सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-157

विकिस्रोतः तः
← द्रोणपर्व-156 महाभारतम्
सप्तमपर्व
महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-157
वेदव्यासः
द्रोणपर्व-158 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203

सात्यकिना सोमदत्तपराजयः।। 1 ।। अश्वत्थामघटोत्कचयुद्धमश्वत्थामपराक्रमश्च।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 5-157-1x
प्रायोपविष्टे तु हते पुत्रे सात्यकिना तदा।
सोमदत्तो भृशं क्रुद्धः सात्यकिं वाक्यमब्रवीत्।।
5-157-1a
5-157-1b
क्षत्रधर्मः परो दृष्टो यस्तु देवैर्महात्मभिः।
तं त्वं सात्वत सन्तज्य दस्युधर्मे कथं रतः।।
5-157-2a
5-157-2b
पराङ्मुखाय दीनाय न्यस्तशस्त्राय याचते।
क्षत्रधर्मरतः प्राज्ञः कथं नु प्रहरेद्रणे।।
5-157-3a
5-157-3b
द्वावेव किल वृष्णीनां तत्र ख्यातौ महारथौ।
प्रद्युम्नश्च महाबाहुस्त्वं चैव युधि सात्वत।।
5-157-4a
5-157-4b
कथं प्रायोपविष्टाय पार्थेन च्छिन्नबाहवे।
नृशंसं बत दीनं च तादृशं कृतवानसि।।
5-157-5a
5-157-5b
कर्ममस्तस्य दुर्वृत्त फलं प्राप्नुहि संयुगे।
अद्य छेत्स्यामि ते मूढ शिरो विक्रम्य पत्रिणा।।
5-157-6a
5-157-6b
शपे सात्वत पुत्राभ्यामिष्टेन सुकृतेन च।
अनतीतामिमां रात्रिं यदि त्वां वीरमानिनम्।।
5-157-7a
5-157-7b
अरक्ष्यमाणं पार्थेन जिष्णुना ससुतानुजम्।
न हन्यां नरके घोरे पतेयं वृष्णिपांसन।।
5-157-8a
5-157-8b
एवमुक्त्वा सुसङ्क्रुद्धः सोमदत्तो महाबलः।
दध्मौ शङ्खं च तारेण सिंहनादं ननाद च।।
5-157-9a
5-157-9b
ततः कमलपत्राक्षः सिंहदंष्ट्रो दुरासदः।
सात्यकिर्भृशसङ्क्रुद्धः सोमदत्तमथाब्रवीत्।।
5-157-10a
5-157-10b
कौरवेय न मे त्रासः कथञ्चिदपि विद्यते।
त्वया सार्धमथान्यैश्च युध्यतो हृदि कश्चन।।
5-157-11a
5-157-11b
यदि सर्वेण सैन्येन गुप्तो मां योधयिष्यसि।
तथापि न व्यथा काचित्त्वयि स्यान्मम कौरव।।
5-157-12a
5-157-12b
युद्धसारेण वाक्येन असतां सम्मतेन च।
नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रवृत्ते स्थितस्त्वया।।
5-157-13a
5-157-13b
यदि तेऽस्ति युयुत्साऽद्य मया सह नराधिप।
निर्दयो निशितैर्बाणैः प्रहर प्रहरामि ते।।
5-157-14a
5-157-14b
हतो भूरिश्रवा वीरस्तव पुत्रो महारथः।
शलश्चैव महाराज भ्रातृव्यसनकर्षितः।।
5-157-15a
5-157-15b
त्वां चाप्यद्य वधिष्यामि सहपुत्रं सबान्धवम्।
तिष्ठेदानीं रणे यत्तः कौरवोऽसि महारथः।।
5-157-16a
5-157-16b
यस्मिन्दानं दमः शौचमहिंसा हीर्धृतिः क्षमा।
अनपायानि सर्वाणि नित्यं राज्ञि युधिष्ठिरे।।
5-157-17a
5-157-17b
मृदङ्गकेतोस्तस्य त्वं तेजसा निहतः पुरा।
सकर्णसौबलः सङ्ख्ये विनाशमुपयास्यसि।।
5-157-18a
5-157-18b
शपेऽहं कृष्णचरणैरिष्टापूर्तेन चैव ह।
यदि त्वां ससुतं पापं न हन्यां युधि रोषितः।।
5-157-19a
5-157-19b
अपयास्यसि चोत्त्यक्त्वा रणं मुक्तो भविष्यसि।। 5-157-20a
एवमाभाष्य चान्योन्यं क्रोधसंरक्तलोचनौ।
प्रवृत्तौ शरसम्पातं कर्तुं पुरुषसत्तमौ।।
5-157-21a
5-157-21b
ततो रथसहस्रेण नागानामयुतेन च।
दुर्योधनः सोमदत्तं परिवार्य व्यवस्थितः।।
5-157-22a
5-157-22b
शकुनिश्च सुसङ्क्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
पुत्रपौत्रैः परिवृतो भ्रातृभिश्चेन्द्रविक्रमैः।
श्यालस्तव महाबाहुर्वज्रसंहननो युवा।।
5-157-23a
