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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-036

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अभिमन्युयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 5-36-1x
सौभद्रस्तद्वचः श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः।
अचोदयत यन्तारं द्रोणानीकाय भारत।।
5-36-1a
5-36-1b
तेन सञ्चोद्यमानस्तु याहियाहीति सारथिः।
प्रत्युवाच ततो राजन्नभिमन्युमिदं वचः।।
5-36-2a
5-36-2b
अतिभारोऽयमायुष्मन्नाहितस्त्वयि पाण्डवैः।
सम्प्रधार्य क्षणं बुद्ध्या ततस्त्वं योद्धुमर्हसि।।
5-36-3a
5-36-3b
आचार्यो हि कृती द्रोणः परमास्त्रे कृतश्रमः।
त्वं तु बालः स बलवान्सङ्ग्रामाणामकोविदः।।
5-36-4a
5-36-4b
ततोऽभिमन्युः प्रहसन्सारथिं वाक्यमब्रवीत्।
सारथे कोन्वयं द्रोणः समग्रं क्षत्रमेव वा।।
5-36-5a
5-36-5b
`व्यवसायो हि मे योद्धुं रणोत्सवसमुद्यतः'।
ऐरावतगतं शक्रं सहामरगणैरहम्।।
5-36-6a
5-36-6b
अथवा रुद्रमीशानं सर्वभूतगणार्चितम्।
योधयेयं रणमुखे न मे क्षत्रेऽद्य विस्मयः।।
5-36-7a
5-36-7b
`यच्चैतत्पश्यसे सूत सयोधाश्वरथद्विपम्'।
तन्ममाद्य द्विषत्सैन्यं कलामर्हति षोडशीम्।।
5-36-8a
5-36-8b
अपि विश्वजितं विष्णुं मातुलं प्राप्य सूतज।
पितरं चार्जुनं युद्धे न भीर्मामुपयास्यति।।
5-36-9a
5-36-9b
सञ्जय उवाच। 5-36-10x
एवमप्युच्यमानः स सारथिस्तं पुनः पुनः।
वीर ते तेन मा युद्धमिति सौभद्रमब्रवीत्'।।
5-36-10a
5-36-10b
अभिमन्युश्च तां वाचं कदर्थीकृत्य सारथेः।
याहीत्येवाब्रवीदेनं द्रोणानीकाय माचिरम्।।
5-36-11a
5-36-11b
ततः सन्नोदयामास हयानाशु त्रिहायनान्।
नातिहृष्टमनाः सूतो हेमभाण्डपरिच्छदान्।।
5-36-12a
5-36-12b
ते प्रेषिताः सुमित्रेण द्रोणानीकाय वाजिनः।
द्रोणमभ्यद्रवन्राजन्महावेगा महाबलाः।।
5-36-13a
5-36-13b
तमुदीक्ष्य तथायान्तं सर्वे द्रोणपुरोगमाः।
अभ्यवर्तन्त कौरव्याः पाण्डवाश्च तमन्वयुः।।
5-36-14a
5-36-14b
सकर्णिकारप्रवरोच्छ्रितध्वजः
सुवर्णवर्माऽऽर्जुनिरर्जुनाद्वरः।
युयुत्सया द्रोणमुखान्महारथान्
समासदत्सिंहशिशुर्यथा द्विपान्।।
5-36-15a
5-36-15b
5-36-15c
5-36-15d
ते विंशतिपदे यत्ताः सम्प्रहारं प्रचक्रिरे।
आसीद्गाङ्ग इवावर्तो मुहूर्तमुदधाविव।।
5-36-16a
5-36-16b
शूराणां युध्यमानानां निघ्नतामितरेतरम्।
सङ्ग्रामस्तुमुलो राजन्प्रावर्तत सुदारुणः।।
5-36-17a
5-36-17b
प्रवर्तमाने सङ्ग्रामे तस्मिन्नतिभयङ्करे।
