महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-019
दिखावट
← द्रोणपर्व-018 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-019 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-020 → |
|
अर्जुनस्य संशप्तकैः सह युद्धम्।। 1 ।।
सञ्च उवाच। | 5-19-1x |
दृष्टा तु सन्निवृत्तांस्तान्संशप्तकगणान्पुनः। वासुदेवं महात्मानमर्जुनः समभाषत।। | 5-19-1a 5-19-1b |
चोदयाश्वान्हृषीकेश संशप्तकगणान्प्रति। नैते हास्यन्ति सङ्ग्रामं जीवन्त इति मे मतिः।। | 5-19-2a 5-19-2b |
पश्य मेऽस्त्रबलं घोरं बाह्वोरिष्वसनस्य च। अद्यैतान्पातयिष्यामि क्रुद्धो रुद्रः पशूनिव।। | 5-19-3a 5-19-3b |
सञ्जय उवाच। | 5-19-4x |
ततः कृष्णः स्मितं कृत्वा प्रतिनन्द्य शिवेन तम्। प्रावेशयत दुर्धर्षो यत्रयत्रैच्छदर्जुनः।। | 5-19-4a 5-19-4b |
स रथो भ्राजतेऽत्यर्थमुह्यमानो रणे तदा। उह्यमानमिवाकाशे विमानं पाण्डुरैर्हयैः।। | 5-19-5a 5-19-5b |
मण्डलानि ततश्चक्रे गतप्रत्यागतानि चे। यथा शक्ररथो राजन्युद्धे देवासुरे पुरा।। | 5-19-6a 5-19-6b |
अथ नारायणाः क्रुद्धा विविधायुधपाणयः। छादयन्तः शरव्रातैः परिवव्रुर्धनञ्जयम्।। | 5-19-7a 5-19-7b |
अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ। कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्।। | 5-19-8a 5-19-8b |
क्रुद्धस्तु फल्गुनः सङ्ख्ये द्विगुणीकृतविक्रमः। गाण्डीवं धनुरामृज्य तूर्णं जग्राह संयुगे।। | 5-19-9a 5-19-9b |
बद्ध्वा च भ्रुकुटिं वक्त्रे क्रोधस्य प्रतिलक्षणम्। देवदत्तं महाशङ्खं पूरयामास पाण्डवः।। | 5-19-10a 5-19-10b |
अथास्त्रमरिसङ्घघ्नं त्वाष्ट्रमभ्यस्यदर्जुनः। ततो रूपसहस्राणि प्रादुरासन्पृथक्पृथक्।। | 5-19-11a 5-19-11b |
अर्जुनप्रतिरूपैस्तैर्नानारूपैर्विमोहिताः। अन्योन्येनार्जुनं मत्वा स्वमात्मानं च जघ्निरे।। | 5-19-12a 5-19-12b |
अयमर्जुनोऽयं गोविन्द इमौ पाण्डवयादवौ। इति ब्रुवाणाः संमूढा जघ्नुरन्योन्यमाहवे।। | 5-19-13a 5-19-13b |
`अन्योन्यं समरे जघ्नुस्तावका भरतर्षभ'। मोहिताः परमास्त्रेण क्षयं जग्मुः परस्परम्।। | 5-19-14a 5-19-14b |
`रुधिरोक्षितगात्रास्ते प्रेक्षमाणः परस्परम्'। अशोभन्त रणे योधाः पुष्पिता इव किंशुकाः।। | 5-19-15a 5-19-15b |
`रुधिरोत्पीडनास्ते तु रुधिरेण समुक्षिताः। चन्दनस्य रसेनेव व्यभ्राजन्त रणाजिरे।। | 5-19-16a 5-19-16b |
ततः प्रसह्य बीभत्सुर्व्याक्षिपद्गाण्डिवं धनुः। न्यहनत्ताञ्छरैस्तीक्ष्णैस्तमः सूर्य इवांशुभिः।। | 5-19-17a 5-19-17b |
हतावशिष्टास्ते भूयः परिवार्य धनञ्जयम्। साश्वध्वजरथं चक्रुरदृश्यं शरवृष्टिभिः'।। | 5-19-18a 5-19-18b |
ततः शरसहस्राणि तैर्विमुक्तानि भस्मसात्। कृत्वा तदस्त्रं तान्वीराननयद्यमसादनम्।। | 5-19-19a 5-19-19b |
अथ प्रहस्य बीभत्सुर्ललित्थान्मालवानपि। मावेल्लकांस्त्रिगर्तांश्च यौधेयांश्चार्दयच्छरैः।। | 5-19-20a 5-19-20b |
ते हन्यमाना वीरेण क्षत्रियाः कालचोदिताः। व्यसृजञ्छरजालानि पार्थे नानाविधानि च।। | 5-19-21a 5-19-21b |