5-157-23b
5-157-23c
साग्रं शतसहस्रं तु हयानां तस्य धीमतः।
सोमदत्तं महेष्वासं समन्तात्पर्यरक्षत।।
5-157-24a
5-157-24b
रक्ष्यमाणश्च बलिभिश्छादयामास सात्यकिम्।
तं छाद्यमानं विशिखैर्दृष्ट्वा सन्नतपर्वभिः।।
5-157-25a
5-157-25b
धृष्टद्युम्नोऽभ्ययात्क्रुद्धः प्रगृह्य महतीं चमूम्।
`अभ्यरक्षन्महाबाहुः सात्वतं सत्यविक्रमम्'।।
5-157-26a
5-157-26b
चण्डवाताभिसृष्टानामुदधीनामिव स्वनः।
आसीद्राजन्बलौघानामन्योन्यमभिनिघ्नताम्।।
5-157-27a
5-157-27b
विव्याध सोमदत्तस्तु सात्वतं नवभिः शरैः।
सात्यकिर्नवभिश्चैनमवधीत्कुरुपुङ्गवम्।।
5-157-28a
5-157-28b
सोऽतिविद्धो बलवता समरे दृढधन्विना।
रथोपस्थं समासाद्य मुमोह गतचेतनः।।
5-157-29a
5-157-29b
तं विमूढं समालक्ष्य सारथिस्त्वरयाऽन्वितः।
अपोवाह रणाद्वीरं सोमदत्तं महारथम्।।
5-157-30a
5-157-30b
तं विसंज्ञं समालक्ष्य युयुधानशरार्दितम्।
अभ्यद्रवत्ततो द्रोणो यदुवीरजिघांसया।।
5-157-31a
5-157-31b
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरपुरोगमाः।
परिवव्रुर्महात्मानं परीप्सन्तो यदूत्तमम्।।
5-157-32a
5-157-32b
ततः प्रववृते युद्धं द्रोणस्य सह पाण्डवैः।
बलेरिव सुरैः पूर्वं त्रैलोक्यजयकाङ्क्षया।।
5-157-33a
5-157-33b
ततः सायकजालेन पाण्डवानीकमावृणोत्।
भारद्वाजो महातेजा विव्याध च युधिष्ठिरम्।।
5-157-34a
5-157-34b
सात्यकिं दशभिर्बाणैर्विंशत्या पार्षतं शरैः।
भीमसेनं च नवभिर्नकुलं पञ्चभिस्तथा।।
5-157-35a
5-157-35b
सहदेवं तथाऽष्टाभिः शतेन च शिखण्डिनम्।
द्रौपदेयान्महाबाहुः पञ्चभिः पञ्जभिः शरैः।।
5-157-36a
5-157-36b
विराटं मत्स्यमष्टाभिर्द्रुपदं दशभिः शरैः।
युधामन्युं त्रिभिः षड्भिरुत्तमौजसमाहवे।
अन्यांश्च सैनिकान्विद्व्वा युधिष्ठिरमुपाद्रवत्।।
5-157-37a
5-157-37b
5-157-37b
ते वध्यमाना द्रोणेन पाण्डुपुत्रस्य सैनिकाः।
प्राद्रवन्वै भयाद्राजन्सार्तनादा दिशो दश।।
5-157-38a
5-157-38b
काल्यमानं तु तत्सैन्यं दृष्ट्वा द्रोणेन फल्गुनः।
किञ्चिदागतसंरम्भो गुरुं पार्थोऽभ्ययाद्द्रुतम्।।
5-157-39a
5-157-39b
दृष्ट्वा द्रोणं तु बीभत्सुमभिधावन्तमाहवे।
सन्न्यवर्तत तत्सैन्यं पुनर्यौधिष्ठिरं बलम्।।
5-157-40a
5-157-40b
ततो युद्धमभूद्भूयो भारद्वाजस्य पाण्डवैः।। 5-157-41a
द्रोणस्तव सुतै राजन्सर्वतः परिवारितः।
व्यधमत्पाण्डुसैन्यानि तूलराशिमिवानलः।।
5-157-42a
5-157-42b
तं ज्वलन्तमिवादित्यं दीप्तानलसमद्युतिम्।
राजन्ननिशमत्यन्तं दृष्ट्वा द्रोणं शरार्चिषम्।।
5-157-43a
5-157-43b
मण्डलीकृतधन्वानं तपन्तमिव भास्करम्।
दहन्तमहितान्सैन्ये नैनं कश्चिदवारयत्।।
5-157-44a
5-157-44b
योयो हि प्रमुखे तस्य तस्थौ द्रोणस्य पुरूषः।
तस्यतस्य शिरश्छित्त्वा ययुर्द्रोणशराः क्षितिम्।।
5-157-45a
5-157-45b
एवं सा पाण्डवी सेना वध्यमाना महात्मना।
प्रदुद्राव पुनर्भीता पश्यतः सव्यसाचिनः।।
5-157-46a
5-157-46b
सम्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा द्रोणेन निशि भारत।
गोविन्दमब्रवीज्जिष्णुर्गच्छ द्रोणरथं प्रति।।
5-157-47a
5-157-47b
ततो रजतगोक्षीरकुन्देन्दुसदृशप्रभान्।
चोदयामास दाशार्हो हयान्द्रोणरथं प्रति।।
5-157-48a
5-157-48b
भीमसेनोऽपि तं दृष्ट्वा यान्तं द्रोणाय फल्गुनम्।
स्वसारथिमुवाचेदं द्रोणानीकाय मां वह।।
5-157-49a
5-157-49b
