महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-107
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सङ्कुलयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-107-1x |
बृहत्क्षत्रमथायान्तं केकयं दृढविक्रमम्। क्षेमधूर्तिर्महाराज विव्याधोरसि मार्गणैः।। | 5-107-1a 5-107-1b |
बृहत्क्षत्रस्तु तं राजा नवत्या नतपर्वणाम्। आजघ्ने त्वरितो राजन्द्रोणानीकबिभित्सया।। | 5-107-2a 5-107-2b |
क्षेमधूर्तिस्तु सङ्क्रुद्धः केकयस्य महात्मनः। धनुश्चिच्छेद भल्लेन पीतेन निशितेन ह।। | 5-107-3a 5-107-3b |
अथैनं छिन्नधन्वानं शरेणानतपर्वणा। विव्याध समरे तूर्णं प्रवरं सर्वधन्विनाम्।। | 5-107-4a 5-107-4b |
अथान्यद्धनुरादाय बृहत्क्षत्रो हसन्निव। व्यश्वसूतरथं चक्रे क्षमदूर्तिं महारथम्।। | 5-107-5a 5-107-5b |
ततोऽपरेण भल्लेन पीतेन निशितेन च। जहार नृपतेः कायाच्छिरोऽज्वलितकुण्डलम्।। | 5-107-6a 5-107-6b |
तच्छिन्नं सहसा तस्य शिरः कुञ्चितमूर्धजम्। सकिरीटं महीं प्राप्य बभौ ज्योतिरिवाम्बरात्।। | 5-107-7a 5-107-7b |
तं निहत्य रणे हृष्टो बृहत्क्षत्रो महारथः। सहसाऽभ्यपतत्सैन्यं तावकं पार्थकारणात्।। | 5-107-8a 5-107-8b |
धृष्टकेतुं तथाऽऽयान्तं द्रोणहेतोः पराक्रमी। वीरधन्वा महेष्वासो वारयामास भारत।। | 5-107-9a 5-107-9b |
तौ परस्परमासाद्य शरदंष्ट्रौ तरस्विनौ। शरैरनेकसाहस्रेरन्योन्यमभिजघ्नतुः।। | 5-107-10a 5-107-10b |
तावुभौ नरशार्दूलौ युयुधाते परस्परम्। महावने तीव्रमदौ वारणाविव यूथपौ।। | 5-107-11a 5-107-11b |
गिरिगह्वरमासाद्य शार्दूलाविव रोषितौ। युयुधाते महावीर्यौ परस्परजिघांसया।। | 5-107-12a 5-107-12b |
तद्युद्धमासीत्तुमुलं प्रेक्षणीयं विशाम्पते। सिद्धचारणसङ्घानां विस्मयाद्भुतदर्शनम्।। | 5-107-13a 5-107-13b |
वीरधन्वा ततः क्रुद्धो धृष्टकेतोः शरासनम्। द्विधा चिच्छेद भल्लेन प्रहसन्निव भारत।। | 5-107-14a 5-107-14b |
तदुत्सृज्य धनुच्छिन्नं चेदिराजो महारथः। शक्तिं जग्राह विपुलां हेमदण्डामयस्मयीम्।। | 5-107-15a 5-107-15b |
तां तु शक्तिं महावीर्यां दोर्भ्यामायस्य भारत। चिक्षेप सहसा यत्तो वीरधन्वरथं प्रति।। | 5-107-16a 5-107-16b |
तया तु वीरघातिन्या शक्त्या त्वभिहतो भृशम्। निर्भिन्नहृदयस्तूर्णं निपपात रथान्महीम्।। | 5-107-17a 5-107-17b |
तस्मिन्विनिहते वीरे त्रैगर्तानां महारथे। बलं तेऽभज्यत विभो पाण्डवेयैः समन्ततः।। | 5-107-18a 5-107-18b |
सहदेवे ततः षष्टिं सायकान्दुर्मुखोऽक्षिपत्। ननाद च महानादं तर्जयन्पाण्डवं रणे।। | 5-107-19a 5-107-19b |
माद्रेयस्तु ततः क्रुद्धो दुर्मुखं च शितैः शरैः। भ्राता भ्रातरमायत्तो विव्याध प्रहसन्निव।। | 5-107-20a 5-107-20b |
