महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-160
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कृपगर्हणातितिक्षया कर्णवधायाक्ष्युत्तिष्ठतोऽश्वत्थाम्नः कृपदुर्योधनाक्ष्यां निवारणम्।। 1 ।। अर्जुनेन कर्णपराजयो दुर्योधनेन रणाय द्रौणिचोदना च।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-160-1x |
तथा परुषितं दृष्ट्वा सूतपुत्रेण मातुलम्। खङ्गमुद्यम्य वेगेन द्रौणिरभ्यपतद्द्रुतम्।। | 5-160-1a 5-160-1b |
ततः परमसङ्क्रुद्धः सिंहो मत्तमिव द्विपम्। प्रेक्षतः कुरुराजस्य द्रौणिः कर्णं समभ्ययात्।। | 5-160-2a 5-160-2b |
अश्वत्थामोवाच। | 5-160-3x |
यदर्युनगुणांस्तथ्यान्कीर्तयानं नराधम। शूरं द्वेषात्सुदुर्बुद्धे त्वं भर्त्सयसि मातुलम्।। | 5-160-3a 5-160-3b |
विकत्थमानः शौर्येण सर्वलोकधनुर्धरम्।। दर्पोत्सेधगृहीतोऽद्य न कञ्चिद्गणयन्मृधे।। | 5-160-4a 5-160-4b |
क्व ते वीर्यं क्व चास्त्राणि यं त्वां निर्जित्य संयुगे। गाण्डीवधन्वा हतवान्प्रेक्षतस्ते जयद्रथम्।। | 5-160-5a 5-160-5b |
येन साक्षान्महादेवो योधितः समरे पुरा। तमिच्छसि वृथा जेतुं सूताधम मनोरथैः।। | 5-160-6a 5-160-6b |
यं हि कृष्णेन सहितं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। जेतुं न शक्ताः सहिताः सेन्द्रा अपि सुरासुराः।। | 5-160-7a 5-160-7b |
लोकैकवीरमजितमर्जुनं सूत संयुगे। किं पुनस्त्वं सुदुर्बुद्धे सहैभिर्वसुधाधिपैः।। | 5-160-8a 5-160-8b |
कर्ण पश्य सुदुर्बुद्धे तिष्ठेदानीं नराधम। एष तेऽद्य शिरः कायादुद्धरामि सुदुर्मते।। सञ्जय उवाच। | 5-160-9a 5-160-9b 5-160-9c |
तमुद्यतं तु वेगेन राजा दुर्योधनः स्वयम्। न्यवारयन्महातेजाः कृपश्च द्विपदां वरः।। | 5-160-10a 5-160-10b |
कर्ण उवाच। | 5-160-11x |
शूरोऽयं समरश्लाघी दुर्मतिश्च द्विजाधमः। आसादयतु मद्वीर्यं मुञ्चेमं कुरुसत्तम।। | 5-160-11a 5-160-11b |
अश्वत्थामोवाच। | 5-160-12x |
तैवतत्क्षम्यतेऽस्माभिः सूतात्मज सुदुर्मते। दर्पमुत्सिक्तमेतत्ते फल्गुनो नाशयिष्यति।। | 5-160-12a 5-160-12b |
दुर्योधन उवाच। | 5-160-13x |
अश्वत्थामन्प्रसीदस्व क्षन्तुमर्हसि मानद। कोपः खलु न कर्तव्यः सूतपुत्रं कथञ्चन।। | 5-160-13a 5-160-13b |
त्वयि कर्णे कृपे द्रोणे मद्रराजेऽथ सौबले। महत्कार्यं समासक्तं प्रसीद द्विजसत्तम।। | 5-160-14a 5-160-14b |
एते ह्यभिमुखाः सर्वे राधेयेन युयुत्सवः। आयान्ति पाण्डवा ब्रह्मन्नाह्वयन्तः समन्ततः।। | 5-160-15a 5-160-15b |
सञ्जय उवाच। | 5-160-16x |
प्रसाद्यमानस्तु ततो राज्ञा द्रौणिर्महामनाः। प्रससाद महाराज क्रोधवेगसमन्वितः।। | 5-160-16a 5-160-16b |
ततः कृपोऽप्युवाचेदमाचार्यः सुमहामनाः। सौम्यस्वभावाद्राजनेन्द्र क्षिप्रमागतमार्दवः।। | 5-160-17a 5-160-17b |
कृप उवाच। | 5-160-18x |
