महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-149
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अर्जुनेन निजशराहतिमोहितं कृपम्प्रति शोचनम्।। 1 ।। सार्जुनेन कृष्णेन युधिष्ठिरमेत्य जयद्रथवधकथनम्।। 2 ।। भीमादीनां युधिष्ठिरसमीपसमागमनम्।। 3 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-149-1x |
तस्मिन्विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना। मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-149-1a 5-149-1b |
`पश्यतां सर्वसैन्यानां मामकानां महारणे। अहन्यत कथं युद्धे सैन्धवः सव्यसाचिना।। | 5-149-2a 5-149-2b |
कथं द्रौणिकृपैर्गुप्तः कर्णेन च महारणे। फल्गुनाग्निमुखं घोरं प्रविष्टः साधु सैन्धवः।। | 5-149-3a 5-149-3b |
तस्मिन्हते महेष्वासे मन्दात्मा स सुयोधनः। भ्रातृबिः सहितः सूत किमकार्षीदनन्तरम्'।। | 5-149-4a 5-149-4b |
सञ्जय उवाच। | 5-149-5x |
सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत। अमर्षवशमापन्नः कृपः शारद्वतस्ततः।। | 5-149-5a 5-149-5b |
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्। द्रौणिश्चाभ्यद्रवद्राजन्रथमास्थाय फल्गुनम्।। | 5-149-6a 5-149-6b |
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ। उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्।। | 5-149-7a 5-149-7b |
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्ध्यां महाभुजः। पीड्यमानः परामार्तिमगमद्रथिनां वरः।। | 5-149-8a 5-149-8b |
सोऽजिघांसुर्गुरुं सङ्ख्ये गुरोस्तनयमेव च। चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 5-149-9a 5-149-9b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणेः शारद्वतस्य च। मन्दवेगानिषूंस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्।। | 5-149-10a 5-149-10b |
तेन नातिभृशं त्रस्तौ विशिखैर्भृशपीडितौ। बहुत्वात्तु परामार्तिं शराणां तावगच्छताम्।। | 5-149-11a 5-149-11b |
अथ शारद्वतो राजन्कौन्तेयशरपीडितः। अवासीदद्रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह।। | 5-149-12a 5-149-12b |
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्। हतोऽयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्।। | 5-149-13a 5-149-13b |
तस्मिन्भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि। अश्वत्थामाप्यपायासीत्पाण्डवेयाद्रथान्तरम्।। | 5-149-14a 5-149-14b |
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्। धिग्धिङ्मामिति चैवोक्त्वा कृपणं पर्यदेवयत्। अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।। | 5-149-15a 5-149-15b 5-149-15c |
पश्यन्निदं महाप्राज्ञः क्षत्ता राजानमुक्तवान्। कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।। | 5-149-16a 5-149-16b |
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः। अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भयम्।। | 5-149-17a 5-149-17b |
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः। तत्कृते ह्यद्य पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।। | 5-149-18a 5-149-18b |
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्। को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।। | 5-149-19a 5-149-19b |
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परमः सखा। एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्बाणपीडितः।। | 5-149-20a 5-149-20b |
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम्। अवसीदन्रथोपस्थे प्राणान्पीडयतीव मे।। | 5-149-21a 5-149-21b |
