महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-189
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द्रोणार्जुनादीनां सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-189-1x |
ततो दुःशासनः क्रुद्धः सहदेवमुपाद्रवत्। रथवेगेन तीव्रेण कम्पयन्निव मेदिनीम्।। | 5-189-1a 5-189-1b |
तस्यापतत एवाशु भल्लेनामित्रकर्शनः। माद्रीपुत्रः शिरो यन्तुः सशिरस्त्राणमच्छिनत्।। | 5-189-2a 5-189-2b |
नैनं दुःशासनः सूतं नापि कश्चन सैनिकः। कृत्तोत्तमाङ्गमाशुत्वात्सहदेवेन बुद्धवान्।। | 5-189-3a 5-189-3b |
यदा त्वसङ्गृहीतत्वात्प्रयान्त्यश्वा यथासुखम्। ततो दुःशासनः सूतं बुबुधे गतचेतसम्।। | 5-189-4a 5-189-4b |
स हयान्सन्निगृह्याजौ स्वयं हयविशारदः। युयुधे रथिनां श्रेष्ठो लघु चित्रं च सुष्ठु च।। | 5-189-5a 5-189-5b |
तदस्यापूजयन्कर्म स्वे परे चापि संयुगे। हतसूतरथेनाजौ व्यचरद्यदभीतवत्।। | 5-189-6a 5-189-6b |
सहदेवस्तु तानश्वांस्तीक्ष्णैर्बाणैरवाकिरत्। पीड्यमानाः शरैश्चाशु प्राद्रवंस्ते ततस्ततः।। | 5-189-7a 5-189-7b |
स रश्मिषु विषक्तत्वादुत्सर्ज शरासनम्। धनुषा कर्म कुर्वंस्तु रश्मींश्च पुनरुत्सृजत्।। | 5-189-8a 5-189-8b |
छिद्रेष्वेतेषु तं बाणैर्माद्रीपुत्रोऽभ्यवाकिरत्। परीप्संस्त्वत्सुतं कर्णस्तदन्तरमवापतत्।। | 5-189-9a 5-189-9b |
वृकोदरस्ततः कर्णं त्रिभिर्भल्लैः समाहितः। आकर्णपूर्णैरभ्यघ्नद्बाह्वोरुरसि चानदत्।। | 5-189-10a 5-189-10b |
स निवृत्तस्ततः कर्णः सङ्घट्टित इवोरगः। भीममावारयामास विकिरन्निशिताञ्छरान्। ततोऽभूत्तुमुलं युद्धं भीमराधेययोस्तदा।। | 5-189-11a 5-189-11b 5-189-11c |
तौ वृषाविव नर्दन्तौ विवृत्तनयनावुभौ। वेगेन महताऽन्योन्यं संरब्धावभिपेततुः।। | 5-189-12a 5-189-12b |
अभिसंश्लिष्टयोस्तत्र तयोराहवशौण्डयोः। विच्छिन्नशरपातत्वाद्गदायुद्धमवर्तत।। | 5-189-13a 5-189-13b |
गदया भीमसेनस्तु कर्णस्य रथकूबरम्। बिभेद शतधा राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-189-14a 5-189-14b |
ततो भीमस्य राधेयो गदामाविध्य वीर्यवान्। अवासृजद्रथे तां तु बिभेद गदया गदाम्।। | 5-189-15a 5-189-15b |
ततो भीमः पुनर्गुर्वीं चिक्षेपाधिरथेर्गदाम्। तां गदां बहुभिः कर्णः सुपुङ्खैः सुप्रवेजितैः।। | 5-189-16a 5-189-16b |
प्रत्यविध्यत्पुनश्चान्यैः सा भीमं पुनराव्रजत्। व्यालीव मन्त्राभिहता कर्णबाणैरभिद्रुता।। | 5-189-17a 5-189-17b |
तस्याः प्रतिनिपातेन भीमस्य विपुलो ध्वजः। पपात सारथिश्चास्य मुमोह च गदाहतः।। | 5-189-18a 5-189-18b |
स कर्णं सायकानष्टौ व्यसृजत्क्रोधमूर्च्छितः। तैस्तस्य निशितैस्तीक्ष्णैर्भीमसेनो महाबलः।। | 5-189-19a 5-189-19b |
