महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-122
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सात्यकिभयात्पलायमानस्य दुश्शासनस्य द्रोणेनोपालम्भः।। 1 ।। द्रोणधृष्टद्युम्नयोर्युद्धम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-122-1x |
दुःशासनरथं दृष्ट्वा समीपे पर्यवस्थितम्। भारद्वाजस्ततो वाक्यं दुःशासनमथाब्रवीत्।। | 5-122-1a 5-122-1b |
दुःशासन रथाः सर्वे कस्माच्चैते प्रविद्रुताः। कच्चित्क्षेमं तु नृपतेः कच्चिज्जीवति सैन्धवः।। | 5-122-2a 5-122-2b |
राजपुत्रो भवानत्र राजभ्राता महारथः। किमर्थं द्रवते युद्धे यौवराज्यमवाप्य च।। | 5-122-3a 5-122-3b |
दासी जिताऽसि द्यूते त्वं यथा कामचरी भव। वाससां वाहिका राज्ञो भ्रातुर्ज्येष्ठस्य मे भव।। | 5-122-4a 5-122-4b |
न सन्ति पतयः सर्वे तेऽद्य षण्ढतिलैः समाः। दुःशासनैवं कस्मात्त्वं पूर्वमुक्त्वा पलायसे।। | 5-122-5a 5-122-5b |
स्वयं वैरं महत्कृत्वा पाञ्चालैः पाण्डवैः सह। एकं सात्यकिमासाद्य कथं भीतोऽसि संयुगे।। | 5-122-6a 5-122-6b |
न जानीषे पुरा त्वं तु गृह्णन्नक्षान्दुरोदरे। शरा ह्येते भविष्यन्ति दारुणाशीविषोपमाः।। | 5-122-7a 5-122-7b |
अप्रियाणां हि वचनं पाण्डवस्य विशेषतः। द्रौपद्याश्च परिक्लेशस्त्वन्मूलो ह्यभवत्पुरा।। | 5-122-8a 5-122-8b |
क्व ते मानश्च दर्पश्च क्व ते वीर्यं क्व गर्जितम्। आशीविषसमान्पार्थान्कोपयित्वा क्व यास्यसि।। | 5-122-9a 5-122-9b |
शोच्येयं भारती सेना राज्यं चैव सुयोधनः। यस्य त्वं कर्कशो भ्राता पलायनपरायणः।। | 5-122-10a 5-122-10b |
ननु नाम त्वया वीर दार्यमाणा भयार्दिता। स्वबाहुबलमास्थाय रक्षितव्या ह्यनीकिनी।। | 5-122-11a 5-122-11b |
स त्वमद्य रणं हित्वा भीतो हर्षयसे परान्। विद्रुते त्वयि सैन्यस्य नायके शत्रुमूदन। कोऽन्यः स्थास्यति सङ्ग्रामे भीतो भीते व्यपाश्रये।। | 5-122-12a 5-122-12b 5-122-12c |
एकेन सात्वतेनाद्य युध्यमानस्य तेन वै। पलायने तव मतिः सङ्ग्रामाद्धि प्रवर्तते।। | 5-122-13a 5-122-13b |
यदा गाण्डीवधन्वानं भीमसेनं च कौरव। यमौ च द्रक्ष्यसि रणे तदा वै किं करिष्यसि।। | 5-122-14a 5-122-14b |
युधि फल्गुनबाणानां मूर्याग्निसमवर्चसाम्। न तुल्याः सात्यकिशरा येभ्यो भीतः पलायसे।। | 5-122-15a 5-122-15b |
त्वरितो वीर गच्छ त्वं गान्धार्युदरमाविश। पृथिव्यां धावमानस्य नान्यत्पश्यामि जीवनम्।। | 5-122-16a 5-122-16b |
यदि तावत्कृता बुद्धिः पलायनपरायणा। पृथिवी धर्मराजाय शमेनैव प्रदीयताम्।। | 5-122-17a 5-122-17b |
यावत्फल्गुननाराचा निर्मुक्तोरगसन्निभाः। नाविशन्ति शरीरं ते तावत्संशाम्य पाण्डवैः।। | 5-122-18a 5-122-18b |