सोऽपि तस्य वचः श्रुत्वा विशोकोऽवहयद्वयान्।
पृष्ठतः सत्यसन्धस्य जिष्णोर्भरतसत्तम।।
5-157-50a
5-157-50b
तौ दृष्ट्वा भ्रातरौ यत्तौ द्रोणानीकमभिद्रुतौ।
पाञ्चालाः सृञ्जया मात्स्याश्चेदिकारूशकोसलाः।
अन्वगच्छन्महाराज केकयाश्च महारथाः।।
5-157-51a
5-157-51b
5-157-51c
ततो राजन्नभूद्वोरः सङ्ग्रामो रोमहर्षणः।। 5-157-52a
बीभत्सुर्दक्षिणं पार्श्वमुत्तरं च वृकोदरः।
महद्भ्यां रथबृन्दाभ्यां बलं जगृहतुस्तव।।
5-157-53a
5-157-53b
तौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रौ भीमसेनधनञ्जयौ।
धृष्टद्युम्नोऽभ्ययाद्राजन्सात्यकिश्च महाबलः।।
5-157-54a
5-157-54b
चण्डवाताभिपन्नानामुदधीनामिव स्वनः।
आसीद्राजन्बलौघानां तदाऽन्योन्यमभिघ्नतां
5-157-55a
5-157-55b
सौमदत्तिवधात्क्रुद्धो दृष्ट्वा सात्यकिमाहवे।
द्रौणिरभ्यद्रवद्राजन्वधाय कृतनिश्चयः।।
5-157-56a
5-157-56b
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य शैनेयस्य रथं प्रति।
भैमसेनिः सुसङ्क्रुद्धः प्रत्यमित्रमवारयत्।।
5-157-57a
5-157-57b
कार्ष्णायसं महाघोरमृक्षचर्मपरिच्छदम्।
महान्तं रथमास्थाय त्रिंशन्नल्वान्तरान्तरम्।।
5-157-58a
5-157-58b
विक्षिप्तयन्त्रसन्नाहं महामेघौघनिःस्वनम्।
युक्तं गजनिभैर्वाहैर्न हयैर्नापि वारणैः।।
5-157-59a
5-157-59b
विक्षिप्तपक्षचरणविवृताक्षेण कूजता।
ध्वजेनोच्छ्रितदण्डेन गृध्रराजेन राजितम्।।
5-157-60a
5-157-60b
लोहितार्द्रपताकं तु आन्त्रमालाविभूषितम्।
अष्टचक्रसमायुक्तमास्थाय विपुलं रथम्।।
5-157-61a
5-157-61b
शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया।
रक्षसां घोररूपाणामक्षौहिण्या समावृतः।।
5-157-62a
5-157-62b
तमुद्यतमहाचापं निशाम्य व्यथिता नृपाः।
युगान्तकालसमये दण्डहस्तमिवान्तकम्।।
5-157-63a
5-157-63b
ततस्तं गिरिशृङ्गाभं भीमरूपं भयावहम्।
दंष्ट्राकरालोग्रमुखं शङ्कुकर्णं महाहनुम्।।
5-157-64a
5-157-64b
ऊर्ध्वकेशं विरूपाक्षं दीप्तास्यं निम्नितोदरम्।
महाश्वभ्रगलद्वारं किरीटच्छन्नमूर्धजम्।।
5-157-65a
5-157-65b
त्रासनं सर्वभूतानां व्यात्ताननभिवान्तकम्।
वीक्ष्य दीप्तमिवायान्तं रिपुविक्षोभकारिणम्।।
5-157-66a
5-157-66b
तमुद्यतमहाचापं राक्षसेन्द्रं घटोत्कचम्।
भयार्दिता प्रचुक्षोभ पुत्रस्य तव वाहिनी।
वायुना क्षोभितावर्ता गङ्गेवोर्ध्वतरङ्गिणी।।
5-157-67a
5-157-67b
5-157-67c
घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिताः।
प्रसुस्रुवुर्गजा मूत्रं विव्यथुश्च नरा भृशम्।।
5-157-68a
5-157-68b
ततोऽश्मवृष्टिरत्यर्थमासीत्तत्र समन्ततः।
सन्ध्याकालाधिकबलैः प्रयुक्ता राक्षसैः क्षितौ।।
5-157-69a
5-157-69b
आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्यः प्रासतोमराः।
पतन्त्यविरताः शूलाः शतघ्न्यः पट्टसास्तथा।।
5-157-70a
5-157-70b
तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्ट्वा युद्धं नराधिपाः।
तनयास्तव कर्णश्च व्यथिताः प्राद्रवन्दिशः।।
5-157-71a
5-157-71b
तत्रैकोऽस्त्रबलश्लाघी द्रौणिर्मानी न विव्यथे।
व्यधमच्च शरैर्मायां घटोत्कचविनिर्भिताम्।।
5-157-72a
5-157-72b
विहतायां तु मायायाममर्षी स घटोत्कचः।
विससर्ज शरान्घोरांस्तेऽश्वत्थामानमाविशन्।
भुजङ्गा इव वेगेन वल्मीकं क्रोधमूर्च्छिताः।।
5-157-73a
5-157-73b
5-157-73c
ते शरा रुधिराक्ताङ्गा भित्त्वा शारद्वतीसुतम्।
