महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-176
दिखावट
← द्रोणपर्व-175 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-176 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-177 → |
|
कर्णघटोत्कचयोर्युद्धम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-176-1x |
यत्तद्वैकर्तनः कर्णो राक्षसश्च घटोत्कचः। निशीथे समसज्जेतां तद्युद्धमभवत्कथम्।। | 5-176-1a 5-176-1b |
कीदृशं चाभवद्रूपं तस्य घोरस्य रक्षसः। येन वैकर्तनः कर्णः सङ्ग्रामे तेन निर्जितः।। | 5-176-2a 5-176-2b |
रथश्च कीदृशस्तस्य मायाः सर्वायुधानि च। किम्प्रमाणा हयास्तस्य रथकेतुर्धनुस्तथा।। | 5-176-3a 5-176-3b |
कीदृशं वर्म चैवास्य शिरस्त्राणं च कीदृशम्। पृष्टस्त्वमेतदाचक्ष्व कुशलो ह्यसि सञ्जय।। | 5-176-4a 5-176-4b |
सञ्जय उवाच। | 5-176-5x |
लोहितोक्षो महाकायस्ताम्रास्यो निम्नितोदरः। ऊर्ध्वरोमा हरिश्मश्रुः शङ्कुकर्णो महाहनुः।। | 5-176-5a 5-176-5b |
आकर्णदारितास्यश्च तीक्ष्णदंष्ट्रः करालवान्। सुदीर्घताम्रजिह्वोष्ठो लम्बभ्रूः स्थूलनासिकः।। | 5-176-6a 5-176-6b |
नीलाङ्गो लोहितग्रीवो गिरिवर्ष्मा भयङ्करः। महाकायो महाबाहुर्महाशीर्षो महाबलः।। | 5-176-7a 5-176-7b |
विकृतः परुषस्पर्शो विकचोद्वृद्धपिण्डकः। स्थूलस्फिग्गूढनाभिश्च शिथिलोपचयो महान्।। | 5-176-8a 5-176-8b |
तथैव हस्ताभरणी महामायोऽङ्गदी तथा। उरसाऽधारयन्निष्कमग्निमालां यथाऽचलः।। | 5-176-9a 5-176-9b |
तस्य हेममयं चित्रं बहुरूपाङ्गशभितम्। तोरणप्रतिमं शुभ्रं किरीटं मूर्ध्न्यशोभत।। | 5-176-10a 5-176-10b |
कुण्डले बालसूर्याभे मालां हेममयीं शुभाम्। धारयन्विपुलं कांस्यं कवचं च महाप्रभम्। ताराजालनिभं राजन्पूर्णचन्द्रसमप्रभम्।। | 5-176-11a 5-176-11b 5-176-11c |
कण्ठसूत्रं महच्चापि तपनीयमधारयत्। स तेन विभ्राजत वै सविद्युदिव तोयदः।। | 5-176-12a 5-176-12b |
किङ्किणीशतनिर्घोपं रक्तध्वजपताकिनम्। ऋक्षचर्मावनद्वाङ्गं नल्वमात्रं महारथम्।। | 5-176-13a 5-176-13b |
सर्वायुधवरोपेतमास्थितं ध्वजमालिनम्। अष्टचक्रसमायुक्तं मेघगम्भीरनिःस्वनम्।। | 5-176-14a 5-176-14b |
मत्तमातङ्गसङ्काशा लोहिताक्षा विभीपणाः। कालवर्णासमायुक्ता बलवन्तः शतं हयाः।। | 5-176-15a 5-176-15b |
वहन्तो राक्षसं घोरं वालवन्तो जितश्रमाः। विपुलाभिः सटाभिस्ते हेषमाणा मुहुर्मुहुः।। | 5-176-16a 5-176-16b |
मुखैर्नानाविधाकारैर्वगवन्तो हयोत्तमाः। रथेऽस्य युक्ता गकर्जन्तोऽवहंस्ते राक्षसाधिपम्।। | 5-176-17a 5-176-17b |
राक्षसोऽस्य विरूपाक्षः सूतो दीप्तास्यकुण्डलः। `घोररूपो महाकायः करालो विकृताननः'। रश्मिभिः सूर्यरश्म्याह्वैः सञ्जग्राह हयान्रणे।। | 5-176-18a 5-176-18b 5-176-18c |