पुत्रशोकाभितप्तेन शरैरभ्यर्दितेन च। अभ्यस्तो बहुभिर्बाणैर्दशधर्मगतेन वै।। | 5-149-22a 5-149-22b |
`शरार्दितः स हि मया प्रेक्षमाणो महाद्युतिः'। शोचयत्येष नियतं भूयः पुत्रवधाद्धि माम्। कृपणं स्वरथे सन्नं पश्य कृष्ण यथागतम्।। | 5-149-23a 5-149-23b 5-149-23c |
उपाकृत्य तु वै विद्यामाचार्येभ्यो नरर्षभाः। प्रयच्छन्तीह ये कामान्देवत्वमुपयान्ति ते।। | 5-149-24a 5-149-24b |
ये च विद्यामुपादाय गुरुभ्यः पुरुषाधमाः। | 5-149-25a |
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।। | 5-149-25a |
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम्। आचार्यं शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।। | 5-149-26a 5-149-26b |
यत्तत्पूर्वमुपाकुर्वन्नस्त्रं मामब्रवीत्कृपः। न कथञ्चन कौरव्य प्रहर्तव्यं गुराविति।। | 5-149-27a 5-149-27b |
तदिदं वचनं साधोराचार्यस्य महात्मनः। नानुष्ठितं तमेवाजौ विशिखैरभिवर्षता।। | 5-149-28a 5-149-28b |
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने। धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।। | 5-149-29a 5-149-29b |
सञ्जय उवाच। | 5-149-30x |
तथा विलपमाने तु सव्यसाचिनि तं प्रति। *ततो राजन्हृष्टीकेशः संङ्गामशिरसि स्थितम्। तीर्णप्रतिज्ञं बीभत्सुं परिष्वज्यैनमब्रवीत्।। | 5-149-30a 5-149-30b 5-149-30c |
दिष्ठ्या सम्पादिता जिष्णो प्रतिज्ञा महती त्वया। दिष्ट्या विनिहतः पापो वृद्धक्षत्रः सहात्मजः।। | 5-149-31a 5-149-31b |
धार्तराष्ट्रबलं प्राप्य देवसेनापि भारत। सीदेत समरे जिष्णो नात्र कार्या विचारणा।। | 5-149-32a 5-149-32b |
न तं पश्यामि लोकेषु चिन्तयन्पुरुषं क्वचित्। त्वदृते पुरुषव्याघ्र य एतद्योधयेद्बलम्।। | 5-149-33a 5-149-33b |
महाप्रभावा बहवस्त्वया तुल्याधिकापि वा। समेताः पृथिवीपाला धार्तराष्ट्रस्य कारणात्।। | 5-149-34a 5-149-34b |
ते त्वां प्राप्य रणे क्रुद्धा नाभ्यवर्तन्त दंशिताः। तव वीर्यं बलं चैव रुद्रशक्रान्तकोपमम्।। | 5-149-35a 5-149-35b |
नेदृशं शक्नुयात्कश्चिद्रमे कर्तुं पराक्रमम्। यादृशं कृतवानद्य त्वमेकः शत्रुतापनः।। | 5-149-36a 5-149-36b |
एवमेव हते कर्णे सानुबन्धे दुरात्मनि। वर्धयिष्यामि भूयस्त्वां विजितारिं हतद्विषम्।। | 5-149-37a 5-149-37b |
तमर्जुनः प्रत्युवाच प्रसादात्तव माधव। प्रतिज्ञेयं मया तीर्णा विबुधैरपि दुस्तरा।। | 5-149-38a 5-149-38b |
अनाश्चार्यो जयस्तेषां येषां नाथोऽसि केशव। त्वत्प्रसादान्महीं कृत्स्नां संप्राप्स्यति युधिष्ठिरः।। | 5-149-39a 5-149-39b |
तवैष भारो धार्ष्णेय तवैव विजयः प्रभो। वर्धनीयास्तव वयं प्रेष्याश्च मधुसूदन।। | 5-149-40a 5-149-40b |
एवमुक्तस्ततः कृष्णः शनकैर्वाहयन्हयान्। दर्शयामास पार्थाय क्रूरमायोधनं महत्।। | 5-149-41a 5-149-41b |
श्रीकृष्ण उवाच। | 5-149-42x |
प्रार्थयन्तो जये युद्धे प्रथितं च महद्यशः। पृथिव्यां शेरते शूराः पार्थिवास्त्वच्छरैर्हताः।। | 5-149-42a 5-149-42b |
विकीर्णशस्त्राभरणा विपन्नाश्वरथद्विपाः। सञ्छिन्नभिन्नमर्माणो वैक्लव्यं परमं गताः।। | 5-149-43a 5-149-43b |
ससत्वा गतसत्वाश्च प्रभया परया युताः। सजीवा इव लक्ष्यन्ते गतसत्वा नराधिपाः।। | 5-149-44a 5-149-44b |
तेषां शरैः स्वर्णपुङ्खैः शस्त्रैश्च विविधैः शितैः। वाहनैरायुधैश्चैव सम्पूर्णां पश्य मेदिनीम्।। | 5-149-45a 5-149-45b |
वर्मभिश्चर्मभिर्हारैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः। उष्णीषैर्मकुटैः स्रग्भिश्चूडामणिभिरम्बरैः।। | 5-149-46a 5-149-46b |
कण्ठसूत्रैरङ्गदैश्च निष्कैरपि च सप्रभैः। अन्यैश्चाभरणैश्चित्रैर्भाति भारत मेदिनी।। | 5-149-47a 5-149-47b |