विविशुर्धरणीं शीघ्रा रुक्मपुङ्खाः शिलाशिताः।।
5-157-74a
5-157-74b
अश्वत्थामा तु सङ्क्रुद्धो लघुहस्तः प्रतापवान्।
घटोत्कचमभिक्रुद्धं बिभेद दशभिः शरैः।।
5-157-75a
5-157-75b
घटोत्कचोऽतिविद्धस्तु द्रोणपुत्रेण मर्मसु।
चक्रं शतसहस्रारमगृह्णाद्व्यथितो भृशम्।।
5-157-76a
5-157-76b
क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिवज्रविभूषितम्।
अश्वत्थाम्नि स चिक्षेप भैमसेनिर्जिघांसया।।
5-157-77a
5-157-77b
वेगेन महता गच्छद्विक्षिप्तं द्रौणिना शरैः।
अभाग्यस्येव सङ्कल्पस्तन्मोघमपतद्भुवि।।
5-157-78a
5-157-78b
घटोत्कचस्ततस्तूर्णं दृष्ट्वा चक्रं निपातितम्।
द्रौणिं प्राच्छादयद्बाणैः स्वर्भानुरिव भास्करम्।।
5-157-79a
5-157-79b
घटोत्कचसुतः श्रीमान्भिन्नाञ्जनचयोपमः।
रुरोध द्रौणिमायान्तं प्रभञ्जनमिवाद्रिराट्।।
5-157-80a
5-157-80b
पौत्रेण भीमसेनस्य शरैरञ्जनपर्वणा।
बभौ मेघेन धाराभिर्गिरिर्मेरुरिवावृतः।।
5-157-81a
5-157-81b
अश्वत्थामा त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रमः।
ध्वजमेकेन बाणेन चिच्छेदाञ्जनपर्वणः।।
5-157-82a
5-157-82b
द्वाभ्यां तु रथयन्तारौ त्रिभिश्चास्य त्रिवेणुकम्।
धनुरेकेन चिच्छेद चतुर्भिश्चतुरो हयान्।।
5-157-83a
5-157-83b
विरथस्योद्यतं हस्ताद्धेमबिन्दुभिराचितम्।
विशिखेन सतीक्ष्णेन खङ्गमस्य द्विधाऽकरोत्।।
5-157-84a
5-157-84b
गदा हेमाङ्गदा राजंस्तूर्णं हैडिम्बिसूनुना।
भ्राम्योत्क्षिप्ताशरैःसापि द्रौणिनाभ्याहताऽपतत्।।
5-157-85a
5-157-85b
ततोऽन्तरिक्षमुत्प्लुत्य कालमेघ इवोन्नदन्।
ववर्षाञ्जनपर्वा स द्रुमवर्षं नभस्तलात्।।
5-157-86a
5-157-56b
ततो मायाधरं द्रौणिर्घटोत्कचसुतं दिवि।
मार्गणैरभिविव्याध धनं सूर्य इवांशुभिः।।
5-157-87a
5-157-87b
सोऽवतीर्य पुरस्तस्थौ रथे हेमविभूषिते।
महीगत इवात्युग्रः श्रीमानञ्जनपर्वतः।।
5-157-88a
5-157-88b
तमयस्मयवर्माणं द्रौणिर्भीमात्मजात्मजम्।
जघानाञ्जनपर्वाणं महेश्वर इवान्धकम्।।
5-157-89a
5-157-89b
अथ दृष्ट्वा हतं पुत्रमश्वत्थाम्ना महाबलम्।
द्रौणेः सकाशमभ्येत्य रोषात्प्रस्फुरिताधरः।।
5-157-90a
5-157-90b
प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तो वीरं शारद्वतीसुतम्।
दहन्तं पाण्डवानीकं वनमग्निमिवोच्छ्रितम्।।
5-157-91a
5-157-91b
घटोत्कच उवाच। 5-157-92x
तिष्ठतिष्ठ न मे जीवन्द्रोणपुत्र गमिष्यसि।
त्वामद्य निहनिष्यामि क्रौञ्चमग्निसुतो यथा।।
5-157-92a
5-157-92b
अश्वत्थामोवाच। 5-157-93x
गच्छ वत्स सहान्यैस्त्वं युध्यस्वामरविक्रम।
न हि पुत्रेण हैडिम्ब पिता न्याय्यः प्रबाधितुम्।।
5-157-93a
5-157-93b
कामं खलु न रोषो मे हैडिम्बे विद्यते त्वयि।
किं तु रोषान्वितो जन्तुर्हन्यादात्मानमप्युत।।
5-157-94a
5-157-94b
सञ्जय उवाच। 5-157-95x
श्रुत्वैतत्क्रोधताम्राक्षः पुत्रशोकसमन्वितः।
अश्वत्थामानमायस्तो भैमसेनिरभाषत।।
5-157-95a
5-157-95b
किमहं कातरो द्रौणे पृथग्जन इवाहवे।।
यन्मां भीषयसे वाग्भिरसदेतद्वचस्तव।।
5-157-96a
5-157-96b
भीमात्खलु समुत्पन्नः कुरूणां विपुले कुले।
पाण्डवानामहं पुत्रः समरेष्वनिवर्तिनाम्।।
5-157-97a
5-157-97b
रक्षसामधिराजोऽहं दशग्रीवसमो बले।
तिष्ठतिष्ठ न मे जीवन्द्रोणपुत्र गमिष्यसि।।
5-157-98a
5-157-98b
युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रणाजिरे।। 5-157-99a
इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो राक्षसः सुमहाबलः।
द्रौणिमभ्यद्रवत्क्रुद्धो गजेन्द्रमिव केसरी।।
5-157-100a
5-157-100b
रथाक्षमात्रैरिषुभिरभ्यवर्षद्धटोत्कचः।
रथिनामृषभं द्रौणिं धाराभिरिव तोयदः।।
5-157-101a
5-157-101b
शरवृष्टिं शरैर्द्रौणिरप्राप्तां तां व्यशातयत्।
ततोन्तरिक्षे बाणानां सङ्ग्रामोऽन्य इवाभवत्।।
5-157-102a
5-157-102b
अथास्त्रसम्मर्दकृतैर्विस्फुलिङ्गैस्तदा बभौ।
विभावरीमुखे व्योम खद्योतैरिव चित्रितम्।।
5-157-103a
5-157-103b
निशाम्य निहतां मायां द्रौणिना रणमानिना।
घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हितः पुनः।।
5-157-104a
5-157-104b
सोऽभवद्गिरिरत्युच्चः शिखरैस्तरुसङ्कटैः।
शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान्।।
5-157-105a
5-157-105b
तमञ्जनगिरिप्रख्यं द्रौणिर्दृष्ट्वा महीधरम्।
प्रपतद्भिश्च बहुभिः शस्त्रसङ्घैर्न विव्यथे।।
5-157-106a
5-157-106b
ततो हसन्निव द्रौणिर्वज्रमस्त्रमुदैरयत्।
स ते नास्त्रैण शैलेन्द्रः क्षिप्तः क्षिप्रं व्यनश्यत।।
5-157-107a
5-157-107b
ततः स तोयदो भूत्वा नीलः सेन्द्रायुधो दिवि।
अश्मवृष्टिभिरत्युग्रो द्रौणिमाच्छादयद्रणे।।
5-157-108a
5-157-108b
अथ सन्धाय वायव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः।
व्यधमद्द्रोणतनयो नीलमेघं समुत्थितम्।।
5-157-109a
5-157-109b
स मार्गणगणैर्द्रौणिर्दिशः प्रच्छाद्य सर्वशः।
शतं रथसहस्राणां जघान द्विपदां वरः।।
5-157-110a
5-157-110b
स दृष्ट्वा पुनरायान्तं रथेनायतकार्मुकम्।
घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम्।।
5-157-111a
5-157-111b
सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तद्विरदविक्रमैः।
गजस्थैश्च रथस्थैश्च वाजिपृष्ठगतैरपि।।
5-157-112a
5-157-112b
विकृतास्यशिरोग्रीवैर्हिडिम्बानुचरैः सह।
पौलस्त्यैर्यातुधानैश्च तामसैश्चेन्द्रविक्रमैः।।
5-157-113a
5-157-113b
नानाशस्त्रधरैर्वीरैर्नानाकवचभूषणैः।
महाबलैर्भीमरवैः संरम्भोद्वृत्तलोचनैः।।
5-157-114a
5-157-114b
उपस्थितैस्ततो युद्धे राक्षसैर्युद्धदुर्मदैः।
विषण्णमभिसम्प्रेक्ष्य पुत्रं ते द्रौणिरब्रवीत्।।
5-157-115a
5-157-115b
तिष्ठ दुर्योधनाद्य त्वं न कार्यः सम्भ्रमस्त्वया।
सहैभिर्भ्रातृभिर्वीरैः पार्थिवैश्चेन्द्रविक्रमैः।।
5-157-116a
5-157-116b
निहनिष्याम्यमित्रांस्त न तवास्ति पराजयः।
सत्यं ते प्रतिजानामि पर्याश्वासय वाहिनीम्।।
5-157-117a
5-157-117b
दुर्योधन उवाच 5-157-118x
न त्वेतदद्भुतं मन्ये यत्ते महदिदं मनः।
अस्मासु च परा भक्तिस्तव गौतमिनन्दन।।
5-157-118a
5-157-118b
सञ्जय उवाच। 5-157-119x
अश्वत्थामानमुक्त्वैवं ततः सौबलमब्रवीत्।
वृतं रथसहस्रेण हयानां रणशोभिनाम्।।
5-157-119a
5-157-119b
षष्ट्या रथसहस्रैश्च प्रयाहि त्वं धनञ्जयम्।
कर्णश्च वृषसेनश्च कृपो नीलस्तथैव च।।
5-157-120a
5-157-120b
उदीच्याः कृतवर्मा च पुरुमित्रः सुतापनः।
दुःशासनो निकुम्भश्च कुण्डभेदी पराक्रमः।।
5-157-121a
5-157-121b
पूरञ्जयो दृढरथः पताकी हेमकम्पनः।
शल्यारुणीन्द्रसेनाश्च सञ्जयो विजयो जयः।।
5-157-122a
5-157-122b
कमलाक्षः परक्राथी जयवर्मा सुदर्शनः।
एते त्वामनुयास्यन्ति पत्तीनामयुतानि षट्।।
5-157-123a
5-157-123b
