महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-078
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अभिमन्युमनुशोच्य विलपन्त्याः सुभद्रायाः कृष्णेनाश्वासनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-78-1x |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः। सुभद्रा पुत्रशोकार्ता विललाप सुदुःखिता।। | 5-78-1a 5-78-1b |
हा पुत्रा मम मन्दायाः कथमेत्यासि संयुगम्। निधनं प्राप्तवांस्तात पितुस्तुल्यपराक्रमः।। | 5-78-2a 5-78-2b |
कथमिन्दीवरश्यामं सुदंष्ट्रं चारुलोचनम्। मुखं ते दृश्यते वत्स गुण्ठितं रणरेणुना।। | 5-78-3a 5-78-3b |
नूनं शूरं निपतितं त्वां पश्यन्त्यनिवर्तिनम्। सुशिरोग्रीवबाह्वंसं व्यूढोरस्कं नतोदरम्।। | 5-78-4a 5-78-4b |
चारूपचितसर्वाङ्गं स्वक्षं शस्त्रक्षताचितम्। भूतानि त्वां निरीक्षन्ते भूमौ चन्द्रमिवोदितम्।। | 5-78-5a 5-78-5b |
शयनीयं पुराऽध्युष्य स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्। भूमावद्य कथं शेषे विप्रविद्धः सुखोचितः।। | 5-78-6a 5-78-6b |
योऽन्वास्यत पुरा वीरो वरस्त्रीभिर्महाभुजः। कथमन्वास्यते सोऽद्य शिवाभिः पतितो मृधे।। | 5-78-7a 5-78-7b |
योऽस्तूयत पुरा हृष्टैः सूतमागधबन्दिभिः। सोऽद्य क्रव्याद्गणैर्घोरैर्विनदद्भिरुपास्येत।। | 5-78-8a 5-78-8b |
पाण्डवेषु च नाथेषु वृष्णिवीरेषु वा विभो। पाञ्चालेषु च वीरेषु हतः केनास्यनाथवत्।। | 5-78-9a 5-78-9b |
`यत्र त्वं केशवे नाथे सत्यनाथो यथा हतः'। अतृप्तदर्शना पुत्र दर्शनस्य तवानघ। मन्दभाग्या गमिष्यामि व्यक्तमद्य यमक्षयम्।। | 5-78-10a 5-78-10b 5-78-10c |
विशालाक्षं सुकेशान्तं चारुवाक्यं सुगन्धि च। तव पुत्र कदा भूयो मुखं द्रक्ष्यामि निर्व्रणम्।। | 5-78-11a 5-78-11b |
धिग्बलं भीमसेनस्य धिक्पार्थस्य धनुष्मताम्। धिग्वीर्यं वृष्णिवीराणां चाञ्चालानां च धिग्बलं।। | 5-78-12a 5-78-12b |
धिक्केकयांस्तथा चेदीन्मत्स्यांश्चैवाथ सृञ्जयान्। ये त्वां रणगतं वीरं न शेकुरभिरक्षितुम्।। | 5-78-13a 5-78-13b |
अद्य पश्यामि पृथिवीं शून्यामिव हतत्विषम्। अभिमन्युमपश्यन्ती शोकव्याकुललोचना।। | 5-78-14a 5-78-14b |
स्वस्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डवीधन्वनः। कथं त्वाऽतिरथं वीरं द्रक्ष्याम्यद्य निपातितम्।। | 5-78-15a 5-78-15b |
एह्येहि तृषितो वत्स स्तनौ पूर्णौ पिबाशु मे। अङ्कमारुह्य मन्दाया ह्यतृप्तायाश्च दर्शने।। | 5-78-16a 5-78-16b |
हा वीर दृष्टो नष्टश्च धनं स्वप्न इवासि मे। अहो ह्यनित्यं मानुष्यं जलबुद्बुदचञ्चलम्।। | 5-78-17a 5-78-17b |
इमां ते तरुणीं भार्यां तवाधिभिरभिप्लुताम्। `उत्तरामुत्तमां जात्या सुशीलां प्रिय भाषिणीम्।। | 5-78-18a 5-78-18b |
शनकैः परिरभ्यैनां स्नुषां मम यशस्विनीम्। सुकुमारीं विशालाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम्।। | 5-78-19a 5-78-19b |
बालपल्लवतन्वङ्गीं मत्तमातङ्गगामिनीम्। बिम्बाधरोष्ठीमबलामभिमन्यो प्रहर्षय।। | 5-78-20a 5-78-20b |
त्वया विना कथं पुत्र जीर्णां पतितमानसाम्'। इमां सन्धारयिष्यामि वृषभादिव धेनुकाम्।। | 5-78-21a 5-78-21b |
अहो ह्यकाले प्रस्थानं कृतवानसि पुत्रक। विहाय फलकाले मां सुगृद्धां तव दर्शने।। | 5-78-22a 5-78-22b |
नूनं गतिः कृतान्तस्य प्राज्ञैरपि सुदुर्विदा। यत्र त्वं केशवे नाथे सङ्ग्रामेऽनाथवद्धतः।। | 5-78-23a 5-78-23b |
यज्वनां दानशीलानां ब्राह्मणानां कृतात्मनाम्। चरितब्रह्मचर्याणां पुण्यतीर्थावगाहिनाम्।। | 5-78-24a 5-78-24b |
कृतज्ञानां वदान्यानां गुरुशुश्रूषिणामपि। सहस्रदक्षिणानां च या गतिस्तामवाप्नुहि।। | 5-78-25a 5-78-25b |
