महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-171
दिखावट
← द्रोणपर्व-170 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-171 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-172 → |
|
द्रोणधृष्टद्युम्नादीनां सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-171-1x |
तस्मिन्सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयावहे। धृष्टद्युम्नो महाराज द्रोणमेवाभ्यवर्तत।। | 5-171-1a 5-171-1b |
सन्दधानो धनुःश्रेष्ठं ज्यां विकुर्षन्पुनः पुनः। अभ्यद्रवत द्रोणस्य रथं रुक्मविभूषितम्।। | 5-171-2a 5-171-2b |
धृष्टद्युम्नमथायान्तं द्रोणस्यान्तचिकीर्षया। परिवव्रुर्महाराज पाञ्चालाः पाण्डवैः सह।। | 5-171-3a 5-171-3b |
तथा परिवृतं दृष्ट्वा द्रोणमाचार्यसत्तमम्। पुत्रास्ते सर्वतो यत्ता ररक्षुर्द्रोणमाहवे।। | 5-171-4a 5-171-4b |
बलार्णवौ ततस्तौ तु समेयातां निशामुखे। गातोद्धूतौ क्षुब्धसत्वौ भैरवौ सागराविव।। | 5-171-5a 5-171-5b |
ततो द्रोणं महाराज पाञ्चाल्यः पञ्चभिः शरैः। विव्याध हृदये तूर्णं सिंहनादं ननाद च।। | 5-171-6a 5-171-6b |
तं द्रोणः पञ्चविंशत्या विद्धा भारत संयुगे। चिच्छेदान्येन भल्लेन धनुरस्य महास्वनम्।। | 5-171-7a 5-171-7b |
धृष्टद्युम्नस्तु निर्विद्धो द्रोणेन भरतर्षभ। उत्ससर्ज धनुस्तूर्णं सन्दश्य दशनच्छदम्।। | 5-171-8a 5-171-8b |
ततः क्रुद्धो महाराज धृष्टद्युम्नः प्रतापवान्। आददेऽन्यद्धनुःश्रेष्ठं द्रोणस्यान्तचिकीर्षया।। | 5-171-9a 5-171-9b |
विकृष्य च धनुश्चित्रमाकर्णात्परवीरहा। द्रोणस्यानत्करं घोरं व्यसृजत्सायकं ततः।। | 5-171-10a 5-171-10b |
स विसृष्टो बलवता शरो घोरो महामृधे। भासयामास तत्सैन्यं दिवाकर इवोदितः।। | 5-171-11a 5-171-11b |
तं तु दृष्ट्वा शरं घोरं देवगन्धर्वमानवाः। स्वस्त्यस्तु समरे राजन्द्रोणायेत्यब्रुवन्वचः।। | 5-171-12a 5-171-12b |
तं तु सायकमायान्तमाचार्यस्य रथं प्रति। कर्णो द्वादशधआ राजंश्चिच्छेद कृतहस्तवत्।। | 5-171-13a 5-171-13b |
स च्छिन्नो बहुधा राजन्सूतपुत्रेण धन्विना। निपपात शरस्तूर्णं निर्विषो भुजगो यथा।। | 5-171-14a 5-171-14b |
`छित्त्वा तु समरे बाणं शरैः सन्नतपर्वभिः'। धृष्टद्युम्नं ततः कर्णो विव्याध दशभिः शरैः।। | 5-171-15a 5-171-15b |
पञ्चभिर्द्रोणपुत्रस्तु स्वयं द्रोणस्तु सप्तभिः। शल्यश्च दशभिर्बाणैस्त्रिभिर्दुःशासनस्तथा।। | 5-171-16a 5-171-16b |
दुर्योधनस्तु विंशत्या शकुनिश्चापि पञ्चभिः। पाञ्चाल्यं त्वरयाऽविध्यन्सर्व एव महारथाः।। | 5-171-17a 5-171-17b |
