महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-051
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युधिष्ठिरस्याभिमन्युमनुशोच्य विलापः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-51-1x |
हते तस्मिन्महावीर्ये सौभद्रे रथयूथपे। विमुक्तरथसन्नाहाः सर्वे निक्षिप्तकार्मुकाः।। | 5-51-1a 5-51-1b |
उपोपविष्टा राजानं परिवार्य युधिष्ठिरम्। तदेव युद्धं ध्यायन्तः सौभद्रगतमानसाः।। | 5-51-2a 5-51-2b |
ततो युधिष्ठिरो राजा विललाप सुदुःखितः। ततो युधिष्ठिरो राजा विललाप सुदुःखितः। | 5-51-3a 5-51-3b |
अभिमन्यौ हते वीरे भ्रातुः पुत्रे महारथे।। | 5-51-4a |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-51-4x |
एनं जित्वा कृपं शल्यं राजानं च सुयोधनम्। द्रोँणं द्रौणिं महेष्वासं तथैवान्यान्महारथान्।। | 5-51-4a 5-51-4b |
द्रोणानीकमसम्बाधं मम प्रियचिकीर्षया। `हत्वा शत्रुगणान्वीरानेष शेते महारथः।। | 5-51-5a 5-51-5b |
कृतास्त्रयु द्धकुशलान्महेष्वासान्महाबलान्। कुलशः पूणैर्युक्ताञ्छूरान्विख्यातपौरुषान्।। | 5-51-6a 5-51-6b |
द्रोणेन र्प्राहेतं व्यूहमभेद्यममरैरपि। अदृष्टपूर्वमस्माभिः पद्मं चक्रायुधप्रियः'।। | 5-51-7a 5-51-7b |
भित्त्वा मध्यं प्रविष्टोऽसौ गोमध्यमिव केसरी। `विक्रीडितं रणे तेन निघ्नता वै परान्वरान्'।। | 5-51-8a 5-51-8b |
यस्य शूरा महेष्वासाः प्रत्यनीकगता रणे। प्रभग्ना विनिवर्तन्ते कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः।। | 5-51-9a 5-51-9b |
अत्यन्तशत्रुरस्माकं येन दुःशासनः शरैः। क्षिप्रं ह्यभिमुखः सङ्ख्ये विसंज्ञो विमुखीकृतः।। | 5-51-10a 5-51-10b |
स तीर्त्वा दुस्तरं वीरो द्रोणानीकमहार्णवम्। प्राप्य दौःशासनिं कार्ष्णिः प्राप्तो वैवस्वतक्षयम्।। | 5-51-11a 5-51-11b |
कथं द्रक्ष्यामि कौन्तेयं सौभद्रे निहतेऽर्जुनम्। सुभद्रां वा महाभागां प्रियं पुत्रमपश्यतीम्।। | 5-51-12a 5-51-12b |
`हतवत्सां यथा धेनुं तद्दृर्शनकृतोन्मुखीम्'। किंस्विद्वक्ष्याम्यपेतार्थमक्लिष्टमसमञ्जसम्। तावुभौ प्रतिवक्ष्यामि हृषीकेशधनञ्जयौ।। | 5-51-13a 5-51-13b 5-51-13c |
अहमेव सुभद्रायाः केशवार्जुनयोरपि। प्रियकामो जयाकाङ्क्षी कृतवानिदमप्रियम्।। | 5-51-14a 5-51-14b |
न लुब्धो बुध्यते दोषाँल्लोभान्मोहात्प्रवर्तते। मधुलिप्सुर्हि नापश्यं प्रपातमहमीदृशम्।। | 5-51-15a 5-51-15b |
यो हि भोज्ये पुरस्कार्यो यानेषु शयनेषु च। भूषणेषु च सोऽस्माभिर्बालो युधि पुरस्कृतः।। | 5-51-16a 5-51-16b |
कथं हि बालस्तरुणो युद्धानामविशारदः। सदश्व इव सम्बाधे विषमे क्षेममर्हति।। | 5-51-17a 5-51-17b |
नो चेद्धि वयमप्येनं महीमनुशयीमहि। बीभत्सोः कोपदीप्तस्य दग्धाः कृपणचक्षुषा।। | 5-51-18a 5-51-18b |
अलुब्धो मितमान्हीमान्क्षमावान्रूपवान्बली। वपुष्मान्मानकृद्वीरः प्रियः सत्यपराक्रमः।। | 5-51-19a 5-51-19b |
यस्य श्लाघन्ति विबुधाः कर्माण्यूर्जितकर्मणः। निवातकवचाञ्जघ्ने कालकेयांश्च वीर्यवान्।। | 5-51-20a 5-51-20b |
महेन्द्रशत्रवो येन हिरण्यपुरवासिनः। अक्ष्णोर्निमेषमात्रेण पौलोभाः सगणा हताः।। | 5-51-21a 5-51-21b |
परेभ्योऽप्यभयार्थिभ्यो यो ददात्यभयं विभुः। तस्यास्माभिर्न शकितस्त्रातुमप्यात्मजो बली।। | 5-51-22a 5-51-22b |
भयं तु सुमहत्प्राप्तं धार्तराष्ट्रान्महाबलान्। पार्थः पुत्रवधात्क्रुद्धः कौरवाञ्शोषयिष्यति।। | 5-51-23a 5-51-23b |
क्षुद्रः क्षुद्रसहायश्च स्वपक्षक्षयकारकः। व्यक्तं दुर्योधनो दृष्ट्वा शोचन्हास्यति जीवितं।। | 5-51-24a 5-51-24b |
न मे जयः प्रीतिकरो न राज्यं न चामरत्वं न सुरैः सलोकता। इमं समीक्ष्याप्रतिवीर्यपौरुषं निपातितं देववरात्मजात्मजम्।। | 5-51-25a 5-51-25b 5-51-25c 5-51-25d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 51 ।। |
5-51-5 असंबाधं अप्रतीघातम्।। 5-51-13 असमञ्जसमयुक्तरूपम्।। 5-51-17 सम्बाधे गहने।। 5-51-19 एनं अभिमन्युं अनुचेन्न महीं शयीमहि तदा क्रोधदीप्तस्य बीभत्सोः कृपणेनावसन्नेन चक्षुषा दग्धा भवेमहीत्यन्वयः।। 5-51-19 वपुष्मांस्तेजस्वी।। 5-51-51 एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
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