यावत्ते पृथिवीं पार्था हत्वा भ्रातृशतं रणे। नाक्षिपन्ति महात्मानस्तावत्संशाम्य पाण्डवैः।। | 5-122-19a 5-122-19b |
यावन्न क्रुध्यते राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। कृष्णश्च समरश्लाघी तावत्संशाम्य पाण्डवैः।। | 5-122-20a 5-122-20b |
यावद्भीमो महाबाहुर्विगाह्य महतीं चमूम्। सोदरांस्ते न मृद्राति तावत्संशाम्य पाण्डवैः।। | 5-122-21a 5-122-21b |
पूर्वमुक्तश्च ते भ्राता भीष्मेणासौ सुयोधनः। अजेयाः पाण्डवाः सङ्ख्ये सौम्य संशाम्य तैः सह।। | 5-122-22a 5-122-22b |
`मया शमवता चोक्तो रक्ष शेषं सुयोधन। संशाम्य पार्थैस्त्वं रक्ष वीर सर्वान्महीक्षितः'।। | 5-122-23a 5-122-23b |
न च तत्कृतवान्मन्दस्तव भ्रातां सुयोधनः। स युद्धे धृतिमास्थाय यत्तो युध्यस्व पाण्डवैः।। | 5-122-24a 5-122-24b |
तवापि शोणितं भीमः पास्यतीति मया श्रुतम्। तच्चाप्यवितथं तस्य तत्तथैव भविष्यति।। | 5-122-25a 5-122-25b |
किं भीमस्य न जानासि विक्रमं त्वं सुबालिश। यत्त्वया वैरमारब्धं संयुगे प्रपलायिना।। | 5-122-26a 5-122-26b |
गच्छ तूर्णं रथेनैव यत्र तिष्ठति सात्यकिः। त्वया हीनं बलं ह्येतद्विद्रविष्यति भारत।। आत्मार्थं योधय रणे सात्यकिं सत्यविक्रमम्।। | 5-122-27a 5-122-27b 5-122-27c |
सञ्जय उवाच। | 5-122-28x |
एवमुक्तस्तव सुतो नाब्रवीत्किञ्चिदप्यसौ। श्रुतं चाश्रुतवत्कृत्वा प्रायाद्येन स सात्यकिः।। | 5-122-28a 5-122-28b |
सैन्येन महता युक्तो म्लेच्छानामनिवर्तिनाम्। आसाद्य च रणे यत्तो युयुधानमयोधयत्।। | 5-122-29a 5-122-29b |
द्रोणोऽपि रथिनां श्रेष्ठः पाञ्चालान्पाण्डवांस्तथा। अभ्यद्रवत सङ्क्रुद्धौ जवमास्थाय मध्यमम्।। | 5-122-30a 5-122-30b |
प्रविश्य च रणे द्रोणः पाण्डवानां वरूथिनीम्। द्रावयामास योधान्वै शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-122-31a 5-122-31b |
ततो द्रोणो महाराज नाम विश्राव्य संयुगे। पाण्डुपाञ्चालमत्स्यानां प्रचक्रे कदनं महत्।। | 5-122-32a 5-122-32b |
तं जयन्तमनीकानि भारद्वाजं ततस्ततः। पाञ्चालपुत्रो द्युतिमान्वीरकेतुः समभ्ययात्।। | 5-122-33a 5-122-33b |
स द्रोणं पञ्चभिर्विद्व्वा शरैः सन्नतपर्वभिः। ध्वजमेकेन विव्याध सारथिं चास्य सप्तभिः।। | 5-122-34a 5-122-34b |
तत्राद्भुतं महाराज दृष्ट्वानस्मि संयुगे। यद्द्रोणो रभसं युद्धे पाञ्चाल्यं नात्यवर्तत।। | 5-122-35a 5-122-35b |
सन्निरुद्धं रमे द्रोणं पाञ्चला वीक्ष्य मारिष। आवव्रुः सर्वतो राजन्धर्मपुत्रजयैषिणः।। | 5-122-36a 5-122-36b |
ते शरैरग्निसंकाशैस्तोमरैश्च महाधनैः। शस्त्रैश्च विविधै राजन्द्रोणमेकमवाकिरन्।। | 5-122-37a 5-122-37b |
