स्म हे नृप।। | 13-1-14a |
अन्यस्मिन्नपि लोके वै यथा मुच्येम किल्बिषात्। तथा प्रशाधि मां राजन्मम चेदिच्छसि प्रियम्।। | 13-1-15a 13-1-15b |
भीष्म उवाच। | 13-1-16x |
परतन्त्रं कथं हेतुमात्मानमनु पश्यसि। कर्मणां हि महाभाग सूक्ष्मं ह्येतदतीन्द्रियम्।। | 13-1-16a 13-1-16b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। संवादं मृत्युगौतम्योः काललुब्धकपन्नगैः।। | 13-1-17a 13-1-17b |
गौतमी नाम काऽप्यासीत्स्थविरा शमसंयुता। सर्पेण दष्टं स्वं पुत्रमपश्यद्गतचेतनम्।। | 13-1-18a 13-1-18b |
अथ तं स्नायुपाशेन बद्ध्वा सर्पममर्षितः। लुब्धकोऽर्जुनको नाम नाम गौतम्याः समुपानयत्।। | 13-1-19a 13-1-19b |
तां चाब्रवीदयं ते स पुत्रहा पन्नगाधमः। ब्रहि क्षिप्रं महाभागे वध्यतां केन हेतुना।। | 13-1-20a 13-1-20b |
अग्नौ प्रक्षिप्यतामेष च्छिद्यतां खण्डशोपि वा। न ह्यं बालहा पापश्चिरं जीवितुमर्हति।। | 13-1-21a 13-1-21b |
गौतम्युवाच। | 13-1-22x |
विसृजैनमबुद्धिस्त्वमवध्योऽर्जुनक त्वया। को ह्यात्मानं गुरुं कुर्यात्प्राप्तव्ये सति चिन्तयन् | 13-1-22a 13-1-22b |
प्लवन्ते धर्मलघवो लोकेऽम्भसि यथा प्लवाः। मज्जन्ति पापगुरवः शस्त्रं स्कन्नमिवोदके।। | 13-1-23a 13-1-23b |
नास्यामृतत्वं भवितैवं हतेऽस्मि- ञ्जीवत्यस्मिन्कोऽत्ययः स्यादयं ते। अस्योत्सर्गे प्राणयुक्तस्य जन्तो- र्मृत्युं लोके को न गच्छेदनन्ते।। | 13-1-24a 13-1-24b 13-1-24c 13-1-24d |
लुब्धक उवाच। | 13-1-25x |
जानाम्यहं नेह गुणागुणज्ञाः सदायुक्ता गुरवो वै भवन्ति। स्वर्गस्य ते सूपदेशा भवन्ति तस्मात्क्षुद्रं सर्पमेनं हनिष्ये।। | 13-1-25a 13-1-25b 13-1-25c 13-1-25d |
शममीप्सन्तः कालयोगं त्यजन्ति सद्यः शुचं त्वर्थविदस्त्यजन्ति। श्रियः क्षयः शोचतां नित्यशो हि तस्माच्छुचं मुञ्च हते भुजङ्गे।। | 13-1-26a 13-1-26b 13-1-26c 13-1-26d |
गौतम्युवाच। | 13-1-27x |
न चैवार्तिर्विद्यतेऽस्मद्विधानां धर्मात्मानः सर्वदा सञ्जना हि। नित्यायस्तो बालजनो न चाहं धर्मोपैति प्रभवाम्यस्य नाहम्।। | 13-1-27a 13-1-27b 13-1-27c 13-1-27d |
न ब्राह्मणानां कोपोऽस्ति कुतः कोपाच्च यातना। मार्दवात्क्षम्यतां साधो मुच्यतामेष पन्नगः।। | 13-1-28a 13-1-28b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-29x |
हत्वा लाभः श्रेय एवाव्ययः स्या- त्सद्योलाभःस्याद्बलिभ्यः प्रशस्तः। कालाल्लाभो यस्तु सद्यो भवेत श्रेयोलाभः कुत्सिते त्वीदृशि स्यात्।। | 13-1-29a 13-1-29b 13-1-29c 13-1-29d |
गौतम्युवाच। | 13-1-30x |
काऽर्थप्राप्तिर्गृह्य शत्रुं निहत्य का कामाप्तिः प्राप्य शत्रुं न मुक्त्वा। कस्मात्सौम्याहं न क्षमे नो भुजङ्गे मोक्षार्थं वा कस्य हेतोर्न कुर्याम्।। | 13-1-30a 13-1-30b 13-1-30c 13-1-30d |