चिच्छेद परवीरघ्नः प्रहसन्निव भारत। ध्वजं शरासनं चैव शरावापं च भारत।। | 5-189-20a 5-189-20b |
कर्णोऽप्यन्यद्धनुर्गृह्य हेमपृष्ठं दुरासदम्। ततः पुनस्तु राधेयो हयानस्य रथेषुभिः। ऋक्षवर्णाञ्जघानाशु तथोभौ पार्ष्णिसारथी।। | 5-189-21a 5-189-21b 5-189-21c |
स विपन्नरथो भीमो नकुलस्याप्लुतो रथम्। हरिर्यथा गिरेः शृङ्गं समाक्रमदरिन्दमः।। | 5-189-22a 5-189-22b |
तथा द्रोणार्जुनौ चित्रमयुध्येतां महारथौ। आचार्यशिष्यौ राजेन्द्र कृतप्रतिकृतौ युधि।। | 5-189-23a 5-189-23b |
लघुसन्धानयोगाभ्यां रथयोश्च रणेन च। मोहयन्तौ मनुष्याणां चक्षूंषि च मनांसि च।। | 5-189-24a 5-189-24b |
उपारमन्त ते सर्वे योधाऽस्माकं परे तथा। विचित्रान्पृतनामध्ये रथमार्गानुदीर्य तौ। | 5-189-25a 5-189-25b |
अन्योन्यमपसव्यं च कर्तुं वीरौ तदेषतुः।। | 5-189-26a |
पराक्रमं तयोर्योधा ददृशुस्ते सुविस्मिताः।। | 5-189-27a |
तयोः समभवद्युद्धं द्रोणपाण्डवयोर्महत्। आमिषार्थे महाराज गगने श्येनयोरिव।। | 5-189-28a 5-189-28b |
यद्यच्चकार द्रोणस्तु कुन्तीपुत्रजिगीषया। तत्तत्प्रतिजघानाशु प्रहसंस्तस्य पाण्डवः।। | 5-189-29a 5-189-29b |
यदा द्रोणो न शक्नोति पाण्डवं स्म विशेषितुम्। ततः प्रादुश्चकारास्त्रमस्त्रमार्गविशारदः।। | 5-189-30a 5-189-30b |
ऐन्द्रं पाशुपतं त्वाष्ट्रं वायव्यमथ वारुणम्। मुक्तंमुक्तं द्रोणचापात्तज्जघान धनञ्जयः।। | 5-189-31a 5-189-31b |
अस्त्राण्यस्त्रैर्यदा तस्य विधिवद्धन्ति पाण्डवः। ततोऽस्त्रैः परमैर्दिव्यैर्द्रोणः पार्थमवाकिरत्।। | 5-189-32a 5-189-32b |
यद्यदस्त्रं स पार्थाय प्रयुङ्क्ते विजिगीषया। तस्यतस्य विघाताय तत्तद्धि कुरुतेऽर्जुनः।। | 5-189-33a 5-189-33b |
स वध्यमानेष्वस्त्रेषु दिव्येष्वपि यथाविधि। अर्जुनेनार्जुनं द्रोणो मनसैवाभ्यपूजयत्।। | 5-189-34a 5-189-34b |
मेने चात्मानमधिकं पृथिव्यामधि भारत। तेन शिष्येण सर्वेभ्यः शस्त्रविद्भ्य परन्तपः।। | 5-189-35a 5-189-35b |
वार्यमाणस्तु पार्थेन तथा मध्ये महात्मनाम्। यतमानोऽर्जुनं प्रीत्या प्रीयते स्मार्जुनेन सः।। | 5-189-36a 5-189-36b |
ततोऽन्तरिक्षे देवाश्च गन्धर्वाश्च सहस्रशः। ऋषयः सिद्धसङ्घाश्च व्यतिष्ठन्त दिदृक्षया।। | 5-189-37a 5-189-37b |
तदप्सरोभिराकीर्णं यक्षगन्धर्वसङ्कुलम्। श्रीमदाकाशमभवद्भूयो मेघाकुलं यथा।। | 5-189-38a 5-189-38b |
तत्रास्मान्तर्हिता वाचो व्यचरन्त पुनः पुनः। द्रोणपार्थस्तवोपेता व्यश्रूयन्त नराधिप।। | 5-189-39a 5-189-39b |
विसृज्यमानेष्वस्त्रेषु ज्वालयस्तु दिशो दश। अब्रुवंस्तत्र सिद्धाश्च ऋषयश्च समागताः।। | 5-189-40a 5-189-40b |
नैवेदं मानुषं युद्धं नासुरं न च राक्षसम्। न दैवं न च गान्धर्वं ब्राह्मणं ध्रुवमिदं परम्।। | 5-189-41a 5-189-41b |
