महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-112
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सात्यकेः युधिष्ठिररक्षणे भीमं नियोज्यार्जुनदर्शनाय प्रस्थानम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-112-1x |
धर्मराजस्य तद्वाक्यं निशम्य शिनिपुङ्गवः। स पार्थाद्भयमाशंसन्परित्यागान्महीपतेः।। | 5-112-1a 5-112-1b |
अपवादं ह्यात्मनश्च लोकाद्रक्षन्विशेषतः। न मां भीतमिति ब्रूयात्प्रयान्तं फल्गुनं प्रति।। | 5-112-2a 5-112-2b |
निश्चित्य बहुधैवं स सात्यकिर्युद्धदुर्मदः। नातिव्यक्तमिवाभाष्य धर्मराजं महायशाः।। | 5-112-3a 5-112-3b |
शोकगद्गदया वाचा शोकोपहतचेतनः। यथेदानीमिति ध्यात्वा धर्मराजमथाब्रवीत्।। | 5-112-4a 5-112-4b |
कृतां चेन्मन्यसे रक्षां स्वस्ति तेऽस्तु विशाम्पते। अनुयास्यामि बीभत्सुं करिष्ये वचनं तव।। | 5-112-5a 5-112-5b |
न हि मे पाण्डवात्कश्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते। यो मे प्रियतरो राजन्सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-112-6a 5-112-6b |
तस्याहं पदवीं यास्ये सन्देशात्तव मानद। त्वत्कृते न च मे किञ्चिदकर्तव्यं कथञ्चन।। | 5-112-7a 5-112-7b |
यथा हि मे गुरोर्वाक्यं विशिष्टं द्विपदां वर। तथा तवापि वचनं विशिष्टतरमेव मे।। | 5-112-8a 5-112-8b |
प्रिये हि तव वर्तेते भ्रातरौ कृष्णपाण्डवौ। तयोः प्रिये स्थितं चैव विद्धि मां राजपुङ्गव।। | 5-112-9a 5-112-9b |
तवाज्ञां शिरसा गृह्य पाण्डवार्थमहं प्रभो। भित्त्वेदं दुर्भिदं सैन्यं प्रयास्ये नरपुङ्गव।। | 5-112-10a 5-112-10b |
द्रणानीकं विशाम्येष क्रुद्धो झष इवार्णवम्। तत्र यास्यामि यत्रासौ राजन्राजा जयद्रथः।। | 5-112-11a 5-112-11b |
यत्र सेनान्तमाश्रित्य भीतस्तिष्ठति पाण्डवात्। गुप्तो रथवरश्रेष्ठैर्द्रौणिकर्णकृपादिभिः।। | 5-112-12a 5-112-12b |
इतिस्त्रियोजनं मन्ये तमध्वानं विशाम्पते। यत्र तिष्ठति पार्थोऽसौ जयद्रथवधोद्यतः।। | 5-112-13a 5-112-13b |
त्रियोजनगतस्यापि तस्य यास्याभ्यहं पदम्। आसैन्धववधाद्राजन्सुदृढेनान्तरात्मना।। | 5-112-14a 5-112-14b |
अनादिष्टस्तु गुरुणा को नु युध्येत मानवः। आदिष्टस्तु यथा राजन्को न युध्येत मादृशः।। | 5-112-15a 5-112-15b |
अभिजानामि तं देशमितः पूर्णं त्रियोजनम्। यत्र तिष्ठति राजाऽसौ सैन्धवो बालघातकः।। | 5-112-16a 5-112-16b |