लुब्धक उवाच। | 13-1-31x |
अस्मादेकाद्बहवो रक्षितव्या नैको बहुभ्यो गौतमि रक्षितव्यः। कृतागसं धर्महेतोस्त्यजन्ति सरीसृपं पापमिमं त्यज त्वम्।। | 13-1-31a 13-1-31b 13-1-31c 13-1-31d |
गौतम्युवाय | 13-1-32x |
नास्मिन्हते पन्नगे पुत्रको मे सम्प्राप्स्यते लुब्धक जीवितं वै। गुणं चान्यं नास्य वधे प्रपश्ये तस्मात्सर्पं लुब्धक मुञ्च जीवम्।। | 13-1-32a 13-1-32b 13-1-32c 13-1-32d |
लुब्धक उवाच। | 13-1-33x |
वृत्रं हत्वा देवराट् श्रेष्ठभाग्वै यज्ञं हत्वा भागमवाप चैव। शूली देवो देववृत्तं चर त्वं क्षिप्रं सर्पं जहि मा भूत्ते विशङ्का।। | 13-1-33a 13-1-33b 13-1-33c 13-1-33d |
भीष्म उवाच। | 13-1-34x |
असकृत्प्रोच्यमानाऽपि गौतमी भुजगं प्रति। लुब्धकेन महाभागा सा पापे नाकरोन्मतिम्।। | 13-1-34a 13-1-34b |
ईषदुच्छ्वसमानस्तु कृच्छ्रात्संस्तभ्य पन्नगः। उत्ससर्ज गिरं मन्दां मानुषीं पाशपीडितः।। | 13-1-35a 13-1-35b |
सर्प उवाच। | 13-1-36x |
को न्वर्जुनक दोषोऽत्र विद्यते मम बालिश। अस्वतन्त्रं हि मां मृत्युर्विवशं यदचूचुदत्।। | 13-1-36a 13-1-36b |
तस्यायं वचनाद्दष्टो न कोपेन न काम्यया। तस्य तत्किल्बिषं लुब्ध विद्यते यदि किञ्चन। | 13-1-37a 13-1-37b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-38x |
यद्यन्यवशगेनेदं कृतं ते पन्नगाशुभम्। कारणं वै त्वमप्यत्र तस्मात्त्वमपि किल्बिषी।। | 13-1-38a 13-1-38b |
मृत्पात्रस्य क्रियायां हि दण्डचक्रादयो यथा। कारणत्वे प्रकल्प्यन्ते तथा त्वमपि पन्नग।। | 13-1-39a 13-1-39b |
किल्बिषी चापि मे वध्यः किल्बिषी चासि पन्नग। आत्मानं कारणं ह्यत्र त्वमाख्यासि भुजङ्गम।। | 13-1-40a 13-1-40b |
सर्प उवाच। | 13-1-41x |
सर्व एते ह्यस्ववशा दण्डचक्रादयो यथा। तथाहमपि तस्मान्मे नैष दोषो मतस्तव।। | 13-1-41a 13-1-41b |
अथवा मतमेतत्ते तेप्यन्योऽन्यप्रयोजकाः। कार्यकारणसन्देहो भवत्यन्योन्यचोदनात्।। | 13-1-42a 13-1-42b |
एवं सति न दोषो मे नास्मि वध्यो न किल्बिषी। किल्बिषं समवाये स्यान्मन्यसे यदि किल्बिषम्।। | 13-1-43a 13-1-43b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-44x |
कारणं यदि स्याद्वै न कर्ता स्यास्त्वमप्युत। विनाशे कारणं त्वं च तस्माद्वध्योऽसि मे मतः।। | 13-1-44a 13-1-44b |
असत्यपि कृते कार्ये नेह पन्नग लिप्यते। तस्मान्नात्रैव हेतुः स्याद्वध्यः किं बहु भाषसे।। | 13-1-45a 13-1-45b |
सर्प उवाच। | 13-1-46x |
कार्याभावे क्रिया न स्यात्सत्यसत्यपि कारणे। तस्मात्समेऽस्मिन्हेतौ मे वाच्यो हेतुर्विशेषतः।। | 13-1-46a 13-1-46b |
यद्यहं कारणत्वेन मतो लुब्धक तत्त्वतः। अन्यः प्रयोक्तास्यादत्र किन्नु जन्तुविनाशने।। | 13-1-47a 13-1-47b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-48x |
