महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-203
← द्रोणपर्व-202 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-203 वेदव्यासः |
कर्णपर्व → |
|
इतरालक्षितं पुरतः स्वानुकूलं युध्यमानं शूलपाणिं कञ्चन पुरुषप्रवरमवलोकयता पार्थेन स क इति यदृच्छासमागतं व्यासं प्रति प्रश्नः।। 1 ।।
तेन तम्प्रति तस्य तस्य पशुपतित्वोक्त्या शतरुद्रीयपठनेन सविस्तरं तद्गुणगणवर्णनम्।। 2 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-203-1x |
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते तत्र सञ्जय। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वन्नतः परम्।। | 5-203-1a 5-203-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-203-2x |
तस्मिन्नतिरथे द्रोणे निहते पार्षतेन वै। कौरवेषु च भग्नेषु कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 5-203-2a 5-203-2b |
दृष्ट्वा सुमहदाश्चर्यमात्मनो विजयावहम्। मुनिं स्निग्धाम्बुदाभासं वेदव्यासमकल्मषम्। यदृच्छयाऽऽगतं व्यासं पप्रच्छ भरतर्षभ।। | 5-203-3a 5-203-3b 5-203-3c |
अर्जुन उवाच। | 5-203-4x |
सङ्ग्रामे न्यहनं शत्रूञ्शरौघैर्विमलैरहम्। अग्रतो लक्षये यान्तं पुरुषं पावकप्रभम्।। | 5-203-4a 5-203-4b |
ज्वलन्तं शूलमुद्यम्य यां दिशं प्रतिपद्यते। तस्यां दिशि विदीर्यन्ते शत्रवो मे महामुने।। | 5-203-5a 5-203-5b |
तेन भग्नानरीन्सर्वान्मद्भग्नान्मन्यते जनः। तेन भग्नानि सैन्यानि पृष्ठतोऽनुव्रजाम्यहम्।। | 5-203-6a 5-203-6b |
भगवंस्तन्ममाचक्ष्व को वै स पुरुषोत्तमः। शूलपाणिर्मया दृष्टस्तेजसा सूर्यसन्निभः।। | 5-203-7a 5-203-7b |
न पद्भ्यां स्पृशते भूमिं न च शूलं विमुञ्चति। शूलाच्छूलसहस्राणि निष्पेतुस्तस्य तेजसा।। | 5-203-8a 5-203-8b |
व्यास उवाच। | 5-203-9x |
प्रजापतीनां प्रथमं तैजसं पुरुषं प्रभुम्। भुवनं भूर्भुवं देवं तेजसां प्रवरं प्रभुम्।। | 5-203-9a 5-203-9b |
ईशानं वरदं पार्थ दृष्टवानसि शङ्करम्। तं गच्छ शरणं देवं वरदं भुवनेश्वरम्।। | 5-203-10a 5-203-10b |
महादेवं महात्मानमीशानं जटिलं विभुम्। त्र्यक्षं महाभुजं रुद्रं शिखिनं चीवराससम्।। | 5-203-11a 5-203-11b |
महादेवं हरं स्थाणुं वरदं भुवनेश्वरम्। जगत्प्रधानमजितं जगत्प्रीतिमधीश्वरम्।। | 5-203-12a 5-203-12b |
जगद्योनिं जगद्बीजं जयिनं जगतो गतिम्। विश्वात्मानं विश्वसृजं विश्वमूर्तिं यशस्विनम्।। | 5-203-13a 5-203-13b |
विश्वेश्वरं विश्वनरं कर्मणामीश्वरं प्रभुम्। शंभुं स्वयंभुं भूतेशं भूतभव्यभवोद्भवम्।। | 5-203-14a 5-203-14b |
योगं योगेश्वरं सर्वं सर्वलोकेश्वरेश्वरम्। सर्वश्रेष्ठं जगच्छ्रेष्ठं वरिष्ठं परमेष्ठिनम्।। | 5-203-15a 5-203-15b |
लोकत्रयविधातारमेकं लोकत्रयाश्रयम्। शुद्धात्मानं भवं भीमं शशाङ्ककृतशेखरम्।। | 5-203-16a 5-203-16b |
शाश्वतं भूधरं देवं सर्ववागीश्वरेश्वरम्। सुदुर्जयं जगन्नाथं जन्ममृत्युजरातिगम्।। | 5-203-17a 5-203-17b |
ज्ञानात्मानं ज्ञानगम्यं ज्ञानश्रेष्ठं सुदुर्विदम्। दातारं चैव भक्तानां प्रसादविहितान्वरान्।। | 5-203-18a 5-203-18b |