सागरप्रतिमं सैन्यं गर्जन्तमिव सागरम्। हलशक्तिगदाप्रासचर्मखङ्गर्ष्टितोमरम्। इष्वस्त्रवरसम्बाधं क्षोभयित्वा व्रजाम्यहम्।। | 5-112-17a 5-112-17b 5-112-17c |
यदेतत्कुञ्जरानीकं सहस्रमनुपश्यसि। कुलमाञ्जनकं नाम यत्रैते वीर्यशालिनः।। | 5-112-18a 5-112-18b |
आस्थिता बहुभिर्म्लेच्छैर्युद्धशौण्डैः प्रहारिभिः। नागा नगनिभा राजन्क्षरन्त इव तोयदाः।। | 5-112-19a 5-112-19b |
नैते जातु निवर्तेरन्प्रेषिता हस्तिसादिभिः। अन्यत्र हि वधादेषां नास्ति राजन्पराजयः।। | 5-112-20a 5-112-20b |
अथ यान्रथिनो राजन्सहस्रमनुपश्यसि। एते रुक्मरथा नाम राजपुत्रा महारथाः।। | 5-112-21a 5-112-21b |
रथेष्वस्त्रेषु निपुणा नागेषु च विशाम्पते। धनुर्वेदे गताः पारं मुष्टियुद्धे च कोविदाः।। | 5-112-22a 5-112-22b |
गदायुद्धविशेषज्ञा नियुद्धकुशलास्तथा। खङ्गप्रहरणे युक्ताः सम्पाते चासिचर्मणोः।। | 5-112-23a 5-112-23b |
शूराश्च कृतविद्याश्च स्पर्धन्ते च परस्परम्। नित्यं हि समरे राजन्विजिगीषन्ति मानवान्।। | 5-112-24a 5-112-24b |
कर्णेन विहिता राजन्दुःशासनमनुव्रताः। एतांस्तु वासुदेवोऽपि रथोदारान्प्रशंसति।। | 5-112-25a 5-112-25b |
सततं प्रियकामाश्च कर्णस्यैते वशे स्थिताः। तस्यैव वचनाद्राजन्निवृत्ताः श्वेतवाहनात्।। | 5-112-26a 5-112-26b |
ते न क्लान्ता न च श्रान्ता दृढावरणकार्मुकाः। मदर्थेऽधिष्ठिता नूनं धार्तराष्ट्रस्य शासनात्।। | 5-112-27a 5-112-27b |
एतान्प्रमथ्य सङ्ग्रामे प्रियार्थं तव कौरव। प्रयास्यामि ततः पश्चात्पदवीं सव्यसाचिनः।। | 5-112-28a 5-112-28b |
यांस्त्वेतानपरान्राजन्नागान्सप्तशतानिमान्। प्रेक्षसे वर्मसञ्छन्नान्किरातैः समधिष्ठितान्।। | 5-112-29a 5-112-29b |
किरातराजो यान्प्रादाद्गृहीतः सव्यसाचिना। स्वलङ्कृतांस्तदा प्रेष्यानिच्छञ्जीवितमात्मनः।। | 5-112-30a 5-112-30b |
आसन्नेते पुरा राजंस्तव कर्मकरा दृढम्। त्वामेवाद्य युयुत्सन्ते पश्य कालस्य पर्ययम्।। | 5-112-31a 5-112-31b |
एषामेते महामात्राः किराता युद्धदुर्मदाः। हस्तिशिक्षाविदश्चैव सर्वे चैवाग्नियोनयः।। | 5-112-32a 5-112-32b |
एते विनिर्जिताः सङ्ख्ये सङ्ग्रामे सव्यसाचिना। मदर्थमद्य संयत्ता दुर्योधनवशानुगाः।। | 5-112-33a 5-112-33b |
एतान्हत्वा शरै राजन्किरातान्युद्धदुर्मदान्। सैन्धवस्य वधे यत्तमनुयास्यामि पाण्डवम्।। | 5-112-34a 5-112-34b |
ये त्वेते सुमहानाग अञ्जनस्य कुलोद्भवाः। कर्कशाश्च विनीताश्च प्रभिन्नकरटामुखाः।। | 5-112-35a 5-112-35b |
जाम्बूनदमयैः सर्वैर्वर्मभिः सुविभूषिताः। लब्धलक्षा रणे राजन्नैरावणसमा युधि।। | 5-112-36a 5-112-36b |