जहि भीमं यमौ चोभौ धर्मराजं च मातुल।
असुरानिव देवेन्द्रो जयाशा मे त्वयि स्थिता।।
5-157-124a
5-157-124b
दारितान्द्रौणिना बाणैर्भृशं विक्षतविग्रहान्।
जहि मातुल कौन्तेयानसुरानिव पावकिः।।
5-157-125a
5-157-125b
सञ्जय उवाच। 5-157-126x
एवमुक्तो ययौ शीघ्रं पुत्रेण तव सौबलः।
पिप्रीषुस्ते सुतान्राजन्दिधक्षुश्चैव पाण्डवान्।।
5-157-126a
5-157-126b
अथ प्रववृते युद्धं द्रौणिराक्षसयोर्मृधे।
विभावर्यां सुतुमुलं शक्रप्रह्लादयोरिव।।
5-157-127a
5-157-127b
ततो घटोत्कचो बाणैर्दशभिर्गौतमीसुतम्।
जघानोरसि सङ्क्रुद्धौ विषाग्निप्रतिमैर्दृढैः।।
5-157-128a
5-157-128b
स तैरभ्याहतो गाढं शरैर्भीमसुतेरितैः।
चचाल रथमध्यस्थो वातोद्धूत इव द्रुमः।।
5-157-129a
5-157-129b
भूयश्चाञ्जलिकेनाथ मार्गणेन महाप्रभम्।
द्रौणिहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कचः।।
5-157-130a
5-157-130b
ततोऽन्यद्द्रौणिरादय धनुर्भारसहं महत्।
ववर्ष विशिखांस्तीक्ष्णान्वारिधारा इवाम्बुदः।।
5-157-131a
5-157-131b
ततः शारद्वतीपुत्रः प्रेषयामास भारत।
सुवर्णपुङ्खाञ्छत्रुघ्नान्खचरान्खचरं प्रति।।
5-157-132a
5-157-132b
तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्।।
5-157-133a
5-157-133b
विधम्य राक्षसान्बाणैः साश्वसूतरथद्विपान्।
ददाह भगवान्वह्निर्भूतानीव युगक्षये।।
5-157-134a
5-157-134b
स दग्ध्वाऽक्षौहिणीं बामैर्नैर्ऋतीं रुरुचे नृप।
पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा दिवि देवो महेश्वरः।।
5-157-135a
5-157-135b
युगान्ते सर्वभूतानि दग्ध्वेव वसुरुल्बणः।
रराज जयतां श्रेष्ठो द्रोणपुत्रस्तवाहितान्।।
5-157-136a
5-157-136b
ततो घटोत्कचः क्रुद्धो रक्षसां भीमकर्मणाम्।
द्रौणिं हतेति महतीं चोदयामास तां चमूम्।।
5-157-137a
5-157-137b
घटोत्कचस्य तामाज्ञां प्रतिगृह्याथ राक्षसाः।
दंष्ट्रोज्ज्वला महावक्त्रा घोररूपा भयानकाः।।
5-157-138a
5-157-138b
व्यात्तानना घोरजिह्वाः क्रोधताम्रेक्षणा भृशम्।
सिंहनादेन महता नादयन्तो वसुन्धराम्।।
5-157-139a
5-157-139b
हन्तुमभ्यद्रवन्द्रौणिं नानाप्रहरणायुधाः।
शक्तीः शतघ्नीः परिघानशनीः शूलपट्टशान्।।
5-157-140a
5-157-140b
खङ्गान्गदाभिण्डिपालान्मुसलानि परश्वथान्।
प्रासानसींस्तोमरांश्च कणपान्कम्पनाञ्छितान्।।
5-157-141a
5-157-141b
स्थूलान्भुशुण्ड्यश्मगदास्थूणान्कार्ष्ण्यायसांस्तथा।
मुद्गराँश्च महाघोरान्समरे शत्रुदारणान्।।
5-157-142a
5-157-142b
द्रौणिमूर्धन्यसन्त्रस्ता राक्षसा भीमविक्रमाः।
चिक्षिपुः क्रोधताम्राक्षाः शतशोऽथ सहस्रशः।।
5-157-143a
5-157-143b
तच्छस्त्रवर्षं सुमहद्द्रोणपुत्रस्य मूर्धनि।
पतमानं समीक्ष्याऽथ योधास्ते व्यथिताऽभवन्।।
5-157-144a
5-157-144b
द्रोणपुत्रस्तु विक्रान्तस्तद्वर्षं घोरमुच्छ्रितम्।
शरैर्विध्वंसयामास वज्रकल्पैः शिलाशितैः।।
5-157-145a
5-157-145b
ततोऽन्यैर्विशिखैस्तूर्णं स्वर्णपुङ्खैर्महामनाः।
निजघ्ने राक्षसान्द्रौणिर्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रितैः।।
5-157-146a
5-157-146b
तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्।।
5-157-147a
5-157-147b
ते राक्षसाः सुसङ्क्रुद्धा द्रोणपुत्रेण ताडिताः।
क्रुद्धाः स्म प्राद्रवन्द्रौणिं जिघांसन्तो महाबलः।।
5-157-148a
5-157-148b
