महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-157

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सात्यकिना सोमदत्तपराजयः।। 1 ।। अश्वत्थामघटोत्कचयुद्धमश्वत्थामपराक्रमश्च।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 5-157-1x
प्रायोपविष्टे तु हते पुत्रे सात्यकिना तदा।
सोमदत्तो भृशं क्रुद्धः सात्यकिं वाक्यमब्रवीत्।।
5-157-1a
5-157-1b
क्षत्रधर्मः परो दृष्टो यस्तु देवैर्महात्मभिः।
तं त्वं सात्वत सन्तज्य दस्युधर्मे कथं रतः।।
5-157-2a
5-157-2b
पराङ्मुखाय दीनाय न्यस्तशस्त्राय याचते।
क्षत्रधर्मरतः प्राज्ञः कथं नु प्रहरेद्रणे।।
5-157-3a
5-157-3b
द्वावेव किल वृष्णीनां तत्र ख्यातौ महारथौ।
प्रद्युम्नश्च महाबाहुस्त्वं चैव युधि सात्वत।।
5-157-4a
5-157-4b
कथं प्रायोपविष्टाय पार्थेन च्छिन्नबाहवे।
नृशंसं बत दीनं च तादृशं कृतवानसि।।
5-157-5a
5-157-5b
कर्ममस्तस्य दुर्वृत्त फलं प्राप्नुहि संयुगे।
अद्य छेत्स्यामि ते मूढ शिरो विक्रम्य पत्रिणा।।
5-157-6a
5-157-6b
शपे सात्वत पुत्राभ्यामिष्टेन सुकृतेन च।
अनतीतामिमां रात्रिं यदि त्वां वीरमानिनम्।।
5-157-7a
5-157-7b
अरक्ष्यमाणं पार्थेन जिष्णुना ससुतानुजम्।
न हन्यां नरके घोरे पतेयं वृष्णिपांसन।।
5-157-8a
5-157-8b
एवमुक्त्वा सुसङ्क्रुद्धः सोमदत्तो महाबलः।
दध्मौ शङ्खं च तारेण सिंहनादं ननाद च।।
5-157-9a
5-157-9b
ततः कमलपत्राक्षः सिंहदंष्ट्रो दुरासदः।
सात्यकिर्भृशसङ्क्रुद्धः सोमदत्तमथाब्रवीत्।।
5-157-10a
5-157-10b
कौरवेय न मे त्रासः कथञ्चिदपि विद्यते।
त्वया सार्धमथान्यैश्च युध्यतो हृदि कश्चन।।
5-157-11a
5-157-11b
यदि सर्वेण सैन्येन गुप्तो मां योधयिष्यसि।
तथापि न व्यथा काचित्त्वयि स्यान्मम कौरव।।
5-157-12a
5-157-12b
युद्धसारेण वाक्येन असतां सम्मतेन च।
नाहं भीषयितुं शक्यः क्षत्रवृत्ते स्थितस्त्वया।।
5-157-13a
5-157-13b
यदि तेऽस्ति युयुत्साऽद्य मया सह नराधिप।
निर्दयो निशितैर्बाणैः प्रहर प्रहरामि ते।।
5-157-14a
5-157-14b
हतो भूरिश्रवा वीरस्तव पुत्रो महारथः।
शलश्चैव महाराज भ्रातृव्यसनकर्षितः।।
5-157-15a
5-157-15b
त्वां चाप्यद्य वधिष्यामि सहपुत्रं सबान्धवम्।
तिष्ठेदानीं रणे यत्तः कौरवोऽसि महारथः।।
5-157-16a
5-157-16b
यस्मिन्दानं दमः शौचमहिंसा हीर्धृतिः क्षमा।
अनपायानि सर्वाणि नित्यं राज्ञि युधिष्ठिरे।।
5-157-17a
5-157-17b
मृदङ्गकेतोस्तस्य त्वं तेजसा निहतः पुरा।
सकर्णसौबलः सङ्ख्ये विनाशमुपयास्यसि।।
5-157-18a
5-157-18b
शपेऽहं कृष्णचरणैरिष्टापूर्तेन चैव ह।
यदि त्वां ससुतं पापं न हन्यां युधि रोषितः।।
5-157-19a
5-157-19b
अपयास्यसि चोत्त्यक्त्वा रणं मुक्तो भविष्यसि।। 5-157-20a
एवमाभाष्य चान्योन्यं क्रोधसंरक्तलोचनौ।
प्रवृत्तौ शरसम्पातं कर्तुं पुरुषसत्तमौ।।
5-157-21a
5-157-21b
ततो रथसहस्रेण नागानामयुतेन च।
दुर्योधनः सोमदत्तं परिवार्य व्यवस्थितः।।
5-157-22a
5-157-22b
शकुनिश्च सुसङ्क्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
पुत्रपौत्रैः परिवृतो भ्रातृभिश्चेन्द्रविक्रमैः।
श्यालस्तव महाबाहुर्वज्रसंहननो युवा।।
5-157-23a
5-157-23b
5-157-23c
साग्रं शतसहस्रं तु हयानां तस्य धीमतः।
सोमदत्तं महेष्वासं समन्तात्पर्यरक्षत।।
5-157-24a
5-157-24b