स तेन सहितस्तस्थावरुणेन यथा रविः। संसक्त इव चाभ्रेण यथाऽद्रिर्महता महान्।। | 5-176-19a 5-176-19b |
दिवस्पृक्सुमहान्केतुः स्यन्दनेऽस्य समुच्छ्रितः। रक्तोत्तमाङ्गः क्रव्यादो गृध्रः परमभीषणः।। | 5-176-20a 5-176-20b |
वासवाशनिनिर्घोषं दृढज्यमतिविक्षिपन्। व्यक्तं किष्कुपरीणाहं द्वादशारत्नि कार्मुकम्।। | 5-176-21a 5-176-21b |
रथाक्षमात्रैरिपुभिः सर्वाः प्रच्छादयन्दिशः। तस्यां वीरापहारिण्यां निशायां कर्णमभ्ययात्।। | 5-176-22a 5-176-22b |
तस्य विक्षिपतश्चापं रथे विष्टभ्य तिष्ठतः। अश्रूयत धनुर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः।। | 5-176-23a 5-176-23b |
तेन वित्रास्यमानानि तव सैन्यानि भारत। समकम्पन्त सर्वाणि सिन्धोरिव महोर्मयः।। | 5-176-24a 5-176-24b |
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य विरूपाक्षं विभीषणम्। उत्स्मयन्निव राधेयस्त्वरमाणोऽभ्यवारयत्।। | 5-176-25a 5-176-25b |
ततः कर्णोऽभ्ययादेनमस्यन्नस्यन्तमन्तिकात्। मातङ्ग इव मातङ्गं यूथर्षभमिवर्षभः।। | 5-176-26a 5-176-26b |
स सन्निपातस्तुमुलस्तयोरासीद्विशाम्पते। कर्णराक्षसयो राजन्निन्द्रशम्बरयोरिव।। | 5-176-27a 5-176-27b |
तौ प्रगृह्य महावेगे धनुषी भीमनिःस्वने। प्राच्छादयेतामन्योन्यं तक्षमाणौ महेषुभिः।। | 5-176-28a 5-176-28b |
ततः पूर्णायतोत्सृष्टैरिषुभिर्नतपर्वभिः। न्यवारयेतामन्योन्यं कांस्ये निर्भिद्य वर्मणी।। | 5-176-29a 5-176-29b |
तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ। रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्च ततक्षतुः।। | 5-176-30a 5-176-30b |
सञ्छिन्दन्तौ च गात्राणि सन्दधानौ च सायकान्। दहन्तौ च शरोल्काभिर्दुष्प्रेक्ष्यौ च बभूवतुः।। | 5-176-31a 5-176-31b |
तौ तु विक्षतसर्वाङ्गौ रुधिरौघपरिप्लुतौ। विभ्राजेतां यथा वारि स्रवन्तौ गैरिकाचलौ।। | 5-176-32a 5-176-32b |
तौ शराग्रविनुन्नाङ्गौ निर्भिन्दन्तौ परस्परम्। नाकम्पयेतामन्योन्यं यतमानौ महाद्युती।। | 5-176-33a 5-176-33b |
तत्प्रवृत्तं निशायुद्धं चिरं सममिवाभवत्। प्राणयोर्दीव्यतो राजन्कर्णराक्षसयोर्मृधे।। | 5-176-34a 5-176-34b |
तस्य सन्दधतस्तीक्ष्णाञ्छरांश्चासक्तमस्यतः। धनुर्घोषेण वित्रस्ताः स्वे परे च तदाऽभवन्।। | 5-176-35a 5-176-35b |
घटोत्कचं यदा कर्णो विशेषयति नो नृप। ततः प्रादुष्करोद्दिव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः।। | 5-176-36a 5-176-36b |
कर्णेन सन्धितं दृष्ट्वा दिव्यमस्त्रं घटोत्कचः। प्रादुश्चक्रे महामायां राक्षसीं पाण्डुनन्दनः।। | 5-176-37a 5-176-37b |
शूलमुद्गरधारिण्या शैलपादपहस्तया। रक्षसां घोररूपाणां महत्या सेनया वृतः।। | 5-176-38a 5-176-38b |