स विद्धः सप्तभिर्घोरैर्द्रोणस्यार्थे महाहवे। सर्वानसम्भ्रमाद्राज प्रत्यविद्ध्यत्त्रिभिस्त्रिभिः। द्रोणं द्रौणिं च कर्णं च विव्याध च तवात्मजम्।। | 5-171-18a 5-171-18b 5-171-18c |
ते भिन्ना धन्विना तेन धृष्टद्युम्नं पुनर्मृधे। विव्यधुः पञ्चभिस्तूर्णमेकैको रथिनां वरः।। | 5-171-19a 5-171-19b |
द्रुमसेनस्तु सङ्क्रुद्धो राजन्विव्याध पत्रिणा। त्रिभिश्चान्यैः शरैस्तूर्णं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-171-20a 5-171-20b |
स तु तं प्रतिविव्याध त्रिभिस्तीक्ष्णैरजिह्मगैः। स्वर्णपुङ्खैः शिलाधौतैः प्राणान्तकरमैर्युधि।। | 5-171-21a 5-171-21b |
भल्लेनान्येन तु पुनः सुवर्णोज्ज्वलकुण्डलम्। निचकर्त शिरः कायाद्द्रुमसेनस्य वीर्यवान्।। | 5-171-22a 5-171-22b |
तच्छिरो न्यपतद्भूमौ सन्दष्टौष्ठपुटं रणे। महावातसमुद्धूतं पक्वं तालफलं यथा।। | 5-171-23a 5-171-23b |
तान्स विद्धा पुनर्योधान्वीरः सुनिशितैः शरैः। राधेयस्याच्छिनद्भल्लैः कार्मुकं चित्रयोधिनः।। | 5-171-24a 5-171-24b |
न तु तन्ममृषे कर्णो धनुषश्छेदनं तथा। निकर्तनमिवात्युग्रं लाङ्गूलस्य महाहरिः।। | 5-171-25a 5-171-25b |
सोऽन्यद्धनुः समादाय क्रोधरक्तेक्षणः श्वसन्। अभ्यद्रवच्छरौघैस्तं धृष्टद्युम्नं महाबलम्।। | 5-171-26a 5-171-26b |
दृष्ट्वा कर्णं तु संरब्धं ते वीराः षड्रथर्षभाः। पाञ्चाल्यपुत्रं त्वरिताः परिवव्रुर्जिघांसया।। | 5-171-27a 5-171-27b |
षण्णां योधप्रवीराणां तावकानां पुरस्कृतम्। मृत्योरास्यमनुप्राप्तं धृष्टद्युम्नमममंस्महि।। | 5-171-28a 5-171-28b |
पतस्मिन्नेव काले तु दाशार्हो विकिरञ्छरान्। धृष्टद्युम्नं पराक्रान्तं सात्यकिः प्रत्यपद्यत।। | 5-171-29a 5-171-29b |
तमायान्तं महेष्वासं सात्यकिं युद्धदुर्मदम्। राधेयो दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यदजिह्मगैः।। | 5-171-30a 5-171-30b |
तं सात्यकिर्महाराज विव्याध दशभिः शरैः। पश्यतां सर्ववीराणां मा गास्तिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-171-31a 5-171-31b |
स सात्यकेस्तु बलिनः कर्णस्य च महात्मनः। आसीत्समागमो राजन्बलिवासवयोरिव।। | 5-171-32a 5-171-32b |
त्रासयन्रथघोषेण क्षत्रियान्क्षत्रियर्षभः। राजीवलोचनं कर्णं सात्यकिः प्रत्यविध्यत।। | 5-171-33a 5-171-33b |
कम्पयन्निव घोषेण धनुषो वसुधां बली। सूतपुत्रो महाराज सात्यकिं प्रत्ययोधयत्।। | 5-171-34a 5-171-34b |
विपाठकर्णिनाराचैर्वत्सदन्तैः क्षुरैरपि। कर्णः शरशतैश्चापि शैनेयं प्रत्यनिद्व्यत।। | 5-171-35a 5-171-35b |
