महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-197
दिखावट
← द्रोणपर्व-196 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-197 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-198 → |
|
कुरुसेनाहरवश्रवणभीतेन युधिष्ठिरेण पलायितसेनाप्रतिनिवर्तकप्रश्ने अर्जुनेन तत्कथनपूर्वकं द्रोणवधोपेक्षणादात्मोपालम्भः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-197-1x |
प्रादुर्भूते ततस्तस्मिन्नस्त्रे नारायणे प्रभो। प्रावात्सपृषतो वायुरनभ्रे स्तनयित्नुमान्।। | 5-197-1a 5-197-1b |
चचाल पृथिवी चापि चुक्षुभे च महोदधिः। प्रतिस्रोतः प्रवृत्ताश्च गन्तुं तत्र समुद्रगाः।। | 5-197-2a 5-197-2b |
शिखराणि व्यशीर्यन्त गिरीणां तत्र भारत। अपसव्यं मृगाश्चैव पाण्डुसेनां प्रचक्रिरे।। | 5-197-3a 5-197-3b |
तमसा तावकीर्यन्त सूर्यश्च कलुषोऽभवत्। सम्पतन्ति च भूतानि क्रव्यादानि प्रहृष्टवत्।। | 5-197-4a 5-197-4b |
देवदानवगन्धर्वास्त्रस्तास्त्वासन्विशाम्पते। कथङ्खथाऽभवत्तीव्रा दृष्ट्वा तद्व्याकुलं महत्।। | 5-197-5a 5-197-5b |
व्यथिताः सर्वराजानस्त्रस्ताश्चासन्विशाम्पते। तद्दृष्ट्वा घोररूपं वै द्रौणेरस्त्रं भयावहम्।। | 5-197-6a 5-197-6b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-197-7x |
निवर्तितेषु सैन्येषु द्रोणपुत्रेण संयुगे। भृशं शोकाभितप्तेन पितुर्वधममृष्यता।। | 5-197-7a 5-197-7b |
कुरूनापततो दृष्ट्वा धृष्टद्मुम्नस्य रक्षणे। को मन्त्रः पाण्डवेष्वासीत्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-197-8a 5-197-8b |
सञ्जय उवाच। | 5-197-9x |
प्रागेव विद्रुतान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्युधिष्ठिरः। पुनश्च तुमुलं शब्दं श्रुत्वाऽर्जुनमथाब्रवीत्।। | 5-197-9a 5-197-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-197-10x |
आचार्ये निहते द्रोणे धृष्टद्युम्नेन संयुगे। निहते वज्रहस्तेन यथा वृत्रे महासुरे।। | 5-197-10a 5-197-10b |
नाशंसन्तो जयं युद्धे दीनात्मानो धनञ्जय। आत्मत्राणे मतिं कृत्वा प्राद्रवन्कुरवो रणात्।। | 5-197-11a 5-197-11b |
केचिद्वान्तै रथैस्तूर्णं निहतैः पाष्णियन्तृभिः। विपताकध्वजच्छत्रैः पार्थिवाः शीर्णकूबरैः।। | 5-197-12a 5-197-12b |
भग्ननीडैराकुलाश्वैः प्रारुह्यान्यान्विचेतसः। भीताः पादैर्हयान्केचित्त्वरयन्तः स्वयं रथान्।। | 5-197-13a 5-197-13b |
भग्नाक्षयुगचक्रैश्च व्याकृष्यन्त समन्ततः। रथान्विशीर्णानुत्सृज्य पद्भिः केचिच्च विद्रुताः।। | 5-197-14a 5-197-14b |
हयपृष्ठगताश्चान्ये कृष्यन्तेऽर्धच्युतासनाः। गजस्कन्धेषु संस्यूता नाराचैश्चलितासनाः।। | 5-197-15a 5-197-15b |
शरार्तैर्विद्रुतैर्नागैर्हृताः केचिद्दिशो दश। विशस्त्रकवचनाश्चान्ये वाहनेभ्यः क्षितिं गताः।। | 5-197-16a 5-197-16b |
सञ्छिन्ना नेमिभिश्चैव मृदिताश्च हयद्विपैः। क्रोशन्तस्तात पुत्रेति पलायन्ते परे भयात्।। | 5-197-17a 5-197-17b |