रक्ष्यमाणश्च बलिभिश्छादयामास सात्यकिम्।
तं छाद्यमानं विशिखैर्दृष्ट्वा सन्नतपर्वभिः।।
5-157-25a
5-157-25b
धृष्टद्युम्नोऽभ्ययात्क्रुद्धः प्रगृह्य महतीं चमूम्।
`अभ्यरक्षन्महाबाहुः सात्वतं सत्यविक्रमम्'।।
5-157-26a
5-157-26b
चण्डवाताभिसृष्टानामुदधीनामिव स्वनः।
आसीद्राजन्बलौघानामन्योन्यमभिनिघ्नताम्।।
5-157-27a
5-157-27b
विव्याध सोमदत्तस्तु सात्वतं नवभिः शरैः।
सात्यकिर्नवभिश्चैनमवधीत्कुरुपुङ्गवम्।।
5-157-28a
5-157-28b
सोऽतिविद्धो बलवता समरे दृढधन्विना।
रथोपस्थं समासाद्य मुमोह गतचेतनः।।
5-157-29a
5-157-29b
तं विमूढं समालक्ष्य सारथिस्त्वरयाऽन्वितः।
अपोवाह रणाद्वीरं सोमदत्तं महारथम्।।
5-157-30a
5-157-30b
तं विसंज्ञं समालक्ष्य युयुधानशरार्दितम्।
अभ्यद्रवत्ततो द्रोणो यदुवीरजिघांसया।।
5-157-31a
5-157-31b
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरपुरोगमाः।
परिवव्रुर्महात्मानं परीप्सन्तो यदूत्तमम्।।
5-157-32a
5-157-32b
ततः प्रववृते युद्धं द्रोणस्य सह पाण्डवैः।
बलेरिव सुरैः पूर्वं त्रैलोक्यजयकाङ्क्षया।।
5-157-33a
5-157-33b
ततः सायकजालेन पाण्डवानीकमावृणोत्।
भारद्वाजो महातेजा विव्याध च युधिष्ठिरम्।।
5-157-34a
5-157-34b
सात्यकिं दशभिर्बाणैर्विंशत्या पार्षतं शरैः।
भीमसेनं च नवभिर्नकुलं पञ्चभिस्तथा।।
5-157-35a
5-157-35b
सहदेवं तथाऽष्टाभिः शतेन च शिखण्डिनम्।
द्रौपदेयान्महाबाहुः पञ्चभिः पञ्जभिः शरैः।।
5-157-36a
5-157-36b
विराटं मत्स्यमष्टाभिर्द्रुपदं दशभिः शरैः।
युधामन्युं त्रिभिः षड्भिरुत्तमौजसमाहवे।
अन्यांश्च सैनिकान्विद्व्वा युधिष्ठिरमुपाद्रवत्।।
5-157-37a
5-157-37b
5-157-37b
ते वध्यमाना द्रोणेन पाण्डुपुत्रस्य सैनिकाः।
प्राद्रवन्वै भयाद्राजन्सार्तनादा दिशो दश।।
5-157-38a
5-157-38b
काल्यमानं तु तत्सैन्यं दृष्ट्वा द्रोणेन फल्गुनः।
किञ्चिदागतसंरम्भो गुरुं पार्थोऽभ्ययाद्द्रुतम्।।
5-157-39a
5-157-39b
दृष्ट्वा द्रोणं तु बीभत्सुमभिधावन्तमाहवे।
सन्न्यवर्तत तत्सैन्यं पुनर्यौधिष्ठिरं बलम्।।
5-157-40a
5-157-40b
ततो युद्धमभूद्भूयो भारद्वाजस्य पाण्डवैः।। 5-157-41a
द्रोणस्तव सुतै राजन्सर्वतः परिवारितः।
व्यधमत्पाण्डुसैन्यानि तूलराशिमिवानलः।।
5-157-42a
5-157-42b
तं ज्वलन्तमिवादित्यं दीप्तानलसमद्युतिम्।
राजन्ननिशमत्यन्तं दृष्ट्वा द्रोणं शरार्चिषम्।।
5-157-43a
5-157-43b
मण्डलीकृतधन्वानं तपन्तमिव भास्करम्।
दहन्तमहितान्सैन्ये नैनं कश्चिदवारयत्।।
5-157-44a
5-157-44b
योयो हि प्रमुखे तस्य तस्थौ द्रोणस्य पुरूषः।
तस्यतस्य शिरश्छित्त्वा ययुर्द्रोणशराः क्षितिम्।।
5-157-45a
5-157-45b
एवं सा पाण्डवी सेना वध्यमाना महात्मना।
प्रदुद्राव पुनर्भीता पश्यतः सव्यसाचिनः।।
5-157-46a
5-157-46b
सम्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा द्रोणेन निशि भारत।
गोविन्दमब्रवीज्जिष्णुर्गच्छ द्रोणरथं प्रति।।
5-157-47a
5-157-47b
ततो रजतगोक्षीरकुन्देन्दुसदृशप्रभान्।
चोदयामास दाशार्हो हयान्द्रोणरथं प्रति।।
5-157-48a
5-157-48b
भीमसेनोऽपि तं दृष्ट्वा यान्तं द्रोणाय फल्गुनम्।
स्वसारथिमुवाचेदं द्रोणानीकाय मां वह।।
5-157-49a
5-157-49b
सोऽपि तस्य वचः श्रुत्वा विशोकोऽवहयद्वयान्।
पृष्ठतः सत्यसन्धस्य जिष्णोर्भरतसत्तम।।
5-157-50a
5-157-50b
