महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-084
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जयद्रथम्प्रति गच्छताऽर्जुनेन युधिष्ठिररक्षणाय सात्यकिम्प्रति चोदना।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-84-1x |
तथा तु वदतां तेषां प्रादुरासीद्धनञ्जयः। दिदृक्षुर्भरतश्रेष्ठं राजानं ससुहृद्गणम्।। | 5-84-1a 5-84-1b |
तं प्रविष्टं शुभां कक्ष्यामभिवन्द्याग्रतः स्यितम्। तमुत्थायार्जुनं प्रेम्णा सस्वजे पाण्डवर्षभः।। | 5-84-2a 5-84-2b |
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय परिष्वज्य च बाहुना। आशिषः परमाः प्रोच्य स्मयमानोऽभ्यभाषत।। | 5-84-3a 5-84-3b |
व्यक्तमर्जुन सङ्ग्रामे ध्रुवस्ते विजयो महान्। तादृग्रूपा च ते च्छाया प्रसन्नश्च जनार्दनः।। | 5-84-4a 5-84-4b |
सञ्जय उवाच। | 5-84-5x |
तमब्रवीत्ततो जिष्णुर्महदाश्चर्यमुत्तमम्। दृष्टवानस्मि भद्रं ते केशवस्य प्रसादजम्।। | 5-84-5a 5-84-5b |
ततस्तत्कथयामास यथादृष्टं धनञ्जयः। आश्वासनार्थं सुहृदां त्र्यम्बकेण समागमम्।। | 5-84-6a 5-84-6b |
ततः शिरोभिरवनिं स्पृष्ट्वा सर्वे च विस्मिताः। नमस्कृत्य वृषाङ्काय साधुसाध्वित्यथाब्रुवन्।। | 5-84-7a 5-84-7b |
अनुज्ञातास्ततः सर्वे सुहृदो धर्मसूनुना। त्वरमाणाः सुसन्नद्धा हृष्टा युद्धाय निर्ययुः।। | 5-84-8a 5-84-8b |
अभिवाद्य तु राजानं युयुधानाच्युतार्जुनाः। हृष्टा विनिर्ययुस्ते वै युधिष्ठिरनिवेशनात्।। | 5-84-9a 5-84-9b |
रथेनैकेन दुर्धर्षौ युयुधानजनार्दनौ। जग्मतुः सहितौ वीरावर्जुनस्य निवेशनम्।। | 5-84-10a 5-84-10b |
तत्र गत्वा हृषीकेशः कल्पयामास शास्त्रवित्। रथं रथवरस्याजौ वानरर्षभलक्षणम्।। | 5-84-11a 5-84-11b |
स मेघसमनिर्घोषस्तप्तकाञ्चनसप्रभः। बभौ रथवरः क्लृप्तः शिशुर्दिवसकृद्यथा।। | 5-84-12a 5-84-12b |
ततः पुरुषशार्दूलः सज्जं सर्वं न्यवेदयत्। रथं पुरुषसिंहस्य सध्वजं सुपताकिनम्।। | 5-84-13a 5-84-13b |
स तु लोकवरः पुंसां किरीटी हेमवर्मभृत्। चापबाणधरो वाहं प्रदक्षिणमवर्तत।। | 5-84-14a 5-84-14b |
तपोविद्यावयोवृद्धैः क्रियावद्भिर्जितेन्द्रियैः। स्तूयमानो जयाशीर्भिरारुरोह महारथम्।। | 5-84-15a 5-84-15b |
जैत्रैः साङ्ग्रामिकैर्मन्त्रैः पूर्वमेव रथोत्तमम्। अभिमन्त्रितमर्चिष्मानुदयं भास्करो यथा।। | 5-84-16a 5-84-16b |
स रथे रथिनां श्रेष्ठः काञ्चने काञ्चनावृतः। विबभौ विमलोऽर्चिष्मान्मेराविव दिवाकरः। | 5-84-17a 5-84-17b |
अन्वारुरुहतुः पार्थं युयुधानजनार्दनौ। शर्यातेर्यज्ञमायान्तं यथेन्द्रं देवमश्विनौ।। | 5-84-18a 5-84-18b |
