महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-139
दिखावट
← द्रोणपर्व-138 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-139 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-140 → |
|
भीमकर्णयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-139-1x |
ततः कर्णो महाराज भीमं विद्धा त्रिभिः शूरैः। `पुनश्च षड्भिस्तीक्ष्णाग्रैरविध्यत्कङ्कपत्रिभिः'। मुमोच शरवर्षाणि विचित्राणि बहूनि च।। | 5-139-1a 5-139-1b 5-139-1c |
वध्यमानो महाबाहुः सूतपुत्रेण पाण्डवः। न विव्यथे भीमसेनो भिद्यमान इवाचलः।। | 5-139-2a 5-139-2b |
स कर्णं कर्णिना कर्णे पीतेन निशितेन च। विव्याध सुभृशं सङ्ख्ये तैलधौतेन मारिष।। | 5-139-3a 5-139-3b |
स कुण्डलं महच्चारु कर्णस्यापातयद्भुवि। तपनीयं महाराज दीप्तं ज्योतिरिवाम्बरात्।। | 5-139-4a 5-139-4b |
अथापरेण भल्लेन सूतपुत्रं स्तनान्तरे। आजघान भृशं क्रुद्धो हसन्निव वृकोदरः।। | 5-139-5a 5-139-5b |
पुनरस्य त्वरन्भीपो नाराचान्दश भारत। रणे प्रैषीन्महाबाहुर्निर्मुक्ताशीविषोपमान्।। | 5-139-6a 5-139-6b |
ते ललाटं विनिर्भिद्य सूतपुत्रस्य भारत। विविशुश्चोदितास्तेन वल्मीकमिव पन्नगाः।। | 5-139-7a 5-139-7b |
ललाटस्थैस्ततो बाणैः सूतपुत्रो व्यरोचत। नीलोत्पलमयीं मालां धारयन्वै यथा पुरा।। | 5-139-8a 5-139-8b |
सोऽतिविद्धो भृशं कर्णः पाण्डवेन तरस्विना। रथकूबरमालम्ब्य न्यमीलयत लोचने।। | 5-139-9a 5-139-9b |
स मुहूर्तात्पुनः संज्ञां लेभे कर्णः परन्तपः। रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः क्रोधमाहारयत्परम्।। | 5-139-10a 5-139-10b |
ततः क्रुद्धो रणे कर्णः पीडितो दृढधन्वना। वेगं चक्रे महावेगो भीमसेनरथं प्रति।। | 5-139-11a 5-139-11b |
तस्मै कर्णः शतं राजन्निषूणां गार्ध्रवाससाम्। अमर्षी बलवान्क्रुद्धः प्रेषयामास भारत।। | 5-139-12a 5-139-12b |
ततः प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः। समरे तमनादृत्य तस्य वीर्यमचिन्तयन्।। | 5-139-13a 5-139-13b |
कर्णस्ततो महाराज पाण्डवं नवभिः शरैः। आजघानोऽसि क्रुद्धः क्रुद्धरूपं परन्तप।। | 5-139-14a 5-139-14b |
तावुभौ नरशार्दूलौ शार्दूलाविव दंष्ट्रिणौ। `शरदंष्ट्रौ समासाद्य ततक्षतुररिन्दमौ'। जिमूताविव चान्योन्यं प्रववर्षतुराहवे।। | 5-139-15a 5-139-15b 5-139-15c |
तलशब्दरवैश्चैव त्रासयेतां परस्परम्। शरजालैश्च विविधैस्त्रासयामासतुर्मृधे।। | 5-139-16a 5-139-16b |
अन्योन्यं समरे क्रुद्धौ कृतप्रतिकृतैषिणौ। ततो भीमो महाबाहुः सूतपुत्रस्य भारत।। | 5-139-17a 5-139-17b |