तथैव युध्यमानोऽपि वृष्णीनां प्रवरो युधि। अभ्यवर्षच्छरैः कर्णं तद्युद्धमभवत्समम्।। | 5-171-36a 5-171-36b |
तावकाश्च महाराज कर्णपुत्रश्च दंशितः। सात्यकिं विव्यधुस्तूर्ण समन्तान्निशितैः शरैः।। | 5-171-37a 5-171-37b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य तेषां कर्णस्य वा विभो। अविद्व्यत्सात्यकिः क्रुद्धो वृषसेनं स्तनान्तरे।। | 5-171-38a 5-171-38b |
तेन बाणेन निर्विद्धो वृषसेनो विशाम्पते। न्यपतत्स रथे मूढो धनुरुत्सृज्य वीर्यवान्।। | 5-171-39a 5-171-39b |
ततः कर्णो हतं मत्वा वृषसेनं महारथम्। पुत्रशोकाभिसन्तप्तः सात्यकिं प्रत्यपीडयत्।। | 5-171-40a 5-171-40b |
पीड्यमानस्तु कर्णेन युयुधानो महारथः। विव्याध बहुभिः कर्णं त्वरमाणः पुनःपुनः।। | 5-171-41a 5-171-41b |
स कर्णं दशभिर्विद्ध्वा वृषसेनं च सप्तभिः। स हस्तावापधनुषी तयोश्चिच्छेद सात्वतः।। | 5-171-42a 5-171-42b |
तावन्ये धनुषी सज्जे कृत्वा शत्रुभयङ्करे।। युयुधानमाविध्येतां समन्तान्निशितैः शरैः।। | 5-171-43a 5-171-43b |
वर्तमाने तु सङ्ग्रमे तस्मिन्वीरवरक्षये। अतीव शुश्रुवे राजन्गाण्डीवस्य महास्वनः।। | 5-171-44a 5-171-44b |
श्रुत्वा तु रथनिर्घोषं गाण्डीवस्य च निःस्वनम्। सूतपुत्रोऽब्रवीद्राजन्दुर्योधनमिदं वचः।। | 5-171-45a 5-171-45b |
एष सर्वां चमूं हत्वा मुख्यांश्चैव नरर्षभान्। पौरवांश्च महेष्वासो विक्षिपन्नुत्तमं धनुः।। | 5-171-46a 5-171-46b |
पार्थो विजयते तत्र गाण्डीवनिनदो महान्। श्रूयते रथघोषश्च वासवस्येव नर्दतः।। | 5-171-47a 5-171-47b |
करोति पाण्डवो व्यक्तं कर्मौपयिकमात्मनः। एषा विदार्यते राजन्बहुधा भारती चमूः।। | 5-171-48a 5-171-48b |
विप्रकीर्णान्यनीकानि न हि तिष्ठन्ति कर्हिचित्। वातेनेव समुद्धूतमभ्रजालं विदीर्यते।। | 5-171-49a 5-171-49b |
सव्यसाचिनमासाद्य भिन्ना नौरिव सागरे।। | 5-171-50a |
द्रवतां योधमुख्यानां गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। विद्धानां शतशो राजञ्श्रूयते निःस्वनो महान्।। | 5-171-51a 5-171-51b |
शृणु दुन्दुभिनिर्घोषमर्जुनस्य रथं प्रति। निशीथे राजशार्दूल स्तनयित्नोरिवाम्बरे।। | 5-171-52a 5-171-52b |
हाहाकाररवांश्चैव सिंहनादांश्च पुष्कलान्। शृणु शब्दान्बहुविधानर्जुनस्य रथं प्रति।। | 5-171-53a 5-171-53b |
अयं मध्ये स्थितोऽस्माकं सात्यकिः सात्वतां वरः। इह चेल्लभ्यते लक्ष्यं कृत्स्नाञ्जेष्यामहे परान्।। | 5-171-54a 5-171-54b |
एष पाञ्चालराजस्य पुत्रो द्रोणेन सङ्गतः। सर्वतः संवृतो योधैः शूरैश्च रथसत्तमैः।। | 5-171-55a 5-171-55b |
