महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-033
दिखावट
← द्रोणपर्व-032 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-033 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-034 → |
|
युधिष्ठिरस्याग्रहणात् दुर्मनायमानं दुर्योधनं प्रति द्रोणेन कस्यचिन्महारथस्य हननप्रतिज्ञा।। 1 ।। सञ्जयेन धृतराष्ट्रं प्रति सङ्क्षेपतोऽभिमन्युवधकथनम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-33-1x |
पूर्वमस्मासु भग्नेषु फल्गुगेनामितौजसा। द्रोणे च मोघसङ्कल्पे रक्षिते च युधिष्ठिरे।। | 5-33-1a 5-33-1b |
सर्वे विध्वस्तकवचास्तावका युधि निर्जिताः। रजस्वला भृशोद्विग्ना वीक्षमाणा दिशो दश।। | 5-33-2a 5-33-2b |
अवहारं ततः कृत्वा भारद्वाजस्य सम्मते। लब्धलक्षैः शरैर्भिन्ना भृशावहसिता रणे।। | 5-33-3a 5-33-3b |
श्लाघमानेषु भूतेषु फल्गुनस्यामितान्गुणान्। केशवस्य च सौहार्दे कीर्त्यमानेऽर्जुनं प्रति।। | 5-33-4a 5-33-4b |
अभिशस्ता इवाभूवन्ध्यानमूकत्वमास्थिताः। ततः प्रभातसमये द्रोणं द्रुयोधनोऽब्रवीत्।। | 5-33-5a 5-33-5b |
प्रणयादभिमानाच्च द्विषद्वृद्ध्या च दुर्मनाः। शृण्वतां सर्वयोधानां संरब्धो वाक्यकोविदः।। | 5-33-6a 5-33-6b |
नूनं वयं वध्यपक्षे भवतो द्विजसत्तम। तथाहि नाग्रहीः प्राप्तं समीपेऽद्य युधिष्ठिरम्।। | 5-33-7a 5-33-7b |
इच्छतस्ते न मुच्येत चक्षुःप्राप्तो रणे रिपुः। जिघृक्षतो रक्ष्यमाणः सामरैरपि पाण्डवैः।। | 5-33-8a 5-33-8b |
वरं दत्त्वा मम प्रीतः पश्चाद्विकृतवानसि। आशाभङ्गं न कुर्वन्ति भक्तस्यार्याः कथञ्चन।। | 5-33-9a 5-33-9b |
सञ्जय उवाच। | 5-33-10x |
ततोऽप्रीतस्तथोक्तः सन्भारद्वाजोऽब्रवीन्नृपम्। नार्हसे मां तथा ज्ञातुं घटमानं तव प्रिये।। | 5-33-10a 5-33-10b |
ससुरासुरगन्धर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः। नालं लोका रणे जेतुं पाल्यमानं किरीटिना।। | 5-33-11a 5-33-11b |
विश्वसृग्यत्र गोविन्दः पृतनानीस्तथाऽर्जुनः। तत्र कस्य बलं क्रामेदन्यत्र त्र्यम्बकात्प्रभोः।। | 5-33-12a 5-33-12b |
सत्यं तात ब्रवीम्यद्य नैतज्जात्वन्यथा भवेत्। अद्यैकं प्रवरं कञ्चित्पातयिष्ये महारथम्।। | 5-33-13a 5-33-13b |
चक्रब्यूहं विधास्यामि योऽभेद्यस्त्रिदशैरपि। योगेन केनचिद्राजन्नर्जुनस्त्वपनीयताम्।। | 5-33-14a 5-33-14b |
न ह्यज्ञातमसाध्यं वा तस्य सङ्ख्येऽस्ति किञ्चन। तेन ह्युपात्तं सकलं सर्वज्ञानमितस्ततः।। | 5-33-15a 5-33-15b |
द्रोणेन व्याहृते त्वेवं संशप्तकगणाः पुनः। आह्वयन्नर्जुनं सङ्ख्ये दक्षिणामभितो दिशम्।। | 5-33-16a 5-33-16b |
ततोऽर्जुनस्याथ परैः सार्धं समभवद्रणः। तादृशो यादृशो नान्यः श्रुतो दृष्टोपि वा क्वचित्। | 5-33-17a 5-33-17b |
तत्र द्रोणेन विहितो व्यूहो राजन्व्यरोचत। चरन्मध्यन्दिने सूर्यः प्रतपन्निव दुर्दृशः।। | 5-33-18a 5-33-18b |
तं चाभिमन्युर्वचनात्पितुर्ज्येष्ठस्य भारत। बिभेद दुर्भिदं सङ्ख्ये चक्रव्यूहमनेकधा।। | 5-33-19a 5-33-19b |
स कृत्वा दुष्करं कर्म हत्वा वीरान्सहस्रशः। राजपुत्रशतं हत्वा कौसल्यं च बृहद्बलम्।। | 5-33-20a 5-33-20b |
महारथं शल्यपुत्रं पौत्रं ते लक्ष्मणं तथा। षट्सु वीरेषु संसक्तो दौःशासनिवशं गतः। सौभद्रः पृथिवीपाल जहौ प्राणान्परन्तप।। | 5-33-21a 5-33-21b 5-33-21c |