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा ननाद परवीरहा। तदपास्य धनुश्छिन्नं सूतपुत्रो महारथः।। | 5-139-18a 5-139-18b |
अन्यत्कार्मुकमादत्त भारघ्नं वेगवत्तरम्। तदप्यथ निमेषार्धाच्चिच्छेदास्य वृकोदरः।। | 5-139-19a 5-139-19b |
तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं षष्ठमेव हि। सप्तमं चाष्टमं चैव नवमं दशमं तथा।। | 5-139-20a 5-139-20b |
एकादशं द्वादशं च त्रयोधशमथापि च। चतुर्दशं पञ्चदशं षोडशं च वृकोदरः।। | 5-139-21a 5-139-21b |
तथा सप्तदशं वेगादष्टादशमथापि वा। बहूनि भीमश्चिच्छेद कर्णस्यैवं धनूंषि हि। निमेषार्धात्ततः कर्णो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत।। | 5-139-22a 5-139-22b 5-139-22c |
दृष्ट्वा स कुरुसौवीरसिन्धुवीरबलक्षयम्। स वर्मध्वजशस्त्रैश्च पतितैः संवृतां महीम्।। | 5-139-23a 5-139-23b |
`रथैर्विमथितैर्भल्लैरश्वैश्चान्यैः प्रवल्गितैः। भ्रष्टश्रीकैर्नरवरैः पांसुकुण्ठितमूर्धजैः'।। | 5-139-24a 5-139-24b |
हस्त्यश्वरथदेहांश्च गतासून्प्रेक्ष्य सर्वशः। सूतपुत्रस्य संरम्भाद्दीप्तं वपुरजायत।। | 5-139-25a 5-139-25b |
स विष्फार्य महच्चापं कार्तस्वरविभूषितम्। भीमं प्रैक्षत राधेयो घोरं घोरेण चक्षुषा।। | 5-139-26a 5-139-26b |
ततः क्रुद्धः शरानस्यन्सूतपुत्रो व्यरो चत। मध्यन्दिनगतोऽर्चिष्माञ्शरदीव दिवाकरः।। | 5-139-27a 5-139-27b |
मरीचिविकचस्येव राजन्भानुमतो वपुः। आसीदाधिरथेर्घोरं वपुः शरशताचितम्।। | 5-139-28a 5-139-28b |
कराभ्यामाददानस्य सन्दधानस्य चाशुगान्। कर्षतो मुञ्चतो बाणान्नान्तरं ददृशे रणे।। | 5-139-29a 5-139-29b |
अग्निचक्रोपमं घोरं मण्डलीकृतमायुधम्। कर्णस्यासीन्महीपाल सव्यं दक्षिणमस्यतः।। | 5-139-30a 5-139-30b |
स्वर्णपुङ्खाः सुनिशिताः कर्मचापच्युताः शराः। प्राच्छादयन्महाराज दिशः सूर्य इवांशुभिः।। | 5-139-31a 5-139-31b |
ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम्। धनुश्च्युतानां वियति ददृशे बहुधा व्रजः।। | 5-139-32a 5-139-32b |
बाणासनादाधिरथेः प्रभवन्ति स्म सायकाः। श्रेणीकृता व्यरोचन्त राजन्क्रौञ्चा इवाम्बरे।। | 5-139-33a 5-139-33b |
गार्ध्रपत्राञ्शिलाधौतान्कार्तस्वरविभूषितान्। महावेगान्प्रदीप्ताग्रान्मुमोचाधिरथिः शरान्।। | 5-139-34a 5-139-34b |
ते तु चापबलोद्धूताः शातकुम्भविभूषिताः। अजस्रमपतन्बाणा भीमसेनरथं प्रति।। | 5-139-35a 5-139-35b |
ते व्योम्नि रुक्मविकृता व्यकाशन्त सहस्रशः। शलभानामिव व्राताः शराः कर्णसमीरिताः।। | 5-139-36a 5-139-36b |
चापादाधिरथेर्मुक्ताः प्रपतन्तश्चकाशिरे। एको दीर्घ इवात्यर्थमाकाशे संस्थितः शरः।। | 5-139-37a 5-139-37b |
