"मत्स्यपुराणम्/अध्यायः १११" इत्यस्य संस्करणे भेदः
(लघु) मत्स्यपुराणम् using AWB |
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कथं सर्वमिदं प्रोक्तं प्रयागस्य महामुने! |
कथं सर्वमिदं प्रोक्तं प्रयागस्य महामुने! |
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एतन्नः सर्वमाख्याहि यथा हि मम तारयेत्।। १११.१ ।। |
एतन्नः सर्वमाख्याहि यथा हि मम तारयेत्।। १११.१ ।। |
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मार्कण्डेय उवाच। |
मार्कण्डेय उवाच। |
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श्रृणु राजन्! प्रयागे तु प्रोक्तं सर्वमिदं जपेत्। |
श्रृणु राजन्! प्रयागे तु प्रोक्तं सर्वमिदं जपेत्। |
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ब्रह्मा विष्णुस्तथेशानो देवताः प्रभुरव्ययः।। १११.२ ।। |
ब्रह्मा विष्णुस्तथेशानो देवताः प्रभुरव्ययः।। १११.२ ।। |
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ब्रह्मा सृजति भूतानि स्थावरं जङ्गमञ्च यत्। |
ब्रह्मा सृजति भूतानि स्थावरं जङ्गमञ्च यत्। |
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तान्येतानि परं लोके विष्णुः सम्वर्द्धते प्रजाः।। १११.३ ।। |
तान्येतानि परं लोके विष्णुः सम्वर्द्धते प्रजाः।। १११.३ ।। |
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कल्पान्ते तत्समग्रं हि रुद्रः संहरते जगत्। |
कल्पान्ते तत्समग्रं हि रुद्रः संहरते जगत्। |
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तदा प्रयागतीर्थञ्च न कदाचिद्विनश्यति।। १११.४ ।। |
तदा प्रयागतीर्थञ्च न कदाचिद्विनश्यति।। १११.४ ।। |
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ईश्वरः सर्वभूतानां यः पश्यति स पश्यति। |
ईश्वरः सर्वभूतानां यः पश्यति स पश्यति। |
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यत्नेनानेन तिष्ठन्ति ते यान्ति परमाङ्गतिम्।। १११.५ ।। |
यत्नेनानेन तिष्ठन्ति ते यान्ति परमाङ्गतिम्।। १११.५ ।। |
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युधिष्ठिर उवाच। |
युधिष्ठिर उवाच। |
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आख्याहि मे यथातथ्यं यथैषा तिष्ठति श्रुतिः। |
आख्याहि मे यथातथ्यं यथैषा तिष्ठति श्रुतिः। |
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केन वा कारणेनैव तिष्ठन्ते लोकसत्तमाः।। १११.६ ।। |
केन वा कारणेनैव तिष्ठन्ते लोकसत्तमाः।। १११.६ ।। |
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मार्कण्डेय उवाच। |
मार्कण्डेय उवाच। |
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प्रयागे निवसन्ते ते ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। |
प्रयागे निवसन्ते ते ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः। |
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कारणं तत्प्रवक्ष्यामि श्रृणु तत्त्वं युधिष्ठिर!।। १११.७ ।। |
कारणं तत्प्रवक्ष्यामि श्रृणु तत्त्वं युधिष्ठिर!।। १११.७ ।। |
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प़ञ्चयोजनविस्तीर्णं प्रयागस्य तु मण्डलम्। |
प़ञ्चयोजनविस्तीर्णं प्रयागस्य तु मण्डलम्। |
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तिष्ठन्ति रक्षणा यात्र पापकर्मनिवारणात्।। १११.८ ।। |
तिष्ठन्ति रक्षणा यात्र पापकर्मनिवारणात्।। १११.८ ।। |
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उत्तरेण प्रतिष्ठानाच्छद्मना ब्रह्म तिष्ठति। |
उत्तरेण प्रतिष्ठानाच्छद्मना ब्रह्म तिष्ठति। |
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वेणीमाधवरूपी तु भगवांस्तत्र तिष्ठति।। १११.९ ।। |
वेणीमाधवरूपी तु भगवांस्तत्र तिष्ठति।। १११.९ ।। |
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माहेश्वरो वटो भूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः। |
माहेश्वरो वटो भूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः। |
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ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।। |
