महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-159
दिखावट
← द्रोणपर्व-158 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-159 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-160 → |
|
कर्णेन पाण्डवहननं प्रतिजानानमात्मानमधिक्षिपतः कृपस्य जिह्वाच्छेदप्रतिज्ञानम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-159-1x |
उदीर्यमाणं तद्दृष्ट्वा पाण्डवानां महद्बलम्। अविषह्यं च मन्वानः कर्णं दुर्योधनोऽब्रवीत्।। | 5-159-1a 5-159-1b |
अयं स कालः सम्प्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल। त्रायस्व समरे कर्ण सर्वान्योधान्महारथान्।। | 5-159-2a 5-159-2b |
पाञ्चालैर्मत्स्यकैकेयैः पाण्डवैश्च महारथैः। वृतान्समन्तात्सह्क्रुद्धैर्निः श्वसद्भिरिवोरगैः।। | 5-159-3a 5-159-3b |
एते नदन्ति संहृष्टाः पाण्डवा जितकाशिनः। शक्रोपमाश्च बहवः पाञ्चालानां रथव्रजाः।। | 5-159-4a 5-159-4b |
कर्ण उवाच। | 5-159-5x |
परित्रातुमिह प्राप्तो यदि पार्थं पुरन्दरः। तमप्याशु पराजित्य ततो हन्ताऽस्मि पाण्डवम्।। | 5-159-5a 5-159-5b |
सत्यं ते प्रतिजानामि समाश्वसिहि भारत। हन्तास्मि पाण्डुतनयान्पाञ्चालांश्च समागतान्।। | 5-159-6a 5-159-6b |
जयं ते प्रतिदास्यामि वासवस्येव पावकिः। प्रियं तव मया कार्यमिति जीवामि पार्थिव।। | 5-159-7a 5-159-7b |
सर्वेषामेव पार्थानां फल्गुनो बलवत्तरः। तस्यामोघां विमोक्ष्यामिशक्तिं शक्रविनिर्मितां।। | 5-159-8a 5-159-8b |
तस्मिन्हते महेष्वासे भ्रातरस्तस्य मानद। तव वश्या भविष्यन्ति वनं यास्यन्ति वा पुनः।। | 5-159-9a 5-159-9b |
मयि जीवति कौरव्य विषादं मा कृथाः क्वचित्। अहं जेष्यामि समरे सहितान्सर्वपाण्डवान्।। | 5-159-10a 5-159-10b |
पाञ्चालान्केकयांश्चैव वृष्णींश्चापि समागतान्। बाणौघैः शकलीकृत्य तव दास्यामि मेदिनीम्।। | 5-159-11a 5-159-11b |
सञ्जय उवाच। | 5-159-12x |
एवं ब्रुवाणं कर्णं तु कृपः शारद्वतोऽब्रवीत्। स्मयन्निव महाबाहुः सूतपुत्रमिदं वचः।। | 5-159-12a 5-159-12b |
शोभनं शोभनं कर्ण सनाथः कुरुपुङ्गवः। त्वया नाथेन राधेय वचसा यदि सिध्यति।। | 5-159-13a 5-159-13b |
बहुशः कत्थसे कर्ण कौरवस्य समीपतः। न तु ते विक्रमः कश्चिद्दृश्यते फलमेव वा।। | 5-159-14a 5-159-14b |
समागमः पाण्डुसुतैर्दृष्टस्ते बहुशो युधि। सर्वत्र निर्जितश्चासि पाण्डवैः सूतनन्दन।। | 5-159-15a 5-159-15b |