अथ जग्राह गोविन्दो रश्मीन्रश्मिविदांवरः। मातलिर्वासवस्येव वृत्रं हन्तुं प्रयास्यतः।। | 5-84-19a 5-84-19b |
स ताभ्यां सहितः पार्थो रथप्रवरमास्थितः। सहितो बुधशुक्राभ्यां तमो निघ्नन्यथा शशी।। | 5-84-20a 5-84-20b |
सैन्धवस्य वधप्रेप्सुः प्रयातः शत्रुपूगहा। सहाम्बुपतिमित्राभ्यां यथेन्द्रस्तारकामये।। | 5-84-21a 5-84-21b |
ततो वादित्रनिर्घोषैर्माङ्गल्यैश्च स्तवैः शुभैः। प्रयान्तमर्जुनं वीरं मागधाश्चैव तुष्टुवुः।। | 5-84-22a 5-84-22b |
सजयाशीः सपुण्याहः सूतमागधनिःस्वनः। युक्तो वादित्रघोषेण तेषां रतिकरोऽभवत्।। | 5-84-23a 5-84-23b |
तमनुप्रवणो वायुः पुण्यगन्धवहः शुभः। ववौ संहर्षयन्पार्थं द्विषतश्चापि शोषयन्।। | 5-84-24a 5-84-24b |
ततस्तस्मिन्क्षणे राजन्विविधानि शुभानि च। प्रादुरासन्निमित्तानि विजयाय बहूनि च।। | 5-84-25a 5-84-25b |
पाण्डवानां त्वदीयानां विपरीतानि मारिष। दृष्ट्वाऽर्जुनो निमित्तानि विजयाय प्रदक्षिणम्। युयुधानं महेष्वासमिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-84-26a 5-84-26b 5-84-26c |
युयुधानाद्य युद्धे मे दृश्यते विजयो ध्रुवः। यथाहीमानि लिङ्गानि दृश्यन्ते शिनिपुङ्गव।। | 5-84-27a 5-84-27b |
सोऽहं तत्र गमिष्यामि यत्र सैन्धवको नृपः। यियासुर्यमलोकाय मम वीर्यं प्रतीक्षते।। | 5-84-28a 5-84-28b |
यथा परमकं कृत्यं सैन्धवस्य वधो मम। तथैव सुमहत्कृत्यं धर्मराजस्य रक्षणम्।। | 5-84-29a 5-84-29b |
स त्वमद्य महाबाहो राजानं परिपालय। यथैव हि मया गुप्तस्त्वया गुप्तो भवेत्तथा।। | 5-84-30a 5-84-30b |
न पश्यामि च तं लोके यस्त्वां युद्धे पराजयेत्। वासुदेवसमं युद्धे स्वयमप्यमरेश्वरः।। | 5-84-31a 5-84-31b |
त्वयि चाहं पराश्वस्तः प्रद्युम्ने वा महारथे। शक्नुयां सैन्धवं हन्तुमनपेक्षो नरर्षभ।। | 5-84-32a 5-84-32b |
मय्यपेक्षा न कर्तव्या गोप्ताऽयं मम केशवः। राज्ञ एव परा गुप्तिः कार्या सर्वात्मना त्वया।। | 5-84-33a 5-84-33b |
न हि यत्र महाबाहुर्वासुदेवो व्यवस्थितः। किञ्चिद्व्यापद्यते तत्र यत्राहमपि च ध्रुवम्।। | 5-84-34a 5-84-34b |
एवमुक्तस्तु पार्थेन सात्यकिः परवीरहा। तथेत्युक्त्वाऽगमत्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः।। | 5-84-35a 5-84-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः।। 84 ।। |
5-84-12 शिशुर्दिवसकृत् बालः सूर्यः।। 5-84-18 यथा च्यवनमश्विनौ इति क.ट.ड.पाठः।। 5-84-26 प्रदक्षिणं छन्दोनुवर्तिनम्।। 5-84-33 अपेक्षा अनुरोधः।। 5-84-84 चतुरशीतितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-083 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-085 |