वध्यस्त्वं मम दुर्बुद्धे बालघाती नृशंसकृत्। भाषसे किं बहु पुनर्वध्यः सन्पन्नगाधम।। | 13-1-48a 13-1-48b |
सर्प उवाच। | 13-1-49x |
यथा हवींषि जुह्वाना मखे वै लुब्धकर्त्विजः। न फलं प्राप्नुवन्त्यत्र फलयोगे तथा ह्यहम्।। | 13-1-49a 13-1-49b |
भीष्म उवाच। | 13-1-50x |
तथा ब्रुवति तस्मिंस्तु पन्नगे मृत्युचोदिते। आजगाम ततो मृत्युः पन्नगं चाब्रवीदिदम्।। | 13-1-50a 13-1-50b |
प्रचोदितोऽहं कालेन पन्नग त्वामचूचुदम्। विनाशहेतुर्नास्य त्वमहं न प्राणिनः शिशोः।। | 13-1-51a 13-1-51b |
यथा वायुर्जलधरान्विकर्षति ततस्ततः। तद्वज्जलदवत्सर्प कालस्याहं वशानुगः।। | 13-1-52a 13-1-52b |
सात्विका राजसाश्चैव तामसा ये च केचन। भावाः कालात्मकाः सर्वे प्रवर्तन्तेह जन्तुषु।। | 13-1-53a 13-1-53b |
जङ्गमाः स्थावराश्चैव दिवि वा यदि वा भुवि। सर्वे कालात्मकाः सर्प कालात्मकमिदं जगत्।। | 13-1-54a 13-1-54b |
प्रवृत्तयश्च लोके या तथैव च निवृत्तयः। तासां विकृतयो याश्च सर्वं कालात्मकं स्मृतम्।। | 13-1-55a 13-1-55b |
आदित्यश्चन्द्रमा विष्णुरापो वायुः शतक्रतुः। अग्निः खं पृथिवी मित्रः पर्जन्यो वसवोऽदितिः।। | 13-1-56a 13-1-56b |
सरितः सागराश्चैव भावाभावौ च पन्नग। सर्वे कालेन सृज्यन्ते ह्रियन्ते च पुनःपुनः।। | 13-1-57a 13-1-57b |
एवं ज्ञात्वा कथं मां सदोषं सर्प मन्यसे। अथ चैवं गते दोषे मयि त्वमपि दोषवान्।। | 13-1-58a 13-1-58b |
सर्प उवाच। | 13-1-59x |
निर्दोषं दोषवन्तं वा न त्वां मृत्यो ब्रवीम्यहम्। त्वयाऽहं चोदित इति ब्रवीम्येतावदेव तु।। | 13-1-59a 13-1-59b |
यदि काले तु दोषोऽस्ति यदि तत्रापि नेष्यते। दोषो नैव परीक्ष्यो मे न ह्यत्राधिकृता वयम्।। | 13-1-60a 13-1-60b |
निर्मोक्षस्त्वस्य दोषस्य मया कार्यो यथा तथा। मृत्योरपि न दोषः स्यादिति मेऽत्र प्रयोजनम्।। | 13-1-61a 13-1-61b |
भीष्म उवाच। | 13-1-62x |
सर्पोऽथार्जुनकं प्राह श्रुतं ते मृत्युभाषितम्। नानागसं मां पाशेन सन्तापयितुमर्हसि। | 13-1-62a 13-1-62b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-63x |
मृत्योः श्रुतं मे वचनं तव चैव भुजङ्गम। नैव तावददोषत्वं भवति त्वयि पन्नग।। | 13-1-63a 13-1-63b |
मृत्युस्त्वं चैव हेतुर्हि बालस्यास्य विनाशने। उभयं कारणं मन्ये न कारणमकारणम्।। | 13-1-64a 13-1-64b |
धिङ्भृत्युं च दुरात्मानं क्रूरं दुःखकरं सताम्। त्वां चैवाहं वधिष्यामि परपापस्य कारणम्।। | 13-1-65a 13-1-65b |
मृत्युरुवाच। | 13-1-66x |
विवशौ कालवशगावावां निर्दिष्टकारिणौ। नावां दोषेण गन्तव्यौ यदि सम्यक्प्रपश्यसि।। | 13-1-66a 13-1-66b |
लुब्धक उवाच। | 13-1-67x |
युवामुभौ कालवशौ यदि मे मृत्युपन्नगौ। हर्षक्रोधौ यथा स्यातामेतदिच्छामि वेदितुम्।। | 13-1-67a 13-1-67b |