आस्थिता दस्युभिस्तीक्ष्णैः शूरैरुत्तमपार्वतैः। कर्कशैः प्रवरैर्योधैः काष्णार्यसतनुच्छदैः।। | 5-112-37a 5-112-37b |
सन्ति गोयोनयश्चात्र सन्ति वानरयोनयः। अनेकयोनयश्चान्ये तथा मानुषयोनयः।। | 5-112-38a 5-112-38b |
अनीकमसतामेतद्भूम्रवर्णमुदीर्यते। म्लेच्छानां पापकर्तॄणां हिमदुर्गनिवासिनाम्।। | 5-112-39a 5-112-39b |
एतद्दुर्योधनो लब्ध्वा समग्रं राजमण्डलम्। कृपं च सौमदत्तिं च द्रोणं च रथिनां वरम्।। | 5-112-40a 5-112-40b |
सिन्धुराजं तथा कर्णमवमन्यत पाण्डवान्। कृतार्थमथ चात्मानं मन्यते कालचोदितः।। | 5-112-41a 5-112-41b |
ते तु सर्वेऽद्य सम्प्राप्ता मम नाराचगोचरम्। नभविष्यन्ति कौन्तेय यद्यपि स्युर्मनोजवाः।। | 5-112-42a 5-112-42b |
तेन संभाविता नित्यं परवीर्योपजीविना। विनाशमुपयास्यन्ति मच्छरौघनिपीडिताः।। | 5-112-43a 5-112-43b |
ये त्वेते रथिनो राजन्दृश्यन्ते काञ्चनध्वजाः। एते दुर्वारणा नाम काम्भोजा यदि ते श्रुताः।। | 5-112-44a 5-112-44b |
शूराश्च कृतविद्याश्च धनुर्वेदे च निष्ठिताः। संहताश्च भृशं ह्येते अन्योन्यस्य हितैषिणः।। | 5-112-45a 5-112-45b |
अक्षौहिण्यश्च संरब्धा धार्तराष्ट्रस्य भारत। यत्ता मदर्थे तिष्ठन्ति कुरुवीराभिरक्षिताः।। | 5-112-46a 5-112-46b |
अप्रमत्ता महाराज मामेव प्रत्युपस्थिताः। तानहं प्रमथिष्यामि तृणानीव हुताशनः।। | 5-112-47a 5-112-47b |
तस्मात्सर्वानुपासङ्गान्सर्वोपकरणानि च। रथे कुर्वन्तु मे राजन्यथावद्रथकल्पकाः।। | 5-112-48a 5-112-48b |
अस्मिंस्तु किल सम्मर्दे ग्राह्यं विविधमायुधम्। यथोपदिष्टमाचार्यैः कार्यः पञ्चगुणो रथः।। | 5-112-49a 5-112-49b |
काम्भोजैर्हि समेष्यामि तीक्ष्णैराशीविषोपमैः। नानाशस्त्रसमावायैर्विविधायुधयोधिभिः।। | 5-112-50a 5-112-50b |
किरातैश्च समेष्यामि विषकल्पैः प्रहारिभिः। लालितैः सततं राज्ञा दुर्योधनहितैषिभिः।। | 5-112-51a 5-112-51b |
शकैश्चापि समेष्यामि शक्रतुल्यपराक्रमैः। अग्निकल्पैर्युराधर्षैः प्रदीप्तैरिव पावकैः।। | 5-112-52a 5-112-52b |
तथाऽन्यैर्विविधैर्योधैः कालकल्पैर्दुरासदैः। समेष्यामि रणे राजन्बहुभिर्युद्धदुर्मदैः।। | 5-112-53a 5-112-53b |
`त्रियोजनगतस्यापि पदवीं सव्यसाचिनः। यास्यामि रथिनां श्रेष्ठं प्रवरं च धनुष्मताम्।। | 5-112-54a 5-112-54b |
सूर्योदयगतस्याहं पाण्डवस्य गतिं चरन्। अपराह्णगते सूर्ये गमिष्यामि न संशयः'।। | 5-112-55a 5-112-55b |