वयं परमसंहृष्टाः पाण्डवाः शोककर्शिताः। सौभद्रे निहते राजन्नवहारमकुर्महि।। | 5-33-22a 5-33-22b |
`जनमेजय उवाच। | 5-33-23x |
समरोद्युक्तकर्माणः कर्मभिर्व्यञ्जितश्रमाः। सकृष्णाः पाण्डवाः पञ्च देवैरपि दुरासदाः।। | 5-33-23a 5-33-23b |
शश्वत्कर्मान्वयैर्बुद्ध्या प्रकृत्या यशसा श्रिया। न भूतो भविता वापि कृष्णस्य सदृशः पुमान्।। | 5-33-24a 5-33-24b |
सत्यधर्मतपोदानैर्द्विजपूजादिभिर्गुणैः। सदेहस्त्रिदिवं प्राप्तो राजा किल युधिष्ठिरः।। | 5-33-25a 5-33-25b |
युगान्ते चान्तकश्चैव जामदग्न्यश्च कीर्तिमान्। रणस्थो भीमसेनश्च कथ्यन्ते सदृशास्त्रयः।। | 5-33-26a 5-33-26b |
प्रतिज्ञाकर्मदक्षस्य रणे गाण्डीवधन्वनः। उपमां नाधिगच्छामि पार्थस्य सदृशीं क्षितौ।। | 5-33-27a 5-33-27b |
गुरुवात्सल्यमत्यन्तं नैभृत्यं विनयो दमः। नकुले त्वाभिरूप्यं च शौर्यं च नियतानि षट्।। | 5-33-28a 5-33-28b |
श्रुतमाधुर्यगाम्भीर्यसत्त्वरूपपराक्रमैः। सदृशो देवयोर्वीरः सहदेवः किलाश्विनोः।। | 5-33-29a 5-33-29b |
ये च कृष्णे गुणाः स्फीताः पाण्डवेषु च ये गुणाः। अभिमन्यौ किलैकस्था दृश्यन्ते ते गुणाः शुभाः।। | 5-33-30a 5-33-30b |
युधिष्ठिरस्य शौर्येण कृष्णस्य चरितेन च। कर्मणा भीमसेनस्य सदृशं भीमकर्मणः।। | 5-33-31a 5-33-31b |
धनञ्जयस्य रूपेण विक्रमेण शुभेन च। विनये सहदेवस्य सदृशं नकुलस्य च।। | 5-33-32a 5-33-32b |
अभिमन्युं द्विजश्रेष्ठ सौभद्रमपराजितम्। श्रोतुमिच्छामि कार्त्स्न्येन कथमायोधने हतः।। | 5-33-33a 5-33-33b |
वैशंपायन उवाच। | 5-33-34x |
अभिमन्युं हतं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनाधिपः। विस्तरेण महाराज पर्यपृच्छत्स सञ्जयम्'।। | 5-33-34a 5-33-34b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-33-35x |
पुत्रं पुरुषसिंहस्य सञ्जयाप्राप्तयौवनम्। रणे विनिहतं श्रुत्वा भृशं मे दीर्यते मनः।। | 5-33-35a 5-33-35b |
दारुणः क्षत्रधर्मोऽयं विहितो धर्मकर्तृभिः। यत्र राज्येप्सवः शूरा बाले शस्त्रमपातयन्।। | 5-33-36a 5-33-36b |
बालमत्यन्तसुखिनं विचरन्तमभीतवत्। कृतास्त्रा बहवो जघ्नुर्ब्रूहि गावल्गणे कथम्।। | 5-33-37a 5-33-37b |
बिबित्सता रथानीकं सौभद्रेणामितौजसा। विक्रीडितं यथा सङ्ख्ये तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-33-38a 5-33-38b |
सञ्जय उवाच। | 5-33-39x |
यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र सौभद्रस्य निपातनम्। तत्ते कार्त्स्न्येन वक्ष्यामि शृणु राजन्समाहितः।। | 5-33-39a 5-33-39b |
विक्रीडितं कुमारेण यथानीकं बिभित्सता। आरुग्णाश्च यथा वीरा दुःसाध्याश्चापि विप्लुवे।। | 5-33-40a 5-33-40b |
दावाग्न्यभिपरीतानां भूरिगुल्मतृणद्रुमे। वनौकसामिवारण्ये त्वदीयानामभूद्भयम्।। | 5-33-41a 5-33-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।। 33 ।। |
5-33-2 रजस्वला धूलिव्याप्ताः।। 5-33-9 विकृतवानन्यथा कृतवान्।। 5-33-15 कलाभिः सहितं सकलम्। इतोऽस्मत्तः। ततोऽन्यतः।। 5-33-21 षट्सु द्रोणद्रौणिकृपकर्णभोजशल्येषु।। 5-33-28 नैभृत्यं कृतकर्तव्याप्रकाशनम्।। 5-33-36 धर्मकर्तृभिर्मन्वादिभिः।। 5-33-33 त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-032 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-034 |