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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-016

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द्रोणेन युधिष्ठिरग्रहणोद्यमे अर्जुमेन तद्भङ्गः।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 5-16-1x
तद्बलं सुमहद्दीर्णं त्वदीयं प्रेक्ष्य वीर्यवान्।
दधारैको रणे पाण्डून्वृषसेनोऽस्त्रमायया।।
5-16-1a
5-16-1b
शरा दश दिशो मुक्ता वृषसेनेन संयुगे।
विचेरुस्ते विनिर्भिद्य नरवाजिरथद्विपान्।।
5-16-2a
5-16-2b
तस्य दीप्ता महाबाणा विविश्चेरुः सहस्रशः।
भानोरिव महाराज घर्मकाले मरीचयः।।
5-16-3a
5-16-3b
तेनार्दिता महाराज रथिनः सादिनस्तथा।
निपेतुरुर्व्यां सहसा वातभग्ना इव द्रुमाः।।
5-16-4a
5-16-4b
हयौघांश्च रथौघांश्च गजौघांश्च महारथः।
अपातयद्रणे राजञ्शतशोऽथ सहस्रशः।।
5-16-5a
5-16-5b
दृष्ट्वा तमेकं समरे विचरन्तमभीतवत्।
सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः।।
5-16-6a
5-16-6b
नाकुलिस्तु शतानीको वृषसेनं समभ्ययात्।
विव्याध चैनं दशभिर्नाराचैर्मर्मभेदिभिः।।
5-16-7a
5-16-7b
तस्य कर्णात्मजश्चापं छित्त्वा केतुमपातयत्।
तं भ्रातरं परीप्सन्तो द्रौपदेयाः समभ्ययुः।।
5-16-8a
5-16-8b
कर्णात्मजं शरव्रातैरदृश्यं चक्रुरञ्जसा।
तान्नदन्तोऽभ्यधावन्त द्रोणपुत्रमुखा रथाः।।
5-16-9a
5-16-9b
छादयन्तो महाराज द्रौपदेयान्महारथान्।
शरैर्नानाविधैस्तूर्णं पर्वताञ्जलदा इव।।
5-16-10a
5-16-10b
तान्पाण्डवाः प्रत्यगृह्णंस्त्वरिताः पुत्रगृद्धिनः।
पाञ्चालाः केकया मत्स्याः सृञ्जयाश्चोद्यतायुधाः।।
5-16-11a
5-16-11b
तद्युद्धमभवद्धोरं सुमहद्रोमहर्षणम्।
त्वदीयैः पाण्डुपुत्राणां देवानामिव दानवैः।।
5-16-12a
5-16-12b
एवं युयुधिरे वीराः संरब्धाः कुरुपाण्डवाः।
परस्परमुदीक्षन्तः परस्परकृतागसः।।
5-16-13a
5-16-13b
तेषां ददृशिरे कोपाद्वपूम्ष्यमिततेजसाम्।
युयुत्सूनामिवाकाशे पतत्त्रिवरभोगिनाम्।।
5-16-14a
5-16-14b
भीमकर्णकृपद्रोणद्रौणिपार्षतसात्यकैः।
बभासे स रणोद्देशः कालसूर्यैरिवोदितैः।।
5-16-15a
5-16-15b
`प्रजानां संक्षये घोरे यथा सूर्योदयो भवेत्।
शूराणामुदयस्तद्वदासीत्पुरुषसत्तम'।।
5-16-16a
5-16-16b
तदासीत्तुमुलं युद्धं निघ्नतामितरेतरम्।
महाबलानां बलिभिर्दानवानां यथा सुरैः।।
5-16-17a
5-16-17b
ततो युधिष्ठिरानीकमुद्धूतार्णवनिःस्वनम्।
त्वदीयमवधीत्सैन्यं संप्रद्रुतमहारथम्।।
5-16-18a
5-16-18b
तत्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा शत्रुभिर्भृशमर्दितम्।
अलं द्रुतेन वः शूरा इति द्रोणोऽभ्यभाषत।।
5-16-19a
5-16-19b
`भारद्वाजममर्षश्च विक्रमश्च समाविशत्।
समुद्धृत्य निषङ्गाच्च धनुर्ज्यामवमृज्य च।
महाशरधनुष्पाणिर्यन्तारमिदमब्रवीत्।।
5-16-20a
5-16-20b
5-16-20c
सारथे याहि यत्रैष पाण्डरेण विराजता।
ध्रियमाणेन च्छेण राजा तिष्ठति धर्मराट्।।
5-16-21a
5-16-21b
तदेतद्दीर्यते सैन्यं धार्तराष्ट्रमनेकधा।