तवैतत्क्षम्यतेऽस्माभिः सूतात्मज सुदुर्मते। दर्पमुत्सिक्तमेतत्ते फल्गुनो नाशयिष्यति।। | 5-160-18a 5-160-18b |
सञ्जय उवाच। | 5-160-19x |
ततस्ते पाण्डवा राजन्पाञ्चालाश्च यशस्विनः। आजग्मुः सहिताः कर्णं तर्जयन्तः समन्ततः।। | 5-160-19a 5-160-19b |
कर्णोऽपि रथिनां श्रेष्ठश्चापमुद्यम्य वीर्यवान्। कौरवाग्र्यैः परिवृतः शक्रो देवगणैरिव। पर्यतिष्ठत तेजस्वी स्वबाहुबलमाश्रितः।। | 5-160-20a 5-160-20b 5-160-20c |
ततः प्रववृते युद्धं कर्णस्य सह पाण्डवैः। भीषणं सुमहाराज सिंहनादविराजितम्।। | 5-160-21a 5-160-21b |
ततस्ते पाण्डवा राजन्पाञ्चालाश्च यशस्विनः। दृष्ट्वा कर्णं महाबाहुमुच्चैः शब्दमथानदन्।। | 5-160-22a 5-160-22b |
अयं कर्णः कुतः कर्णस्तिष्ठ कर्ण महारणे। युध्यस्व सहितोऽस्माभिर्दुरात्मन्पुरुषाधम।। | 5-160-23a 5-160-23b |
अन्ये तु दृष्ट्वा राधेयं क्रोधरक्रेक्षणाऽब्रुवन्। हन्यतामयमुत्सिक्तः सूतपुत्रोऽल्पचेतनः। सर्वैः पार्थिवशार्दूलैर्नानेनार्थोऽस्ति जीवता। | 5-160-24a 5-160-24b 5-160-24c |
अत्यन्तवैरी पार्थानां सततं पापपूरुषः। एष मूलमनर्थानां दुर्योधनमते स्थितः।। | 5-160-25a 5-160-25b |
घ्नतैनमिति जल्पन्तः क्षत्रियाः समुपाद्रवन्। महता शरवर्षेण च्छादयन्तो महारथाः। वधार्थं सूतपुत्रस्य पाण्डवेयेन चोदिताः।। | 5-160-26a 5-160-26b 5-160-26c |
तांस्तु सर्वांस्तथा दृष्ट्वा धावमानान्महारथान्। न विव्यथे सूतपुत्रो न च त्रासमगच्छत।। | 5-160-27a 5-160-27b |
दृष्ट्वा सागस्कल्पं तमुद्धूतं सैन्यसागरम्। पिप्रीषुस्तव पुत्राणां सङ्ग्रामेष्वपराजितः।। | 5-160-28a 5-160-28b |
सायकौधेन बलवान्क्षिप्रकारी महाबलः। वारयामास तत्सैन्यं समन्ताद्भरतर्पभ।। | 5-160-29a 5-160-29b |
ततस्तु शरवर्षेण पार्थिवास्तमवारयन्। धनुम्पि ते विधुन्वानाः शतशोऽथ सहस्रशः। अयोधयन्त राधेयं शक्रं दैत्यगणा इव।। | 5-160-30a 5-160-30b 5-160-30c |
शरवर्पं तु तत्कर्णः पार्थिवैः समुदीरितम्। शरवर्षेण महता समन्ताद्व्यकिरत्प्रभो।। | 5-160-31a 5-160-31b |
तद्युद्धमभवत्तेषां कृतप्रतिकृतैषिणाम्। यथा देवासुरे युद्धे शक्रस्य सह दानैवः।। | 5-160-32a 5-160-32b |
तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य लाघवम्। यदेनं सर्वतो यत्ता नाप्नुवन्ति परे युधि।। | 5-160-33a 5-160-33b |
निवार्य च शरौघांस्तान्पार्थिवानां महारथः। युगेष्वीषासु च्छत्रेषु ध्वजेषु च हयेषु च। आत्मनामाङ्कितान्घोरान्राधेयः प्राहिणोच्छरान्।। | 5-160-34a 5-160-34b 5-160-34c |
ततस्ते व्याकुलीभूता राजानः कर्णपीडिताः। बभ्रुमुस्तत्र तत्रैव गावः शीतार्दिता इव।। | 5-160-35a 5-160-35b |
हयानां वध्यमानानां गजानां रथिनां तथा। तत्रतत्राभ्यवेक्षाम सङ्घान्कर्णेन ताडितान्।। | 5-160-36a 5-160-36b |