न ध्वजो नार्जुनस्तत्र न रथो न च केशवः। प्रत्यदृश्यत घोरेण शरवर्षेण संवृतः।। | 5-19-22a 5-19-22b |
ततस्ते लब्धलक्षत्वादन्योन्यमभिचुक्रुशुः। हतौ कृष्णाविति प्रीत्या वासांस्यादुधुवुस्तदा।। | 5-19-23a 5-19-23b |
भेरीमृदङ्गशङ्खांश्च दध्मुर्वीराः सहस्रशः। सिंहनादरवांश्चोग्रांश्चक्रिरे तत्र मारिष।। | 5-19-24a 5-19-24b |
ततः प्रसिष्विदे कृष्णः खिन्नश्चार्जुनमब्रवीत्। क्वासि पार्थ न पश्यामि कच्चिज्जीवसि शत्रुहन्।। | 5-19-25a 5-19-25b |
तस्य तद्भाषितं श्रुत्वा त्वरमाणो धनञ्जयः। वायव्यास्त्रेण तैरस्तां शरवृष्टिमपाहरत्।। | 5-19-26a 5-19-26b |
ततः संशप्तकव्रातान्साश्वद्विपरथायुधान्। उवाह भगवान्वायुः शुष्कपर्मचयानिव।। | 5-19-27a 5-19-27b |
उह्यमानास्तु ते राजन्बह्वशोभन्त वायुना। प्रडीनाः पक्षिणः काले वृक्षेभ्य इव मारिष।। | 5-19-28a 5-19-28b |
तांस्तथा व्याकुलीकृत्य त्वरमाणो धनञ्जयः। जघान निशितैर्बाणैः सहस्राणि शतानि च।। | 5-19-29a 5-19-29b |
शिरांसि भल्लैरहरद्बाहूनपि च सायुधान्। हस्तिहस्तोपमांश्चोरूञ्शरैरुर्व्यामपातयत्।। | 5-19-30a 5-19-30b |
पृष्ठच्छिन्नान्विचरणान्विमस्तकदृगङ्गुलीन्। नानाङ्गावयवैर्हीनांश्चकारारीन्धनञ्जयः।। | 5-19-31a 5-19-31b |
गन्धर्वनगराकारान्विधिवत्कल्पितान्रथान्। शरैर्विशकलीकुर्वंश्चक्रे व्यश्वरथद्विपान्।। | 5-19-32a 5-19-32b |
मुण्डतालवनानीव तत्रतत्र चकाशिरे। छिन्ना रथध्वजव्राताः केचित्तत्र क्वचित्क्वचित्।। | 5-19-33a 5-19-33b |
सोत्तरायुधिनो नागाः सपताकाङ्कुशध्वजाः। पेतुः शक्राशनिहता द्रुमवन्त इवाचलाः।। | 5-19-34a 5-19-34b |
चामरापीडकवचाः स्रस्तान्त्रनयनास्तथा। सारोहास्तुरगाः पेतुः पार्तबाणहताः क्षितौ।। | 5-19-35a 5-19-35b |
विप्रविद्धासिनाराचाश्छिन्नवर्मर्ष्टिशक्तयः। पत्तयश्चिन्नवर्माणः कृपणाः शेरते हताः।। | 5-19-36a 5-19-36b |
तैर्हतैर्हन्यमानैश्च पतद्भिः पतितैरपि। भ्रमद्भिर्निष्टनद्भिश्च क्रूरमायोधनं बभौ।। | 5-19-37a 5-19-37b |
रजश्च चाप्यभवद्दुर्गा कबन्धशतसङ्कुला।। तद्बभौ रौद्रबीभत्सं बीभत्सोर्यानमाहवे। | 5-19-38a 5-19-38b |
आक्रीडमिव रुद्रस्य घ्नतः कालात्यये पशून्।। कते वध्यमानाः पार्थेन व्याकुलाश्वरथद्विपाः। | 5-19-39a 5-19-39b |
तमेवाभिमुखाः क्षीणाः शक्रस्यातिथितां गताः।। सा भूमीर्भरतश्रेष्ठ निहतैस्तैर्महारथैः। | 5-19-40a 5-19-40b |
आस्तीर्णा सम्बभौ सर्वा प्रेतीभूतैः समन्ततः।। एतस्मिन्नन्तरे चैव प्रमत्ते सव्यसाचिनि। | 5-19-41a 5-19-41b |
व्यूढानीकस्ततो द्रोणो युधिष्ठिरमुपाद्रवत्।। तं प्रत्यगृह्णंस्त्वरिता व्यूढानीकाः प्रहारिणः। | 5-19-42a 5-19-42b |
युधिष्ठिरं परीप्सन्तस्तदासीत्तुमुलं महत्।। | 5-19-43a |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसयुद्धे एकोनविंशोऽध्यायः।। 19 ।। |
5-19-34 सोत्तरायुधिनः उपरिगतैर्योधैः सहिताः।। 5-19-19 एकोनविंशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-018 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-020 |