नाभिजानन्ति चान्योन्यं कश्मलाभिहतौजसः। पुत्रान्पितॄन्सखीन्भ्रातॄन्समारोप्य दृढक्षतान्।। | 5-197-18a 5-197-18b |
जलेन क्लेदयन्त्यन्ये विमुच्य कवचनान्यपि। `पलायनपराश्चान्ये योधाः शतसहस्रशः'।। | 5-197-19a 5-197-19b |
अवस्थां तादृशीं प्राप्य हते द्रोणे द्रुतं बलम्। पुनरावर्तितं केन यदि जानासि शंस मे।। | 5-197-20a 5-197-20b |
हयानां हेषतां शब्दः कुञ्जराणां च बृंहताम्। रथनेमिस्वनैश्चात्र विमिश्रः श्रूयते महान्।। | 5-197-21a 5-197-21b |
एते शब्दा भृशं तीव्राः प्रवृत्ताः कुरुसागरे। मुमुर्मुहुरुदीर्यन्ते कम्पयन्त्यपि मामकान्।। | 5-197-22a 5-197-22b |
य एष तुमुलः शब्दः श्रूयते रोमहर्षणः। सेन्द्रानप्येष लोकांस्त्रीन्ग्रसेदिति मतिर्मम।। | 5-197-23a 5-197-23b |
मन्ये वज्रधरस्यैष निनादो भैरवस्वनः। द्रोणे हते कौरवार्यं व्यक्तमभ्येति वासवः।। | 5-197-24a 5-197-24b |
प्रहृष्टरोमकूपाः स्मः संविग्नरथकुञ्जराः। धनञ्जय गुरुं श्रुत्वा तत्र नादं सुभीषणम्।। | 5-197-25a 5-197-25b |
क एष कौरवान्दीर्णानवस्थाप्य महारथः। निवर्तयति युद्धार्थं मृधे देवेश्वरो यथा।। | 5-197-26a 5-197-26b |
अर्जुन उवाच। | 5-197-27x |
उद्यम्यात्मानमुग्राय कर्मणे वीर्यमास्थिताः। धमन्ति कौरवाः शङ्खान्यस्य वीर्यं समाश्रिताः।। | 5-197-27a 5-197-27b |
यत्र ते संशयो राजन्न्यस्तशस्त्रे गुरौ हते। धार्तराष्ट्रानवस्थाप्य क एष नदतीति हि।। | 5-197-28a 5-197-28b |
हीमन्तं तं महाबाहुं मत्तद्विरदगामिनम्। `इन्द्रविष्मुसमं वीर्ये कोपेऽन्तकमिव स्थितम्।। | 5-197-29a 5-197-29b |
बृहस्पतिसमं बुद्ध्या नीतिमन्तं महारथम्'। आख्यास्याम्युग्रकर्माणं कुरूणामभयङ्करम्।। | 5-197-30a 5-197-30b |
यस्मिञ्जाते ददौ द्रोणो गवां दशशतं धनम्। ब्राह्मणेभ्यो महार्हेभ्यः सोऽश्वत्थामैष गर्जति।। | 5-197-31a 5-197-31b |
जातमात्रेण वीरेण येनोच्चैः श्रवसा यथा। हेषता कम्पिता भूमिर्लोकाश्च सकलास्त्रयः।। | 5-197-32a 5-197-32b |
तच्छ्रुत्वान्तर्हितं भूतं नाम तस्याकरोत्तदा। अश्वत्थामेति सोऽद्यैष शूरो नदति पाण्डव।। | 5-197-33a 5-197-33b |
यो ह्यनाथ इवाक्रम्य पार्षतेन हतस्तथा। कर्मणा सुनृशंसेन तस्य नाथो व्यवस्थितः।। | 5-197-34a 5-197-34b |
गुरुं मे यत्र पाञ्चाल्यः केशपक्षे परामृशत्। तन्न जातुं क्षमेद्द्रौणिर्जानन्पौरुषमात्मनः।। `स हि तेनैव नः सर्वान्क्षपयेदिति मे मतिः'।। | 5-197-35a 5-197-35b 5-197-35c |
उपचीर्णो गुरुर्मिथ्या भवता राज्यकारणात्। धर्मज्ञेन सता नाम सोऽधर्मः सुमहान्कृतः।। | 5-197-36a 5-197-36b |
चिरं स्थास्यति चाकीर्तिस्त्रैलोक्ये सचराचरे। रामे वालिवधाद्यद्वदेवं द्रोणे निपातिते।। | 5-197-37a 5-197-37b |
सर्वधर्मोपपन्नोऽयं स मे शिष्यश्च पाण्डवः। नायं वक्ष्यति मिथ्येति प्रत्ययं कृतवांस्त्वयि।। | 5-197-38a 5-197-38b |
स सत्यकञ्चुकं नाम प्रविष्टेन ततोऽनृतम्। आचार्य उक्तो भवता हतः कुञ्जर इत्युत।। | 5-197-39a 5-197-39b |