तं रणे रभसं दृष्ट्वा सहदेवं महाबलम्। दुर्मुखो नवभिर्बाणैस्ताडयामास भारत।। | 5-107-21a 5-107-21b |
दुर्मुखस्य तु भल्लेन च्छित्त्वा केतुं महाबलः। जघान चतुरो वाहांश्चतुर्भिर्निशितैः शरैः।। | 5-107-22a 5-107-22b |
अथापरेण भल्लेन पीतेन निशितेन ह। चिच्छेद सारथेः कायाच्छिरो ज्वलितकुण्डलम्।। | 5-107-23a 5-107-23b |
क्षुरप्रेण च तीक्ष्णेन कौरव्यस्य महद्धनुः। सहदेवो रणे छित्त्वा तं च विव्याध पञ्चभिः।। | 5-107-24a 5-107-24b |
हताश्वं तु रथं त्यक्त्वा दुर्मुखो विमनास्तदा। आरुरोह रथं राजन्निरमित्रस्य भारत।। | 5-107-25a 5-107-25b |
सहदेवस्ततः क्रुद्धो निरमित्रं महाहवे। जघान पृथुधारेण भल्लेन परवीरहा।। | 5-107-26a 5-107-26b |
स पपात रथोपस्थान्निरमित्रो जनेश्वरः। त्रिगर्तराजस्य सुतो व्यथयंस्तव वाहिनीम्।। | 5-107-27a 5-107-27b |
तं तु हत्वा महाबाहुः सहदेवो व्यरोचत। यथा दाशरथी रामः खरं हत्वा महाबलम्।। | 5-107-28a 5-107-28b |
हाहाकारो महानासीत्त्रिगर्तानां जनेश्वर। राजपुत्रं हतं दृष्ट्वा निरमित्रं महारथम्।। | 5-107-29a 5-107-29b |
नकुलस्ते सुतं राजन्विकर्णं पृथुलोचनम्। मुहूर्ताज्जितवाँल्लोके तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-107-30a 5-107-30b |
सात्यकिं व्याघ्रदत्तस्तु शरैः सन्नतपर्वभिः। चक्रेऽदृश्यं साश्वसूतं सध्वजं पृतनान्तरे।। | 5-107-31a 5-107-31b |
तान्निवार्य शराञ्शूरः शैनेयः कृतहस्तवत्। साश्वसूतध्वजं बाणैर्व्याघ्रदत्तमपातयत्।। | 5-107-32a 5-107-32b |
कुमारे निहते तस्मिन्मागधस्य सुते प्रभो। मागधाः सर्वतो यत्ता युयुधानमुपाद्रवन्।। | 5-107-33a 5-107-33b |
विसृजन्तः शरांश्चैव तोमरांश्च सहस्रशः। मिण्डिपालांस्तथा प्रासान्मुद्रान्मुसलानपि।। अयोधयन्रणे शूराः सात्वतं युद्धदुर्मदम्।। | 5-107-34a 5-107-34b 5-107-34c |
तांस्तु सर्वान्स बलवान्सात्यकिर्युद्धदुर्मदः। नातिकृच्छ्राद्धसन्नेव विजिग्ये पुरुषर्षभः।। | 5-107-35a 5-107-35b |
मागधान्द्रवतो दृष्ट्वा हतशेषान्समन्ततः। बलं तेऽभज्यत विभो युयुधानशरार्दितम्।। | 5-107-36a 5-107-36b |
नाशयित्वा रणे सैन्यं त्वदीयं तु समन्ततः। विधुन्वानो धनुःश्रेष्ठं व्यभ्राजत महायशाः।। | 5-107-37a 5-107-37b |
भज्यमानं बलं राजन्सात्वतेन महात्मना। नाभ्यवर्तत युद्धाय त्रासितं दीर्घबाहुना।। | 5-107-38a 5-107-38b |
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धः सहसोद्वृत्य चक्षुषी। सात्यकिं सत्यकर्माणं स्वयमेवाभिदुद्रुवे।। | 5-107-39a 5-107-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे सप्ताधिकशततमोऽध्यायः।। 107 ।। |
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