तमुद्यतमहाचापं दृष्ट्वा ते व्यथिता नृपाः। भूतान्तकमिवायान्तं कालदण्डोग्रधारिणम्।। | 5-176-39a 5-176-39b |
घटोत्कचप्रयुक्तेन सिंहनादेन भीषिताः। प्रसुस्रुवुर्गजा मूत्रं विव्यधुश्च नरा भृशम्।। | 5-176-40a 5-176-40b |
ततोऽश्मवृष्टिरत्युग्रा महत्यासीत्समन्ततः। अर्धरात्रेऽधिकबलैर्विमुक्ता रक्षसां बलैः।। | 5-176-41a 5-176-41b |
आयसानि च चक्राणि भुशुण्ड्यः शक्तितोमराः। पतन्त्यविरलाः शूलाः शतघ्न्यः पट्टसास्तथा।। | 5-176-42a 5-176-42b |
तदुग्रमतिरौद्रं च दृष्ट्वा युद्धं नराधिप। पुत्राश्च तव योधाश्च व्यथिता विप्रदुद्रुवुः।। | 5-176-43a 5-176-43b |
तत्रैकोऽस्तबलश्लाघी कर्णो मानी न विव्यथे। व्यधमच्च शरैर्मायां तां घटोत्कचनिर्मिताम्।। | 5-176-44a 5-176-44b |
मायायां तु प्रहीणायाममर्षाच्च घटोत्कचः। विससर्ज शरान्धोरान्सूत पुत्रं त आविशन्।। | 5-176-45a 5-176-45b |
ततस्ते रुधिराभ्यक्ता भित्त्वा कर्णं महाहवे। विविशुर्धरणीं बाणाः सङ्क्रुद्धा इव पन्नगाः।। | 5-176-46a 5-176-46b |
सूतपुत्रस्तु सङ्क्रद्धो लघुहस्तः प्रतापवान्। घटोत्कचमतिक्रम्य बिभेद दशभिः शरैः।। | 5-176-47a 5-176-47b |
घटोत्कचो विनिर्भिन्नः सूतपुत्रेण मर्मसु। चक्रं दिव्यं सहस्रारमगृह्णाद्व्यथितो भृशम्।। | 5-176-48a 5-176-48b |
क्षुरान्तं बालसूर्याभं मणिरत्नविभूषितम्। चिक्षेपाधिरथेः क्रुद्धो भैमसेनिर्जिघांसया।। | 5-176-49a 5-176-49b |
प्रविद्वमतिवेगेन विक्षिप्तं कर्णसायकैः। अभाग्यस्येव सङ्कल्पस्तन्मोघमपतद्भुवि।। | 5-176-50a 5-176-50b |
घटोत्कचस्तु सङ्क्रुद्धो दृष्ट्वा चक्रं निपातितम्। कर्णं प्राच्छादयद्बाणैः स्वर्भानुरिव भास्करम्।। | 5-176-51a 5-176-51b |
सूतपुत्रस्त्वसम्भ्रान्तो रुद्रोपेन्द्रेन्द्रविक्रमः। घटोत्कचरथं तूर्णं छादयामास पत्रिभिः।। | 5-176-52a 5-176-52b |
घटोत्कचेन क्रुद्धेन गदा हेमाङ्गदा तदा। क्षिप्ता भ्राम्य शरैः साऽपि कर्णेनाभ्याहताऽपतत्।। | 5-176-53a 5-176-53b |
ततोऽन्तरिक्षमुत्पत्य कालमेघ इवोन्नदन्। प्रववर्ष महाकायो द्रुमवर्षं नभस्तलात्।। | 5-176-54a 5-176-54b |
ततो मायाविनं कर्णो भीमसेनसुतं दिवि। मार्गणैरभिविव्याध घनं सूर्य इवांशुभिः।। | 5-176-55a 5-176-55b |
तस्य सर्वान्हयान्हत्वा सञ्छिद्य शतधा रथम्। अभ्यवर्षच्छरैः कर्णः पर्जन्य इव वृष्टिमान्।। | 5-176-56a 5-176-56b |
न चास्यासीदनिर्भिन्नं गात्रे द्व्यङ्गुलमन्तरम्। सोऽदृश्यत मुहूर्तेन श्वाविच्छललितो यथा।। | 5-176-57a 5-176-57b |
न हयान्न रथं तस्य न ध्वजं न घटोत्कचम्। दृष्टवन्तः स्म समरे शरौघैरभिसंवृतम्।। | 5-176-58a 5-176-58b |
स तु कर्णस्य तद्दिव्यमस्त्रमस्त्रेण शातयन्। मायायुद्धेन मायावी सूतपुत्रमयोधयत्।। | 5-176-59a 5-176-59b |