तस्य पारिषदा दिव्या रूपैर्नानाविधैर्विभोः। वामना जटिला मुण्डा हस्वग्रीवा महोदराः।। | 5-203-19a 5-203-19b |
महाकाया महोत्साहा महाकर्णास्तथाऽपरे। आननैर्विकृतैः पादैः पार्थ वेषैश्च वैकृतैः।। | 5-203-20a 5-203-20b |
ईदृशैः स महादेवः पूज्यमानो महेश्वरः। स शिवस्तात तेजस्वी प्रसादाद्याति तेऽग्रतः।। | 5-203-21a 5-203-21b |
तस्मिन्घोरे सदा पार्थ सङ्ग्रामे रोमहर्षणे। द्रौणिकर्णकृपैर्गुप्तां महेष्वासैः प्रहारिभिः।। | 5-203-22a 5-203-22b |
कस्तां सेनां तदा पार्थ मनसाऽपि प्रधर्षयेत्। ऋते देवान्महेष्वासाद्बहुरूपान्महेश्वरात्।। | 5-203-23a 5-203-23b |
स्थातुमुत्सहते कश्चिन्न तस्मिन्नग्रतः स्थिते। न हि भूतं समं तेन त्रिषु लोकेषु विद्यते।। | 5-203-24a 5-203-24b |
गन्धेनापि हि सङ्ग्रामे तस्य क्रुद्धस्य शत्रवः। विसंज्ञा हतभूयिष्ठा वेपन्ति च पतन्ति च।। | 5-203-25a 5-203-25b |
तस्मै नमस्तु कुर्वन्तो देवास्तिष्ठन्ति वै दिवि। ये चान्ये मानवा लोके ये च स्वर्गजितो नराः।। | 5-203-26a 5-203-26b |
ये भक्ता वरदं देव शिवं रुद्रमुमापतिम्। अनन्यभावेन सदा सर्वेशं समुपासते।। | 5-203-27a 5-203-27b |
`सङ्ग्रामेषु जयं प्राप्य पालयन्ति महीमिमाम्'। इह लोके सुखं प्राप्य ते यान्ति परमां गतिम्।। | 5-203-28a 5-203-28b |
नमस्कुरुष्व कौन्तेय तस्मै शान्ताय वै सदा। रुद्राय शितिकण्ठाय कनिष्ठाय सुवर्चसे।। | 5-203-29a 5-203-29b |
कपर्दिने करालाय हर्यक्षवरदाय च। याम्यायाव्यक्तकेशाय सद्वृत्ते शङ्कराय च।। | 5-203-30a 5-203-30b |
काम्याय हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च।। | 5-203-31a |
`नमो वृक्षाय सेनान्ये मध्यमाय नमोनमः'। हरिकेशाय मुण्डाय कृशायोत्तारणाय च। भास्कारय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे।। | 5-203-32a 5-203-32b 5-203-32c |
बहुरूपाय सर्वाय प्रियाय प्रियवाससे। उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे।। | 5-203-33a 5-203-33b |
गिरिशाय प्रशान्ताय पतये चीरवाससे। हिरण्यबाहवे राजन्नुग्राय पतये दिशाम्।। | 5-203-34a 5-203-34b |
पर्जन्यपतये चैव भूतानां पतये नमः। वृक्षाणां पतये चैव गवां च पतये नमः।। | 5-203-35a 5-203-35b |
वृक्षैरावृतकायाय सेनान्ये मध्यमाय च। स्रुवहस्ताय देवाय धन्विने भार्गवाय च।। | 5-203-36a 5-203-36b |
बहुरूपाय विश्वस्य पतये मुञ्चवाससे। सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च। सहस्रबाहवे चैव सहस्रवदनाय च।। | 5-203-37a 5-203-37b 5-203-37c |
शरणं गच्छ कौन्तेय वरदं भुवनेश्वरम्। उमापतिं विरूपाक्षं दक्षयज्ञनिबर्हणम्।। | 5-203-38a 5-203-38b |
प्रजानां पतिमव्यग्रं भूतानां पतिमव्ययम्। कपर्दिनं वृषावर्तं वृषनाभं वृषध्वजम्।। | 5-203-39a 5-203-39b |
वृषदर्पं वृषपतिं वृषशृङ्गं वृषर्षभम्। वृषाङ्गं वृषभोदारं वृषभं वृषभेक्षणम्।। | 5-203-40a 5-203-40b |
वृषायुधं वृषशरं वृषभूतं वृषेश्वरम्। महोदरं महाकायं द्वीपिचर्मनिवासिनम्।। | 5-203-41a 5-203-41b |
लोकेशं वरदं पुण्यं ब्रह्मण्यं ब्राह्मणप्रियम्। त्रिशूलपाणिं वरदं खङ्गचर्मधरं प्रभुम्।। | 5-203-42a 5-203-42b |