तस्माद्वै वाजिनो मुख्यान्विश्रुताञ्शुभलक्षणैः। उपावृत्तांश्च पीतांश्च पुनर्युञ्जन्तु मे रथे।। | 5-112-56a 5-112-56b |
सञ्जय उवाच। | 5-112-57x |
तस्य सर्वानुपासङ्गान्सर्वोपकरणानि च। रथे चास्थापयद्राजा शस्त्राणि विविधानि च।। | 5-112-57a 5-112-57b |
ततस्तान्सर्वतोमुक्तान्सदश्वांश्चतुरो जनाः। रसवत्पाययामासुः पानं मदसमीरणम्।। | 5-112-58a 5-112-58b |
पीतोपवृत्तान्स्नातांश्च जग्धान्नान्समलङ्कृतान्। विनीतशल्यांस्तुरगांश्चतुरो हेममालिनः।। | 5-112-59a 5-112-59b |
तान्युक्तान्रुक्मवर्णाभान्विनीताञ्शीघ्रगामिनः। संहृष्टमनसो व्यग्रान्विधिवत्कल्पितान्रथे।। | 5-112-60a 5-112-60b |
महाध्वजेन सिंहेन हेमकेसरमालिना। संवृते केतकैर्हैर्मैर्मणिविद्रुमचित्रितैः।। | 5-112-61a 5-112-61b |
पाण्डुराभ्रप्रकाशाभिः पताकाभिरलङ्कृते। हेमदण्डोच्छ्रितच्छत्रे बहुशस्त्रपरिच्छदे। योजयामास विधिवद्धेमभाण्डविभूषितान्।। | 5-112-62a 5-112-62b 5-112-62c |
दारुकस्यानुजो भ्राता सूतस्तस्य प्रियः सखा। न्यवेदयद्रथं युक्तं वासवस्येव मातलिः।। | 5-112-63a 5-112-63b |
ततः स्नातः शुचिर्भूत्वा कृतकौतुकमङ्गलः। स्नातकानां सहस्रस्य स्वर्णनिष्कानथो ददौ।। | 5-112-64a 5-112-64b |
आशीर्वादैः परिष्वक्तः सात्यकिः श्रीमतां वरः। ततः समधुपर्काम्भः पीत्वा कैरातकं मधु।। | 5-112-65a 5-112-65b |
लोहिताक्षो बभौ तत्र मदविह्वललोचनः। आलभ्य वीरकांस्यं च हर्षेण महताऽन्वितः।। | 5-112-66a 5-112-66b |
द्विगुणीकृततेजोभिः प्रज्वलन्निव पावकः। उत्सङ्गे धनुरादाय सशरं रथिनां वरः।। | 5-112-67a 5-112-67b |
`आशीर्वादैः परिष्वक्तः सात्यकिः श्रीमतां वरः'। कृतस्वस्त्ययनो विप्रैः कवची समलङ्कृतः।। | 5-112-68a 5-112-68b |
लाजैर्गन्धैस्तथा माल्यैः कन्याभिश्चाभिनन्दितः। युधिष्ठिरस्य चरणावभिवाद्य कृताञ्जलिः।। | 5-112-69a 5-112-69b |
तेन मूर्धन्युपाघ्रातः कृतस्वस्ययनोऽपि च। आशिषो विविधाः श्रुत्वा धर्मराजमुखेरिताः। हर्षेण महता युक्त आरुरोह महारथम्।। | 5-112-70a 5-112-70b 5-112-70c |
ततस्ते वाजिनो हृष्टाः सुपुष्टा वातरंहसः। अजय्या जैत्रमूहुस्तं विकुर्वाणाः स्म सैन्धवाः। यथा शक्ररथं राजन्नूहुस्ते हरयः पुरा।। | 5-112-71a 5-112-71b 5-112-71c |
तथैव भीमसेनोऽपि धर्मराजेन पूजितः। प्रायात्सात्यकिना सार्धमभिवाद्य युधिष्ठिरम्।। | 5-112-72a 5-112-72b |
तौ दृष्ट्वा प्रविविक्षन्तौ तव सेनामरिंदमौ। संयत्तास्तावकाः सर्वे तस्थुर्द्रोणपुरोगमाः।। | 5-112-73a 5-112-73b |