पर्वतं वारिधाराभिच्छादयन्निव तोयदः। कर्णः प्राच्छादयत्क्रुद्धो भीमं सायकवृष्टिभिः।। | 5-139-38a 5-139-38b |
तत्र भारत भीमस्य बलं वीर्यं पराक्रमम्। व्यवसायं च पुत्रास्ते ददृशुः सहसैनिकाः।। | 5-139-39a 5-139-39b |
तां समुद्रमिवोद्भूतां शरवृष्टिं समुत्थिताम्। अचिन्तयित्वा भीमस्तु क्रुद्धः कर्णमुपाद्रवत्।। | 5-139-40a 5-139-40b |
रुक्मपृष्ठं महच्चापं भीमस्यासीद्विशाम्पते। आकर्षान्मण्डलीभूतं शक्रचापमिवापरम्। तस्माच्छराः प्रादुरासन्पूरयन्त इवाम्बरम्।। | 5-139-41a 5-139-41b 5-139-41c |
सुवर्णपुङ्खैर्भीमेन सायकैर्नतपर्वभिः। गगने रचिता माला काञ्चनीव व्यरोचतं।। | 5-139-42a 5-139-42b |
ततो व्योम्नि विषक्तानि शरजालानि भागशः। आहतानि व्यशीर्यन्त भीमसेनस्य पत्रिभिः।। | 5-139-43a 5-139-43b |
कर्णस्य शरजालौघैर्भीमसेनस्य चोभयोः। अग्निस्फुलिङ्गसंस्पर्शैरञ्जोगतिभिराहवे। तैस्तैः कनकपुङ्खानां द्यौरासीत्संवृता व्रजैः।। | 5-139-44a 5-139-44b 5-139-44c |
न स्म सूर्यस्तदा भाति न स्म वाति समीरणः। शरजालावृते व्योम्नि न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 5-139-45a 5-139-45b |
स भिमं छादयन्बाणैः सूतपुत्रः पृथग्विधैः। उपारोहदनादृत्य तस्य वीर्यं महात्मनः।। | 5-139-46a 5-139-46b |
तयोर्विसृजतोस्तत्र शरजालानि मारिष। वायुभूतान्यदृश्यन्त संसक्तानीतरेतरम्।। | 5-139-47a 5-139-47b |
अन्योन्यशरसंसम्पर्शात्तयोर्मनुजसिंहयोः। आकाशे भरतश्रेष्ठ पावकः समजायत।। | 5-139-48a 5-139-48b |
तथा कर्णः शितान्बाणान्कर्मारपरिमार्जितान्। सुवर्णविकृतान्क्रुद्धः प्राहिणोद्वधकाङ्क्षया।। | 5-139-49a 5-139-49b |
तानन्तरिक्षे विशिखैस्त्रिधैकैकमशातयत्। विशेषयन्सूतपुत्रं भीमस्तिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-139-50a 5-139-50b |
पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः। अमर्षी बलवान्क्रुद्धौ दिधक्षन्निव पावकः।। | 5-139-51a 5-139-51b |
ततश्चटचटाशब्दो गोधाघातादभूत्तयोः।। | 5-139-52a |
तलशब्दश्च सुभहान्सिंहनादश्च भैरवः। रथनेमिनिनादश्च ज्याशब्दश्चैव दारुणः।। | 5-139-53a 5-139-53b |
योधा व्युपारमन्युद्धाद्दिदृक्षन्तः पराक्रमम्। कर्णपाण्डवयो राजन्परस्परवधैषिणोः।। | 5-139-54a 5-139-54b |
देवर्षिसिद्धगन्धर्वाः साधुसाध्वित्यपूजयन्। मुमुचुः पुष्पवर्षं च विद्याधरगणास्तथा।। | 5-139-55a 5-139-55b |
ततो भीमो महाबाहुः संरम्भी दृढविक्रमः। अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य शरैर्विव्याध सूतजम्।। | 5-139-56a 5-139-56b |