पिनाकिनं खङ्घधरं लोकानां पतिमीश्वरम्। प्रपद्ये शरणं देवं शरण्यं चीरवाससम्।। | 5-203-43a 5-203-43b |
नमस्तस्मै सुरेशाय गणानां पतये नमः। सुवाससे नमस्तुभ्यं सुव्रताय सुधन्विने।। | 5-203-44a 5-203-44b |
धनुर्धराय देवाय प्रियधन्वाय धन्विने। धन्वन्तराय धनुषे धन्वाचार्याय ते नमः।। | 5-203-45a 5-203-45b |
उग्रायुधाय देवाय नमः सुरवराय च। नमोस्तु बहुरूपाय नमोस्तु बहुधन्विने।। | 5-203-46a 5-203-46b |
नमोस्तु स्थाणवे नित्यं नमस्तस्मै तपस्विने। नमोस्तु त्रिपुरघ्नाय भगघ्नाय च वै नमः। | 5-203-47a 5-203-47b |
वनस्पतीनां पतये नराणां पतये नमः। मातॄणां पतये चैव गणानां पतये नमः।। | 5-203-48a 5-203-48b |
गवां च पतये नित्यं यज्ञानां पतये नमः। अपां च पतये नित्यं देवानां पतये नमः।। | 5-203-49a 5-203-49b |
पूष्णो दन्तविनाशाय त्र्यक्षाय वरदाय च। नीलकण्ठाय पिङ्गाय स्वर्णकेशाय वै नमः।। | 5-203-50a 5-203-50b |
कर्माणि यानि दिव्यानि महादेवस्य धीमतः। तानि ते कीर्तयिष्यामि तथाप्रज्ञं यथाश्रुतम्।। | 5-203-51a 5-203-51b |
न सुरा नासुरा लोके न गन्धर्वा न राक्षसाः। सुखमेधन्ति कुपिते तस्मिन्नपि गुरागताः।। | 5-203-52a 5-203-52b |
दक्षस्य यजमानस्य विधिवत्संभृतं पुरा। विव्याध कुपितो यज्ञं निर्दयस्त्वभवत्तदा। धनुषा बाणमुत्सृज्य सघोषं विननाद च।। | 5-203-53a 5-203-53b 5-203-53c |
तेन शर्म कुतः शान्तिं लेभिरे स्म सुरास्तदा। विद्रुते सहसा यज्ञे कुपिते च महेश्वरे।। | 5-203-54a 5-203-54d |
तेन ज्यातलघोषेण सर्वे लोकाः समाकुलाः। बभूवुर्वशगाः पार्थ निपेतुश्च सुरासुराः।। | 5-203-55a 5-203-55b |
आपश्चुक्षुभिरे सर्वाश्चकम्पे च वसुन्धरा। पर्वताश्च व्यशीर्यन्त दिशो नागाश्च मोहिताः।। | 5-203-56a 5-203-56b |
अन्धेन तमसा लोका न प्राकाशन्त संवृताः। जघ्निवान्सह सूर्येण सर्वेषां ज्योतिषां प्रभाः।। | 5-203-57a 5-203-57b |
चुक्षुभुर्भयभीताश्च शान्तिं चक्रुस्तथैव च। ऋषयः सर्वभूतानामात्मनश्च सुखैषिणः।। | 5-203-58a 5-203-58b |
पूषाणमभ्यद्रवत शङ्करः प्रहसन्निव। पुरोडाशं भक्षयतो दशनान्वै व्यशातयत्।। | 5-203-59a 5-203-59b |
ततो निश्चक्रमुर्देवा वेपमाना भयार्दिताः।। | 5-203-60a |
पुनश्च सन्दधे दीप्तान्देवानां निशिताञ्शरान्। सधूमान्सस्फुलिङ्गांश्च विद्युत्तोयदसन्निभान्।। | 5-203-61a 5-203-61b |
तं दृष्ट्वा तु सुराः सर्वे प्रणिपत्य महेश्वरम्। रुद्रस्य यज्ञभागं च विशिष्टं ते त्वकल्पयन्।। | 5-203-62a 5-203-62b |
भयेन त्रिदशा राजञ्छरणं च प्रपेदिरे। तेन चैवातिकोपेन स यज्ञः सन्धितस्तदा। भग्नाश्चापि सुरा आसन्भीताश्चाद्यापि तं प्रति।। | 5-203-63a 5-203-63b 5-203-63c |
असुराणां पुराण्यासंस्त्रीणि वीर्यवतां दिवि। आयसं राजतं चैव सौवर्णं परमं महत्।। | 5-203-64a 5-203-64b |
सौवर्णं कमलाक्षस्य तारकाक्षस्य राजतम्। तृतीयं तु पुरं तेषां विद्युन्मालिन आयसम्। न शक्तस्तानि मघवान्भेत्तुं सर्वायुधैरपि।। | 5-203-65a 5-203-65b 5-203-65c |
अथ सर्वे सुरा रुद्रं जग्मुः शरणमर्दिताः। ते तमूचुर्महात्मानं सर्वे देवाः सवासवाः।। | 5-203-66a 5-203-66b |