ततः शस्त्रं समुत्सृज्य निर्ममो गतचेतनः। आसीत्सुविह्वलो राजन्यथा दृष्टस्त्वया विभुः।। | 5-197-40a 5-197-40b |
स तु शोकसमाविष्टो विमुखः पुत्रवत्सलः। शाश्वतं धर्ममुत्सृज्य गुरुः शिष्येण घातितः।। | 5-197-41a 5-197-41b |
न्यस्तशस्त्रमधर्मेण घातयित्वा गुरुं भवान्। रक्षत्विदानीं सामात्यो यदि शक्तोसि पार्षतम्।। | 5-197-42a 5-197-42b |
ग्रस्तमाचार्य पुत्रेण क्रुद्धेन हतबन्धुना। सर्वे वयं परित्रातुं न शक्ष्यामोऽद्य पार्षतम्।। | 5-197-43a 5-197-43b |
सौहार्दं सर्वभूतेषु यः करोत्यतिमानुषः। सोऽद्य केशग्रहं श्रुत्वा पितुर्धक्ष्यति नो रणे।। | 5-197-44a 5-197-44b |
विक्रोशमाने हि मयि भृशमाचार्यगृद्विनि। अपाकीर्य स्वयं धर्मं शिप्येण निहतो गुरुः।। | 5-197-45a 5-197-45b |
यदा गतं वयो भूयः शिष्टमल्पतरं च नः। तस्येदानीं विरोधोऽयमधर्मोऽयं कृतो महान्।। | 5-197-46a 5-197-46b |
पितेव नित्यं सौहार्दात्पितेव हि च धर्मतः। सोऽल्पकालस्य राज्यस्य कारमाद्वातितो गुरुः।। | 5-197-47a 5-197-47b |
धृतराष्ट्रेण भीष्माय द्रोणाय च विशाम्पते। विसृष्टा पृथिवी सर्वा सह पुत्रैश्च तत्परैः।। | 5-197-48a 5-197-48b |
सम्प्राप्य तादृशीं वृत्तिं सत्कृतः सततं परैः। अब्रवीत्सततं पुत्रान्मामेवाभ्यधिकं गुरुः।। | 5-197-49a 5-197-49b |
अवेक्षमाणस्त्वां मां च न्यस्तास्त्रश्चाहवे हतः। न त्वेनं युध्यमानं वै हन्यादपि शतक्रतुः।। | 5-197-50a 5-197-50b |
तस्याचार्यस्य वृद्धस्य द्रोहो नित्योपकारिणः। कृतो ह्यनार्यैरस्माभीर राज्यार्थे लुब्धबुद्धिभिः।। | 5-197-51a 5-197-51b |
अहो बत महत्पापं कृतं कर्म सुदारुणम्। यद्राज्यसुखलोभेन द्रोणोऽयं साधुघातितः।। | 5-197-52a 5-197-52b |
पुत्रान्भ्रातॄन्पितॄन्दाराञ्जीवितं चैव वासविः। त्यजेत्सर्वं मम प्रेम्णा जानात्येवं हि मे गुरुः।। | 5-197-53a 5-197-53b |
स मया राज्यकामेन हन्यमानो ह्युपेक्षितः। तस्मादर्वाक्शिरा राजन्प्राप्तोऽस्मि नरकं प्रभो।। | 5-197-54a 5-197-54b |
ब्राह्मणं वृद्धमाचार्यं न्यस्तशस्त्रं महामुनिम्। घातयित्वाऽद्य राज्यार्थे मृतं श्रेयो न जीवितम्।। | 5-197-55a 5-197-55b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 197 ।। |
5-197-1 सपृषतः सजलबिन्दुः। अनभ्रे अप्रावृषिकाले।। 5-197-5 कथङ्कथा कथं कर्तव्यं कथं कर्तव्यमित्येवंशब्दः।। 5-197-8 रक्षणे मन्त्रः क आसीदिति सम्बन्धः।। 5-197-30 व्याघ्रास्यमुग्रकर्माणमिति झ.पाठः।। 5-197-31 यस्मिन्निति दशशतामेत्यनेन सर्वगोधनं ददाविति ज्ञेयम्। अन्यथा एकधेन्वर्थं द्रुपदं प्रति द्रोणगमनस्यासम्भवः। यद्वा भाविनीं सम्पदमभिलक्ष्यैतद्दानं द्रष्टव्यम्। पुत्रोत्पत्तिकाले तस्य निर्धनत्वोक्तेः।। 5-197-39 सत्यकञ्जुकं सत्याभासमनृतम्।। 5-197-53 वासविरर्जुनः।। 5-197-197 सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-196 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-198 |