हियमाणे तदा कर्ण गन्धर्वैर्धृतराष्ट्रजे। तदाऽयुध्यन्त सैन्यानि त्वमेकोऽग्रेऽपलायिथाः।। | 5-159-16a 5-159-16b |
विराटनगरे चापि समेताः सर्वकौरवाः। पार्थेन निर्जिता युद्धे त्वं च कर्ण सहानुजः।। | 5-159-17a 5-159-17b |
एकस्याप्यसमर्थस्त्वं फल्गुनस्य रणाजिरे। कथमुत्सहसे जेतुं सकृष्णान्सर्वपाण्डवान्।। | 5-159-18a 5-159-18b |
अब्रुवन्कर्ण युध्यस्व कत्थसे बहु सूतज। अनुक्त्वा विक्रमेद्यस्तु तद्वै सत्पुरुषव्रतम्।। | 5-159-19a 5-159-19b |
गर्जित्वा सूतपुत्र त्वं शारदाभ्र इवाजलः। निष्फलो दृश्यसे कर्ण तच्च राजा न बुध्यते।। | 5-159-20a 5-159-20b |
तावद्गर्जस्व राधेय यावत्पार्थं न पश्यसि। आरात्पार्थं हि ते दृष्ट्वा दुर्लभं गर्जितं पुनः।। | 5-159-21a 5-159-21b |
त्वमनासाद्य तान्बाणान्फल्गुनस्य विगर्जसि। पार्थसायकविंद्धस्य दुर्लभं गर्जितं तव।। | 5-159-22a 5-159-22b |
बाहुभिः क्षत्रियाः शूरा वाग्भिः शूरा द्विजातयः। धनुषा फल्गुनः शूरः कर्णः शूरो मनोरथैः। तोषितो येन रुद्रोऽपि कः पार्थं प्रतिघातयेत्।। | 5-159-23a 5-159-23b 5-159-23c |
एवं संरुषितस्तेन तदा शारद्वतेन ह। कर्णः प्रहरतां श्रेष्ठः कृपं वाक्यमथाब्रवीत्।। | 5-159-24a 5-159-24b |
शूरा गर्जन्ति सततं प्रावृषीव वलाहकाः। फलं चाशु प्रयच्छन्ति बीजमुप्तमनूषरे।। | 5-159-25a 5-159-25b |
दोषमत्र न पश्यामि शूराणां रणमूर्धनि। तत्तद्विकत्थमानानां भारं चोद्वहतां मृधे।। | 5-159-26a 5-159-26b |
यं भारं पुरुषो वोढुं मनसा हि व्यवस्यति। दैवमस्य ध्रुवं तत्र साहाय्यायोपपद्यते।। | 5-159-27a 5-159-27b |
व्यवसायद्वितीयोऽहं मनसा भारमुद्वहन्। हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सकृष्णान्सहसात्वतान्। गर्जामि यद्यहं विप्र तव किं तत्र नश्यति।। | 5-159-28a 5-159-28b 5-159-28c |
वृथा शूरा न गर्जन्ति सजला इव तोयदाः। सामर्थ्यमात्मनो ज्ञात्वा ततो गर्जन्ति पण्डिताः।। | 5-159-29a 5-159-29b |
सोऽहमद्य रणे यत्तौ सहितौ कृष्मपाण्डवौ। उत्सहामि रणे जेतुं ततो गर्जामि गौतम।। | 5-159-30a 5-159-30b |
पश्य त्वं गर्जितस्यास्य फलं मे विप्र सानुगान्। हत्वा पाण्डुसुतानाजौ सहकृष्णान्ससात्वतान्। दुर्योधनाय दास्यामि पृथिवीं हतकण्टकाम्।। | 5-159-31a 5-159-31b 5-159-31c |
कृप उवाच। | 5-159-32x |
मनोरथप्रलापा मे न ग्राह्यास्तव सूतज।। | 5-159-32a |
सदा क्षिपसि वै कृष्णौ धर्मराजं च पाण्डवम्। ध्रुवस्तत्र जयः कर्ण यत्र युद्धविशारदौ।। | 5-159-33a 5-159-33b |