सन्नद्धमनुगच्छन्तं दृष्ट्वा भीमं स सात्यकिः। अभिनन्द्याब्रवीद्वीरस्तदा हर्षकरं वचः।। | 5-112-74a 5-112-74b |
त्वं भीम रक्ष राजानमेतत्कार्यतमं हि ते। अहं भित्त्वा प्रवेक्ष्यामि कालपक्वमिदं बलम्।। | 5-112-75a 5-112-75b |
आयत्यां च तदात्वे च श्रेयो राज्ञोऽभिरक्षणम्। जानीषे मम वीर्यं त्वं तव चाहमरिन्दम। तस्माद्भीम निवर्तस्व मम चेदिच्छसि प्रियम्।। | 5-112-76a 5-112-76b 5-112-76c |
सञ्जय उवाच। | 5-112-77x |
तथोक्तः सात्यकिं प्राह व्रज त्वं कार्यसिद्धये। अहं राज्ञः करिष्यामि रक्षां पुरुषसत्तम।। | 5-112-77a 5-112-77b |
एवमुक्तः प्रत्युवाच भीमसेनं स माधवः। गच्छ गच्छ ध्रुवं पार्थ ध्रुवो हि विजयो मम।। | 5-112-78a 5-112-78b |
यन्मे स्निग्धोऽनुरक्तश्च त्वमद्य वशमास्थितः। निमित्तानि च धन्यानि यथा भीम वदन्ति मां।। | 5-112-79a 5-112-79b |
निहते सैन्धवे पापे पाण्डवेन महात्मना। परिष्वजिष्ये राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्। `अप्रमादश्च ते कार्यो द्रोणं प्रति महारथम्'।। | 5-112-80a 5-112-80b 5-112-80c |
सञ्चय उवाच। | 5-112-81x |
एतावदुक्त्वा भीमं तु विसृज्य च महायशाः। सम्प्रैक्षत्तावकं सैन्यं व्याघ्रो मृगगणानिव।। | 5-112-81a 5-112-81b |
तं दृष्ट्वा प्रविविक्षन्तं सैन्यं तव जनाधिप। भूय एवाभवन्मूढं सुभृशं चाप्यकम्पत।। | 5-112-82a 5-112-82b |
ततः प्रयातः सहसा तव सैन्यं स सात्यकिः। दिदृक्षुरर्जुनं राजन्धर्मराजस्य शासनात् ।। | 5-112-83a 5-112-83b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 112 ।। |
5-112-2 ते मां भीतमिति ब्रूयुरयान्तं इति झ. पाठः।। 5-112-14 आसैन्धववधात् सैन्धववधात्प्रागेव।। 5-112-17 हलादितोमरान्तमार्श आद्यजन्तम्।। 5-112-23 सम्पाते विहरणे।। 5-112-30 तदा दिग्विजये।। 5-112-35 अञ्जनस्य वरुणोपवाह्यस्य।। 5-112-35 तेन दुर्योधनेन। 5-112-43 सम्भावितः सम्वर्धिताः।। 5-112-49 पञ्चगुणः पञ्चगुणस्नमग्रीकः।। 5-112-50 नानाशस्त्राणां समावायः समूहो येषु।। 5-112-56 पीताः पायितपेयाः।। 5-112-61 केतकैः कुन्दघटितशलाकाभिः।। 5-112-64 स्वर्णनिष्कान् दीनारान्।। 5-112-65 ततः समधुपर्कार्हः पीत्वा कैलातकं मधु इति झ.ञ.पाठः। कैलावतं मधु इति ङ.पाठः।। 5-112-76 आयत्यामुत्तरकाले। तदात्वे तत्क्षणे।। 5-112-112 द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-111 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-113 |