तौ दृष्ट्वा भ्रातरौ यत्तौ द्रोणानीकमभिद्रुतौ।
पाञ्चालाः सृञ्जया मात्स्याश्चेदिकारूशकोसलाः।
अन्वगच्छन्महाराज केकयाश्च महारथाः।।
5-157-51a
5-157-51b
5-157-51c
ततो राजन्नभूद्वोरः सङ्ग्रामो रोमहर्षणः।। 5-157-52a
बीभत्सुर्दक्षिणं पार्श्वमुत्तरं च वृकोदरः।
महद्भ्यां रथबृन्दाभ्यां बलं जगृहतुस्तव।।
5-157-53a
5-157-53b
तौ दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रौ भीमसेनधनञ्जयौ।
धृष्टद्युम्नोऽभ्ययाद्राजन्सात्यकिश्च महाबलः।।
5-157-54a
5-157-54b
चण्डवाताभिपन्नानामुदधीनामिव स्वनः।
आसीद्राजन्बलौघानां तदाऽन्योन्यमभिघ्नतां
5-157-55a
5-157-55b
सौमदत्तिवधात्क्रुद्धो दृष्ट्वा सात्यकिमाहवे।
द्रौणिरभ्यद्रवद्राजन्वधाय कृतनिश्चयः।।
5-157-56a
5-157-56b
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य शैनेयस्य रथं प्रति।
भैमसेनिः सुसङ्क्रुद्धः प्रत्यमित्रमवारयत्।।
5-157-57a
5-157-57b
कार्ष्णायसं महाघोरमृक्षचर्मपरिच्छदम्।
महान्तं रथमास्थाय त्रिंशन्नल्वान्तरान्तरम्।।
5-157-58a
5-157-58b
विक्षिप्तयन्त्रसन्नाहं महामेघौघनिःस्वनम्।
युक्तं गजनिभैर्वाहैर्न हयैर्नापि वारणैः।।
5-157-59a
5-157-59b
विक्षिप्तपक्षचरणविवृताक्षेण कूजता।
ध्वजेनोच्छ्रितदण्डेन गृध्रराजेन राजितम्।।
5-157-60a
5-157-60b
लोहितार्द्रपताकं तु आन्त्रमालाविभूषितम्।
अष्टचक्रसमायुक्तमास्थाय विपुलं रथम्।।
5-157-61a
5-157-61b
शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया।
रक्षसां घोररूपाणामक्षौहिण्या समावृतः।।
5-157-62a
5-157-62b
तमुद्यतमहाचापं निशाम्य व्यथिता नृपाः।
युगान्तकालसमये दण्डहस्तमिवान्तकम्।।
5-157-63a
5-157-63b
ततस्तं गिरिशृङ्गाभं भीमरूपं भयावहम्।
दंष्ट्राकरालोग्रमुखं शङ्कुकर्णं महाहनुम्।।
5-157-64a
5-157-64b
ऊर्ध्वकेशं विरूपाक्षं दीप्तास्यं निम्नितोदरम्।
महाश्वभ्रगलद्वारं किरीटच्छन्नमूर्धजम्।।
5-157-65a
5-157-65b
त्रासनं सर्वभूतानां व्यात्ताननभिवान्तकम्।
वीक्ष्य दीप्तमिवायान्तं रिपुविक्षोभकारिणम्।।
5-157-66a
5-157-66b
तमुद्यतमहाचापं राक्षसेन्द्रं घटोत्कचम्।
भयार्दिता प्रचुक्षोभ पुत्रस्य तव वाहिनी।
वायुना क्षोभितावर्ता गङ्गेवोर्ध्वतरङ्गिणी।।
5-157-67a
5-157-67b
5-157-67c
घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिताः।
प्रसुस्रुवुर्गजा मूत्रं विव्यथुश्च नरा भृशम्।।
5-157-68a
5-157-68b
ततोऽश्मवृष्टिरत्यर्थमासीत्तत्र समन्ततः।
सन्ध्याकालाधिकबलैः प्रयुक्ता राक्षसैः क्षितौ।।
5-157-69a
5-157-69b
आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्यः प्रासतोमराः।
पतन्त्यविरताः शूलाः शतघ्न्यः पट्टसास्तथा।।
5-157-70a
5-157-70b
तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्ट्वा युद्धं नराधिपाः।
तनयास्तव कर्णश्च व्यथिताः प्राद्रवन्दिशः।।
5-157-71a
5-157-71b
तत्रैकोऽस्त्रबलश्लाघी द्रौणिर्मानी न विव्यथे।
व्यधमच्च शरैर्मायां घटोत्कचविनिर्भिताम्।।
5-157-72a
5-157-72b
विहतायां तु मायायाममर्षी स घटोत्कचः।
विससर्ज शरान्घोरांस्तेऽश्वत्थामानमाविशन्।
भुजङ्गा इव वेगेन वल्मीकं क्रोधमूर्च्छिताः।।
5-157-73a
5-157-73b
5-157-73c
ते शरा रुधिराक्ताङ्गा भित्त्वा शारद्वतीसुतम्।
विविशुर्धरणीं शीघ्रा रुक्मपुङ्खाः शिलाशिताः।।
5-157-74a
5-157-74b