द्रोणस्य मिषतो व्यूहं भित्त्वा व्यचरदार्जुनिः।।
5-36-18a
5-36-18b
`तदभेद्यमनाधृष्यं द्रोणानीकं सुदुर्जयम्।
भित्त्वार्जुनिरसम्भ्रान्तो विवेशाचिन्त्यविक्रमः'।।
5-36-19a
5-36-19b
तं प्रविष्टं विनिघ्नन्तं शत्रुसङ्घान्महाबलम्।
हस्त्यश्वरथपत्त्यौघाः परिवव्रुरुदायुधाः।।
5-36-20a
5-36-20b
नानावादित्रनिनदैः क्ष्वेडितोत्क्रुष्टगर्जितैः।
हुङ्कारैः सिंहनादैश्च तिष्ठ तिष्ठेति निःस्वनैः।।
5-36-21a
5-36-21b
घोरैर्हलहलाशब्दैर्मागास्तिष्ठैहि मामिति।
असावहममित्रेति प्रवदन्तो मुहुर्मुहुः।।
5-36-22a
5-36-22b
बृंहितैः शिञ्जितैर्हासैः करनेमिस्वनैरपि।
सन्नादयन्तो वसुधामभिदुद्रुवुरार्जुनिम्।।
5-36-23a
5-36-23b
तेषामापततां वीरः शीघ्रयोधी महाबलः।
क्षिप्रास्त्रो न्यवधीद्राजन्मर्मज्ञो मर्मभेदिभिः।।
5-36-24a
5-36-24b
ते हन्यमाना विवशा नानालिङ्गैः शितैः शरैः।
अभिपेतुः सुबहुशः शलभा इव पावकम्।।
5-36-25a
5-36-25b
ततस्तेषां शरीरैश्च शरीरावयवैश्च सः।
सन्तंस्तार क्षितिं क्षिप्रं कुशैर्वेदिमिवाध्वरे।।
5-36-26a
5-36-26b
बद्धगोधाङ्गुलित्राणान्सशरासनसायकान्।
सासिचर्माङ्कुशाभीषून्सतोमरपरश्वथान्।।
5-36-27a
5-36-27b
सगदायोगुडप्रासान्सर्ष्टितोमरपट्टसान्।
सभिण्डिपालपरिघान्यशक्तिवरकम्पनान्।।
5-36-28a
5-36-28b
सप्रतोदमहाशङ्खान्सकुन्तान्सकचग्रहान्।
समुद्गरक्षेपणीयान्सपाशपरिघोपलान्।।
5-36-29a
5-36-29b
सकेयूराङ्गदान्बाहून्हृद्यगन्धानुलेपनान्।
स़ञ्चिच्छेदार्जुनिर्वृत्तांस्त्वदीयानां सहस्रशः।।
5-36-30a
5-36-30b
तैः स्फुरद्भिर्महाराज शुशुभे भूः सुलोहितैः।
पञ्चास्यैः पन्नगैश्छिन्नैर्गरुडेनेव मारिष।।
5-36-31a
5-36-31b
सुनासाननकेशान्तैरव्रणैश्चारुकुण्डलैः।
सन्दष्टौष्ठपुटैः क्रोधात्क्षरद्भिः शोणितं बहु।।
5-36-32a
5-36-32b
सचारुमुकुटोष्णीषैर्मणिरत्नविभूषितैः।
विनालनलिनाकारैर्दिवाकरशशिप्रभैः।।
5-36-33a
5-36-33b
हितप्रियंवदैः काले बहुभिः पुण्यगन्धिभिः।
द्विषच्छिरोभिः पृथिवीं स वै तस्तार फाल्गुनिः।।
5-36-34a
5-36-34b
गन्धर्वनगराकारान्विधिवत्कल्पितान्रथान्।
वीषामुखान्वित्रिवेणून्न्यस्तदण्डकबन्धुरान्।।
5-36-35a
5-36-35b
विजङ्घाकूबरांस्तत्र विनेमींश्र व्यरानपि।
विचक्रोपस्करोपस्थान्भग्नोपकरणानपि।।
5-36-36a
5-36-36b
`समास्थितान्योधवरैर्दान्ताश्वान्साधुसारथीन्।
विपताकाध्वजच्छत्रान्वितूणीरायुधानपि।।
5-36-37a
5-36-37b
प्रपातितोपस्तरणान्हतयोधान्सहस्रशः।
शरैर्विशकलीकुर्वन्दिक्षु सर्वास्वदृश्यत।।
5-36-38a
5-36-38b