ब्रह्मदत्तवरा ह्येते घोरास्त्रिपुरवासिनः। पीडयन्त्यधिकं लोकं यस्मात्ते वरदर्पिताः।। | 5-203-67a 5-203-67b |
त्वदृते देवदेवेश नान्यः शक्तः कथञ्चन। हन्तुं दैत्यान्महादेव जहि तांस्त्वं सुरद्विपः।। | 5-203-68a 5-203-68b |
रुद्र रौद्रा भविष्यन्ति पशवः सर्वकर्मसु। निपातयिष्यसे चैतानसुरान्भुवनेश्वर।। | 5-203-69a 5-203-69b |
स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा देवानां हितकाम्यया। गन्धमादनविन्ध्यौ च कृत्वा वंशध्वजौ हरः।। | 5-203-70a 5-203-70b |
पृथ्वीं ससागरवनां रथं कृत्वा तु शङ्करः। अक्षं कृत्वा तु नागेन्द्रं शेषं नाम त्रिलोचनः।। | 5-203-71a 5-203-71b |
चक्रे कृत्वा तु चन्द्रार्कौ देवदेवः पिनाकधृत्। अणी कृत्वैलपत्रं च पुष्पदन्तं च त्र्यम्बकः।। | 5-203-72a 5-203-72b |
यूपं कृत्वा तु मलयमवनाहं च तक्षकम्।। | 5-203-73a |
योक्त्राङ्गानि च सत्वानि कृत्वा शर्वः प्रतापवान्। वेदान्कृत्वाऽथ चतुरश्चतुरश्वान्महेश्वरः।। | 5-203-74a 5-203-74b |
उपदेवान्खलीनांश्च कृत्वा लोकत्रयेश्वरः। गायत्रीं प्रग्रहं कृत्वा सावित्रीं च महेश्वरः।। | 5-203-75a 5-203-75b |
कृत्वोंकारं प्रतोदं च ब्रह्माणं चैव सारथिम्। गाण्डीवं मन्दरं कृत्वा गुणं कृत्वा तु वासुकिम्।। | 5-203-76a 5-203-76b |
विष्णुं शरोत्तमं कृत्वा शल्यमग्निं तथैव च। वायुं कृत्वाऽथ वाजाभ्यां पुङ्खे वैवस्वतं यमम्।। | 5-203-77a 5-203-77b |
विद्युत्कृत्वाऽथ निश्राणं मेरुं कृत्वाऽथ वै ध्वजम्। आरुह्य स रथं दिव्यं सर्वदेवमयं शिवः।। | 5-203-78a 5-203-78b |
त्रिपुरस्य वधार्थाय स्थाणुः प्रहरतां वरः। असुराणामन्तकरः श्रीमानतुलविक्रमः।। | 5-203-79a 5-203-79b |
स्तूयमानः सुरैः पार्थ ऋषिभिश्च तपोधनैः। स्थानं माहेश्वरं कृत्वा दिव्यमप्रतिमं प्रभुः। अतिष्ठत्स्थाणुभूतः स सहस्रं परिवत्सरान्।। | 5-203-80a 5-203-80b 5-203-80c |
यदा त्रीणि समेतानि अन्तरिक्षे पुराणि च। त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तदा तानि बिभेद सः।। | 5-203-81a 5-203-81b |
पुराणि न च तं शेकुर्दानवाः प्रतिवीक्षितुम्। शरं कालाग्निसंयुक्तं विष्णुसोमसमायुतम्।। | 5-203-82a 5-203-82b |
पुराणि दग्धवन्तं तं देवी याता प्रवीक्षितुम्। `देव्याः स्वयंवरे वृत्तं शृणुष्वान्यद्धनञ्जय'।। | 5-203-83a 5-203-83b |
बालमङ्कगतं कृत्वा स्वयं पञ्चशिखं पुनः। उमा जिज्ञासमाना वै कोयमित्यब्रवीत्सुरान्।। | 5-203-84a 5-203-84b |
असूयतश्च शक्रस्य वज्रेण प्रहरिष्यतः। बाहुं सवज्रं तं तस्य क्रुद्धस्यास्तम्भयत्प्रभुः। [प्रहस्य* भगवांस्तूर्णं सर्वलोकेश्वरो विभुः।। | 5-203-85a 5-203-85b 5-203-85c |
ततः स स्तम्भितभुजः शक्रो देवगणैर्वृतः। जगाम ससुरस्तूर्णं ब्रह्माणं प्रभुमव्ययम्।। | 5-203-86a 5-203-86b |
ते तं प्रणम्य शिरसा प्रोचुः प्राञ्जलयस्तदा।। | 5-203-87a |
किमप्यङ्कगतं ब्रह्मन्पार्वत्या भूतमद्भुतम्। बालरूपधरं दृष्ट्वा नास्माभिरभिलक्षितः।। | 5-203-88a 5-203-88b |
तस्मात्त्वां प्रष्टुमिच्छामो निर्जिता येन वै वयम्। अयुध्यता हि बालेन लीलया सपुरंदराः।। | 5-203-89a 5-203-89b |