अश्वत्थामा तु सङ्क्रुद्धो लघुहस्तः प्रतापवान्।
घटोत्कचमभिक्रुद्धं बिभेद दशभिः शरैः।।
5-157-75a
5-157-75b
घटोत्कचोऽतिविद्धस्तु द्रोणपुत्रेण मर्मसु।
चक्रं शतसहस्रारमगृह्णाद्व्यथितो भृशम्।।
5-157-76a
5-157-76b
क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिवज्रविभूषितम्।
अश्वत्थाम्नि स चिक्षेप भैमसेनिर्जिघांसया।।
5-157-77a
5-157-77b
वेगेन महता गच्छद्विक्षिप्तं द्रौणिना शरैः।
अभाग्यस्येव सङ्कल्पस्तन्मोघमपतद्भुवि।।
5-157-78a
5-157-78b
घटोत्कचस्ततस्तूर्णं दृष्ट्वा चक्रं निपातितम्।
द्रौणिं प्राच्छादयद्बाणैः स्वर्भानुरिव भास्करम्।।
5-157-79a
5-157-79b
घटोत्कचसुतः श्रीमान्भिन्नाञ्जनचयोपमः।
रुरोध द्रौणिमायान्तं प्रभञ्जनमिवाद्रिराट्।।
5-157-80a
5-157-80b
पौत्रेण भीमसेनस्य शरैरञ्जनपर्वणा।
बभौ मेघेन धाराभिर्गिरिर्मेरुरिवावृतः।।
5-157-81a
5-157-81b
अश्वत्थामा त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रमः।
ध्वजमेकेन बाणेन चिच्छेदाञ्जनपर्वणः।।
5-157-82a
5-157-82b
द्वाभ्यां तु रथयन्तारौ त्रिभिश्चास्य त्रिवेणुकम्।
धनुरेकेन चिच्छेद चतुर्भिश्चतुरो हयान्।।
5-157-83a
5-157-83b
विरथस्योद्यतं हस्ताद्धेमबिन्दुभिराचितम्।
विशिखेन सतीक्ष्णेन खङ्गमस्य द्विधाऽकरोत्।।
5-157-84a
5-157-84b
गदा हेमाङ्गदा राजंस्तूर्णं हैडिम्बिसूनुना।
भ्राम्योत्क्षिप्ताशरैःसापि द्रौणिनाभ्याहताऽपतत्।।
5-157-85a
5-157-85b
ततोऽन्तरिक्षमुत्प्लुत्य कालमेघ इवोन्नदन्।
ववर्षाञ्जनपर्वा स द्रुमवर्षं नभस्तलात्।।
5-157-86a
5-157-56b
ततो मायाधरं द्रौणिर्घटोत्कचसुतं दिवि।
मार्गणैरभिविव्याध धनं सूर्य इवांशुभिः।।
5-157-87a
5-157-87b
सोऽवतीर्य पुरस्तस्थौ रथे हेमविभूषिते।
महीगत इवात्युग्रः श्रीमानञ्जनपर्वतः।।
5-157-88a
5-157-88b
तमयस्मयवर्माणं द्रौणिर्भीमात्मजात्मजम्।
जघानाञ्जनपर्वाणं महेश्वर इवान्धकम्।।
5-157-89a
5-157-89b
अथ दृष्ट्वा हतं पुत्रमश्वत्थाम्ना महाबलम्।
द्रौणेः सकाशमभ्येत्य रोषात्प्रस्फुरिताधरः।।
5-157-90a
5-157-90b
प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तो वीरं शारद्वतीसुतम्।
दहन्तं पाण्डवानीकं वनमग्निमिवोच्छ्रितम्।।
5-157-91a
5-157-91b
घटोत्कच उवाच। 5-157-92x
तिष्ठतिष्ठ न मे जीवन्द्रोणपुत्र गमिष्यसि।
त्वामद्य निहनिष्यामि क्रौञ्चमग्निसुतो यथा।।
5-157-92a
5-157-92b
अश्वत्थामोवाच। 5-157-93x
गच्छ वत्स सहान्यैस्त्वं युध्यस्वामरविक्रम।
न हि पुत्रेण हैडिम्ब पिता न्याय्यः प्रबाधितुम्।।
5-157-93a
5-157-93b
कामं खलु न रोषो मे हैडिम्बे विद्यते त्वयि।
किं तु रोषान्वितो जन्तुर्हन्यादात्मानमप्युत।।
5-157-94a
5-157-94b
सञ्जय उवाच। 5-157-95x
श्रुत्वैतत्क्रोधताम्राक्षः पुत्रशोकसमन्वितः।
अश्वत्थामानमायस्तो भैमसेनिरभाषत।।
5-157-95a
5-157-95b
किमहं कातरो द्रौणे पृथग्जन इवाहवे।।
यन्मां भीषयसे वाग्भिरसदेतद्वचस्तव।।
5-157-96a
5-157-96b
भीमात्खलु समुत्पन्नः कुरूणां विपुले कुले।
पाण्डवानामहं पुत्रः समरेष्वनिवर्तिनाम्।।
5-157-97a
5-157-97b
रक्षसामधिराजोऽहं दशग्रीवसमो बले।
तिष्ठतिष्ठ न मे जीवन्द्रोणपुत्र गमिष्यसि।।
5-157-98a
5-157-98b
युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रणाजिरे।। 5-157-99a
इत्युक्त्वा क्रोधताम्राक्षो राक्षसः सुमहाबलः।