या गतिर्युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्। हत्वारीन्निहतानां च सङ्ग्रामे तां गति व्रज।। | 5-78-26a 5-78-26b |
गोसहस्रप्रदातॄणां क्रतुदानां च या गतिः। नैवेशिकं चाभिमतं ददतां या गतिः शुभा।। | 5-78-27a 5-78-27b |
ब्राह्मणेभ्यः शरण्येभ्यो निधिं निदधतां च या। या चापि न्यस्तदण्डानां तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-28a 5-78-28b |
ब्रह्मचर्येण यां यान्ति मुनयः संशितव्रताः। एकपत्न्यश्च यां यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-29a 5-78-29b |
राज्ञा सुचरितैर्या च गतिर्भवति शाश्वती। चरमाश्रमिणां पुण्यैः सेवितानां पुरः स्थितैः।। | 5-78-30a 5-78-30b |
दीनानुकम्पिनां या च सततं संविभागिनाम्। पैशुन्याच्च निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-31a 5-78-31b |
व्रतिनां धर्मशीलानां गुरुशुश्रूषिणामपि। अमोघातिथिनां या च तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-32a 5-78-32b |
कृच्छ्रेषु या धारयतामात्मानं व्यसनेषु च। गतिः शोकाग्निदग्धानां तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-33a 5-78-33b |
मातापित्रोश्च शुश्रूषां कल्पयन्तीह ये सदा। स्वदारनिरतानां च या गतिस्तामवाप्नुहि।। | 5-78-34a 5-78-34b |
ऋतुकाले स्वकां भार्यां गच्छतां या मनीषिणाम्। परस्त्रीभ्यो निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-35a 5-78-35b |
साम्ना ये सर्वभूतानि पश्यन्ति गतमत्सराः। नारुन्तुदानां क्षमिणां या गतिस्तामवाप्नुहि।। | 5-78-36a 5-78-36b |
मधुमांसान्निवृत्तानां मदाद्दृम्भात्तथाऽनृतात्। परोपतापादन्यायात्तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-37a 5-78-37b |
हीमन्तः सर्वशास्त्रज्ञा ज्ञानतृप्ता जितेन्द्रियाः। यां गतिं साधवो यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक।। | 5-78-38a 5-78-38b |
सञ्जय उवाच। | 5-78-39x |
एवं विलपतीं दीनां सुभद्रां शोककर्शिताम्। अन्वपद्यत पाञ्चाली वैराटिसहितां तदा।। | 5-78-39a 5-78-39b |
सा प्रकामं रुदित्वा च विलप्य च सुदुःखिता। उन्मत्तवत्तदा राजन्विसंज्ञा पतिता क्षितौ।। | 5-78-40a 5-78-40b |
सोपचारस्तु कृष्णस्तां दुःखितां भृशदुःखितः। सिक्त्वाम्भसा समाश्वास्य तत्तदुक्त्वा हितं वचः।। | 5-78-41a 5-78-41b |
विसंज्ञकल्पां रुदतीमपविद्धां प्रवेपतीम्। भगिनीं पुण्डरीकाक्ष इदं वचनमब्रवीत्।। | 5-78-42a 5-78-42b |
सुभद्रे मा शुचः पुत्रं पाञ्चाल्याश्वासयोत्तराम्। गतोऽभिमन्युः प्रथितां गतिं क्षत्रियपुङ्गवः।। | 5-78-43a 5-78-43b |
ये चान्येऽपि कुले सन्ति पुरुषा नो वरानने। सर्वे न ते गतिं यान्ति याऽभिमन्योर्यशस्विनः।। | 5-78-44a 5-78-44b |
कुर्याम तद्वयं कर्म कुर्युर्युत्सुहृदश्च नः। कृतवान्यादृगद्यैकस्तव पुत्रो महारथः।। | 5-78-45a 5-78-45b |
सञ्जय उवाच। | 5-78-46x |
एवमाश्वास्य भगिनीं द्रौपदीमपि चोत्तराम्। पार्थस्यैव महाबाहुः पार्श्वमागादरिन्दमः।। | 5-78-46a 5-78-46b |
ततोऽभ्यनुज्ञाय नृपान्कृष्णो बन्धूंस्तथाऽर्जुनम्। विवेशान्तः पुरे राजंस्ते च जग्मुः स्वमालयम्।। | 5-78-47a 5-78-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।। 78 ।। |
5-78-27 नैवेशिकं सोपकरणं गृहम्। नैवेशिकायेति पाठे गृहाश्रमोन्मुखाय विद्याव्रतस्नाताय। अभिमतं विवाहोपयुक्तम्।। 5-78-28 न्यस्तदण्डानां निरस्ताभिमानानाम्। दण्डो स्त्री लगुडे पुमानित्यु पक्रम्य दमे यमेऽबिमानेचेति मेदिनी।। 5-78-29 एकपत्न्यः पतिव्रताः।। 5-78-78 अष्टसप्ततितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-077 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-079 |