तेषां तद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः। ध्यात्वा स शंभुं भगवान्बालं चामिततेजसम्। उवाच भगवान्ब्रह्मा शक्रादींश्च सुरोत्तमान्।। | 5-203-90a 5-203-90b 5-203-90c |
चराचरस्य जगतः प्रभुः स भगवान्हरः। तस्मात्परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति महेश्वरात्।। | 5-203-91a 5-203-91b |
यो दृष्टो ह्युमया सार्धं युष्माभिरमितद्युतिः। स पार्वत्याः कृते शर्वः कृतवान्बालरूपताम्।। | 5-203-92a 5-203-92b |
ते मया सहिता यूयं प्रापद्यध्वं तमेव हि]। स एष भगवान्देवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।। | 5-203-93a 5-203-93b |
न सम्बबुधिरे चैनं देवास्तं भुवनेश्वरम्। सप्रजापतयः सर्वे बालार्कसदृशप्रभम्।। | 5-203-94a 5-203-94b |
अथाभ्येत्य ततो ब्रह्मा दृष्ट्वा स च महेश्वरम्। अयं श्रेष्ठ इति ज्ञात्वा ववन्दे तं पितामहः।। | 5-203-95a 5-203-95b |
[ब्रह्मोवाच। | 5-203-96x |
त्वं यज्ञो भुनस्यास्य त्वं गतिस्त्वं परायणम्। त्वं भवस्त्वं महादेवस्त्वं धाम परमं पदम्।। | 5-203-96a 5-203-96b |
त्वया सर्वमिदं व्याप्तं जगत्स्थावरजङ्गमम्।। | 5-203-97a |
भगवन्भूतभव्येश लोकनाथ जगत्पते। प्रसादं कुरु शक्रस्य त्वया क्रोधार्दितस्य वै।। | 5-203-98a 5-203-98b |
व्यास उवाच। | 5-203-99x |
पद्मयोनिवचः श्रुत्वा ततः प्रीतो महेश्वरः प्रसादाभिमुखो भूत्वा अट्टहासमथाकरोत्।।] | 5-203-99a 5-203-99b |
ततः प्रसादयामासुरुमां रुद्रं च ते सुराः। अभवच्च पुनर्बाहुर्यथाप्रकृति वज्रिणः।। | 5-203-100a 5-203-100b |
तेषां प्रसन्नो भगवान्सपत्नीको वृषध्वजः। देवानां त्रिदशश्रेष्ठो दक्षयज्ञविनाशनः।। | 5-203-101a 5-203-101b |
स वै रुद्रः स च शिवः सोऽग्निः सर्वश्च सर्ववित्। स चेन्द्रश्चैव वायुश्च सोऽश्विनौ च स विद्युतः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
स भवः स च पर्जन्यो महादेवः सनातनः। स चन्द्रमाः स चेशानः स सूर्यो वरुणश्च सः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
स कालः सोऽन्तको मृत्युः स यमो रात्र्यहानि तु। मासार्धमासा ऋतवः सन्ध्ये संवत्सरश्च सः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
धाता च स विधाता च विश्वात्मा विश्वकर्मकृत्। सर्वामां देवतानां च धारयत्यवपुर्वपुः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
सर्वदेवैः स्तुतो देवः सैकधा बहुधा च सः। शतधा सहस्रधा चैव भूयः शतसहस्रधाः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः। घोरा चान्या शिवा चान्या ते तनू बहुधा पुनः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
घोरा तु यातुधानस्य सोऽग्निर्विष्णुः स भास्करः। सौम्यातु पुनरेवास्य आपो ज्योतींषि चन्द्रमाः।। | 5-203-10a 5-203-10b |
वेदाः साङ्गोपनिषदः पुराणाध्यात्मनिश्चयाः। यदत्र परमं गुह्यं स वै देवो महेश्वरः।। ईदृशश्च महादेवो भूयांश्च भगवानजः। | 5-203-10a 5-203-10b 5-203-10b |
न हि सर्वे मया शक्या वक्तुं भगवतो गुणाः।। अपि वर्षसहस्रेण सततं पाण्डुनन्दन। सर्वैर्ग्रहैर्गृहीतान्वै सर्वपापसमन्वितान्।। | 5-203-10a 5-203-10b 5-203-111b |
स मोचयति सुप्रीतः शरण्यः शरणागतान्। आयुरारोग्यमैश्वर्यं वित्तं कामांश्च पुष्कलान्।। | 5-203-112a 5-203-112b |