शिरोभिः पतितै राजन्बाहुभिश्च समन्ततः। आस्तीर्णा वसुधा सर्वा शूराणामनिवर्तिनाम्।। | 5-160-37a 5-160-37b |
हतैश्च हन्यमानैश्च निष्टनद्भिश्च सर्वशः। बभूवायोधनं रौद्रं वैवस्वतपुरोपमम्।। | 5-160-38a 5-160-38b |
ततो दुर्योधनो राजा दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्। अश्वत्थामानमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह।। | 5-160-39a 5-160-39b |
युध्यतेऽसौ रणे कर्णो दंशितः सर्वपार्थिवैः।। | 5-160-40a |
पश्यैतां द्रवतीं सेनां कर्णसायकपीडिताम्। कार्तिकेयेन विध्वस्तामासुरीं पृतनामिव।। | 5-160-41a 5-160-41b |
दृष्ट्वैतां निर्जितां सेनां रणे कर्णेन धीमता। अभियात्येष बीभत्सुः सूतपुत्रजिघांसया।। | 5-160-42a 5-160-42b |
तद्यथा प्रेक्षमाणानां सूतपुत्रं महारथम्। न हन्यात्पाण्डवः सङ्ख्ये तथा नीतिर्विधीयतां।। | 5-160-43a 5-160-43b |
ततो द्रौणिः कृपः शल्यो हार्दिक्यश्च महारथः। प्रत्युद्ययुस्तदा पार्थं सूतपुत्रपरीप्सया। आयान्तं वीक्ष्य कौन्तेयं शक्रं दैत्यचमूमिव।। | 5-160-44a 5-160-44b 5-160-44c |
बीभत्सुरपि राजेन्द्र पाञ्चालैरभिसंवृतः। प्रत्युद्ययौ तदा कर्णं यथा वृत्रं शतक्रतुः।। | 5-160-45a 5-160-45b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-160-46x |
संरब्धं फल्गुनं दृष्ट्वा कालान्तकयमोपमम्। कर्णो वैकर्तनः सूत प्रत्यपद्यत्किमुत्तरम्।। | 5-160-46a 5-160-46b |
यो ह्यस्पर्धत पार्थेन नित्यमेव महारथः। आशंसते च बीभत्सुं युद्धे जेतुं सुदारुणम्।। | 5-160-47a 5-160-47b |
स तु तं सहसा प्राप्तं नित्यमत्यन्तवैरिणम्। कर्णो वैकर्तनः सूत किमुत्तरमपद्यत।। | 5-160-48a 5-160-48b |
सञ्जय उवाच। | 5-160-49x |
आयान्तं पाण्डव दृष्ट्वा गजं प्रतिगजो यथा। असम्भ्रान्तो रणे कर्णः प्रत्युदीयाद्धनञ्जयम्।। | 5-160-49a 5-160-49b |
तमापतन्तं वेगेन वैकर्तनमजिह्मगैः। छादयामास पार्थोऽथ कर्णस्तु विजयं शरैः।। | 5-160-50a 5-160-50b |
स कर्णं शरजालेन च्छादयामास पाण्डवः। ततः कर्णः सुसंरब्धः शरैस्त्रिभिरविध्यत।। | 5-160-51a 5-160-51b |
तस्य तल्लाघवं पार्थो नामृष्यत महाबलः।। | 5-160-52a |
तस्मै बाणाञ्शिलाधौतान्प्रसन्नाग्रानजिह्मगान्। प्राहिणोत्सूतपुत्राय त्रिशतं शत्रुतापनः।। | 5-160-53a 5-160-53b |
विव्याध चैनं संरब्धो बाणेनैकेन वीर्यवान्। सव्ये भुजाग्रे बलवान्नाराचेन हसन्निव।। | 5-160-54a 5-160-54b |
तस्य विद्धस्य बाणेन कराच्चापं पपात ह।। | 5-160-55a |
पुनरादाय तच्चापं निमेषार्धान्महाबलः। छादयामास बाणौघैः फल्गुनं कृतहस्तवत्।। | 5-160-56a 5-160-56b |
शरवृष्टिं तु तां मुक्तां सूतपुत्रेण भारत। व्यधमच्छरवर्षेण स्मयन्निव धनञ्जयः।। | 5-160-57a 5-160-57b |
तौ परस्परमासाद्य शरवर्षेण पार्थिव। छादयेतां महेष्वासौ कृतप्रतिकृतैषिणौ।। | 5-160-58a 5-160-58b |