तत्राद्भुतमिमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्।
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत।।
5-157-149a
5-157-149b
यदेको राक्षसीं सेनां क्षणाद्द्रौणिर्महास्त्रवित्।
ददाह ज्वलितैर्बाणै राक्षसेन्द्रस्य पश्यतः।।
5-157-150a
5-157-150b
स हत्वा राक्षसानीकं रराज द्रौणिराहवे।
युगान्ते सर्वभूतानि संवर्तक इवानलः।।
5-157-151a
5-157-151b
तं दहन्तमनीकानि शरैराशीविषोपमैः।
तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु भारत।।
5-157-152a
5-157-152b
नैनं निरीक्षितुं कश्चिदशक्नोद्द्रौणिमाहवे।
ऋते घटोत्कचाद्वीराद्राक्षसेन्द्रान्महाबलात्।।
5-157-153a
5-157-153b
स पुनर्भरतश्रेष्ठ क्रोधादुद्धान्तलोचनः।
तलं तलेन संहत्य सन्दश्य दशनच्छदम्।।
5-157-154a
5-157-154b
स्व सूतमब्रवीत्क्रुद्धो द्रोणपुत्राय मां वह।
स ययौ घोररूपेण सुपताकेन भास्वता।।
5-157-155a
5-157-155b
द्वैरथं द्रोणपुत्रेण पुनरप्यरिसूदनः।
स विनद्य महानादं सिंहवद्भीमविक्रमः।।
5-157-156a
5-157-156b
चिक्षेपाविद्ध्य सङ्ग्रामे द्रोणपुत्राय राक्षसः।
अष्टघण्टां महाघोरामशनिं देवनिर्मिताम्।।
5-157-157a
5-157-157b
तामवप्लुत्य जग्राह द्रौणिर्न्यस्य रथे धनुः।
चिक्षेप चैनां तस्यैव स्यन्दनात्सोऽवप्लुप्लुवे।।
5-157-158a
5-157-158b
साश्वसूतध्वजं यानं भस्म कृत्वा महाप्रभा।
विवेश वसुधां भित्त्वा साऽशनिर्भृशदारुणा।।
5-157-159a
5-157-159b
द्रौणेस्तत्कर्म दृष्ट्वा तु सर्वभूतान्यपूजयन्।
यदप्लुत्य जग्राह घोरां शङ्करनिर्मिताम्।।
5-157-160a
5-157-160b
धृष्टद्युम्नरथं गत्वा भैमसेनिस्ततो नृप।
धनुर्घोरं समादाय महदिन्द्रायुधोपमम्।
मुमोच निशितान्बाणान्पुनर्द्रौणेर्महोरसि।।
5-157-161a
5-157-161b
5-157-161c
धृष्टद्युम्नस्त्वसम्भ्रान्तो मुमोचाशीविषोपमान्।
सुवर्णपुङ्खान्विशिखान्द्रोणपुत्रस्य वक्षसि।।
5-157-162a
5-157-162b
ततो मुमोच नाराचान्द्रौणिस्तांश्च सहस्रशः।
तावप्यग्निशिखप्रख्यैर्जुघ्नतुस्तस्य मार्गणान्।।
5-157-163a
5-157-163b
अतितीव्रं महद्युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः।
योधानं प्रीतिजननं द्रौणेश्च भरतर्षभ।।
5-157-164a
5-157-164b
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां शतैस्त्रिभिः।
षड्भिर्वाजिसहस्रैश्च भीमस्तं देशमागमत्।।
5-157-165a
5-157-165b
ततो भीमात्मजं रक्षो धृष्टद्युम्नं च सानुगम्।
अयोधयत धर्मात्मा द्रौणिरक्लिष्टविक्रमः।।
5-157-166a
5-157-166b
तत्राद्भुततमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्।
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत।।
5-157-167a
5-157-167b
निमेषान्तरमात्रेण साश्वसूतरथद्विपाम्।
अक्षौहिणीं राक्षसानां शितैर्बाणैरशातयत्।।
5-157-168a
5-157-168b
मिषतो भीमसेनस्य हैडिम्बेः पार्षतस्य च।
यमयोर्धर्मपुत्रस्य विजयस्याच्युतस्य च।।
5-157-169a
5-157-169b
प्रगाढमञ्जोगतिभिर्नाराचैरभिताडिताः।
निपेतुर्द्विरदा भूमौ सशृङ्गा इव पर्वताः।।
5-157-170a
5-157-170b
निकृत्तैर्हस्तिहस्तैश्च विचलद्भिरितस्ततः।
रराज वसुधा कीर्णा विसर्पद्भिरिवोरगैः।।
5-157-171a
5-157-171b
क्षिप्तैः काञ्चनदण्डैश्च नृपच्छत्रैः क्षितिर्बभौ।
द्यौरिवोदितचन्द्रार्का ग्रहाकीर्णा युगक्षये।।
5-157-172a
5-157-172b
प्रवृद्धध्वजमण्डूकां भेरीविस्तीर्णकच्छपाम्।।