निवार्य तान्बाणगणान्द्रोणो राजन्समन्ततः। महाजलधरान्व्योम्नि मातरिश्वेव चाबभौ।। | 5-122-38a 5-122-38b |
ततः शरं महाघोरं मूर्यपावकसन्निभम्। सन्दधे परवीरघ्नो वीरकेतो रथं प्रति।। | 5-122-39a 5-122-39b |
स भित्त्वा तु शरो राजन्पाञ्चालकुलनन्दनम्। अभ्यगाद्धरणीं तूर्णं लोहितार्द्रो ज्वलन्निव।। | 5-122-40a 5-122-40b |
ततोऽपतद्रथात्तूर्णं पाञ्चालकुलनन्दनः। पर्वताग्रादिव महांश्चम्पको वायुपीडितः।। | 5-122-41a 5-122-41b |
तस्मिन्हते महेष्वासे राजपुत्रे महाबले। पाञ्चालास्त्वरिता द्रोणं समन्तात्पर्यवारयन्।। | 5-122-42a 5-122-42b |
चित्रकेतुः सुधन्वा च चित्रवर्मा च भारत। तथा चित्ररथश्चैव भ्रातृव्यसनकर्शिताः।। | 5-122-43a 5-122-43b |
अभ्यद्रवन्त सहिता भारद्वाजं युयुत्सवः। मुञ्चन्तः शरवर्षाणि तपान्ते जलदा इव।। `अदृश्यं समरे चक्रुर्भारद्वाजं सुधन्विनः'।। | 5-122-44a 5-122-44b 5-122-44c |
स वध्यमानो बहुधा राजपुत्रैर्महारथैः। क्रोधमाहारयत्तेषामभावाय द्विजर्षभः।। | 5-122-45a 5-122-45b |
ततः शरमयं जालं द्रोणस्तेषामवासृजत्। ते हन्यमाना द्रोणस्य शरैराकर्णचोदितैः। कर्तव्यं नाभ्यजानन्वै कुमारा राजसत्तम।। | 5-122-46a 5-122-46b 5-122-46c |
तान्विमूढान्रणे द्रोणः प्रहसन्निव भारत। व्यश्वसूतरथांश्चक्रे कुमारान्कुपितो रणे।। | 5-122-47a 5-122-47b |
अथापरैः सुनिशितैर्भल्लैस्तेषां महायशाः। पुष्पाणीव विवान्वायुः सोत्तमाङ्गान्यपातयत्।। | 5-122-48a 5-122-48b |
ते रथेभ्यो हताः पेतुः क्षितौ राजन्सुवर्चसः। देवासुरे पुरा युद्धे यथा दैतेयदानवाः।। | 5-122-49a 5-122-49b |
तान्निहत्य रणे राजन्भारद्वाजः प्रतापवान्। कार्मुकं भ्रामयामास हेमपृष्ठं दुरासदम्।। | 5-122-50a 5-122-50b |
`तदस्य भ्राजते राजन्मेघमध्ये तडिद्यथा'।। | 5-122-51a |
पाञ्चालान्निहतान्दृष्ट्वा देवकल्पान्महारथान्। धृष्टद्युम्नो भृशोद्विग्नो नेत्राभ्यां पातयञ्जलम्। अभ्यवर्तत सङ्गारमे क्रुद्धो द्रोणरथं प्रति।। | 5-122-52a 5-122-52b 5-122-52c |
ततो हाहेति सहसा नादः समभवन्नृप। पाञ्चाल्येन रणे दृष्ट्वा द्रोणमावारितं शरैः।। | 5-122-53a 5-122-53b |
से च्छाद्यमानो बहुधा पार्षतेन महात्मना। न विव्यथे ततो द्रोणः स्मयन्नेवान्वयुध्यत।। | 5-122-54a 5-122-54b |
ततो द्रोणं महाराज पाञ्चाल्यः क्रोधमूर्च्छितः। आजघानोरसि क्रुद्धो नवत्या नतपर्वणाम्।। | 5-122-55a 5-122-55b |
स गाढविद्धो बलिना भारद्वाजो महायशाः। निषसाद रथोपस्थे कश्मलं च जगाम ह।। | 5-122-56a 5-122-56b |
तं वै तथागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नः पराक्रमी। चापमुत्सृज्य शीघ्रं तु असिं जग्राह वीर्यवान्।। | 5-122-57a 5-122-57b |