कर्णोऽपि भीमसेनस्य निवार्येषून्महाबलः। प्राहिणोन्नव नाराचानाशीविषसमान्रणे।। | 5-139-57a 5-139-57b |
तावद्भिरथ तान्भीमो व्योम्नि चिच्छेद पत्रिभिः। नाराचान्सूत पुत्रस्य तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-139-58a 5-139-58b |
ततो भीमो महाबाहुः शरं क्रुद्धान्तकोपमम्। मुमोचाधिरथेर्वीरो यमदण्डमिवापरम्।। | 5-139-59a 5-139-59b |
तमापतन्तं चिच्छेद राधेयः प्रहसन्निव। त्रिभिः शरैः शरं राजन्पाण्डवस्य प्रतापवान्।। | 5-139-60a 5-139-60b |
पुनश्चासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः। तस्य तान्याददे कर्णः सर्वाण्यस्त्राण्यभीतवत्। युध्यमानस्य भीमस्य सूतपुत्रोऽस्त्रमायया।। | 5-139-61a 5-139-61b 5-139-61c |
तस्येषुधी धनुर्ज्यां च बाणैः सन्नतपर्वभिः। रश्मीन्योक्त्राणि चाश्वानां क्रुद्धः कर्णोऽच्छिनन्मृधे। | 5-139-62a 5-139-62b |
तस्याश्वांश्च पुनर्हत्वा सूतं विव्याध पञ्चभिः। सोपसृत्य द्रुतं सूतो युधामन्यो रथं ययौ।। | 5-139-63a 5-139-63b |
विहसन्निव भीमस्य क्रुद्धः कालानलद्युतिः। ध्वजं चिच्छेद राधेयः पताकां च व्यपातयत्।। | 5-139-64a 5-139-64b |
स विधन्वा महाबाहुरथ शक्तिं परामृशत्। तां व्यवासृजदाविध्य क्रुद्धः कर्णरथं प्रति।। | 5-139-65a 5-139-65b |
तामाधिरथिरायस्तः शक्तिं काञ्चनभूषणाम्। आपतन्तीं महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः।। | 5-139-66a 5-139-66b |
साऽपतद्दृशधा छिन्ना कर्णस्य निशितैः शरैः। अस्यतः सूतपुत्रस्य मित्रार्थे चित्रयोधिनः।। | 5-139-67a 5-139-67b |
स चर्मादत्त कौन्तेयो जातरूपपरिष्कृतम्। खङ्गं चान्यतरप्रेप्सुर्जयं मरणमेव वा।। | 5-139-68a 5-139-68b |
तदस्य तरसा क्रुद्धो व्यधमच्चर्म सुप्रभम्। शरैर्बहुभिरत्युग्रैः प्रहसन्निव भारत।। | 5-139-69a 5-139-69b |
स विचर्मा महाराज विरथः क्रोधमूर्च्छितः। असिं प्रासृजदाविध्य त्वरन्कर्णरथं प्रति।। | 5-139-70a 5-139-70b |
स धनुः सूतपुत्रस्य सज्यं छित्त्वा महानसिः। पपात भुवि राजेन्द्र क्रुद्धः सर्प इवाम्बरात्।। | 5-139-71a 5-139-71b |
ततः प्रहस्याधिरथिरन्यदादाय कार्मुकम्। शत्रुघ्नं समरे क्रुद्धो दृढज्यं वेगवत्तरम्।। | 5-139-72a 5-139-72b |
व्यायच्छत्स शरान्कर्णः कुन्तीपुत्रजिघांसया। सहस्रशो महाराज रुक्मपुङ्खान्सुतेजनान्।। | 5-139-73a 5-139-73b |
स वध्यमानो बलवान्कर्णचापच्युतैः शरैः। वैहायसं प्राक्रमद्धै कर्णस्य रथमाविशत्।। | 5-139-74a 5-139-74b |
स तस्य चरितं दृष्ट्वा सङ्ग्रामे विजयैषिणः। ध्वजालयस्थो राधेयो भीमसेनमवञ्चयत्।। | 5-139-75a 5-139-75b |
तमदृष्ट्वा रथोपस्थे निलीनं व्यथितेन्द्रियम्। ध्वजमस्य समारुह्य तस्मै भीमो महीतले।। | 5-139-76a 5-139-76b |