छत्रहंसावलीजुष्टां फेनचामरमालिनीम्।।
5-157-173a
5-157-173b
कङ्कगृघ्रमहाग्राहां नैकायुधझषाकुलाम्।
विस्तीर्णगजपाषाणां हताश्वमकराकुलाम्।।
5-157-174a
5-157-174b
रथक्षिप्तमहावप्रां पताकारुचिरद्रुमाम्।
शरमीनां महारौद्रां प्रासशक्त्यृष्टिडुण्डुभाम्।।
5-157-175a
5-157-175b
मज्जामांसमहापङ्कां कबन्धावर्जितोडुपाम्।
केशशैवलकल्माषां भीरूणां कश्मलावहाम्।।
5-157-176a
5-157-176b
नागेन्द्रहययोधानां शरीरव्ययसम्भवाम्।
शोणितौघमहाघोरां द्रौणिः प्रावर्तयन्नदीम्।।
5-157-177a
5-157-177b
योधार्तरवनिर्घोषां क्षतजोर्मिसमाकुलाम्।
प्रयान्तीं सुमहाघोरां यमराष्ट्रमहोदधिम्।।
5-157-178a
5-157-178b
निहत्य राक्षसान्बाणैर्द्रौणिर्हैडिम्बिमार्दयत्।
पुनरप्यतिसङ्क्रुद्धः सवृकोदरपार्षतान्।।
5-157-179a
5-157-179b
स नाराचगणैः पार्थान्द्रौणिर्विद्धा महाबलः।
जघान सुरथं नाम द्रुपदस्य सुतं विभुः।।
5-157-180a
5-157-180b
पुनः शत्रुञ्जयं नाम द्रुपदस्यात्मजं रणे।
बलानीकं जयानीकं जयाश्वं चाभिजघ्निवान्।।
5-157-181a
5-157-181b
श्रुताह्वयं च राजानं द्रौणिर्निन्ये यमक्षयम्।
त्रिभिश्चान्यैः शरैस्तीक्ष्णैः सुपुङ्खैर्हेममालिनम्।।
5-157-182a
5-157-182b
जघान स पृषध्रं च चन्द्रसेनं च मारिष।
कुन्तिभोजसुतांश्चासौ दशभिर्दश जघ्निवान्।।
5-157-183a
5-157-183b
अस्वत्थामा सुसङ्क्रुद्धः सन्धायोग्रमजिह्मगम्।
मुमोचाकर्णपूर्णेन धनुषा शरमुत्तमम्।
यमदण्डोपमं घोरमुद्दिश्याशु घटोत्कचम्।।
5-157-184a
5-157-184b
5-157-184c
स भित्त्वा हृदयं तस्य राक्षसस्य महाशरः।
विवेश वसुधां शीघ्रं सपुङ्खः पृथिवीपते।।
5-157-185a
5-157-185b
तं हतं पतितं ज्ञात्वा धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रौणेः सकाशाद्राजेन्द्र व्यपनिन्ये रथोत्तमम्।।
5-157-186a
5-157-186b
ततः पराङ्मुखनृपं सैन्यं यौधिष्ठिरं नृप।
पराजित्य रणे वीरो द्रोणपुत्रो ननाद ह।
पूजितः सर्वभूतेषु तव पुत्रैश्च भारत।।
5-157-187a
5-157-187b
5-157-187c
अथ शरशतभिन्नकृत्तदेहै--
र्हतपतितैः क्षणदाचरैः समन्तात्।
निधनमुपगतैर्मही कृताऽभू--
द्गिरिशिखरैरिव दुर्गमाऽतिरौद्रा।।
5-157-188a
5-157-188b
5-157-188c
5-157-188d
तं सिद्धगन्धर्वपिशाचसङ्घा
नागाः सुपर्णाः पितरो वयांसि।
रक्षोगणा भूतगणाश्च द्रौणि--
मपूजयन्नप्सरसः सुराश्च।।
5-157-189a
5-157-189b
5-157-189c
5-157-189d
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि
चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 157 ।।

5-157-9 तारेणोच्चस्वरेण।। 5-157-19 कृष्णचरणैः कृष्णयोश्चरणैः।। 5-157-40 द्रोणमभिधावन्तं बीभत्सुं दृष्ट्वा यौधिष्ठिरं बलं तत्सैन्यं द्रोणसैन्यम्प्रति पुनः सन्न्यवर्ततेति सम्बन्धः।। 5-157-58 कार्ष्णायसं तीक्ष्णलोहमयम्।। 5-157-59 न हयैर्नापि वारणैर्गजैः किन्तु पिशाचैः।। 5-157-93 गच्छ वत्सेति पुत्रेणेति च भीमसेनसम्बन्धात्। प्रबाधितुं मनः--खेदमुत्पादयितुम्।। 5-157-94 आत्मानमपि हन्यात्किमु पुत्रमतो जीवनार्थी त्वं निवर्तस्वेति भावः।। 5-157-95 आयस्तः कोपितः।। 5-157-132 शारद्वती कृपी। कचरान्बाणान्। खचरं राक्षसम्।। 5-157-136 वसुरुल्बणः अग्निः प्रलयकालिकः।। 5-157-157 सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-156 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-158