अवप्लुत्य रथाच्चापि त्वरितः स महारथः। आरुरोह रथं तूर्णं भारद्वाजस्य मारिष। हर्तुमिच्छञ्शिरः कायात्क्रोधसंरक्रलोचनः।। | 5-122-58a 5-122-58b 5-122-58c |
प्रत्याश्वस्तस्ततो द्रोणो धनुर्गृह्य महारवम्। आसन्नमागतं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नं जिघांसया।। | 5-122-59a 5-122-59b |
शरैर्वैतस्तिकै राजन्विव्याधासन्नवेधिभिः। योधयामास समरे धृष्टद्युम्नं महारथम्।। | 5-122-60a 5-122-60b |
ते हि वैतस्तिका नाम शरा आमन्नयोधिनः। द्रोणस्य विहिता राजन्यैर्धृष्टद्युम्नमाक्षिणोत्।। | 5-122-61a 5-122-61b |
स वध्यमानो बहुभिः सायकैस्तैर्महाबलः। अवप्लुत्य रथात्तूर्णं भग्नवेगः पराक्रमी।। | 5-122-62a 5-122-62b |
आरुह्य स्वरथं वीरः प्रगृह्य च महद्धनुः। विव्याध समरे द्रोणं धृष्टद्युम्नो महारथः।। | 5-122-63a 5-122-63b |
द्रोणश्चापि महाराज शरैर्विव्याध पार्षतम्।। | 5-122-64a |
तदद्भुतमभूद्युद्धं द्रोणपाञ्चालयोस्तदा। त्रैलोक्यकाङ्क्षिणोरासीच्छक्रप्रह्लादयोरिव।। | 5-122-65a 5-122-65b |
मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च। चरन्तौ युद्धमार्गज्ञौ ततक्षतुरथेषुभिः।। | 5-122-66a 5-122-66b |
मोहयन्तौ मनांस्याजौ योधानां द्रोणपार्षतौ। सृजन्तौ शरवर्षाणि वर्षास्विव बलाहकौ। छादयन्तौ महात्मानौ शरैर्व्योम दिशो महीम्।। | 5-122-67a 5-122-67b 5-122-67c |
तदद्भुतं तयोर्युद्धं भूतसङ्घा ह्यपूजयन्। क्षत्रियाश्च महाराज ये चान्ये तव सैनिकाः।। | 5-122-68a 5-122-68b |
अवश्यं समरे द्रोणो दृष्टद्युम्नेन सङ्गतः। वशमेष्यति नो राजन्पाञ्चाला इति चुक्रुशुः।। | 5-122-69a 5-122-69b |
द्रोणस्तु त्वरितो युद्धे धृष्टद्युम्नस्य सारथेः। शिरः प्रच्यावयामास फलं पक्वं तरोरिव।। | 5-122-70a 5-122-70b |
ततस्तु प्रद्रुता वाहा राजंस्तस्य महात्मनः।। | 5-122-71a |
तेषु प्रद्रवमाणेषु पाञ्चालान्सृञ्जयांस्तथा। अयोधयद्रणे द्रोणस्तत्रतत्र पराक्रमी।। | 5-122-72a 5-122-72b |
विजित्य पाण्डुपाञ्चालान्भारद्वाजः प्रतापवान्। स्वं व्यूहं पुनरास्थाय स्थितोऽभवदरिन्दमः। न चैनं पाण्डवा युद्धे जेतुमुत्सेहिरे प्रभो।। | 5-122-73a 5-122-73b 5-122-73c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 122 ।। |
5-122-48 विशेषेण वातीति विवान्। पुष्पाणीव वनाद्वायुः इति ट.पाठः। पुष्पाणीव विचन्वन्हि इति झ.ञ. पाठः।। 5-122-61 द्रोणस्य विविधा राजन् इति ट. पाठः। द्रोणस्य विदिता इति क. पाठः।। 5-122-122 द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 122 ।।
द्रोणपर्व-121 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-123 |