सोऽयोधयत्तदा कर्णं मायया लाघवेन च। अलक्ष्यमाणानि दिवि शरजालानि चापतन्।। | 5-176-60a 5-176-60b |
भैमसेनिर्महामायो मायया कुरुसत्तम। विचचार महाकायो मोहयन्निव भारत।। | 5-176-61a 5-176-61b |
स तु कृत्वा विरूपाणि वदनान्यशुभानि च। अग्रसत्सूतपुत्रस्य दिव्यान्यस्त्राणि मायया।। | 5-176-62a 5-176-62b |
पुनश्चापि महाकायः सञ्छिन्नः शतधा रणे। गतसत्वो निरुत्साहः पतितः खाद्व्यदृश्यत।। | 5-176-63a 5-176-63b |
तं हतं मन्यमानाः स्म प्राणदन्कुरुपुङ्गवाः। अथ देहैर्नवैरन्यैर्दिक्षु सर्वास्वदृश्यत।। | 5-176-64a 5-176-64b |
पुनश्चापि महाकायः शतशीर्षः शतोदरः। व्यदृश्यत महाबाहुर्मैनाक इव पर्वतः।। | 5-176-65a 5-176-65b |
अङ्गुष्ठमात्रो भूत्वा च पुनरेव स राक्षसः। सागरोर्मिरिवोद्वूतस्तिर्यगूर्ध्वमवर्तत।। | 5-176-66a 5-176-66b |
वसुधां दारयित्वा च पुनरप्यु न्यमज्जत। अदृश्यत तदा तत्र पुनरुन्मज्जितोऽन्यतः।। | 5-176-67a 5-176-67b |
सोऽवतीर्य पुनस्तस्थौ रथे हेमपरिष्कृते। क्षितिं खं च दिशश्चैव माययाऽभ्येत्य दंशितः।। | 5-176-68a 5-176-68b |
गत्वा कर्णरथाभ्याशं व्यचरत्कुण्डलाननः। प्राह वाक्यमसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं विशाम्पते।। | 5-176-69a 5-176-69b |
तिष्ठेदानीं क्व मे जीवन्सूतपुत्र गमिष्यसि। युद्धश्रद्धामहं तेऽद्य विनेष्यामि रमाजिरे।। | 5-176-70a 5-176-70b |
इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षं रक्षः क्रूरपराक्रमम्। उत्पपातान्तरिक्षं च जहास च सुविस्तरम्। कर्णमभ्यहनच्चैव गजेन्द्रमिव केसरी।। | 5-176-71a 5-176-71b 5-176-71c |
रथाक्षमात्रेरिषुभिरभ्यवर्षद्धटोत्कचः। | 5-176-72a |
शरवृष्टिं च तां कर्णो दूरात्प्राप्तामशातयत्।। | 5-176-73a |
दृष्ट्वा च विहतां मायां कर्णेन भरतर्षभ। घटोत्कचस्ततो मायां ससर्जान्तर्हितः पुनः।। | 5-176-74a 5-176-74b |
सोऽभवद्गिरिरत्युच्चः शिखरैस्तरुसङ्कटैः। शूलप्रासासिमुसलजलप्रस्रवणो महान्।। | 5-176-75a 5-176-75b |
तमञ्जनचयप्रख्यं कर्णो दृष्ट्वा महीधरम्। प्रपातैरायुधान्युग्राण्युद्वहन्तं न चुक्षुभे।। | 5-176-76a 5-176-76b |
स्मयन्निव ततः कर्णो दिव्यमस्त्रमुदैरयत्। ततः सोऽस्रेण शैलेन्द्रो विक्षिप्तो वै व्यनश्यत।। | 5-176-77a 5-176-77b |
ततः स तोयदो भूत्वा नीलः सेन्द्रायुधो दिवि। अश्मवृष्टिभिरत्युग्रः सूतपुत्रमवाकिरत्।। | 5-176-78a 5-176-78b |
अथ सन्धाय वायव्यमस्त्रमस्त्रविदां वरः। व्यधमत्कालमेघं तं कर्णो वैकर्तनो वृषः।। | 5-176-79a 5-176-79b |
स मार्गणगणैः कर्णो दिशः प्रच्छाद्य सर्वशः। जघानास्त्रं महाराज घटोत्कचसमीरितम्।। | 5-176-80a 5-176-80b |
ततः प्रहस्य समरे भैमसेनिर्महाबलः। प्रादुश्चक्रे महामायां कर्णं प्रति महारथम्।। | 5-176-81a 5-176-81b |