तदद्भुतं महद्युद्धं कर्णपाण्डवयोर्मृधे। क्रुद्धयोर्वासिताहेतोर्वन्ययोर्गजयोरिव।। | 5-160-59a 5-160-59b |
ततः पार्थो महेष्वासो दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्। मुष्टिदेशे धनुस्तस्य चिच्छेद त्वरयाऽन्वितः।। | 5-160-60a 5-160-60b |
अश्वांश्च चतुरो भल्लैरनयद्यमसादनम्। सारथेश्च शिसः कायादहरच्छत्रुतापनः।। | 5-160-61a 5-160-61b |
अथैनं छिन्नधन्वानं हताश्वं हतसारथिम्। विव्याध सायकैः पार्थश्चतुर्भिः पाण्डुनन्दनः।। | 5-160-62a 5-160-62b |
हताश्वात्तु रथात्तूर्णमवप्लुत्य नरर्षभः। आरुरोह रथं तूर्णं कृपस्य शरपीडितः।। | 5-160-63a 5-160-63b |
स नुन्नोऽर्जुनबाणौघैराचितः शल्यको यथा। जीवितार्थमभिप्रेप्सुः कृपस्य रथमारुहत्।। | 5-160-64a 5-160-64b |
राधेयं निर्जितं दृष्ट्वा तावका भरतर्षभ। धनञ्जयशरैर्नुन्नाः प्राद्रवन्त दिशो दश।। | 5-160-65a 5-160-65b |
द्रवतस्तान्समालोक्य राजा दुर्योधनो नृप। निवर्तयामास तदा वाक्यमेतदुवाच ह।। | 5-160-66a 5-160-66b |
अलं द्रुतेन वः शूरास्तिष्ठध्वं क्षत्रियर्षभाः। एष पार्थवधायाहं स्वयं गच्छामि संयुगे। अहं पार्थान्हनिष्यामि सपाञ्चालान्ससोमकान्।। | 5-160-67a 5-160-67b 5-160-67c |
अद्य मे युध्यमानस्य सह गाण्डीवधन्वना। द्रक्ष्यन्ति विक्रमं पार्थाः कालस्येव युगक्षये।। | 5-160-68a 5-160-68b |
अद्य मद्बाणजालानि विमुक्तानि सहस्रशः। द्रक्ष्यन्ति समरे योधाः शलभानामिवायतीः।। | 5-160-69a 5-160-69b |
अद्य बाणमयं वर्षं सृजतो मम धन्विनः। जीमूतस्येव घर्मान्ते द्रक्ष्यन्ति युधि सैनिकाः।। | 5-160-70a 5-160-70b |
जेष्याम्यद्य रणे पार्थं सायकैर्नतपर्वभिः। तिष्ठध्वं समरे शूरा भयं त्यजत फल्गुनात्।। | 5-160-71a 5-160-71b |
न हि मद्वीर्यमासाद्य फल्गुनः प्रसहिष्यति। यथा वेलां समासाद्य सागरो मकरालयः।। | 5-160-72a 5-160-72b |
इत्युक्त्वा प्रययौ राजा सैन्येन महता वृतः। फल्गुनं प्रतिदुर्धर्षः क्रोधात्संरक्तलोचनः।। | 5-160-73a 5-160-73b |
तं प्रयान्तं महाबाहुं दृष्ट्वा शारद्वतस्तदा। अश्वत्थामानमासाद्य वाक्यमेतदुवाच ह।। | 5-160-74a 5-160-74b |
एष राजा महाबाहुरमर्षी क्रोधमूर्च्छितः। पतङ्गवृत्तिमास्थाय फल्गुनं योद्धुमिच्छति।। | 5-160-75a 5-160-75b |
यावन्नः पश्यमानानां प्राणान्पार्थेन संगतः। न जह्यात्पुरुषव्याघ्रस्तावद्वारय कौरवम्।। | 5-160-76a 5-160-76b |
यावत्फल्गुनबाणानां गोचरं नाद्य गच्छति। कौरवः पार्थिवो वीरस्तावद्वारय संयुगे।। | 5-160-77a 5-160-77b |
यावत्पार्थशरैर्घोरैर्निर्मुक्तोरगसन्निभैः। न भस्मीक्रियते राजा तावद्युद्धान्निवार्यताम्।। | 5-160-78a 5-160-78b |
अयुक्तमिव पश्यामि तिष्ठत्स्वस्मासु मानद। स्वयं युद्धाय यद्राजा पार्थं यात्यसहायवान्।। | 5-160-79a 5-160-79b |