द्रौणिमभ्यद्रवत्क्रुद्धो गजेन्द्रमिव केसरी।।
5-157-100a
5-157-100b
रथाक्षमात्रैरिषुभिरभ्यवर्षद्धटोत्कचः।
रथिनामृषभं द्रौणिं धाराभिरिव तोयदः।।
5-157-101a
5-157-101b
शरवृष्टिं शरैर्द्रौणिरप्राप्तां तां व्यशातयत्।
ततोन्तरिक्षे बाणानां सङ्ग्रामोऽन्य इवाभवत्।।
5-157-102a
5-157-102b
अथास्त्रसम्मर्दकृतैर्विस्फुलिङ्गैस्तदा बभौ।
विभावरीमुखे व्योम खद्योतैरिव चित्रितम्।।
5-157-103a
5-157-103b
निशाम्य निहतां मायां द्रौणिना रणमानिना।
घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हितः पुनः।।
5-157-104a
5-157-104b
सोऽभवद्गिरिरत्युच्चः शिखरैस्तरुसङ्कटैः।
शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान्।।
5-157-105a
5-157-105b
तमञ्जनगिरिप्रख्यं द्रौणिर्दृष्ट्वा महीधरम्।
प्रपतद्भिश्च बहुभिः शस्त्रसङ्घैर्न विव्यथे।।
5-157-106a
5-157-106b
ततो हसन्निव द्रौणिर्वज्रमस्त्रमुदैरयत्।
स ते नास्त्रैण शैलेन्द्रः क्षिप्तः क्षिप्रं व्यनश्यत।।
5-157-107a
5-157-107b
ततः स तोयदो भूत्वा नीलः सेन्द्रायुधो दिवि।
अश्मवृष्टिभिरत्युग्रो द्रौणिमाच्छादयद्रणे।।
5-157-108a
5-157-108b
अथ सन्धाय वायव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः।
व्यधमद्द्रोणतनयो नीलमेघं समुत्थितम्।।
5-157-109a
5-157-109b
स मार्गणगणैर्द्रौणिर्दिशः प्रच्छाद्य सर्वशः।
शतं रथसहस्राणां जघान द्विपदां वरः।।
5-157-110a
5-157-110b
स दृष्ट्वा पुनरायान्तं रथेनायतकार्मुकम्।
घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम्।।
5-157-111a
5-157-111b
सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तद्विरदविक्रमैः।
गजस्थैश्च रथस्थैश्च वाजिपृष्ठगतैरपि।।
5-157-112a
5-157-112b
विकृतास्यशिरोग्रीवैर्हिडिम्बानुचरैः सह।
पौलस्त्यैर्यातुधानैश्च तामसैश्चेन्द्रविक्रमैः।।
5-157-113a
5-157-113b
नानाशस्त्रधरैर्वीरैर्नानाकवचभूषणैः।
महाबलैर्भीमरवैः संरम्भोद्वृत्तलोचनैः।।
5-157-114a
5-157-114b
उपस्थितैस्ततो युद्धे राक्षसैर्युद्धदुर्मदैः।
विषण्णमभिसम्प्रेक्ष्य पुत्रं ते द्रौणिरब्रवीत्।।
5-157-115a
5-157-115b
तिष्ठ दुर्योधनाद्य त्वं न कार्यः सम्भ्रमस्त्वया।
सहैभिर्भ्रातृभिर्वीरैः पार्थिवैश्चेन्द्रविक्रमैः।।
5-157-116a
5-157-116b
निहनिष्याम्यमित्रांस्त न तवास्ति पराजयः।
सत्यं ते प्रतिजानामि पर्याश्वासय वाहिनीम्।।
5-157-117a
5-157-117b
दुर्योधन उवाच 5-157-118x
न त्वेतदद्भुतं मन्ये यत्ते महदिदं मनः।
अस्मासु च परा भक्तिस्तव गौतमिनन्दन।।
5-157-118a
5-157-118b
सञ्जय उवाच। 5-157-119x
अश्वत्थामानमुक्त्वैवं ततः सौबलमब्रवीत्।
वृतं रथसहस्रेण हयानां रणशोभिनाम्।।
5-157-119a
5-157-119b
षष्ट्या रथसहस्रैश्च प्रयाहि त्वं धनञ्जयम्।
कर्णश्च वृषसेनश्च कृपो नीलस्तथैव च।।
5-157-120a
5-157-120b
उदीच्याः कृतवर्मा च पुरुमित्रः सुतापनः।
दुःशासनो निकुम्भश्च कुण्डभेदी पराक्रमः।।
5-157-121a
5-157-121b
पूरञ्जयो दृढरथः पताकी हेमकम्पनः।
शल्यारुणीन्द्रसेनाश्च सञ्जयो विजयो जयः।।
5-157-122a
5-157-122b
कमलाक्षः परक्राथी जयवर्मा सुदर्शनः।
एते त्वामनुयास्यन्ति पत्तीनामयुतानि षट्।।
5-157-123a
5-157-123b
जहि भीमं यमौ चोभौ धर्मराजं च मातुल।
असुरानिव देवेन्द्रो जयाशा मे त्वयि स्थिता।।