स ददाति मनुष्येभ्यः स चैवाक्षिपते पुनः। सेन्द्रादिषु च देवेषु तस्य चैश्वर्यमुच्यते।। | 5-203-113a 5-203-113b |
स चैव वेत्ति लोकेषु मनुष्याणां शुभाशुभे। ऐश्वर्याच्चैव कामानामीश्वरश्च स उच्यते।। | 5-203-114a 5-203-114b |
महेश्वरश्च महतां भूतानामीश्वरश्च सः। बहुभिर्बहुधा रूपैर्विश्वं व्याप्नोति वै जगत्।। | 5-203-115a 5-203-115b |
तस्य देवस्य यद्वक्त्रं समुद्रे तदधिष्ठितम्। ब़डबामुखेति विख्यातं पिबत्तोयमयं हविः।। | 5-203-116a 5-203-116b |
एष चैव श्मशानेषु देवो वसति नित्यशः। यजन्त्येनं जनास्तत्र वीरस्थान इतीश्वरम्।। | 5-203-117a 5-203-117b |
अस्य दीप्तानि रूपाणि घोराणि च बहूनि च। लोके यान्यस्य पूज्यन्ते मनुष्याः प्रवदन्ति च।। | 5-203-118a 5-203-118b |
नामधेयानि लोकेषु बहून्यस्य यथार्थवत्। निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात्कर्मणस्तथा।। | 5-203-119a 5-203-119b |
वेदे चास्य समाम्नातं शतरुद्रियमुत्तमम्। नाम्ना चानन्तरुद्रेति ह्युपस्थानं महात्मनः।। | 5-203-120a 5-203-120b |
स कामानां प्रभुर्देवो ये दिव्या ये च मानुषाः। स विभुः स प्रभुर्देवोविश्वं व्याप्नोति वै महत्।। | 5-203-121a 5-203-121b |
ज्येष्ठं भूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा मनुयस्तथा। प्रथमो ह्येष देवानां मुखादस्यानलोऽभवत्।। | 5-203-122a 5-203-122b |
सर्वथा यत्पशून्पाति तैश्च यद्रमते पुनः। तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात्पशुपतिः स्मृतः।। | 5-203-123a 5-203-123b |
दिव्यं च ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यथास्थितम्। महयत्येष लोकांश्च महेश्वर इति स्मृतः।। | 5-203-124a 5-203-124b |
ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वाप्यरसस्तथा। लिङ्गमस्यार्चयन्ति स्म तच्चाप्यूर्ध्वं समास्थितम्।। | 5-203-125a 5-203-125b |
पूज्यमाने ततस्तस्मिन्मोदते स महेश्वरः। सुखी प्रीतश्च भवति प्रहृष्टश्चैव शङ्करः।। | 5-203-126a 5-203-126b |
यदस्य बहुधा रूपं भूतभव्यभवस्थितम्। स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः।। | 5-203-127a 5-203-127b |
एकाक्षो जाज्वलन्नास्ते सर्वतोक्षिमयोऽपि वा। क्रोधाद्यश्चाविशल्लोकांस्तस्मात्सर्व इति स्मृतः।। | 5-203-128a 5-203-128b |
धूम्ररूपं च यत्तस्य धूर्जटिस्तेन चोच्यते। विश्वे देवाश्च यत्तस्मिन्विश्वरूपस्ततः स्मृतः।। | 5-203-129a 5-203-129b |
तिस्रो देवीर्यदा चैव भजते भुवनेश्वरः। द्यामपः पृथिवीं चैव त्र्यम्बकश्च ततः स्मृतः।। | 5-203-130a 5-203-130b |
समेधयति यन्नित्यं सर्वार्थान्सर्वकर्मसु। शिवमिच्छन्मनुष्याणां तस्मादेष शिवः स्मृतः।। | 5-203-131a 5-203-131b |
सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोक्षिमयोऽपि वा। यच्च विश्वं महत्पाति महादेवस्ततः स्मृतः।। | 5-203-132a 5-203-132b |
महत्पूर्वं स्थितो यच्च प्राणोत्पत्तिस्थितश्च यत्। स्थितलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात्स्थाणुरिति स्मृतः।। | 5-203-133a 5-203-133b |