स दृष्ट्वा पुनरायान्तं रथेन रथिनां वरम्। घटोत्कचमसम्भ्रान्तं राक्षसैर्बहुभिर्वृतम्।। | 5-176-82a 5-176-82b |
सिंहशार्दूलसदृशैर्मत्तमातङ्गविक्रमैः। गजस्थैश्च रथस्थैश्च वाजिपृष्ठगतैस्तथा। | 5-176-82a 5-176-83b |
नानाशस्त्रधरैर्घोरैर्नानाकवचभूषणैः।। वृतं घटोत्कचं क्रूरैर्मरुद्भिरिव वासवम्। | 5-176-83a 5-176-84b |
दृष्ट्वा कर्णो महेष्वासो योधयामास राक्षसम्।। घटोत्कचस्ततः कर्णं विद्धा पञ्चभिराशुगैः। | 5-176-84a 5-176-85b |
ननाद भैरवं नादं भीषयन्सर्वपार्थिवान्।। भूयश्चाञ्जलिकेनाथ स मार्गणगणं महत्। | 5-176-85a 5-176-86b |
कर्णहस्तस्थितं चापं चिच्छेदाशु घटोत्कचः।। अथान्यद्धनुरादाय दृढं भारसहं महत्। | 5-176-86a 5-176-87b |
विचकर्ष बलात्कर्ण इन्द्रायुधमिवोच्छ्रितम्।। ततः कर्णो महाराज प्रेषयामास सायकान्। | 5-176-87a 5-176-88b |
सुवर्णपुङ्खाञ्छत्रुघ्नान्खेचरान्राक्षसान्प्रति।। तद्बाणैरर्दितं यूथं रक्षसां पीनवक्षसाम्। | 5-176-88a 5-176-89b |
सिंहेनेवार्दितं वन्यं गजानामाकुलं कुलम्।। विधम्य राक्षसान्बाणैः साश्वसूतगजान्विभुः। | 5-176-89a 5-176-90b |
ददाह भगवान्वह्निर्भूतानीव युगक्षये।। स हत्वा राक्षसीं सेनां शुशुभे सूतनन्दनः। | 5-176-90a 5-176-91b |
पुरेव त्रिपुरं दग्ध्वा दिवि देवो महेश्वरः।। तेषु राजसहस्रेषु पाण्डवेयेषु मारिष। | 5-176-91a 5-176-92b |
नैनं निरीक्षितुमपि कश्चिच्छक्नोति पार्थिव।। ऋते घटोत्कचाद्राजन्राक्षसेन्द्रान्महाबलात्। | 5-176-92a 5-176-93b |
भीमवीर्यबलोपेतात्क्रुद्ध्द्वैवस्वतादिव।। तस्य क्रुद्धस्य नेत्राभ्यां पावकः समजायत। | 5-176-93a 5-176-94b |
महोल्काभ्यां यथा राजन्सार्जिषः स्नेहबिन्दवः।। तलं तलेन संहत्य सन्दश्य दशनच्छदम्। | 5-176-94a 5-176-95b |
रथमास्थाय च पुनर्मायया निर्मितं तदा।। युक्तं गजनिभैर्वाहैः पिशाचवदनैः खरैः। | 5-176-95a 5-176-96b |
स सूतमब्रवीत्क्रुद्धः सूतपुत्राय मां वह।। | 5-176-96a |
स ययौ घोररूपेण रथेन रथिनां वरः। द्वैरथं सूतपुत्रेण पुनरेव विशाम्पते।। स चिक्षेप पुनः क्रुद्धः सुतपुत्राय राक्षसः। | 5-176-97a 5-176-97b 5-176-98b |
अष्टचक्रां महाघोरामशनिं रुद्रनिर्मिताम्।। | 5-176-98a |
द्वियोजनसमुत्सेधां योजनायामविस्तराम्। आयसीं निचितां शूलैः कदम्बमिव केशरैः।। | 5-176-99a 5-176-99b |
तामवप्लुत्य जग्राह कर्णो न्यस्य महद्धनुः। चिक्षेप चैनां तस्यैव स्यन्दनात्सोऽवपुप्लुवे।। | 5-176-100a 5-176-100b |
साश्वसूतध्वजं यानं भस्म कृत्वा महाप्रभा। विवेश वसुधां भित्त्वा सुरास्तत्र विसिस्मियुः।। | 5-176-101a 5-176-101b |
कर्णं तु सर्वभूतानि पूजयामासुरञ्जसा। यदप्लुत्य जग्राह देवसृष्टां महाशनिम्।। | 5-176-102a 5-176-102b |