दुर्लभं जीवितं मन्ये कौरव्यस्य किरीटिना। युध्यमानस्य पार्थेन शार्दूलेनेव हस्तिनः।। | 5-160-80a 5-160-80b |
मातुलेनैवमुक्तस्तु द्रौणिः शस्त्रभृतां वरः। दुर्योधनमिदं वाक्यं त्वरितः समभाषत।। | 5-160-81a 5-160-81b |
मयि जीवति गान्धारे न युद्धं गन्तुमर्हसि। मामनादृत्य कौरव्य तव नित्यं हितैषिणम्।। | 5-160-82a 5-160-82b |
न हि सम्भ्रमः कार्यः पार्थस्य विजयं प्रति। अहमावारयिष्यामि पार्थं तिष्ठ सुयोधन।। | 5-160-83a 5-160-83b |
दुर्योधन उवाच। | 5-160-84x |
आचार्यः पाण्डुपुत्रान्वै पुत्रवत्परिरक्षति। त्वमप्युपेक्षां कुरुषे तेषु नित्यं द्विजोत्तम्।। | 5-160-84a 5-160-84b |
मम वा मन्दभाग्यत्वान्मन्दस्ते विक्रमो युधि। धर्मराजप्नियार्थं वा द्रौपद्या वा न विद्म तत्।। | 5-160-85a 5-160-85b |
धिगस्तु मम लुब्धस्य यत्कृते सर्वबान्धवाः। सुखार्हाः परमं दुःखं प्राप्नुवन्त्यपराजिताः।। | 5-160-86a 5-160-86b |
को हि शस्त्रविदां मुख्यो महेश्वरसमो युधि। शत्रुं न क्षपयेच्छक्तो यो न स्याद्गौतमीसुतः।। | 5-160-87a 5-160-87b |
अश्वत्थामन्प्रसीदस्व नाशयैतान्ममाहितान्। तवास्त्रगोचरे शक्ताः स्थातुं देवा न दानवाः।। | 5-160-88a 5-160-88b |
पाञ्चालान्सोमकांश्चैव जहि द्रौणे सहानुगान्। वयं शेषान्हनिष्यामस्त्वयैव परिरक्षिताः।। | 5-160-89a 5-160-89b |
एते हि सोमका विप्र पाञ्चालाश्च यशस्विनः। मम सैन्येषु सङ्क्रुद्धा विचरन्ति दवाग्निवत्।। | 5-160-90a 5-160-90b |
तान्वारय महाबाहो केकयांश्च नरोत्तम। पुरा कुर्वन्ति निःशेषं रक्ष्यमाणाः किरीटिना।। | 5-160-91a 5-160-91b |
अश्वत्थामंस्त्वरायुक्तो याहि शीघ्रमरिन्दम। आदौ वा यदि वा पश्चात्तवेदं कर्म मारिष।। | 5-160-92a 5-160-92b |
त्वमुत्पन्नो महाबाहो पाञ्चालानां वधं प्रति। करिष्यसि जगत्सर्वमपाञ्चालं किलोद्यतः।। | 5-160-93a 5-160-93b |
एवं सिद्धाऽब्रुवन्वाचो भविष्यति च तत्तथा। तस्मात्त्वं पुरुषव्याघ्र पाञ्चालाञ्जहि सानुगान्।। | 5-160-94a 5-160-94b |
न तेऽस्त्रगोचरे शक्ताः स्थातुं देवाः सवासवाः। किमु पार्थाः सपाञ्चालाः सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-160-95a 5-160-95b |
न त्वां समर्थाः सङ्ग्रामे पाण्डवाः सह सोमकैः। बलाद्योधयितुं वीर सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-160-96a 5-160-96b |
गच्छगच्छ महाबाहो न नः कालात्ययो भवेत्। इयं हि द्रवते सेना पार्तसायकपीडिता।। | 5-160-97a 5-160-97b |
शक्तो ह्यसि महाबाहो दिव्येन स्वेन तेजसा। निग्रहे पाण्डुपुत्राणां पाञ्चालानां च मानद।। | 5-160-98a 5-160-98b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 160 ।। |
5-160-4 कञ्चिद्धनुर्धरं नगणयन्नित्यन्वयः।।
द्रोणपर्व-159 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-161 |