तदस्य कुरवः सर्वे चाणाश्चाभ्यपूजयन्। यदियेष रथात्कर्णं हर्तुं तार्क्ष्य इवोरगम्।। | 5-139-77a 5-139-77b |
स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन्। स्वरथं पृष्ठतः कृत्वा युद्धायैव व्यवस्थितः।। | 5-139-78a 5-139-78b |
तद्विचिन्त्य स राधेयस्तत एनं समभ्ययात्। संरम्भात्पाण्डवं सङ्ख्ये युद्धाय समुपस्थितम्।। | 5-139-79a 5-139-79b |
तौ समेतौ महाराज स्पर्धमानौ महाबलौ। जीमूताविव घर्मान्ते गर्जमानौ नरर्षभौ।। | 5-139-80a 5-139-80b |
तयोरासीत्संप्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः। अमृष्यमाणयोः सङ्ख्ये देवदानवयोरिव।। | 5-139-81a 5-139-81b |
क्षीणशस्त्रस्तु कौन्तेयः कर्णेन समभिद्रुतः। दृष्ट्वाऽर्जुनहतान्नागान्पतितान्पर्वतोपमान्। रथमार्गविघातार्थं व्यायुधः प्रविवेश ह।। | 5-139-82a 5-139-82b 5-139-82c |
हस्तिनां व्रजमासाद्य रथदुर्गं प्रविश्य च। पाण्डवो जीविताकाङ्क्षी राधेयं नाभ्यवर्तत।। | 5-139-83a 5-139-83b |
व्यवस्थानमथाकाङ्क्षन्धनञ्जयशरैर्हतम्। उद्यम्य कुञ्जरं पार्थस्तस्थौ परपुरञ्जयः।। | 5-139-84a 5-139-84b |
महौषधिसमायुक्तं हनूमानिव पर्वतम्। तमस्य विशिखैः कर्णो व्यधमत्कुञ्जरं पुनः।। | 5-139-85a 5-139-85b |
हस्त्यङ्गान्यथ कर्णाय प्राहिणोत्पाण्डुनन्दनः। चक्राण्यश्चांस्तथा चान्यद्यद्यत्पश्यति भूतले।। | 5-139-86a 5-139-86b |
तत्तदादाय चिक्षेप क्रुद्धः कर्णाय पाण्डवः। तदस्य सर्वं चिच्छेद क्षिप्तंक्षिप्तं शितैः शरैः।। | 5-139-87a 5-139-87b |
भीमोऽपि मुष्टिमुद्यम्य वज्रगर्भं सुदारुणम्। हन्तुमैच्छत्सूतपुत्रं संस्परन्नर्जुनं क्षणात्।। | 5-139-88a 5-139-88b |
शक्तोऽपि नावधीत्कर्णं समर्थः पाण्डुनन्दनः। रक्षमाणः प्रतिज्ञां तां या कृता सव्यसाचिना।। | 5-139-89a 5-139-89b |
तमेवं व्याकुलं भीमं भूयोभूयः शितैः शरैः। मूर्च्छयाभिपरीताङ्गमकरोत्सूतनन्दनः।। | 5-139-90a 5-139-90b |
व्यायुधं नावधीच्चैनं कर्णः कुन्त्या वचः स्मरन्। धनुषोग्रेण तं कर्णः सोऽभिद्रुत्य परामृशत्।। | 5-139-91a 5-139-91b |
धनुषा स्पृष्टमात्रेण क्रुद्धः सर्प इव श्वसन्। आच्छिद्य स धनुस्तस्य कर्णं मूर्धन्यताडयत्।। | 5-139-92a 5-139-92b |
ताडितो भीमसेनेन क्रोधादारक्तलोचनः। विहसन्निव राधेयो वाक्यमेतदुवाच ह।। | 5-139-93a 5-139-93b |
पुनः पुनस्तूबरक मूढ औदरिकेति च। अकृतास्त्रक मा योत्सीर्बाल सङ्ग्रामकातर।। | 5-139-94a 5-139-94b |
यत्र भोज्यं बहुविधं भक्ष्यं पेयं च पाण्डव। तत्र त्वं दुर्मते योग्यो न युद्धेषु कदाचन।। | 5-139-95a 5-139-95b |