एवं कृत्वा रणे कर्ण आरुरोह रथं पुनः। ततो मुमोच नाराचान्सूतपुत्रः परन्तपः।। | 5-176-103a 5-176-103b |
अशक्यं कर्तुमन्येन सर्वभूतेषु मानद। यदकार्षीत्तदा कर्णः सङ्ग्रामे भीमदर्शने।। | 5-176-104a 5-176-104b |
स हन्यमानो नाराचैर्धाराभिरिव पर्वतः। गन्धर्वनगराकारः पुनरन्तरधीयत।। | 5-176-105a 5-176-105b |
एवं स वै महाकायो मायया लाघवेन च। अस्त्राणि तानि दिव्यानि जघान रिपुसूदनः।। | 5-176-106a 5-176-106b |
निहन्यमानेष्वस्त्रेषु मायया तेन रक्षसा। असम्भ्रान्तस्तदा कर्णस्तद्रक्षः प्रत्ययुध्यत।। | 5-176-107a 5-176-107b |
ततः क्रुद्धो महाराज भैमसेनिर्महाबलः। चकार बहुधाऽऽत्मानं भीषयाणो महारथान्।। | 5-176-108a 5-176-108b |
ततो दिग्भ्यः समापेतुः सिंहव्याघ्रतरक्षवः। अग्निजिह्वाश्च भुजगा विहगाश्चाप्ययोमुखाः।। | 5-176-109a 5-176-109b |
स कीर्यमाणो विशिखैः कर्णचापच्युतैः शरैः। नागराडिव दुष्प्रेक्ष्यस्तत्रैवान्तरधीयत।। | 5-176-110a 5-176-110b |
राक्षसाश्च पिशाचाश्च यातुधानास्तथैव च। शालावृकाश्च बहवो वृकाश्च विकृताननाः।। | 5-176-111a 5-176-111b |
ते कर्णं क्षपयिष्यन्तः सर्वतः समुपाद्रवन्। अथैनं वाग्भिरुग्राभिस्त्रासयाञ्चिक्रिरे तदा।। | 5-176-112a 5-176-112b |
उद्यतैर्बहुभिर्घोरैरायुधैः शोणितोक्षितैः। तेषामनेकैरेकैकं कर्णो विव्याध सायकैः।। | 5-176-113a 5-176-113b |
प्रतिहत्य तु तां मायां दिव्येनास्त्रेण राक्षसीम्। आजघान हयानस्य शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-176-114a 5-176-114b |
ते भग्ना विक्षताङ्गाश्च भिन्नपृष्ठाश्च सायकैः। वसुधामन्वपद्यन्त पश्यतस्तस्य रक्षसः।। | 5-176-115a 5-176-115b |
स भग्नमायो हैडिम्बिः कर्णं वैकर्तनं तदा। एष ते विदधे मृत्युमित्युक्त्वान्तरधीयत।। | 5-176-116a 5-176-116b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 176 ।। |
5-176-5 निम्नितोदरः निम्नितं पृष्ठवंशसंलग्नमशनहीनस्येवोदरं यस्येत्यर्थः।। 5-176-6 करालवान् उन्नतदन्तचतुष्कः।। 5-176-8 विकचश्चासावुद्वृपिण्डो दृढाङ्गः को मूर्धा यस्य स विकचोद्वृद्धपिण्डकः। शिथिलोपचयः स्फिक्प्रदेशे एव शिथिलः श्लथ उपचयो वृद्धिर्यस्य।। 5-176-13 नल्वो हस्तचतुःशतम्।। 5-176-29 विष्कुर्हस्तस्तन्मितः परीणाहो विस्तारो यस्य। अरत्निर्निरष्टमांशः करः।। 5-176-30 रथः स्यन्दनदेहयोरिति कोशाद्देहानुकूलशक्तिमद्भिरिति वा।। 5-176-35 तस्य घटोत्कचस्या। आसक्तमन्योन्यसंसक्तं यथास्यात्तथाशरानस्यतः।। 5-176-94 उल्काभ्यां सजर्रसमिश्रोल्मुकाभ्याम्। ततो हि दीप्तस्य सर्जरसस्य कणाः सस्नेहत्वात्सार्चिष एव पतन्तीति प्रसिद्धम्।। 5-176-176 षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-175 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-177 |