5-157-124a
5-157-124b
दारितान्द्रौणिना बाणैर्भृशं विक्षतविग्रहान्।
जहि मातुल कौन्तेयानसुरानिव पावकिः।।
5-157-125a
5-157-125b
सञ्जय उवाच। 5-157-126x
एवमुक्तो ययौ शीघ्रं पुत्रेण तव सौबलः।
पिप्रीषुस्ते सुतान्राजन्दिधक्षुश्चैव पाण्डवान्।।
5-157-126a
5-157-126b
अथ प्रववृते युद्धं द्रौणिराक्षसयोर्मृधे।
विभावर्यां सुतुमुलं शक्रप्रह्लादयोरिव।।
5-157-127a
5-157-127b
ततो घटोत्कचो बाणैर्दशभिर्गौतमीसुतम्।
जघानोरसि सङ्क्रुद्धौ विषाग्निप्रतिमैर्दृढैः।।
5-157-128a
5-157-128b
स तैरभ्याहतो गाढं शरैर्भीमसुतेरितैः।
चचाल रथमध्यस्थो वातोद्धूत इव द्रुमः।।
5-157-129a
5-157-129b
भूयश्चाञ्जलिकेनाथ मार्गणेन महाप्रभम्।
द्रौणिहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कचः।।
5-157-130a
5-157-130b
ततोऽन्यद्द्रौणिरादय धनुर्भारसहं महत्।
ववर्ष विशिखांस्तीक्ष्णान्वारिधारा इवाम्बुदः।।
5-157-131a
5-157-131b
ततः शारद्वतीपुत्रः प्रेषयामास भारत।
सुवर्णपुङ्खाञ्छत्रुघ्नान्खचरान्खचरं प्रति।।
5-157-132a
5-157-132b
तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्।।
5-157-133a
5-157-133b
विधम्य राक्षसान्बाणैः साश्वसूतरथद्विपान्।
ददाह भगवान्वह्निर्भूतानीव युगक्षये।।
5-157-134a
5-157-134b
स दग्ध्वाऽक्षौहिणीं बामैर्नैर्ऋतीं रुरुचे नृप।
पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा दिवि देवो महेश्वरः।।
5-157-135a
5-157-135b
युगान्ते सर्वभूतानि दग्ध्वेव वसुरुल्बणः।
रराज जयतां श्रेष्ठो द्रोणपुत्रस्तवाहितान्।।
5-157-136a
5-157-136b
ततो घटोत्कचः क्रुद्धो रक्षसां भीमकर्मणाम्।
द्रौणिं हतेति महतीं चोदयामास तां चमूम्।।
5-157-137a
5-157-137b
घटोत्कचस्य तामाज्ञां प्रतिगृह्याथ राक्षसाः।
दंष्ट्रोज्ज्वला महावक्त्रा घोररूपा भयानकाः।।
5-157-138a
5-157-138b
व्यात्तानना घोरजिह्वाः क्रोधताम्रेक्षणा भृशम्।
सिंहनादेन महता नादयन्तो वसुन्धराम्।।
5-157-139a
5-157-139b
हन्तुमभ्यद्रवन्द्रौणिं नानाप्रहरणायुधाः।
शक्तीः शतघ्नीः परिघानशनीः शूलपट्टशान्।।
5-157-140a
5-157-140b
खङ्गान्गदाभिण्डिपालान्मुसलानि परश्वथान्।
प्रासानसींस्तोमरांश्च कणपान्कम्पनाञ्छितान्।।
5-157-141a
5-157-141b
स्थूलान्भुशुण्ड्यश्मगदास्थूणान्कार्ष्ण्यायसांस्तथा।
मुद्गराँश्च महाघोरान्समरे शत्रुदारणान्।।
5-157-142a
5-157-142b
द्रौणिमूर्धन्यसन्त्रस्ता राक्षसा भीमविक्रमाः।
चिक्षिपुः क्रोधताम्राक्षाः शतशोऽथ सहस्रशः।।
5-157-143a
5-157-143b
तच्छस्त्रवर्षं सुमहद्द्रोणपुत्रस्य मूर्धनि।
पतमानं समीक्ष्याऽथ योधास्ते व्यथिताऽभवन्।।
5-157-144a
5-157-144b
द्रोणपुत्रस्तु विक्रान्तस्तद्वर्षं घोरमुच्छ्रितम्।
शरैर्विध्वंसयामास वज्रकल्पैः शिलाशितैः।।
5-157-145a
5-157-145b
ततोऽन्यैर्विशिखैस्तूर्णं स्वर्णपुङ्खैर्महामनाः।
निजघ्ने राक्षसान्द्रौणिर्दिव्यास्त्रप्रतिमन्त्रितैः।।
5-157-146a
5-157-146b
तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्।
सिंहैरिव बभौ मत्तं गजानामाकुलं कुलम्।।
5-157-147a
5-157-147b
ते राक्षसाः सुसङ्क्रुद्धा द्रोणपुत्रेण ताडिताः।
क्रुद्धाः स्म प्राद्रवन्द्रौणिं जिघांसन्तो महाबलः।।
5-157-148a
5-157-148b
तत्राद्भुतमिमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्।