मृत्युरुवाच। | 13-1-68x |
या काचिदेव चेष्टा स्यान्सर्वा कालप्रचोदिता। पूर्वमेवैतदुक्तं हि मया लुब्धक तत्वतः।। | 13-1-68a 13-1-68b |
तस्मादुभौ कालवशावावां निर्दिष्टकारिणौ। नावां दोपेण गन्तव्यौ त्वया लुब्धक कर्हिचित्।। | 13-1-69a 13-1-69b |
भीष्म उवाच। | 13-1-70x |
अथोपगम्य कालस्तु तस्मिन्धर्मार्थसंशये। अब्रवीत्पन्नगं मृत्युं लुब्धं चार्जुनकं तथा।। | 13-1-70a 13-1-70b |
न ह्यहं नाप्ययं मृत्युर्नायं लुब्धक पन्नगः। किल्बिषी जन्तुमरणे न वयं हि प्रयोजकाः।। | 13-1-71a 13-1-71b |
अकरोद्यदयं कर्म तन्नोऽर्जुनक चोदकम्। विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेऽयं स्वकर्मणा।। | 13-1-72a 13-1-72b |
यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः। विनाशहेतुः कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम्।। | 13-1-73a 13-1-73b |
कर्मदायादवाँल्लोकः कर्मसम्बन्धलक्षणः। कर्माणि चोदयन्तीह यथान्योन्यं तथावयम्।। | 13-1-74a 13-1-74b |
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति। एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते।। | 13-1-75a 13-1-75b |
यथा च्छायातपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्। तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः।। | 13-1-76a 13-1-76b |
एवं नाहं न वै मृत्युर्न सर्पो न तथा भव न्। न चेयं ब्राह्मणी वृद्धा शिशुरेवात्र कारणम्।। | 13-1-77a 13-1-77b |
तस्मिंस्तथा ब्रुवाणे तु ब्राह्मणी गौतमी नृप। स्वकर्मप्रत्ययाँल्लोकान्मत्वाऽर्जुनकमब्रवीत्।। | 13-1-78a 13-1-78b |
नैव कालो न भुजगो न मृत्युरिह कारणम्। स्वकर्मभिरयं बालः कालेन निधं गतः।। | 13-1-79a 13-1-79b |
मया च तत्कृतं कर्म येनायं मे मृतः सुतः। यातु कालस्तथा मृत्युर्मुञ्चार्जुनक पन्नगम्।। | 13-1-80a 13-1-80b |
भीष्म उवाच। | 13-1-81x |
ततो यथागतं जग्मुर्मृत्युः कालोऽथ पन्नगः। अभूद्विशोकोऽर्जुनको विशोका चैव गौतमी।। | 13-1-81a 13-1-81b |
एतच्छ्रुत्वा शमं गच्छ मा भूः शोकपरो नृप। स्वकर्मप्रत्ययाँल्लोकांस्त्रीन्विद्धि समितिंजय।। | 13-1-82a 13-1-82b |
नैव त्वया कृतं कर्म नापि दुर्योधनेन वै। कालेनैतत्कृतं विद्धि निहता येन पार्थिवाः।। | 13-1-83a 13-1-83b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-1-84x |
इत्येतद्वचनं श्रुत्वा बभूव विगतज्वरः। युधिष्ठरो महातेजाः पप्रच्छेदं च धर्मवित्।। | 13-1-84a 13-1-84b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि प्रथमोऽध्यायः।। 1 ।। |