सात्यकिं यदि हन्याम धृष्टद्युम्नं च पार्षतम्। असंशयं महाराज ध्रुवो नो विजयो भवेत्।। | 5-171-56a 5-171-56b |
सौभद्रवदिमौ वीरौ परिवार्य महारथौ। प्रयतायो महाराज निहन्तुं वृष्णिपार्षतौ।। | 5-171-57a 5-171-57b |
सव्यसाची पुरोऽभ्येति द्रोणानीकाय भारत। संसक्तं सात्यकिं ज्ञात्वा बहुभिः कुरुपुङ्गवैः।। | 5-171-58a 5-171-58b |
तत्र गच्छन्तु बहवः प्रवरा रथसत्तमाः। यावत्पार्थो न जानाति सात्यकिं बहुभिर्वृतम्।। | 5-171-59a 5-171-59b |
ते त्वरध्वं तथा शूराः शराणां मोक्षणे भृशम्। यथा त्विह व्रजत्येष परलोकाय माधवः। तथा कुरु महाराज सुनीत्या सुप्रयुक्तया।। | 5-171-60a 5-171-60b 5-171-60c |
कर्णस्य मतमास्थाय पुत्रस्ते प्राह सौबलम्। यथेन्द्रः समरे राजन्प्राह विष्णुं यशस्विनम्।। | 5-171-61a 5-171-61b |
वृतः सहस्रैर्दशभिर्गजानामनिवर्तिनाम्। रथैश्च दशसाहस्रैस्तूर्णं याहि धनञ्जयम्। | 5-171-62a 5-171-62b |
दुःशासनो दुर्विषहः सुबाहुर्दुः प्रधर्षणः। एते त्वामनुयास्यन्ति पत्तिभिर्बहुभिर्वृताः।। | 5-171-63a 5-171-63b |
जहि कृष्णौ महाबाहो धर्मराजं च मातुल। नकुलं सहदेवं च भीमसेनं तथैव च।। | 5-171-64a 5-171-64b |
देवानामिव देवेन्द्रे जयाशा त्वयि मे स्थिता। जहि मातुल कौन्तेयानसुरानिव पावकिः।। | 5-171-65a 5-171-65b |
एवमुक्तो ययौ पार्थान्पुत्रेण तव सौबलः। महत्या सेनया सार्धं सह पुत्रैश्च ते विभो।। | 5-171-66a 5-171-66b |
प्रियार्थं तव पुत्राणां दिधक्षुः पाण्डुनन्दनान्। ततः प्रववृते युद्धं तावकानां परैः सह।। | 5-171-67a 5-171-67b |
प्रयाते सौबले राजन्पाण्डवानामनीकिनीम्। बलेन महता युक्ताः सूतपुत्रस्तु सात्वतम्।। | 5-171-68a 5-171-68b |
अभ्ययात्त्वरितो युद्धे किरञ्शरशतान्बहून्। तथैव पार्थिवाः सर्वे सात्यकिं पर्यवारयन्।। | 5-171-69a 5-171-69b |
भारद्वाजस्ततो गत्वा धृष्टद्युम्नरथं प्रति। महद्युद्धं तदासीत्तुं द्रोणस्य निशि भारत। धृष्टद्युम्नेन वीरेण पाञ्चालैश्च सहाद्भुतम्।। | 5-171-70a 5-171-70b 5-171-70c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 171 ।। |
5-171-20 द्युमत्सेन इति पाठान्तरम्।। 5-171-25 हरिः सिंहः।। 5-171-27 षड्रथर्षभाः दुर्योधनदुःशसासनद्रोणकर्णशल्यशकुनयः।। 5-171-48 औपयिकं युक्तम्।। 5-171-54 इह सात्यकिरूपं लक्ष्यं लभ्यतेचेत्। अयं वशीक्रियतेचेदित्यर्थः।। 5-171-60 माधवो मधुवंशजः सात्यकिः।। 5-171-65 पाविकः स्कन्दः।। 5-171-171 एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-170 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-172 |