एतत्संस्तम्भयिष्यामि प्रतिवार्य युधिष्ठिरम्।।
5-16-22a
5-16-22b
न हि मामभिवर्षन्तं संयुगे तात पाण्डवाः।
मात्स्यपाञ्चालराजानः सर्वे च सहसोमकाः।।
5-16-23a
5-16-23b
अर्जुनो मत्प्रसादाद्धि महास्त्राणि समाप्तवान्।
न मामुत्सहते तात न भीमो न च सात्यकिः।।
5-16-24a
5-16-24b
मत्प्रसादाद्धि बीभत्सुः परमेष्वासतां गतः।
ममैवास्त्रं विजानाति धृष्टद्युम्नोऽपि पार्षतः।।
5-16-25a
5-16-25b
नायं संरक्षितुं कालः प्राणांस्तात जयैषिणा।
याहि सर्गं पुरस्कृत्य यशसे च जयाय च।।
5-16-26a
5-16-26b
सञ्जय उवाच। 5-16-27x
एवं सञ्चोदितो यन्ता द्रोणमभ्यवहत्ततः।। 5-16-27a
तदाऽश्वहृदयेनाश्वानभिमन्त्र्याशु हर्षयन्।
रथेन सवरूथेन भास्वरेण विराजता।।
5-16-28a
5-16-28b
तं करूशाश्च मात्स्याश्च चेदयश्च ससात्वताः।
पाण्डवाश्च सपाञ्चालाः सहिताः पर्यवारयन्'।।
5-16-29a
5-16-29b
ततः शोणहयः क्रुद्धश्चतुर्दन्त इव द्विपः।
प्रविश्य पाण्डवानीकं युधिष्ठिरमुपाद्रवत्।।
5-16-30a
5-16-30b
तमाविध्यच्छितैर्बाणैः कङ्कपत्रैर्युधिष्ठिरः।
तस्य द्रोणो धनुश्छित्वा तं द्रुतं समुपाद्रवत्।।
5-16-31a
5-16-31b
चक्ररक्षः कुमारस्तु पाञ्चालानां यशस्करः।
दधार द्रोणमायान्तं वेलेव सरितां पतिम्।।
5-16-32a
5-16-32b
द्रोणं निवारितं दृष्ट्वा कुमारेण द्विजर्षभम्।
सिंहनादरवो ह्यासीत्साधुसाध्विति भाषितम्।।
5-16-33a
5-16-33b
कुमारस्तु ततो द्रोणं सायकेन महाहवे।
विव्याधोरसि सङ्क्रुद्धः सिंहवच्च नदन्मुहुः।।
5-16-34a
5-16-34b
संवार्य च रणे द्रोणं कुमारस्तु महाबलः।
शरैरनेकसाहस्रैः कृतहस्तो जितश्रमः।।
5-16-35a
5-16-35b
तं शूरमार्यव्रतिनं मन्त्रास्त्रेषु कृतश्चमम्।
चक्ररक्षतं परामृद्रात्कुमारं द्विजपुङ्गवः।।
5-16-36a
5-16-36b
स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वाः प्रविचरन्दिशः।
तव सैन्यस्य गोप्तासीद्भारद्वाजो द्विजर्षभः।।
5-16-37a
5-16-37b
शिखण्डिनं द्वादशभिर्विंशत्या चोत्तमौजसम्।
नकुलं पञ्चभिर्विद्ध्वा सहदेवं च सप्तभिः।।
5-16-38a
5-16-38b
युधिष्ठिरं द्वादशभिर्द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः।
सात्यकिं पञ्चभिर्विद्ध्वा मत्स्यं च दशभिः शरैः।।
5-16-39a
5-16-39b
व्यक्षोभयद्रणे योधान्यथामुख्यमभिद्रवन्।
अभ्यवर्ततं सम्प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।।
5-16-40a
5-16-40b
युगन्धरस्ततो राजन्भारद्वाजं महारथम्।
वारयामास सङ्क्रुद्वं वातोद्धतमिवार्णवम्।।
5-16-41a
5-16-41b
युधिष्ठिरं स विद्ध्वा तु शरैः सन्नतपर्वभिः।
युगन्धरं तु भल्लने रथनीडादपातयत्।।
5-16-42a
5-16-42b
`तं विजित्य महातेजा भारद्वाजो महामनाः।
अभ्यवर्तत सम्प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्'।।
5-16-43a
5-16-43b
ततो विराटद्रुपदौ केकयाः सात्यकिः शिबिः।
व्याघ्रदत्तश्च पाञ्चल्यः सिंहसेनश्च वीर्यवान्।।
5-16-44a
5-16-44b
एते चान्ये च बहवः परीप्सन्तो युधिष्ठिरम्।
आवव्रुस्तस्य पन्थानं किरन्तः सायकान्बहून्।।