पुनर्द्विपान्द्विपारोहान्वैजयन्त्यङ्कुशध्वजान्।
तूणान्वर्माण्यथो कक्ष्या ग्रैवेयांश्च सकम्बलान्।।
5-36-39a
5-36-39b
घण्टाः शुण्डाविषाणाग्राञ्छत्रमालाः पदानुगान्।
शरैर्निशितधाराग्रैः शात्रवाणामशातयत्।।
5-36-40a
5-36-40b
वनायुजान्पार्वतीयान्काम्भोजानथ बाह्लिकान्।
स्थिरवालधिकर्णाक्षाञ्जवनान्साधुवाहिनः।।
5-36-41a
5-36-41b
आरूढाञ्शिक्षितैर्योधैः शक्त्यृष्टिप्रासयोधिभिः।
विध्वस्तचामरमुखान्विप्रविद्धप्रकीर्णकान्।।
5-36-42a
5-36-42b
निरस्तजिह्वानयनान्निष्कीर्णान्त्रयकृद्धनान्।
हतारोहांश्छिन्नघण्टान्क्रव्यादगणमोदकान्।।
5-36-43a
5-36-43b
निकृत्तचर्मकवचाञ्शकृन्मूत्रासृगाप्लुतान्।
निपातयन्नश्ववरांस्तावकान्स व्यरोचत।
एको विष्णुरिवाचिन्त्यं कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।।
5-36-44a
5-36-44b
5-36-44b
तथा निर्माथितं तेन चतुरङ्गबलं महत्।
यथाऽसुरबलं घोरं त्र्यम्बकेन महौजसा।।
5-36-45a
5-36-45b
कृत्वा कर्म रणेऽसह्यं परैरार्जुनिराहवे।
अभिनच्च पदात्योघांस्त्वदीयानेव सर्वशः।।
5-36-46a
5-36-46b
एवमेकेन तां सेनां सौभद्रेण सितैः शरैः।
भृशं विप्रहतां दृष्ट्वा स्कन्देनेवासुरीं चमूम्।।
5-36-47a
5-36-47b
त्वदीयास्तव पुत्राश्च वीक्षमाणा दिशो दश।
संशुष्कास्याश्चलन्नेत्राः प्रस्विन्ना रोमहर्षिणः।।
5-36-48a
5-36-48b
पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये।
गोत्रनामभिरन्योन्यं क्रन्दन्तो जीवितैषिणः।।
5-36-49a
5-36-49b
हतान्पुत्रान्पितॄन्भ्रातॄन्बन्धून्सम्बन्धिनस्तथा।
प्रातिष्ठन्त समुत्सृज्य त्वरयन्तो हयद्विपान्।।
5-36-50a
5-36-50b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि
त्रयोदशदिवसयुद्धे षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।।

5-36-16 विंशतिरिति व्यूहपर्यायः। तदुक्तं। विंशत्यङ्गतया व्यूहो विंशतिर्व्यपदिश्यते इति। विंशतेः पदे रक्षणे। पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माङ्ग्रिवस्तुष्वित्यमरः। तं विशन्तं ततो यत्ता इति क। पाठः। ते विशन्तं मुदा युक्ता इति घ.ङ. पाठः।। 5-36-21 क्ष्वेडितं ध्वनिविशेषः। उत्क्रुष्टमाह्वानम्। गार्जितं हन्यन्तां हन्यन्तामिति वचः।। 5-36-29 कचग्रहोऽङ्कुशः।। 5-36-36 उपस्थो रथक्रोडः।। 5-36-43 यकृत्कालखण्डम्।। 5-36-45 व्यङ्गं तव वलं महत् इति झ.पाठः।। 5-36-36 षट्त्रिंशोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-035 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-037