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत।।
5-157-149a
5-157-149b
यदेको राक्षसीं सेनां क्षणाद्द्रौणिर्महास्त्रवित्।
ददाह ज्वलितैर्बाणै राक्षसेन्द्रस्य पश्यतः।।
5-157-150a
5-157-150b
स हत्वा राक्षसानीकं रराज द्रौणिराहवे।
युगान्ते सर्वभूतानि संवर्तक इवानलः।।
5-157-151a
5-157-151b
तं दहन्तमनीकानि शरैराशीविषोपमैः।
तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु भारत।।
5-157-152a
5-157-152b
नैनं निरीक्षितुं कश्चिदशक्नोद्द्रौणिमाहवे।
ऋते घटोत्कचाद्वीराद्राक्षसेन्द्रान्महाबलात्।।
5-157-153a
5-157-153b
स पुनर्भरतश्रेष्ठ क्रोधादुद्धान्तलोचनः।
तलं तलेन संहत्य सन्दश्य दशनच्छदम्।।
5-157-154a
5-157-154b
स्व सूतमब्रवीत्क्रुद्धो द्रोणपुत्राय मां वह।
स ययौ घोररूपेण सुपताकेन भास्वता।।
5-157-155a
5-157-155b
द्वैरथं द्रोणपुत्रेण पुनरप्यरिसूदनः।
स विनद्य महानादं सिंहवद्भीमविक्रमः।।
5-157-156a
5-157-156b
चिक्षेपाविद्ध्य सङ्ग्रामे द्रोणपुत्राय राक्षसः।
अष्टघण्टां महाघोरामशनिं देवनिर्मिताम्।।
5-157-157a
5-157-157b
तामवप्लुत्य जग्राह द्रौणिर्न्यस्य रथे धनुः।
चिक्षेप चैनां तस्यैव स्यन्दनात्सोऽवप्लुप्लुवे।।
5-157-158a
5-157-158b
साश्वसूतध्वजं यानं भस्म कृत्वा महाप्रभा।
विवेश वसुधां भित्त्वा साऽशनिर्भृशदारुणा।।
5-157-159a
5-157-159b
द्रौणेस्तत्कर्म दृष्ट्वा तु सर्वभूतान्यपूजयन्।
यदप्लुत्य जग्राह घोरां शङ्करनिर्मिताम्।।
5-157-160a
5-157-160b
धृष्टद्युम्नरथं गत्वा भैमसेनिस्ततो नृप।
धनुर्घोरं समादाय महदिन्द्रायुधोपमम्।
मुमोच निशितान्बाणान्पुनर्द्रौणेर्महोरसि।।
5-157-161a
5-157-161b
5-157-161c
धृष्टद्युम्नस्त्वसम्भ्रान्तो मुमोचाशीविषोपमान्।
सुवर्णपुङ्खान्विशिखान्द्रोणपुत्रस्य वक्षसि।।
5-157-162a
5-157-162b
ततो मुमोच नाराचान्द्रौणिस्तांश्च सहस्रशः।
तावप्यग्निशिखप्रख्यैर्जुघ्नतुस्तस्य मार्गणान्।।
5-157-163a
5-157-163b
अतितीव्रं महद्युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः।
योधानं प्रीतिजननं द्रौणेश्च भरतर्षभ।।
5-157-164a
5-157-164b
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां शतैस्त्रिभिः।
षड्भिर्वाजिसहस्रैश्च भीमस्तं देशमागमत्।।
5-157-165a
5-157-165b
ततो भीमात्मजं रक्षो धृष्टद्युम्नं च सानुगम्।
अयोधयत धर्मात्मा द्रौणिरक्लिष्टविक्रमः।।
5-157-166a
5-157-166b
तत्राद्भुततमं द्रौणिर्दर्शयामास विक्रमम्।
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु भारत।।
5-157-167a
5-157-167b
निमेषान्तरमात्रेण साश्वसूतरथद्विपाम्।
अक्षौहिणीं राक्षसानां शितैर्बाणैरशातयत्।।
5-157-168a
5-157-168b
मिषतो भीमसेनस्य हैडिम्बेः पार्षतस्य च।
यमयोर्धर्मपुत्रस्य विजयस्याच्युतस्य च।।
5-157-169a
5-157-169b
प्रगाढमञ्जोगतिभिर्नाराचैरभिताडिताः।
निपेतुर्द्विरदा भूमौ सशृङ्गा इव पर्वताः।।
5-157-170a
5-157-170b
निकृत्तैर्हस्तिहस्तैश्च विचलद्भिरितस्ततः।
रराज वसुधा कीर्णा विसर्पद्भिरिवोरगैः।।
5-157-171a
5-157-171b
क्षिप्तैः काञ्चनदण्डैश्च नृपच्छत्रैः क्षितिर्बभौ।
द्यौरिवोदितचन्द्रार्का ग्रहाकीर्णा युगक्षये।।
5-157-172a
5-157-172b
प्रवृद्धध्वजमण्डूकां भेरीविस्तीर्णकच्छपाम्।।