विचित्रमिदमाश्चर्यं न नो दृष्टं न च श्रुतम्। अति पाण्डवमाचार्यो द्रोणं चाप्यति पाण्डवः।। | 5-189-42a 5-189-42b |
नानयोरन्तरं शक्यं द्रष्टुमन्येन केनचित्।। | 5-189-43a |
यदि रुद्रो द्विधाकृत्य युध्येतात्मानमात्मना। तत्र शक्योपमा कर्तुमन्यत्र तु न विद्यते।। | 5-189-44a 5-189-44b |
ज्ञानमेकस्थमाचार्ये ज्ञानं योगश्च पाण्डवे। शौर्यमेकस्थमाचार्ये बलं शौर्यं च पाण्डवे। | 5-189-45a 5-189-45b |
नेमौ शक्यौ महेष्वासौ युद्धे क्षपयितुं परैः। इच्छमानौ पुनरिमौ हन्येतां सामरं जगत्।। | 5-189-46a 5-189-46b |
इत्यब्रुवन्महाराज दृष्ट्वा तौ पुरुषर्षभौ। अन्तर्हितानि भूतानि प्रकाशानि च सर्वशः।। | 5-189-47a 5-189-47b |
`यदा द्रोणं महाराज विशेषयति पाण्डवः'। ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं प्रादुश्चक्रे महामतिः।। | 5-189-48a 5-189-48b |
`तदस्त्रं संहितं राजन्धोररूपं महाहवे'। सन्तापयद्रणे पार्थं भूतान्यन्तर्हितानि च।। | 5-189-49a 5-189-49b |
ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा। `सरितश्च प्रतिस्रोतः प्रवहुर्वै क्षणान्तरम्'। ववौ च विषमो वायुः सागराश्चापि चुक्षुभुः।। | 5-189-50a 5-189-50b 5-189-50c |
ततस्त्रासो महानासीत्कुरुपाण्डवसेनयोः। सर्वेषां चैव भूतानामुद्यतेऽस्त्रे महात्मना।। | 5-189-51a 5-189-51b |
ततः पार्थोऽप्यसम्भ्रान्तस्तदस्त्रं प्रतिजघ्निवान्। ब्रह्मास्त्रेणैव राजेन्द्र ततः सर्वमशीशमत्।। | 5-189-52a 5-189-52b |
यदा न गम्यते पारं तयोरन्यतरस्य वा। ततः सङ्कुलयुद्धेन तद्युद्धं व्याकुलीकृतम्।। | 5-189-53a 5-189-53b |
नाज्ञायत ततः किञ्चित्पुनरेव विशाम्पते। प्रवृत्ते तुमुले युद्धे द्रोणपाण्डवयोर्नृप।। | 5-189-54a 5-189-54b |
`द्रोणो मुक्त्वा रणे पार्थं पाञ्चालानन्वधावत। अर्जुनोपि रणे द्रोणं त्यक्त्वा प्राद्रवयत्कुरून्।। | 5-189-55a 5-189-55b |
शरौघैरथ ताभ्यां तु छायाभूतं महामृधे। तुमलं प्रबभौ राजन्सर्वस्य जगतो भयम्'।। | 5-189-56a 5-189-56b |
शरजालैः समाकीर्णे मेघजालैरिवाम्बरे। नापतच्च ततः कश्चिदन्तरिक्षचरस्तदा।। | 5-189-57a 5-189-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि पञ्चदशदिसयुद्धे एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 189 ।। |
5-189-45 ज्ञानमेकस्थमिति आचार्यो ज्ञानस्य शौर्यस्य चावधिरित्यर्थः। अर्जुनस्तु योगेन बलेन चाधिकः। कृष्णसारथिगाण्डीवदिव्यरथध्वजबुद्भ्यादिभिर्यौवनेन च युक्तत्वात्। तथाच योगबलाभ्यां मार्चार्यसाम्यं प्राप्त इत्यर्थः।। 5-189-57 नापतत् बाणैरन्तरिक्षस्य पूरितत्वादिति भावः।। 5-189-189 एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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