5-16-45a
5-16-45b
व्याघ्रदत्तस्तु पाञ्चाल्यो द्रोणं विव्याध मार्गणैः।
पञ्चाशता शितै राजंस्तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।।
5-16-46a
5-16-46b
त्वरितं सिंहसेनस्तु द्रोणं विद्ध्वा महारथम्।
प्राहसत्सहसा हृष्टस्त्रासयन्वै महारथान्।।
5-16-47a
5-16-47b
ततो विष्फार्य नयने धनुर्ज्यामवमृज्य च।
तलशब्दं महत्कृत्वा द्रोणस्तं समुपाद्रवत्।।
5-16-48a
5-16-48b
ततस्तु सिंहसेनस्य शिरः कायात्सकुण्डलम्।
व्याघ्रदत्तस्य चाक्रम्य भल्लाभ्यामाहरद्बली।।
5-16-49a
5-16-49b
तान्प्रमृज्य शरव्रातैः पाण्डवानां महारथान्।
युधिष्ठिररथाभ्याशे तस्थौ मृत्युरिवान्तकः।।
5-16-50a
5-16-50b
ततोऽभवन्महाशब्दो राजन्यौधिष्ठिरे बले।
हृतो राजेति योधानां समीपस्थे यतव्रते।।
5-16-51a
5-16-51b
अब्रुवन्सैनिकास्तत्र दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्।
अद्य राजा धार्तराष्ट्रः कृतार्थो वै भविष्यति।।
5-16-52a
5-16-52b
अस्मिन्महूर्ते द्रोणस्तु पाण्डवं गृह्य हर्षितः।
आगमिष्यति नो नूनं धार्तराष्ट्रस्य संयुगे।।
5-16-53a
5-16-53b
एवं सञ्जल्पतां तेषां तावकानां महारथः।
आयाज्जवेन कौन्तेयो रथघोषेण नादयन्।।
5-16-54a
5-16-54b
शोणितोदां रथावर्तां कृत्वा विशसने नदीम्।
शूरास्थिचयसङ्कीर्णां प्रेतकूलापहारिणीम्।।
5-16-55a
5-16-55b
तां शरौघमहाफेनां प्रासमत्स्यसमाकुलाम्।
नदीमुत्तीर्य वेगेन कुरून्विद्राव्य पाण्डवः।।
5-16-56a
5-16-56b
ततः किरीटि सहसा द्रोणानीकमुपाद्रवत्।
छादयन्निषुजालेन महता मोहयन्निव।।
5-16-57a
5-16-57b
शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान्सन्दधानस्य चानिशम्।
नान्तरं ददृशे कश्चित्कौन्तेयस्य यशस्विनः।।
5-16-58a
5-16-58b
न दिशो नान्तरिक्षं च न द्यौर्नैव च मेदिनी।
अदृश्यन्त महाराज बाणभूता इवाभवन्।।
5-16-59a
5-16-59b
नादृश्यत तदा राजंस्तत्र किञ्चन संयुगे।
बाणान्धकारे महति कृते गाण्डीवधन्वना।।
5-16-60a
5-16-60b
सूर्ये चास्तमनुप्राप्ते तमसा चाभिसंवृते।
नाज्ञायत तदा शत्रुर्न सुहृन्न च कश्चन।
5-16-61a
5-16-61b
ततोऽवहारं चक्रुस्ते द्रोणदुर्योधनादयः।
तान्विदित्वा पुनस्त्रस्ता न युद्धमनसः परान्।।
5-16-62a
5-16-62b
स्वान्यनीकानि बीभत्सुः शनकैरवहारयत्।
ततोऽभितुष्टुवुः पार्थं प्रहृष्टाः पाण्डुसृञ्जयाः।।
5-16-63a
5-16-63b
पाञ्चालाश्च मनोज्ञाभिर्वाग्भिः सूर्यमिवर्षयः।
एं स्वशिबिरं प्रायाज्जित्वा शत्रून्धनञ्जयः।।
5-16-64a
5-16-64b
पृष्ठतः सर्वसैन्यानां मुदितो वै सकेशवः।।
मसारगल्वर्कमुवर्णरूपैर्वज्रप्रवालस्फटिकैश्च मुख्यैः।
5-16-65a
5-16-65b
चित्रे रथे पाण्डुसुतो बभासे नक्षत्रचित्रे वियतीव चन्द्रः।। 5-16-66a
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशदिवसयुद्धे षोडशोऽध्यायः।। 16 ।।
0 </text>
वृद्धक्षत्रस्य दायादं पितुरत्यन्तवैरिणम्।
ससाराभिमुखः शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम्।।