छत्रहंसावलीजुष्टां फेनचामरमालिनीम्।।
5-157-173a
5-157-173b
कङ्कगृघ्रमहाग्राहां नैकायुधझषाकुलाम्।
विस्तीर्णगजपाषाणां हताश्वमकराकुलाम्।।
5-157-174a
5-157-174b
रथक्षिप्तमहावप्रां पताकारुचिरद्रुमाम्।
शरमीनां महारौद्रां प्रासशक्त्यृष्टिडुण्डुभाम्।।
5-157-175a
5-157-175b
मज्जामांसमहापङ्कां कबन्धावर्जितोडुपाम्।
केशशैवलकल्माषां भीरूणां कश्मलावहाम्।।
5-157-176a
5-157-176b
नागेन्द्रहययोधानां शरीरव्ययसम्भवाम्।
शोणितौघमहाघोरां द्रौणिः प्रावर्तयन्नदीम्।।
5-157-177a
5-157-177b
योधार्तरवनिर्घोषां क्षतजोर्मिसमाकुलाम्।
प्रयान्तीं सुमहाघोरां यमराष्ट्रमहोदधिम्।।
5-157-178a
5-157-178b
निहत्य राक्षसान्बाणैर्द्रौणिर्हैडिम्बिमार्दयत्।
पुनरप्यतिसङ्क्रुद्धः सवृकोदरपार्षतान्।।
5-157-179a
5-157-179b
स नाराचगणैः पार्थान्द्रौणिर्विद्धा महाबलः।
जघान सुरथं नाम द्रुपदस्य सुतं विभुः।।
5-157-180a
5-157-180b
पुनः शत्रुञ्जयं नाम द्रुपदस्यात्मजं रणे।
बलानीकं जयानीकं जयाश्वं चाभिजघ्निवान्।।
5-157-181a
5-157-181b
श्रुताह्वयं च राजानं द्रौणिर्निन्ये यमक्षयम्।
त्रिभिश्चान्यैः शरैस्तीक्ष्णैः सुपुङ्खैर्हेममालिनम्।।
5-157-182a
5-157-182b
जघान स पृषध्रं च चन्द्रसेनं च मारिष।
कुन्तिभोजसुतांश्चासौ दशभिर्दश जघ्निवान्।।
5-157-183a
5-157-183b
अस्वत्थामा सुसङ्क्रुद्धः सन्धायोग्रमजिह्मगम्।
मुमोचाकर्णपूर्णेन धनुषा शरमुत्तमम्।
यमदण्डोपमं घोरमुद्दिश्याशु घटोत्कचम्।।
5-157-184a
5-157-184b
5-157-184c
स भित्त्वा हृदयं तस्य राक्षसस्य महाशरः।
विवेश वसुधां शीघ्रं सपुङ्खः पृथिवीपते।।
5-157-185a
5-157-185b
तं हतं पतितं ज्ञात्वा धृष्टद्युम्नो महारथः।
द्रौणेः सकाशाद्राजेन्द्र व्यपनिन्ये रथोत्तमम्।।
5-157-186a
5-157-186b
ततः पराङ्मुखनृपं सैन्यं यौधिष्ठिरं नृप।
पराजित्य रणे वीरो द्रोणपुत्रो ननाद ह।
पूजितः सर्वभूतेषु तव पुत्रैश्च भारत।।
5-157-187a
5-157-187b
5-157-187c
अथ शरशतभिन्नकृत्तदेहै--
र्हतपतितैः क्षणदाचरैः समन्तात्।
निधनमुपगतैर्मही कृताऽभू--
द्गिरिशिखरैरिव दुर्गमाऽतिरौद्रा।।
5-157-188a
5-157-188b
5-157-188c
5-157-188d
तं सिद्धगन्धर्वपिशाचसङ्घा
नागाः सुपर्णाः पितरो वयांसि।
रक्षोगणा भूतगणाश्च द्रौणि--
मपूजयन्नप्सरसः सुराश्च।।
5-157-189a
5-157-189b
5-157-189c
5-157-189d
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि
चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 157 ।।

[सम्पाद्यताम्]

5-157-9 तारेणोच्चस्वरेण।। 5-157-19 कृष्णचरणैः कृष्णयोश्चरणैः।। 5-157-40 द्रोणमभिधावन्तं बीभत्सुं दृष्ट्वा यौधिष्ठिरं बलं तत्सैन्यं द्रोणसैन्यम्प्रति पुनः सन्न्यवर्ततेति सम्बन्धः।। 5-157-58 कार्ष्णायसं तीक्ष्णलोहमयम्।। 5-157-59 न हयैर्नापि वारणैर्गजैः किन्तु पिशाचैः।। 5-157-93 गच्छ वत्सेति पुत्रेणेति च भीमसेनसम्बन्धात्। प्रबाधितुं मनः--खेदमुत्पादयितुम्।। 5-157-94 आत्मानमपि हन्यात्किमु पुत्रमतो जीवनार्थी त्वं निवर्तस्वेति भावः।। 5-157-95 आयस्तः कोपितः।। 5-157-132 शारद्वती कृपी। कचरान्बाणान्। खचरं राक्षसम्।। 5-157-136 वसुरुल्बणः अग्निः प्रलयकालिकः।। 5-157-157 सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-156 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-158