देवगन्धर्वयक्षाणां मनुष्योरगरक्षसाम्। दंशितानामपि रणे अजेयौ कृष्णपाण्डवौ।। | 5-159-34a 5-159-34b |
ब्रह्मण्यः सत्यवाग्दान्तो गुरुदैवतपूजकः। नित्यं धर्मरतश्चैव कृतास्त्रश्च विशेषतः।। | 5-159-35a 5-159-35b |
धृतिमांश्च कृतज्ञश्च धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। भ्रातरश्चास्य बलिनः सर्वास्त्रेषु कृतश्रमाः।। | 5-159-36a 5-159-36b |
गुरुवृत्तिरताः प्राज्ञा धर्मनित्या यशस्विनः। सम्बन्धिनश्चेन्द्रवीर्याः स्वनुर्ताः प्रहारिणः।। | 5-159-37a 5-159-37b |
धृष्टद्युम्नः शिखण्डी च दौर्मुखिर्जनमेजयः। चन्द्रसेनो रुद्रसेनः कीर्तिधर्मा ध्रुवो धरः।। | 5-159-38a 5-159-38b |
वसुचन्द्रो दामचन्द्रः सिंहचन्द्रः सुतेजनः। द्रुपदस्य तथा पुत्रा द्रुपदश्च महास्त्रवित्।। | 5-159-39a 5-159-39b |
येषामर्थाय संयत्तो मत्स्यराजः सहानुजः। शतानीकः सूर्यदत्तः श्रुतानीकः श्रुतध्वजः।। | 5-159-40a 5-159-40b |
बलानीको जयानीको जयाश्वो रथवाहनः। चन्द्रोदयः समरथो विराटभ्रातरः शुभाः।। | 5-159-41a 5-159-41b |
यमौ च द्रौपदेयाश्च राक्षसश्च घटोत्कचः। येषामर्थाय युध्यन्ते न तेषां विद्यते क्षयः।। | 5-159-42a 5-159-42b |
एते चान्ये च बहवो गणाः पाण्डुसुतस्य वै।। | 5-159-43a |
कामं खलु जगत्सर्वं सदेवासुरमानुषम्। सयक्षराक्षसगणं सभूतभुजगद्विपम्। निःशेषमस्त्रवीर्येण कुर्वाते भीमफल्गुनौ।। | 5-159-44a 5-159-44b 5-159-44c |
युधिष्ठिरश्च पृथिवीं निर्दहेद्धोरचक्षुषा।। | 5-159-45a |
अप्रमेयबलः शौरिर्येषामर्थे च दंशितः। कथं तान्संयुगे कर्ण जेतुमुत्सहसे परान्।। | 5-159-46a 5-159-46b |
महानपनयस्त्वेष नित्यं हि तव सूतज। यस्त्वमुत्सहसे योद्धुं समरे शौरिणा सह।। | 5-159-47a 5-159-47b |
सञ्जय उवाच। | 5-159-48x |
एवमुक्तस्तु राधेयः प्रहसन्भरतर्षभ। अब्रवीच्च तदा कर्णो गुरं शारद्वतं कृपम्।। | 5-159-48a 5-159-48b |
सत्यमुक्तं त्वया ब्रह्मन्पाण्डवान्प्रति यद्वचः। एते चान्ये च बहवो गुणाः पाण्डुसुतेषु वै।। | 5-159-49a 5-159-49b |
अजय्याश्च रणे पार्था देवैरपि सवासवैः। सदैत्ययक्षगन्धर्वैः पिशाचोरगराक्षसैः।। | 5-159-50a 5-159-50b |
तथापि पार्थाञ्जेष्यामि शक्त्या वासवदत्तया। मम ह्यमोघा दत्तेयं शक्तिः शक्रेण वै द्विज। एतया निहनिष्यामि सव्यसाचिनमाहवे।। | 5-159-51a 5-159-51b 5-159-51c |
हते तु पाण्डवे कृष्णे भ्रातरश्चास्य सोदराः। अनर्जुना न शक्ष्यन्ति महीं भोक्तुं कथञ्चन।। | 5-159-52a 5-159-52b |