13-1-2 धर्मो बहुविधाकार इति ट. पाठ।। 13-1-5 सीदे सीदामि सदा वर्षमिवाम्बुदम् इति थ.पाठः।। 13-1-6 मत्कृते मन्निमित्तम्। प्रत्यमित्रैः अमित्राणां प्रतिकूलैरस्मदीयैरर्जुनशिखण्डिप्रभृतिभिः।। 13-1-19 अथ तं साधुपाशेनेति ध. पाठ।। 13-1-20 केन हेतुना केनोपायेन।। 13-1-21 हेतुमेवाह अग्नाविति।। 13-1-22 प्राप्तव्यमविचिन्तयन्निति झ.पाठः।। 13-1-23 प्लवन्ते दुःखार्णवं तरन्ति। मज्जन्ति च तत्रैव। वस्त्रं क्लिन्नमिवोदके इति ट. पाठः 13-1-24 उत्सर्गे प्राणोत्सर्गे।। 13-1-29 श्रेयः परलोकहितं तदेवाऽव्ययो लाभः सच शत्रून् हत्वैव लभ्य इत्यध्याहृत्य योज्यम्। बलिभ्यः सर्वेभ्यः प्रशस्तः श्रेष्ठश्च स्यात्। शत्रुवधाल्लोकत्रयेपि मान्यो भवतीत्यर्थः।। 13-1-31 त्यजन्ति नाशयन्ति।। 13-1-32 मे पुत्रको जीवितं न सम्प्राप्स्यते। गुणं पुण्यम्। जीवं जीवन्तम्।। 13-1-33 शूली यज्ञं हत्वेति सम्बन्धः।। 13-1-35 संस्तभ्य धैर्यमालम्ब्य।। 13-1-36 अचूचुदत् प्रेरितवान्।। 13-1-37 दष्टो दष्टवान्। किल्बिषं चेदस्ति तर्हि प्रयोक्तुरेव न प्रयोज्यस्य मम शरस्येवेत्यर्थः।। 13-1-39 चेतनत्वात्किल्बिषीत्यवश्यं वध्योऽसीत्यर्थः।। 13-1-42 आयुधं हि अयस्कान्तवत्प्रहर्तारं प्रयोजयति। तेनायुधकर्तापि प्रयोजकस्तस्य चायं कारयिता प्रहर्तुकामः प्रयोजक इत्यन्योन्यप्रयोज्यत्वान्न कस्यचिद्धन्तृत्वमित्यर्थः।। 13-1-43 समवाये समुदाये।। 13-1-45 यतः कृतेऽपि असति दुष्टे कार्ये दोषे हेतुः कर्ता न लिप्यते तवमते। तस्मात् चोरादिरत्रैव राज्ञां वध्यः प्रायश्चित्ती च न स्यात्।। 13-1-46 कारणे कर्तरि सति कुठारोद्यमनादिकार्येण छिदिक्रिया जायते असत्यपि कर्तरि तरुशाखान्तनिघर्षेण कार्येण तज्जेनाग्निना वनदाहक्रिया जायते। तस्माच्छाखाया इव ममापि कर्तृत्वं अप्रयोजकत्वान्न दोषहेतुः विशेषाभावादित्यर्थः।। 13-1-49 एवमृत्विगादिवदन्यप्रेर्यत्वान्नाहं किल्बिषी किन्तु मम प्रयोजक एवेति भावः।। 13-1-53 कालात्मकाः कालस्येवाऽऽत्मा स्वभावो येषां ते। कालानुसारिण इत्यर्थः।। 13-1-57 भावाभावावैश्वर्यानैश्वर्ये।। 13-1-63 मे मया।। 13-1-67 भो मृत्युपन्नगौ यदि युवां कालवशौ तर्हि मे मम तटस्तस्य परोपकर्तरि हर्षः अपकर्त्रोश्च युवयोरुपरि द्वेषो वा यता स्यातां तथा ब्रूतम्। एतदहं वेदितुमिच्छामीत्यध्याहारपूर्वकं योज्यम्। एवं सर्वस्य परवशत्वे उपकर्त्रपकर्त्रोः स्तुतिनिन्दे न स्यातामिति भावः 13-1-68 ईश्वराधीनो जनः सदसद्वा कुर्वाणो न स्तुत्यो न वा निन्द्य इति भावः।। 13-1-69 दोषेण युक्ताविति शेषः। गन्तव्यौ ज्ञातव्यौ।। 13-1-70 धर्मस्यार्थः फलं तत्र विषये।। 13-1-74 कर्मैव दायादः पुत्रवत्तारकं तद्वान्। कर्मसम्बन्धः कर्मफलयोगः तदेव लक्षणं पुण्यपापवत्ताज्ञापकं यस्य तथा।। 13-1-78 कर्मैव प्रत्ययः कारणं येषां तान् लोकान् स्वर्गनरकादीन्।। 13-1-80 तत्कर्म पुत्रशोकप्रदम्।।
अनुशासनपर्व | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-002 |