महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-162
दिखावट
← द्रोणपर्व-161 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-162 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-163 → |
|
सङ्कुलयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-162-1x |
ततो युधिष्ठिरश्चैव भीमसेनश्च पाण्डवः। द्रोणपुत्रं महाराज समन्तात्पर्यवारयन्।। | 5-162-1a 5-162-1b |
ततो दुर्योधनो राजा भारद्वाजेन संवृतः। अभ्ययात्पाण्डवान्सङ्ख्ये ततो युद्धमवर्तत। घोररूपं महाराज भीरूणां भयवर्धनम्।। | 5-162-2a 5-162-2b 5-162-2c |
अम्बष्ठान्मालवान्वङ्गाञ्छिबींस्त्रैगर्तकानपि। प्राहिणोन्मृत्युलोकाय गणान्क्रुद्धो वृकोदरः।। | 5-162-3a 5-162-3b |
अभीषाहाञ्छूरसेनान्क्षत्रियान्युद्धदुर्मदान्। निकृत्त्य पृथिवीं चक्रे भीमः शोणितकर्दमाम्।। | 5-162-4a 5-162-4b |
यौधेयानद्रिजान्राजन्मद्रकान्मालवानपि। प्राहिणोन्मृत्युलोकाय किरीटी निशितैः शरैः।। | 5-162-5a 5-162-5b |
प्रगाढमञ्चोगतिभिर्नाराचैरभिताडिताः। निपेतुर्द्विरदा भूमौ द्विशृङ्गा इव पर्वताः।। | 5-162-6a 5-162-6b |
निकृत्तैर्हस्तिहस्तैश्च चेष्टमानैरितस्ततः। रराज वसुधाऽऽकीर्णा विसर्पद्भिरिवोरगैः।। | 5-162-7a 5-162-7b |
क्षिप्तैः कनकचित्रैश्च नृपच्छत्रैः क्षितिर्बभौ। द्यौरिवादित्यचन्द्राद्यैर्ग्रहैः कीर्णा युगक्षये।। | 5-162-8a 5-162-8b |
हत प्रहरताभीता विध्यत व्यवकृन्तत। इत्यासीत्तुमुलः शब्दः शोणाश्वस्य रथं प्रति।। | 5-162-9a 5-162-9b |
द्रोणस्तु परमक्रुद्धो वायव्यास्त्रेण संयुगे। व्यधमत्तान्महवायुर्मेघानिव दुरत्ययः।। | 5-162-10a 5-162-10b |
ते हन्यमाना द्रोणेन पाञ्चालाः प्राद्रवन्भयात्। पश्यतो भीमसेनस्य पार्थस्य च महात्मनः।। | 5-162-11a 5-162-11b |
ततः किरीटि भीमश्च सहसा सन्न्यवर्तताम्। महता रथवंशेन परिगृह्य बलं महत्।। | 5-162-12a 5-162-12b |
बीभत्सुर्दक्षिणं वार्श्वमुत्तरं तु वृकोदरः। भारद्वाजं शरौघाभ्यां महद्भामभ्यवर्षताम्।। | 5-162-13a 5-162-13b |
तौ तथा सृञ्जयाश्चैव पाञ्चालाश्च महौजसः। अन्वगच्छन्महाराज मात्स्यैश्च सह सोमकैः।। | 5-162-14a 5-162-14b |
तथैव तव पुत्रस्य रथोदाराः प्रहारिणः। महत्या सेनया राजञ्जग्मुर्द्रोणरथं प्रति।। | 5-162-15a 5-162-15b |
ततः सा भारती सेना हन्यमाना किरीटिना। तमसा निद्रया चैव पुनरेव व्यदीर्यत।। | 5-162-16a 5-162-16b |
द्रोणेन वार्यमाणास्ते स्वयं तव सुतेन च। नाशक्यन्त महाराज योधा वारयितुं तदा।। | 5-162-17a 5-162-17b |
सा पाण्डुपुत्रस्य शरैर्दीर्यमाणा महाचमूः। तमसा संवृते लोके व्यद्रवत्सर्वतोमुखी।। | 5-162-18a 5-162-18b |
उत्सृज्य शतशो वाहांस्तत्र केचिन्नराधिपाः। प्राद्रवन्त महाराज भयाविष्टाः समन्ततः।। | 5-162-19a 5-162-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 162 ।। |
द्रोणपर्व-161 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-163 |