तेषु नष्टेषु सर्वेषु पृथिवीयं ससागरा। अयत्नात्कौरवेन्द्रस्य वशे स्थास्यति गौतम्।। | 5-159-53a 5-159-53b |
सुनीतैरिह सर्वार्थाः सिध्यन्ते नात्र संशयः। एतमर्थमहं ज्ञात्वा ततो गर्जामि गौतम।। | 5-159-54a 5-159-54b |
त्वं तु विप्रश्च वृद्धश्च अशक्तश्चापि संयुगे। कृतस्नेहश्च पार्थेषु मोहान्मामवमन्यसे।। | 5-159-55a 5-159-55b |
यद्येवं वक्ष्यसे भूयो ममाप्रियमिह द्विज। ततस्ते खङ्गमुद्यम्य जिह्वां छेत्स्यामि दुर्मते।। | 5-159-56a 5-159-56b |
यच्चापि पाण्डवान्विप्र स्तोतुमिच्छसि संयुगे। भीषयन्सर्वसैन्यानि कौरवेयांश्च दुर्मते।। | 5-159-57a 5-159-57b |
अत्रापि शृणु मे वाक्यं यथावद्ब्रुवतो द्विज। दुर्योधनश्च द्रोणश्च शकुनिर्दुर्मुखो जयः।। | 5-159-58a 5-159-58b |
दुःशासनो वृषसेनो मद्राजस्त्वमेव च। सोमदत्तश्च भूरिश्च तथा द्रौणिर्विविंशतिः।। | 5-159-59a 5-159-59b |
तिष्ठेयुर्दंशिता यत्रा सर्वे युद्धविशारदाः। जयेदेतान्नरः को नु शक्रतुल्यबलोऽप्यरिः।। | 5-159-60a 5-159-60b |
शूराश्च हि कृतास्त्राश्च बलिनः स्वर्गलिप्सवः। धर्मज्ञा युद्धकुशला हन्युर्युद्धे सुरानपि।। | 5-159-61a 5-159-61b |
एते स्थास्यन्ति सङ्ग्रामे पाण्डवानां वधार्थिनः। जयमाकाङ्क्षमाणा हि कौरवेयस्य दंशिताः।। | 5-159-62a 5-159-62b |
दैवायत्तमहं मन्ये जयं सुबलिनामपि। यत्र भीष्मो महाबाहुः शेते शरशताचितः।। | 5-159-63a 5-159-63b |
विकर्णश्चित्रसेनश्च बाह्लीकोऽथ जयद्रथः। भूरिश्रवा जयश्चैव जलसन्धः सुदक्षिणः।। | 5-159-64a 5-159-64b |
शलश्च रथिनां श्रेष्ठो भगदत्तश्च वीर्यवान्। एते चान्ये च राजानो देवैरपि सुदुर्जयाः।। | 5-159-65a 5-159-65b |
निहताः समरे शूराः पाण्डवैर्बलवत्तराः। किमन्यद्दैवसंयोगान्मन्यसे पुरुषाधम।। | 5-159-66a 5-159-66b |
यांश्च तांस्तौषि सततं दुर्योधनरिपून्द्विज। तेषामपि हताः शूराः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-159-67a 5-159-67b |
क्षीयन्ते सर्वसैन्यानि कुरूणां पाण्डवैः सह। प्रभावं नात्र पाश्यामि पाण्डवानां कथञ्चन।। | 5-159-68a 5-159-68b |
यस्तान्बलवतो नित्यं मन्यसे त्वं द्विजाधम। यतिष्येऽहं यथाशक्ति योद्धुं तैः सह संयुगे। दुर्योधनहितार्थाय जयो दैवे प्रतिष्ठितः।। | 5-159-69a 5-159-69b 5-159-69c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 159 ।। |
द्रोणपर्व-158 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-160 |