[अनुकर्षैरुपासङ्गैः पताकाभिर्ध्वजैस्तथा। उपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरैः।। | 5-149-48a 5-149-48b |
चक्रैः प्रमथितैश्चित्रैरक्षैश्च बहुधा रणे। युगैर्योक्त्रैः कलापैश्च धनुर्भिः सायकैस्तथा।। | 5-149-49a 5-149-49b |
परिस्तोमैः कुथाभिश्च परिघैरङ्कुशैस्तथा। शक्तिभिर्भिण्डिपालैश्च तूणैः शूलैः परश्वथैः।। | 5-149-50a 5-149-50b |
प्रासैश्च तोमरैश्चैव कुन्तैर्यष्टिभिरेव च। शतघ्नीभिर्भुशुण्डीभिः खङ्गैः परशुभिस्तथा।। | 5-149-51a 5-149-51b |
मुसलैर्मुद्गरैश्चैव गदाभिः कुणपैस्तथा। सुवर्णविकृताभिश्च कशाभिर्भरतर्षभ।। | 5-149-52a 5-149-52b |
घण्टाभिश्च गजेन्द्राणां भाण्डैश्च विविधैरपि। स्रग्भिश्च नानाभरणैर्बस्त्रैश्चैव महाधनैः। अपविद्धैर्बभौ भूमिर्ग्रहैर्द्यौरिव शारदी।। | 5-149-53a 5-149-53b 5-149-53c |
पृथिव्यां पृथिवीहेतोः पृथिवीपतयो हताः। पृथिवीमुपगुह्याङ्गैः सुप्ताः कान्तामिव प्रियाम्।। | 5-149-54a 5-149-54b |
इमांश्च गिरिकूटाभान्नागानैरावतोपमान्। क्षरतः शोणितं भूरि शस्त्रच्छेददरीमुखैः। दरीमुखैरिव गिरीन्गैरिकाम्बुपरिस्रवान्।। | 5-149-55a 5-149-55b 5-149-55c |
तांश्च बाणहतान्वीर पश्य निष्टनतः क्षितौ। हयांश्च पतितान्पश्य स्वर्णभाण्डविभूषितान्।। | 5-149-56a 5-149-56b |
गन्धर्वनगराकारान्रथांश्च निहतेश्वरान्। छिन्नध्वजपताकाक्षान्विचक्रान्हतसारथीन्।। | 5-149-57a 5-149-57b |
निकृत्तकूबरयुगान्भग्नेषान्बन्धुरान्प्रभो। पश्य पार्थ हयान्भूमौ विमानोपमदर्शनान्।। | 5-149-58a 5-149-58b |
पत्तींश्च निहतान्वीर शतशोऽथ सहस्रशः। धनुर्भृतश्चर्मभृतः शयानान्रुधिरोक्षितान्।। | 5-149-59a 5-149-59b |
महीमालिङ्ग्य सर्वाङ्गैः पांसुध्वस्तशिरोरुहान्। पश्य योधान्महाबाहो त्वच्छरैर्भिन्नविग्रहान्।। | 5-149-60a 5-149-60b |
निपातितद्विपरथाजिसङ्कुल-- मसृग्वसापिशितसमृद्धकर्दमम्। निशाचरश्ववृकपिशाचमोदनं महीतलं नरवर पश्य दुर्दृशम्।। | 5-149-61a 5-149-61b 5-149-61c 5-149-61d |
इदंमहत्त्वय्युपपद्यते प्रभो रणाजिरे कर्म यशोऽभिवर्धनम्। शतक्रतौ चापि च देवसत्तमे महाहवे जघ्नुषि दैत्यदानवान्।।] | 5-149-62a 5-149-62b 5-149-62c 5-149-62d |
सञ्जय उवाच। | 5-149-63x |
एवं सन्दर्शयन्कृष्णो रणभूमिं किरीटिने। स्वैः समेतः समुदितैः पाञ्चजन्यं व्यनादयत्।। | 5-149-63a 5-149-63b |
`सात्यकिः पार्थमभ्यायाद्भीमसेनश्च पाण्डवः। युधामन्यूत्तमौजौ च पाञ्चालस्यात्मजावुभौ।। | 5-149-64a 5-149-64b |
ते निवार्य शरैर्द्रौणिं कर्णं च सह भूमिपैः। आगच्छन्रथिनश्चैव यत्र राजा युधिष्ठिरः'।। | 5-149-65a 5-149-65b |
स दर्शयन्नेव किरीटिनेऽरिहा जनार्दनस्तामरिभूमिमञ्जसा। अजातशत्रुं समुपेत्य पाण्डवं निवेदयामास हतं जयद्रथम्।। | 5-149-66a 5-149-66b 5-149-66c 5-149-66d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 149 ।। |
5-149-9 अजिघांसुर्हन्तमनिच्छन्। आचार्यकं गुरोः सम्मानम्।। 5-149-12 अवासीददवसन्नः।। 5-149-16 इदं कुलक्षयगुरुद्रोहादिकम्।। 5-149-18 शरतल्पगतं शरपञ्जरगतम्।। 5-149-22 अभ्यस्तोऽसकृन्निहतः। दशधर्मगतेन दुरवस्थागतेन।। 5-149-23 शोचयति शोकं कारयति। एष द्रोणः। भूयोऽधिकं पुत्रवधात्।। 5-149-24 उपाकृत्य अधीत्य।। 5-149-27 उपाकुर्वन् आध्यापयन्।। 5-149-* ततो राजन्हृषीकेश इत्यादि महाप्रभावा बहवस्त्वया तुल्याधिकापि वा इत्यन्ताः सार्धचत्वारः श्लोकाः झ. पुस्तके 146 तमाध्यायस्य 25 तमश्लोकादुपरि विद्यन्ते। 5-149-48 कुण्डलिताः श्लोकाः झ.पुस्तक एव दृश्यन्ते।। 5-149-149 एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-148 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-150 |