मूलपुष्पफलाहारो व्रतेषु नियमेषु च। उचितस्त्वं वने भीम न त्वं युद्धविशारदः।। | 5-139-96a 5-139-96b |
क्व युद्वं क्व मुनित्वं च वनं गच्छ वृकोदर। न त्वं युद्धोचितस्तात वनवासरतिर्भवान्।। | 5-139-97a 5-139-97b |
सूदान्भृत्यजनान्दासांस्त्वं गृहे त्वरयन्भृशम्। योग्यस्ताडयितुं क्रोधाद्भोजनार्थं वृकोदर।। | 5-139-98a 5-139-98b |
मुनिर्भूत्वाऽथवा भीम फलान्यादत्स्व दुर्मते। वनाय व्रज कौन्तेय न त्वं युद्धविशारदः।। | 5-139-99a 5-139-99b |
फलमूलाशने शक्तस्त्वं तथाऽतिथिपूजने। न त्वां शस्त्रसमुद्योगे योग्यं मन्ये वृकोदर।। | 5-139-100a 5-139-100b |
`सञ्जय उवाच। | 5-139-101x |
एवं तं विरथं दृष्ट्वा स्मृत्वा कर्णोऽब्रवीद्वचः'।। | 5-139-101a |
कौमारे यानि वृत्तानि विप्रियाणि विशाम्पते। तानि सर्वाणि चाप्येव रूक्षाण्यश्रावयद्भृशम्।। | 5-139-102a 5-139-102b |
अथैनं तत्र संलीनमस्पृशद्धनुषा पुनः। प्रहसंश्च पुनर्वाक्यं भीममाह वृषस्तदा।। | 5-139-103a 5-139-103b |
योद्धव्यं मारिषान्यत्र न योद्धव्यं च मादृशैः। मादृशैर्युध्यमानानामेतच्चान्यच्च विद्यते।। | 5-139-104a 5-139-104b |
गच्छ वा यत्र तौ कृष्णौ तौ त्वां रक्षिष्यतो रणे। गृहं वा गच्छ कौन्तेय किं ते युद्धेन बालक।। | 5-139-105a 5-139-105b |
सञ्जय उवाच। | 5-139-106x |
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा भीमसेनोऽतिदारुणम्। उवाच कर्णं प्रहसन्सर्वेषां शृण्वतां वचः।। | 5-139-106a 5-139-106b |
जितस्त्वमसकृद्दुष्ट कत्थसे किं वृथात्मना। जयाजयौ महेन्द्रस्य लोके दृष्टौ पुरातनैः।। | 5-139-107a 5-139-107b |
मल्लयुद्धं मया सार्धं कुरु दुष्कुलसम्भव। महाबलो महाभोगी कीचको निहतो यथा। तथा त्वां घातयिष्यामि पश्यत्सु सर्वराजसु।। | 5-139-108a 5-139-108b 5-139-108c |
भीमस्य मतमाज्ञाय कर्णो बुद्धिमतां वरः। विरराम रणात्तस्मात्पश्यतां सर्वधन्विनाम्।। | 5-139-109a 5-139-109b |
एवं तं विरथं कृत्वा कर्णो राजन्व्यकत्थयत्। प्रसुखे वृष्णिसिंहस्य पार्थस्य च महात्मनः।। | 5-139-110a 5-139-110b |
तं ब्रुवाणं तु भीमः स काङ्क्षन्भीमपराक्रमः। न चाकार्षीन्मृतं स्मृत्वा ह्यर्जुनस्य महाबलम्।। | 5-139-111a 5-139-111b |
तस्य कार्मुकमारुज्य बभञ्जाशुपराक्रमी।। | 5-139-112a |
ततो दृष्ट्वा महाराज वासुदेवो महाद्युतिः। अर्जुनार्जुन पश्येमं भीमं कर्णेन बाधितम्।। | 5-139-113a 5-139-113b |
सञ्जय उवाच। | 5-139-114x |
एवमुक्तस्तदा पार्थः केशवेन महात्मना। भीमसेनं तथाभूतं क्रोधसंरक्तलोचनः। अमर्षवशमापन्नो निर्दहन्निव चक्षुषा'।। | 5-139-114a 5-139-114b 5-139-114c |