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।। |
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रक्षन्ति मण्डलं नित्यं पापकर्मनिवारणात्।। १११.१० ।। |
रक्षन्ति मण्डलं नित्यं पापकर्मनिवारणात्।। १११.१० ।। |
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यस्मिन् जुह्वन् स्वकं पापं नरकञ्च न पश्यति। |
यस्मिन् जुह्वन् स्वकं पापं नरकञ्च न पश्यति। |
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एवं ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रयागे समहेश्वरः।। १११.११ ।। |
एवं ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रयागे समहेश्वरः।। १११.११ ।। |
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सप्तद्वीपाः समुद्राश्च पर्वताश्च महीतले। |
सप्तद्वीपाः समुद्राश्च पर्वताश्च महीतले। |
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रक्षमाणाश्च तिष्ठन्ति यावदाभूतसंप्लवम्।। १११.१२ ।। |
रक्षमाणाश्च तिष्ठन्ति यावदाभूतसंप्लवम्।। १११.१२ ।। |
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येचान्ये बहवः सर्वे तिष्ठन्ति युधिष्ठिर!। |
येचान्ये बहवः सर्वे तिष्ठन्ति युधिष्ठिर!। |
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पृथिवी तत्समाश्रित्य निर्मिता दैवतैस्त्रिभिः।। १११.१३ ।। |
पृथिवी तत्समाश्रित्य निर्मिता दैवतैस्त्रिभिः।। १११.१३ ।। |
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प्रजापतेरिन्द्र (दं) क्षेत्रं प्रयागमिति विश्रुतम्। |
प्रजापतेरिन्द्र (दं) क्षेत्रं प्रयागमिति विश्रुतम्। |
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एतत् पुण्यं पवित्रं वै प्रयागञ्च युधिष्ठिर!।। |
एतत् पुण्यं पवित्रं वै प्रयागञ्च युधिष्ठिर!।। |
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स्वराज्यं कुरु राजेन्द्र! भ्रातृभिः सहितोऽनघ।। १११.१४ ।। |
स्वराज्यं कुरु राजेन्द्र! भ्रातृभिः सहितोऽनघ।। १११.१४ ।। |
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[[वर्गः:मत्स्यपुराणम्]] |
[[वर्गः:मत्स्यपुराणम्]] |
२३:१४, २४ एप्रिल् २०२० समयस्य संस्करणम्
युधिष्ठिर उवाच।
कथं सर्वमिदं प्रोक्तं प्रयागस्य महामुने!
एतन्नः सर्वमाख्याहि यथा हि मम तारयेत्।। १११.१ ।।
मार्कण्डेय उवाच।
श्रृणु राजन्! प्रयागे तु प्रोक्तं सर्वमिदं जपेत्।
ब्रह्मा विष्णुस्तथेशानो देवताः प्रभुरव्ययः।। १११.२ ।।
ब्रह्मा सृजति भूतानि स्थावरं जङ्गमञ्च यत्।
तान्येतानि परं लोके विष्णुः सम्वर्द्धते प्रजाः।। १११.३ ।।
कल्पान्ते तत्समग्रं हि रुद्रः संहरते जगत्।
तदा प्रयागतीर्थञ्च न कदाचिद्विनश्यति।। १११.४ ।।
ईश्वरः सर्वभूतानां यः पश्यति स पश्यति।
यत्नेनानेन तिष्ठन्ति ते यान्ति परमाङ्गतिम्।। १११.५ ।।
युधिष्ठिर उवाच।
आख्याहि मे यथातथ्यं यथैषा तिष्ठति श्रुतिः।
केन वा कारणेनैव तिष्ठन्ते लोकसत्तमाः।। १११.६ ।।
मार्कण्डेय उवाच।
प्रयागे निवसन्ते ते ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
कारणं तत्प्रवक्ष्यामि श्रृणु तत्त्वं युधिष्ठिर!।। १११.७ ।।
प़ञ्चयोजनविस्तीर्णं प्रयागस्य तु मण्डलम्।
तिष्ठन्ति रक्षणा यात्र पापकर्मनिवारणात्।। १११.८ ।।
उत्तरेण प्रतिष्ठानाच्छद्मना ब्रह्म तिष्ठति।
वेणीमाधवरूपी तु भगवांस्तत्र तिष्ठति।। १११.९ ।।
माहेश्वरो वटो भूत्वा तिष्ठते परमेश्वरः।
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।।
रक्षन्ति मण्डलं नित्यं पापकर्मनिवारणात्।। १११.१० ।।
यस्मिन् जुह्वन् स्वकं पापं नरकञ्च न पश्यति।
एवं ब्रह्मा च विष्णुश्च प्रयागे समहेश्वरः।। १११.११ ।।
सप्तद्वीपाः समुद्राश्च पर्वताश्च महीतले।
रक्षमाणाश्च तिष्ठन्ति यावदाभूतसंप्लवम्।। १११.१२ ।।
येचान्ये बहवः सर्वे तिष्ठन्ति युधिष्ठिर!।
पृथिवी तत्समाश्रित्य निर्मिता दैवतैस्त्रिभिः।। १११.१३ ।।
प्रजापतेरिन्द्र (दं) क्षेत्रं प्रयागमिति विश्रुतम्।
एतत् पुण्यं पवित्रं वै प्रयागञ्च युधिष्ठिर!।।
स्वराज्यं कुरु राजेन्द्र! भ्रातृभिः सहितोऽनघ।। १११.१४ ।।