5-14-67a
5-14-67b
तौ परस्परमासाद्य खह्गदन्तनखायुधौ।
हृष्टवत्सम्प्रजहाते व्याघ्रकेसरिणाविव।।
5-14-68a
5-14-68b
सम्पातेष्वभिघातेषु निपातेष्वसिचर्मणोः।
न तयोरन्तरं कश्चिद्ददर्श नरसिंहयोः।।
5-14-69a
5-14-69b
अवक्षेपोऽसिनिर्हादः शस्त्रान्तरनिदर्शनम्।
बाह्यान्तरनिपातश्च निर्विशेमदृश्यत।।
5-14-70a
5-14-70b
बाह्यमाभ्यन्तरं चैव चरन्तौ मार्गमुत्तमम्।
ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वतौ।।
5-14-71a
5-14-71b
ततो विक्षिपतः खङ्गं सौभद्रस्य यशस्विनः।
शरावरणपक्षान्ते प्रजहार जयद्रथः।।
5-14-72a
5-14-72b
रुक्मपत्रान्तरे सक्तस्तस्मिंश्चर्मणि भास्वरे।
सिन्धुराजबलोद्धूतः सोऽभज्यत महानसिः।।
5-14-73a
5-14-73b
भग्नमाज्ञाय निस्त्रिंशमवप्लुत्य पदानि षट्।
अदृश्यत निमेषेण स्वरथं पुनरास्थितः।।
5-14-74a
5-14-74b
तं कार्ष्णिं समरान्मुक्तमास्थितं रथमुत्तमम्।
सहिताः सर्वराजानः परिवव्रुः समन्ततः।।
5-14-75a
5-14-75b
ततश्चर्म च खङ्गं च समुत्क्षिप्य महाबलः।
ननादार्जुनदायादः प्रेक्षमाणो जयद्रथम्।।
5-14-76a
5-14-76b
सिन्धुराजं परित्यज्य सौभद्रः परवीरहा।
तापयामास तत्सैन्यं भुवनं भास्करो यथा।।
5-14-77a
5-14-77b
तस्य सर्वायसीं शक्तिं शल्यः कनकभूषणाम्।
चिक्षेप समरे घोरां दीप्तामग्निशिखामिव।।
5-14-78a
5-14-78b
तामवप्लुत्य जग्राह विकोशं चाकरोदसिम्।
वैनतेयो यथा कार्ष्णिः पतन्तमुरगोत्तमम्।।
5-14-79a
5-14-79b
तस्य लाषवमाज्ञाय सत्वं चामिततेजसः।
सहिताः सर्वराजानः सिंहनादमथानदन्।।
5-14-80a
5-14-80b
ततस्तामेव शल्यस्य सौभद्रः परवीरहा।
मुमोच भुजवीर्येण वैदूर्यविकृतां शिताम्।।
5-14-81a
5-14-81b
सा तस्य रथमासाद्य निर्मुक्तभुजगोपमा।
जघान सूतं शल्यस्य रथाच्चैनमपातयत्।।
5-14-82a
5-14-82b
ततो विराटद्रुपदौ धृष्टकेतुर्युधिष्ठिरः।
सात्यकिः केकया भीमो धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।।
5-14-83a
5-14-83b
यमौ च द्रौपदेयाश्च साधुसाध्विति चुक्रुशुः।
बाणशब्दाश्च विविधाः सिंहनादाश्च पुष्कलाः।।
5-14-84a
5-14-84b
प्रादुरासन्हर्षयन्तः सौभद्रमपलायिनम्।
तन्नामृष्यन्त पुत्रास्ते शत्रोर्विजयलक्षणम्।।
5-14-85a
5-14-85b
अथैनं सहसा सर्वे समन्तान्निशितैः शरैः।
अभ्याकिरन्महाराज जलदा इव पर्वतम्।।
5-14-86a
5-14-86b
तेषां च प्रियमन्विच्छन्सूतस्य च पराभवम्।
आर्तायनिरमित्रघ्नः क्रुद्धः सौभद्रमभ्ययात्।।
5-14-87a
5-14-87b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि
एकादशदिवसयुद्धे चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।।

5-16-1 अस्त्रमायया अस्त्रकौशलेन।। 5-16-14 पतत्त्रिवरभोगिनामिव पतत्त्रिवरो गरुडः। भोगिनः सर्पाः।। 5-16-19 द्रुतेन पलायितेन।। 5-16-55 विशसने युद्धे।। 5-16-66 मसारः इन्द्रनीलः। गल्वर्कः पद्मरागः।। 5-16-16 षोडशोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-015 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-017