ततो राजञ्शिलाधौताञ्शराञ्शाखामृगध्वजः। प्राहिणोत्सूतपुत्राय केशवेन प्रचोदितः।। | 5-139-115a 5-139-115b |
ततः पार्थभुजोत्सृष्टाः शराः कनकभूषणाः। गाण्डीवप्रभवाः कर्णं हंसाः क्रौञ्चमिवाविशन्।। | 5-139-116a 5-139-116b |
स भुजङ्गैरिवाविष्टैर्गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। भीमसेनादपासेधत्सूतपुत्रं धनञ्जयः।। | 5-139-117a 5-139-117b |
स च्छिन्नधन्वा भीमेन धनञ्जयशराहतः। कर्णो भीमादपायासीद्रथेन महता द्रुतम्।। | 5-139-118a 5-139-118b |
भीमोऽपि सात्यकेर्वाहं समारुह्य नरर्षभः। अन्वयाद्धातरं सङ्ख्ये पाण्डवं सव्यसाचिनम्।। | 5-139-119a 5-139-119b |
ततः कर्णं समुद्दिश्य त्वरमाणो धनञ्चयः। नाराचं क्रोधताम्राक्षः प्रैषीन्मृत्युमिवान्तकः।। | 5-139-120a 5-139-120b |
स गरुत्मानिवाकशे प्रार्थयन्भुजगोत्तमम्। नाराचोऽभ्यपतत्कर्णं तूर्णं गाण्डीवचोदितः।। | 5-139-121a 5-139-121b |
तमन्तरिक्षे नाराचं द्रौणिश्चिच्छेद पत्रिणा। धनञ्जयभयात्कर्णमुज्जिहीर्षन्महारथः।। | 5-139-122a 5-139-122b |
ततो द्रौणिं चतुःषष्ट्या विव्याध कुपितोऽर्जुनः। शिलीमुखैर्महाराज मागास्तिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-139-123a 5-139-123b |
स तु मत्तगजाकीर्णमनीकं रथसङ्कुलम्। तूर्णमभ्याविशद्द्रौणिर्धनञ्जयशरार्दितः।। | 5-139-124a 5-139-124b |
ततः सुवर्णपृष्ठानां चापानां कूजतां रणे। शब्दं गाण्डीवघोषेण कौन्तेयोऽभ्यभवद्बली।। | 5-139-125a 5-139-125b |
धनञ्जयस्तथाऽऽयान्तं पृष्ठतो द्रौणिमभ्यगात्। नातिदीर्घमिवाध्वानं शरैः सन्त्रासयन्बलम्।। | 5-139-126a 5-139-126b |
विदार्य देहान्नाराचैर्नरवारणवाजिनाम्। कङ्कबर्हिणवासोभिर्बलं व्यधमदर्जुनः।। | 5-139-127a 5-139-127b |
तद्बलं भरतश्रेष्ठ सवाजिद्विपमानवम्। पाकशासनिरायत्तः पार्थः स निजघान ह।। | 5-139-128a 5-139-128b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 139 ।। |
5-139-46 उपारोहत्सन्निकर्षमगात्।। 5-139-47 वायुभूतानि वातोद्भूतान्यतिवेगवन्ति वा।। 5-139-74 वैहायसमाकाशम्।। 5-139-75 लयमङ्गसङ्कोचम्।। 5-139-87 तद्रथादिसाधनम्।। 5-139-88 वज्रगर्भमन्तर्विहिताङ्गुष्ठम्।। 5-139-89 समर्थः समीचीनार्थो धर्मापेक्षीति यावत्।। 5-139-94 तूबरकः पुंश्चिह्नरहितः षण्ड इतियावत्। तूबरोऽश्मश्रुपुरुषे इत्युपक्रम्य पुरुषव्यञ्जनत्यक्तो इति मेदिनी। औदरिको बह्वाशी।। 5-139-96 व्रतेषु नियमेषु आगन्तुकेषु।। 5-139-103 संलीनं सङ्कुचिताङ्गम्।। 5-139-110 व्यकत्थयत् भर्त्सितवान्।। 5-139-139 एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-138 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-140 |