[सूर्याचन्द्रमसोर्लोके प्रकाशन्ते रुचश्च याः। ताः केशसंज्ञितास्त्र्यक्षे व्योमकेशस्ततः स्मृतः।। | 5-203-134a 5-203-134b |
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं जगदशेषतः। भव एव ततो यस्माद्भूतभव्यभवोद्भवः।। | 5-203-135a 5-203-135b |
कपिः श्रेष्ठ इति प्रोक्तो धर्मश्च वृष उच्यते। स देवदेवो भगवान्कीर्त्यतेऽतो वृषाकपिः।। | 5-203-136a 5-203-136b |
ब्रह्माणमिन्द्रं वरुणं यमं धनदमेव च। निगृह्य हरते यस्मात्तस्माद्वर इति स्मृतः।। | 5-203-137a 5-203-137b |
निमीलिताभ्यां नेत्राभ्यां बलाद्देवो महेश्वरः। ललाटे नेत्रमसृजत्तेन त्र्यक्षः स उच्यते।।] | 5-203-138a 5-203-138b |
विषमस्थः शरीरेषु समश्च प्राणिनामिह। स वायुर्विषमस्थेषु प्राणोऽपानः शरीरिषु।। | 5-203-139a 5-203-139b |
पूजयेद्विग्रहं यस्तु लिङ्गं चापि महात्मनः। लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमश्नुते।। | 5-203-140a 5-203-140b |
ऊरुभ्यामर्धमाग्नेयं सोमोऽर्धं च शिवा तनुः। आत्मनोऽर्धं तथा चाग्निः सोमोर्धं पुनरुच्यते।। | 5-203-141a 5-203-141b |
तैजसी महती दीप्ता देवेभ्योऽस्य शिवा तनुः। भास्वती मानुषेष्वस्य तनुर्घोराऽग्निरुच्यते।। | 5-203-142a 5-203-142b |
ब्रह्मचर्यं चरत्येष शिवा याऽस्य तनुस्तया। याऽस्य घोरतरा मूर्तिः सर्वानत्ति तयेश्वरः।। | 5-203-143a 5-203-143b |
यन्निर्दहति यत्तीक्ष्णो यदुग्रो यत्प्रतापवान्। मांसशोणितमज्जादो यत्ततो रुद्र उच्यते।। | 5-203-144a 5-203-144b |
एष देवो महादेवो योऽसौ पार्थ तवाग्रतः। सङ्ग्रामे शास्त्रवान्निघ्नंस्त्वया दृष्टः पिनाकधृत।। | 5-203-145a 5-203-145b |
सिन्धुराजवधार्थाय प्रतिज्ञाते त्वयाऽनघ। कृष्णेन दर्शितः स्वप्ने यस्तु शैलेन्द्रमूर्धनि।। | 5-203-146a 5-203-146b |
एष वै भगवान्देवः सङ्ग्रामे याति तेऽग्रतः। येन दत्तानि तेऽस्त्राणि यैस्त्वया दानवा हताः।। | 5-203-147a 5-203-147b |
धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वेदैश्च सम्मितम्। देवदेवस्य ते पार्थ व्याख्यातं शतरुद्रियम्। | 5-203-148a 5-203-148b |
सर्वार्थसाधनं पुण्यं सर्वकिल्बिषनाशनम्। सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखभयापहम्।। | 5-203-149a 5-203-149b |
चतुर्विधमिदं स्तोत्रं यः शृणोति नरः सदा। विजित्य शत्रून्सर्वान्स रुद्रलोके महीयते।। | 5-203-150a 5-203-150b |
चरितं महात्मनो नित्यं साङ्ग्रामिकमिदं स्मृतम्। पठन्वै शतरुद्रीयं शृण्वंश्च सततोत्थितः।। | 5-203-151a 5-203-151b |
भक्तो विश्वेश्वरं देवं मानुषेषु च यः सदा। वरान्कामान्स लभते प्रसन्ने त्र्यम्बके नरः।। | 5-203-152a 5-203-152b |
गच्छ युध्यस्व कौन्तेय न तवास्ति पराजयः। गस्य मन्त्री च गोप्ता च पार्श्वस्थो हि जनार्दनः।। | 5-203-153a 5-203-153b |
सञ्जय उवाच। | 5-203-154x |
एवमुक्त्वाऽर्जुनं सङ्ख्ये पराशरसुतस्तदा। जगाम भरतश्रेष्ठ यथागतमरिन्दम।। | 5-203-154a 5-203-154b |
`वेशंपायन उवाच। | 5-203-155x |
एतदाख्याय वै सूतो राज्ञः सर्वं तु सञ्जयः। प्रयातः शिबिरायैव द्रष्टुं कर्णस्य वैशसम्।। | 5-203-155a 5-203-155b |
युद्धं कृत्वा महद्धोरं पञ्चाहानि महाबलः। ब्राह्मणो निहतो राजन्ब्रह्मलोकमवाप्तवान्।। | 5-203-156a 5-203-156b |
स्वधीते यत्फलं वेदे तदस्मिन्नपि पर्वणि। क्षत्रियाणामभीरूणां युक्तमत्र महद्यशः।। | 5-203-157a 5-203-157b |
य इदं पठते पर्व शृणुयाद्वाऽपि नित्यशः। स मुच्यते महापापैः कृतैर्घोरैश्च कर्मभिः।। | 5-203-158a 5-203-158b |
यज्ञावाप्तिर्ब्राह्मणस्येह नित्यं घोरे युद्धे क्षत्रियाणां यशश्च। शेषौ वर्णौ काममिष्टं लभेते पुत्रान्पौत्रान्नित्यमिष्टांस्तथैव।। | 5-203-159a 5-203-159b 5-203-159c 5-203-159d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्यां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 203 ।। | |
समाप्तं नारायणास्त्रमोक्षपर्व।। 8 ।। द्रोणपर्व च समाप्तम्।। 7 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
5-203-3 यदृच्छया।। 5-203-11 जटिलं शिखिनमिति रुपभेदाभिप्रायेण विशेषणद्वयं योज्यम्।। 5-203-12 जगत्प्रीतिं जगदानन्दकरम्।। 5-203-13 जगद्योनिं जगद्बीजमिति जगतां मातापितृरूपम्।। 5-203-14 विश्वनरं विश्वस्य नेतारम्। भूतस्य भव्यस्य भवस्य वर्तमानस्य चोद्भवम्।। 5-203-15 योगेश्वरं योगिनामीशम्। योगानां फलप्रदं वा।। 5-203-17 सुदुर्जयमत्यन्तं दुष्प्रापमनधिकारिभिः।। 5-203-51 कर्माणि चैव घोराणि महादेवस्य धन्विनः इति क.ख.पाठः।। 5-203-52 गुहागताः पातालगता अपीत्यर्थः।। 5-203-57 तमसा संवृता न प्राकाशन्त न प्राज्ञायन्त।। 5-203-58 चक्रुर्ऋषय इति सम्बन्धः।। 5-203-59 पूषाणं पूषणम्।। 5-203-60 नताः स्म ते इति पाठे नता लीनाः सन्तो निश्चक्रमुर्यज्ञदेशादपक्रान्ताः।। 5-203-61 देवानां लीनानामपि वधायेति शेषः।। 5-203-63 अतिकोपेन अतिक्रान्तकोपेन शान्तेनेत्यर्थः। ततः प्रभृति पूर्वं भग्नाः सन्तोऽद्यापि भीताः सन्तीत्यर्थः।। 5-203-70 वंशध्वजौ अल्पौ ध्वजौ पार्श्वद्वयस्थौ। महाध्वजस्तु मेरुरिति वक्ष्यते।। 5-203-72 अणी युगान्तबन्धने द्वौ नागौ।। 5-203-73 यूपं युगम्। अवनाहं त्रिवेणुयुगबन्धनरज्जुम्।। 5-203-74 योक्त्राणि। अङ्गानि चाकर्षादीनि। सत्वानि सरीसृपपर्वतादीनि च।। 5-203-75 उपवेदान् आयुर्वेदधनुर्वेदगान्धर्ववेदपश्चिमाम्नायान्। खलीनान् खडियाळीति प्रसिद्धान्। गायत्रीसावित्र्यौ प्रग्रहं रश्मीन्।। 5-203-77 वाजाभ्यां पक्षाभ्यां पक्षयोरित्यर्थः।। 5-203-78 विद्युत् विद्युतम्। निश्राणं निशितम्।। 5-203-80 स्थानं स्थीयतेस्मिन्निति योगाद्व्यूहम्। स्थाणुरचलः।। 5-203-81 समेतानि समसूत्रगतानि। त्रिपर्वणा त्रीणि विष्णुवायुवैवस्वताख्यानि शरपक्षपुङ्खरूपाणि पर्वाणि यस्य तेन। त्रिशल्येन गार्हपत्यदक्षिणाग्न्याहवनीयरूपाऽग्नित्रयशल्येन।। 5-203-96 गतिः पालकः। परायणं लयस्थानम्। भव उत्पत्तिकारणम्।। 5-203-98 ईशः शिक्षकः। नाथः नायकः। पतिः पालकः।। 5-203-120 शतरुद्रियं नमस्ते रुद्र मन्यव इति याजुषः प्रपाठकः। उपस्थानं रुद्रोपस्थानमन्त्रभूतम्।। 5-203-121 कामानां दिव्यानां मानुषाणां च स प्रभुर्दाता। विभुर्व्यापकः।। 5-203-203 त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-202 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | कर्णपर्व |